शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

आधारभूत जानकारी होना आवश्यक है

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



आधारभूत जानकारी होना आवश्यक है


लेकिन अगर सभी में विद्रोह कभी पैदा होता है, खासकर भारत में तब हमारा देश ऐसा क्यों है?

क्योंकि परम्पराओं से विद्रोह के इस अंकुर के पास सैद्धांतिक व्यापकता नहीं होती। समझ नहीं होती। वैकल्पिक अवधारणाएं नहीं होती। यह कूपमंडूकता वैयक्तिकता में ही उलझकर रह जाती और व्यापक सामाजिक परिवर्तनों की आकांक्षा से नाभीनालबद्ध नहीं हो पाती। कमजोर वैयक्तिक प्रयास, मजबूत सामाजिक-राजनैतिक संरचनाओं से टकरा-टकरा कर दम तोड देते हैं।

इतना तो मैं भी मानता हूँ कि गणित में भारत बहुत आगे रहा है और मैं मानता हूँ कि गुलामी ने विकसित नहीं होने दिया क्योंकि सभी गणित की खोजें 1000 के पहले हुई हैं। गुलामी स्वतंत्रता में बाधक और प्रगति में बाधक है, इससे कौन इनकार करेगा? फिर हम पश्चिम की बात अधिक क्यों करते हैं।

विषयगत रूप से कितना आगे रहा है, और वस्तुगतता क्या थी, इसका अध्ययन करना चाहिए। एक समय में यहां की तकनीकी और शुरुआती वैज्ञानिक प्रगति की स्थिति सापेक्षतः काफ़ी बेहतर थी। भौतिकवादी धारा के अंतर्गत लोकायत-चार्वाक दर्शन का विकास भी हो रहा था और चिकित्सा में भी काफ़ी प्रगति यहां की मेधाएं कर रही थीं। नालंदा विश्वविद्यालय का उत्कर्ष था, और शैक्षिक तौर पर भी काफ़ी वैज्ञानिक और तकनीकी विषयों पर काम हो रहा था। यह परवर्ती बुद्धकालीन समय था। फिर विकास बाधित हुआ, यह भी एक कड़ुवा सत्य है। इसके कारणों की पड़ताल का अध्ययन भी करना होगा, समझना होगा। गुलामी की जो अवधारणा हमारे दिमाग़ में है, क्या वैसे हालात तब तक पैदा हो गये थे या नहीं हुए थे ये भी जानना होगा।

अगर नहीं हुए थे, तो फिर और क्या कारण रहे थे जिनके चलते भौतिक-वैज्ञानिक ज्ञान की प्रगति बाधित हुई, और भारत में धार्मिक-आध्यात्मिक चिंतन की काल्पनिक ऊंचाइयां परवान चढ़ी। इन सबके सापेक्ष पश्चिम में क्या चल रहा था? उसका स्तर क्या था? वहां धर्म-चिंतन और विज्ञान के क्षेत्र में क्या चल रहा था? इन सवालों से जूझने के दौरान ही हम समझ पाएंगे कि पश्चिम की बात का मामला क्या है?

कुछ इतिहास और दर्शन-विषयक पुस्तकों से आपको माथापच्ची करनी चाहिए। यह ध्यान में रखें कि इसके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले महानुभावों की पुस्तकें प्राप्त करने की कोशिश करें।  इतिहास और दर्शन को वस्तुपरकता के साथ समझना एक लंबे समय का अध्ययन-मनन उद्यम है। यह इसलिए भी कि यहां काफ़ी घालमेल है, कम तथ्यों से इतिहास की पुनर्रचना करना कष्टसाध्य काम है। इसके विद्वानों के लिए भी, और अध्येताओं के लिए भी।

मेरी समझ में डार्विन का क्रमविकास कम या नहीं के बराबर आता है लेकिन मैं इसे स्वीकार करता हूँ जैसे हवाई जहाज या सापेक्षता के सिद्धान्त को बिना समझे मानता हूँ। क्योंकि यह सम्भव नहीं कि एक मानव अब इतने अधिक और विस्तृत ज्ञान और आविष्कारों की समझ अकेले रख सके और इन बातों के सबूत पर विश्वास कर सके। क्योंकि अब अरस्तू का समय नहीं है कि उपलब्ध जानकारी बहुत कम हो।

कुछ चीज़ों के लिए आपकी बात वाज़िब है, हर जटिल विषयगत वैज्ञानिक सिद्धांतों में विस्तार से पारंगत होना संभव नहीं है। परंतु जितना हो सके, विभिन्न विषयों पर आधारभूत जानकारी होना आवश्यक है, इतना तो हो ही कि कम-से-कम हम उनके अंतर्संबंधों और अपने विश्लेषणों में उन्हें काम में लाने की संभावनाएं पैदा कर सके। बाकी विस्तार से जब भी जरूरत हो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले विशेषज्ञों के कार्यों और सिद्धांतों से संदर्भ प्राप्त किये जा सकते हैं, पर इसके लिए भी इतनी जानकारी प्राप्त करना तो आवश्यक होगा ही कि हमें इनके बारे में पता हो।

कुछ मूलभूत सिद्धांतो के बारे में तो समझ विकसित करनी ही होगी, वैज्ञानिक दृष्टिकोण तो विकसित करना ही होगा, कि किसे माना जाना चाहिए और किसे छोड देना चाहिए। अन्यथा इस मानने में और भाववादी दर्शन जैसे ईश्वर, आत्मा को मानने में कोई अंतर नहीं रह जाता। नये ज्ञान और सूचनाओं को, नई विचारधाराओं को भी हम वैसे ही ओढ़ सकते हैं जैसे कि धर्म और पुरानी विचारधाराओं को ओढ़ा हुआ रहता है और व्यावहारिक क्रियाविधियां हमारी वैसी ही बनी रहती है।



इस बार इतना ही।

आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

गर्व करने वाली मानसिकता

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



गर्व करने वाली मानसिकता

क्या आप मानते हैं कि भारतीय मस्तिष्क पहले ही इतना विकसित था? आखिर नास्तिक दर्शन भी भारत में ही पहले पैदा हुआ था, क्यों? भारत पुराने देशों में से है और जीवित भी है, वजह क्या है? जवाब मेल से देने का कष्ट करेंगे।

इस सवाल में से उसी अंधराष्ट्रीयवाद की गंध आ रही है, जो क्षेत्रीय, जातीय, धार्मिक, नस्लीय श्रेष्ठता की वकालत करते हैं। भारत नाम की राष्ट्रीयता आधुनिक काल की देन है, और इस क्षेत्र की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक उपलब्धियां काफ़ी प्राचीन। यह कई तरह के नस्लीय, जातीय, संस्कृतियों के आवागमन, सम्मिलन, मिश्रण और विकास से संबंधित है।

मानवजाति का विकास, मानव मस्तिष्क का विकास सार्वभौमिक आदानप्रदान और सक्रियता का परिणाम है, जो मुख्यधारा में बने रहे। मुख्यधारा से विलगित, कई आदिवासी समुदायों के सीमित विकास को अभी भी यहीं एक साथ देखा जा सकता है। इसके अलावा मुख्यधारा में ही विभिन्न वर्गों के असमान विकास को भी आसानी से लक्षित किया जा सकता है।

एक जैसी परिस्थितियों ने लगभग एक जैसे ही प्राचीन विश्वास और मान्यताएं पैदा की, और सापेक्षतः अलग परिस्थितियों ने उनमें स्थानीयता का अंतर भी पैदा किया। कमोबेश लगभग आगे-पीछे ही, एक-दूसरों से प्रभावित होते हुए ही दर्शन, विचारधाराओं का विकास हुआ है। इसके लिए हमें मानवजाति की व्यापकता को, उसके इतिहास को, धर्म और दर्शन के इतिहास को वैश्विक व्यापकता और सापेक्षता के साथ पढ़ना और समझना होगा। और भारतीय दर्शन और इतिहास को भी वैश्विक सापेक्षता के साथ देखना और समझना होगा। आपके सवाल इसी जरूरत की आवश्यकता को प्रतिबिंबित कर रहे हैं।

यह सवाल काफ़ी व्यापक परिप्रेक्ष्य को समेटे हुए है। आपको इस संदर्भ में सवालों को थोड़ा विशेष विषयगत करना होगा, ताकि हमें इशारे करने में आसानी होगी।

आपने मेरे सवाल में अंधराष्ट्रवाद की गंध महसूस की है। अभी कल ही आपकी एक पोस्ट पर मैंने नास्तिकता को लेकर शायद रामसेतु मुद्दे पर देखा कि आपने कहा है कि हमारे पास गर्व करने लायक बहुत कुछ होगा। ऐसा तो कहा है आपने, पूछा जा सकता है क्यों?

आपकी इस तात्कालिक प्रतिक्रिया में सिर्फ़ एक प्रतिप्रश्न लक्षित कर पाया हूं, सबसे अंत में। जो कि आपने समय के एक पूर्वकथन के संदर्भ में उठाया है। वह कथन पुनः देखना हुआ, जो इस तरह से था।

"अगर आप वाकई वैज्ञानिक तरीकों से इतिहास और मानवजाति के क्रमविकास को समझना चाहते हैं तो आपकों वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ लिखे इतिहास और ऐतिहासिक समझ से गुजरना पड़ेगा। ना कि तथ्यों और निष्कर्षों का मनचाहा मानसिक जाल बुनकर अपने को तुष्ट करने का रास्ता अख्तियार करना पड़ेगा। और निश्चिंत रहें, उसके बाद भी हमारे पास गर्व करने के लिए काफ़ी सामग्री होगी साथ ही ढ़ेर सारे सबक भी होंगे जिनसे भविष्य को संवारने का उचित रास्ता निकाल सकने की असीम संभावनाएं भी मौजूद रह सकें।"

उपरोक्त कथन इसी गर्व करने वाली मानसिकता के संदर्भ में लिखा गया है, इसी में इसका सही परिप्रेक्ष्य भी उपलब्ध है। इतिहास की मनचाही व्याख्या करके, उससे अपने गर्व को झूठी तसल्ली देने के बजाए, इतिहास को वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ समझने पर ही वह वास्तविक सामग्री सामने आ सकती है जिसके मानवजाति की अद्यतन स्थिति के सापेक्ष तुलना करने पर हमें अपने अतीत और अपनी परंपराओं में सच्चा गर्व महसूस करने के वास्तविक आधार निर्मित किए जा सकें। साथ ही बेहतर भविष्य रच सकने के लिए ढेर सारे सबक भी। बस यही मंतव्य है, जो यहां स्पष्ट है ही।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

राष्ट्र की अवधारणा

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



राष्ट्र की अवधारणा


अब हम राष्ट्र का सिद्धान्त बिना माने कैसे छोड़ सकते हैं। इसकी आवश्यकता नहीं है?  मेरी बातों में अंधराष्ट्रवाद अगर लगा तो यह राष्ट्रवाद क्या है?  क्या राष्ट्रवाद लाभकारी नहीं? मैं मानता हूँ किसी द्वेष के बिना यह होना चाहिए।

शायद आप राष्ट्र की अवधारणा को सुनिश्चित करना चाहते हैं। इस पर काफ़ी विद्वानों द्वारा काफ़ी कुछ कहा जा चुका है, आप देखिए और इसे समझिए। एक नज़र यहां भी डाल लेते हैं।

मानव-समुदाय अपने प्रारंभिक रूपों, रक्त-संबंधों से उत्पन्न हुए गोत्र तथा कबीलों के रूप में सहजीवन किया करते थे। उत्पादक शक्तियों के विकास तथा विनिमय-व्यापार में वृद्धि के कारण धीरे-धीरे रक्त संबंधों की अपेक्षा क्षेत्रीय संबंध अधिक महत्त्वपूर्ण होते चले गए और इसके परिणामस्वरूप जातियों तथा बाद में राष्ट्रों का आविर्भाव हुआ।

एक क्षेत्र में दीर्घकालीन सामुदायिक निवास, साझी भाषा तथा रीति-रिवाज़ बड़े जनसमुदायों की ऐतिहासिक नियति को सूत्रबद्ध करते हैं, एक सा चरित्र निरूपित करते हैं और एक समान संस्कृति के निर्माण में योग देते हैं। इस प्रकार जाति का निर्माण होता है ( इस अवधारणा को आपको भारतीय परिप्रेक्ष्य में श्रम-विभाजन के फलस्वरूप पनपने वाली शाब्दिक रूप से ‘जाति’ की अवधारणा से थोड़ा भिन्न देखना होगा )। दासप्रथा काल और सामंतवादी युग में जातियों का आविर्भाव हुआ। जैसे कि, प्राचीन मिस्री, यूनानी, रोमन जातियां, सामंतवादी युग में पश्चिमी यूरोपीय जातियां, पूर्वी स्लाव क़बीलों से रूसी जाति, भारतीय वैदिक आर्य-जाति।

जाति, समुदाय का अस्थिर रूप है। कई प्राचीन जातियों का कालांतर में विघटन हुआ, कुछ जातियों ने अन्य भिन्न जातियों का सूत्रपात किया। जाति के अस्थिर होने का कारण यह है कि उसके पास एकीकृत अर्थव्यवस्था नहीं होती, एकसमान संस्कृति के स्थानीय रूपों में बड़ा अंतर होता है और भाषा एक न रहकर स्थानीय बोलियों में बंट जाती है।

पूंजीवादी संबंधों के विकास के साथ जातियां राष्ट्र के रूप में उभरती हैं। पूंजीवाद स्थानीय सीमाओं को तोड़ डालता है, एक या अनेक जातियों को समान आर्थिक जीवन के बंधनों से आपस में सूत्रबद्ध करता है। क्षेत्रीय एकत्व के अलावा आर्थिक एकत्व भी उत्पन्न होता है और इस आधार पर समान राष्ट्रीय संस्कृति का आविर्भाव होता है, राष्ट्रीय चेतना और देशभक्ति की भावना का विकास होता है।

राष्ट्र लोगों की स्थायी समष्टि को कहते हैं, जिन्हें आर्थिक, क्षेत्रीय, भाषाई, सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक संबंध एकजुट करते हैं।

बात ऐसी ही है, परंतु कुछ सिद्धांतकार राष्ट्र की इस अवधारणा को इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों में नहीं देखकर, इसे नस्ली लक्षणों के, धर्म के आधार पर व्याख्यायित करते हैं। इसी प्रवृति को आप फ़ासिस्टों, नाज़ियों की आर्य नस्ल की श्रेष्ठता के मानवद्वेषी सिद्धांतों में और इसी तरह के भारत में हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी शक्तियों के धार्मिक हिंदू-राष्ट्रवादी सिद्धांत में देख सकते हैं।

इतिहास बताता है कि राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में नस्ली, या धार्मिक लक्षण मुख्य भूमिका अदा नहीं करते। लैटिन अमरीका में कई देशों में तीन नस्लों के लोगों से एक राष्ट्र का निर्माण हुआ है। उत्तर अमरीकी राष्ट्र में गोरे लोगों के साथ नीग्रों भी शामिल हैं। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के उपनिवेश से स्वतंत्रता के संघर्षों में भारतीय राष्ट्रीयता धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि से ऊपर उठकर ही विकसित हुई। ये बात अलग है कि ये सवाल और इनके अंतर्विरोध साथ-साथ चल रहे थे, इसीलिए स्वतंत्रता के सामूहिक लक्ष्य की प्राप्ति के पश्चात कई संबंधित समूहों में अभी भी ये सवाल अहम बने हुए हैं, बनाए रखे हुए हैं।

राष्ट्रीय संबंधों के विकास के लिए दो प्रवृत्तियां लाक्षणिक होती हैं। पहली प्रवृत्ति राष्ट्रीय है, यानि लोगों के ऐतिहासिक समुदाय के रूप में राष्ट्र की चेतना का जागरण, राजनीतिक तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता पाने, सृजनात्मक शक्तियों का विकास करने, साझी संस्कृति का उत्थान करने की इच्छा। दूसरी प्रवृत्ति अंतर्राष्ट्रीय होती है, यानि राष्ट्रों के बीच संबंध बढ़ाने, बाधाएं हटाने, अर्थव्यवस्था, संस्कृति और समूचे सामाजिक जीवन का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की प्रवृत्ति। अंततः इन दोनों प्रवृत्तियों से मानव सभ्यता की प्रगति में योग मिलता है। परंतु अभी की साम्राज्यवादी शक्तियां इन दो शक्तिशाली धाराओं को आपस में मिलने न देने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाती हैं। अपनी स्वार्थ-सिद्धी के लिए राष्ट्रीय चेतना तथा भावनाओं का उपयोग करने के लिए कुछ राष्ट्रों के अन्य जातियों से श्रेष्ठ होने का प्रचार करती हैं, विभिन्न राष्ट्रों के संकीर्ण-राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रश्रय देती हैं उन्हें भड़काती हैं।

राष्ट्रवाद की भूमिका, अपनी स्वतंत्रता के लिए, साम्राज्यवादी आधिपत्य के विरुद्ध संघर्षरत उत्पीडित जातियों के राष्ट्रवादी आंदोलन में प्रगतिशील होती है। मगर अनुभव से पता चलता है कि बाद में यह अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के दृढीकरण में, संपूर्ण मानवजाति की प्रगति की राह में बाधा बनकर खड़ी हो जाती है, और सत्ताधारी वर्ग अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए इसका दुरुपयोग करते हैं। कई देशों में तो सरकारें इसी राष्ट्रीयता विरोध के भावनात्मक ज्वार में अपने -आपको बनाए रखने में सहूलियत महसूस करती हैं, दूसरे देशों के साथ अपने तनावों को बना कर युद्ध की स्थितियां सी बनाए रखती हैं, इससे राष्ट्रीय-भावना को उभारकर अपनी सत्ता को दूसरे सवालों से अक्षुण्ण बनाए रखती हैं। आप इसे भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में समझ सकते हैं।

यानि राष्ट्रवाद को संकीर्ण अर्थों में ना लेकर, इसे सभी धार्मिक, क्षेत्रीय, भाषाई सवालों से ऊपर उठकर एक राष्ट्रीय चेतना के निर्माण, राजनीतिक तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता पाने, सृजनात्मक शक्तियों का विकास करने, साझी संस्कृति का उत्थान करने की दिशा में लक्षित होना चाहिए। जो कि अंततः अंतर्राष्ट्रीयकृत साम्राज्यवाद के विरुद्ध लक्षित संघर्षों के अंतर्राष्ट्रीयकरण से हमसाया हो सके, और एक शोषण रहित अंतर्राष्ट्रीय मानव संस्कृति का निर्माण संभव हो सके।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

प्रेम व्यापक होता है और व्यापकता देता है

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



प्रेम व्यापक होता है और व्यापकता देता है

लेकिन इससे पता चलता है कि लैला-मजनू जैसे किस्से सम्भव नहीं हैं क्योंकि प्रेम अस्थायी होगा ही। कुछ समय के लिए वह भले रहे या बना रहे लेकिन उसे समाप्त होना ही है।

प्रेम के आधार यदि वस्तुगत ( objective ) नहीं है, यदि वह काल्पनिकता के आसमान पर परवान चढ़ाया हुआ है, कोरी भावुकता से परिपूर्ण है, तभी हम कह सकते हैं कि प्रेम अस्थायी होगा, उसे वास्तविकता की कठोर ज़मीन पर आते ही समाप्त होना ही होगा।

प्रेम का होना बहुत जरूरी है। प्रेम ही है जो मनुष्य को अपने अस्तित्व का, अपनी जिम्मेदारियों का अहसास कराता है। उसे विशुद्ध मानवीयता का पहला पाठ पढ़ाता है, परंपराओं और यथास्थिति से विद्रोह सिखाता है, दुनिया को और बेहतर बनाए जाने की आकांक्षाओं और जुंबिशों से भर देता है। यदि प्रेम वास्तविकता के वस्तुगत आधारों पर परवान चढ़ता है, तो वह इसे सारी मानवता के दायरे तक विस्तार देता है। एक के प्रति प्रेम का अहसास, सभी के प्रति प्रेम के अहसासों से मनुष्य को भर देता है। वह सही मायने में तभी मनुष्य बनने की राह में कदम बढ़ा सकता है। सही समझ के साथ, प्रेम व्यापक होता है, और मनुष्य को व्यापकता देता है

हमारा मंतव्य प्रेम के वस्तुगत आधारों को समझने और समझाने का था, इसे सही राह दिखाने का था। ना कि इसके नकार के प्रतिमान रचना।

आपने प्रेम के मामले में कहा था कि किसी को किसी की मासूमियत पर तो किसी को खास तरह की मुस्कुराहट पर या किसी को अंग विशेष की बनावट पर दिल आ जाता है.......इस खास किस्म की पसन्द के पीछे की प्रक्रिया क्या है? यानी क्यों किसी को किसी खास किस्म की विशेषता पसन्द है? जैसे मान लेते हैं कि हमें हरा रंग अच्छा लगता है, तो हरा ही क्यों? कैसे? इसके पीछे का कारण? या फिर भोजन के मामले में खास तरह की सब्जी ही क्यों पसंद होती है या नहीं भी होती है? यह तो लगता है कि यह दीर्घकालीन संचय है। धीरे-धीरे ऐसा व्यवहार हमारे अचेतन में जमा हो जाता होगा, शायद ऐसा होता हो। इस पर आप ही सुझाएंगे।

हमने पहले यह कहा था, "यानि कि मनुष्य यदि दस व्यक्तियों को अपने सामने खड़ा करके किसी एक का चुनाव सांयोगिक रूप से करता हुआ लगता हो, और यह प्रश्न खड़ा होता हो कि वही क्यों? तो हमें यह समझना होगा कि चुनाव की इस सांयोगिकता के पीछे उस व्यक्ति के सौदर्यबोध के अपने मानदंड़ ( standards ) और अंतर्संबधों के बारे में उसकी मान्यताएं जाने-अनजाने पीछे से महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं निभा रही होती हैं।"

यहां साफ़ बात है कि व्यक्ति के इस संदर्भ में अपने विशिष्ट मानदंड और मान्यताएं विकसित हो जाती हैं। आप जानना चाह रहे हैं कि ये कैसे विकसित हो जाते हैं? आपने जो सुझाया बात लगभग वैसी ही है, यानि कि व्यवहार का, सक्रियता का, परिवेश के साथ अंतर्गुथन का दीर्घकालीन अनुकूलन। हमारे उपलब्ध परिवेश के साथ अंतर्क्रियाओं में यह अनुकूलन हमें उसका अभ्यस्त बनाता है और हम वैसी ही परिस्थितियों में सहज महसूस करते हैं, अच्छा महसूस करते हैं। इसलिए हमें हमारे परिवेश की चीज़ों की खास बुनावट, आकार, अन्य गुणधर्मों के प्रति एक खास क़िस्म का अनुराग पैदा हो जाता है, उसके पीछे होता यह है कि परिचित, अभ्यस्त बुनावट हमें सहज रखती है जबकि अपरिचित बुनावट हमारा ध्यान बांटती है, हमें उत्तेजित करती है, सहज नहीं रहने देती।

आगे बढ़ते हैं, जैसे कि मान लेते हैं किसी को अपनी मां से विशेष स्नेह है, सभी को होता है, मां एक विशेष अंदाज़ में मुस्कुराती है, मां के आंचल के सुरक्षाबोध के साथ, स्नेह और अपनत्व के साथ, सुक़ून के अहसास के साथ वह विशेष मुस्कुराहट उसकी चेतना में इतना घुलमिल जाती है कि धीरे-धीरे सिर्फ़ वह मुस्कुराहट ही इन सभी अहसासों का भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने लगती है। मतलब कि उस मुस्कुराहट को देखते ही, दिमाग़, मन इन्हीं भावनाओं और अहसासों ( सुरक्षा, स्नेह, अपनत्व, सुक़ून आदि ) की अवस्था में आ जाता है और वह मुस्कुराहट इन सबका पर्याय बनती जाती है। अब यह विशेष मुस्कुराहट यदि और भी कहीं उसे देखने को मिलती है, यानि अपनी मां से अलग, किसी और के चहरे पर, तो वहां भी उसके मानस में यही अहसास पैदा होते हैं। जाहिर है, जिसके चहरे पर ये मुस्कान की यह विशिष्ट अदा होगी वह उसे अच्छा लगेगा, पसंद आएगा। वह उसके अंदर वैसे ही व्यक्तित्व की आशा से भर उठेगा।

बाकी सौन्दर्यबोधों को भी ऐसे ही समझा जा सकता है। रंगों और स्वादों के मामलों को भी। बचपन से ही हरे रंग के बीच पला-बढ़ा बच्चा उसी रंग के साथ सहजता और सुक़ून महसूस करता है और वह उसकी पसंद बन जाता है। दादी द्वारा चूल्हे पर दाल पर हींग और लहसुन के छौंक की गंध उसके मानस पर और उसकी स्मृति में इस तरह समा जाती है कि वह हमेशा उसी तरह की प्रिय लगने वाली गंध और स्वाद के लिए हमेशा लालायित रह सकता है। एक विशेष परिवेश में पले व्यक्ति में बचपन से ही चिकन करी की गंध और स्वाद उसकी पसंद से इस तरह नाभीनालबद्ध हो सकते है कि वही उसके लिए दुनिया का बेहतरीन स्वाद हो सकता है, वहीं दूसरे परिवेश का व्यक्ति के लिए यह घृणा पैदा करने वाली गंध और स्वाद हो सकता है और वह बचपन से ही खाते आ रहे बैंगनों के साथ अधिक पसंद का लगाव रखा हो सकता है।

अब आप शुक्रिया शब्द लिखने की कृपा न करें क्योंकि मैं आपका समय ले रहा हूँ और मेरे लिए कुछ दे रहे हैं। मेरे लायक कुछ सहायता बन पड़े तो बताइएगा।

शुक्रिया, आपसी संवाद के चलते रहने और हमारी स्वयं की समझ तथा चेतना के परिष्कार की संभावनाएं देते रहने की महत्त्वपूर्ण बात पर व्यक्त किये जानेवाला औपचारिक आभार है।

संवाद हमें भी अवसर देता है आपस में कुछ सीखने का, अपने विषयगत विचारों को स्थिर और अभिव्यक्त कर पाने का। कई बार यह होता है कि समझाने की प्रक्रिया में कई चीज़ों पर हमारी समझ भी साफ़ और तार्किक होती जाती है। हमें भी कई चीज़ें और बेहतरी से समझ में आती हैं। कई नये अंतर्संबंध और बेहतर तार्किकताएं सामने आती हैं।

और आप, आपसे संवाद, यह अवसर उपलब्ध करवा रहा है, तो हमारा आपके प्रति शुक्रगुज़ार होना लाज़िमी है।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय
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