शनिवार, 25 दिसंबर 2010

कौशल और उसकी निर्माण-प्रक्रिया

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में आदतों की अन्योन्यक्रियाओं के सिद्धांतों को समझने की कोशिश की थी इस बार हम कौशल और उसके निर्माण की प्रक्रिया पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



कौशल और उसकी निर्माण-प्रक्रिया

नई परिस्थितियों में अथवा नई वस्तुओं के संबंध में किया जाने वाला हर क़िस्म का व्यवहार संक्रियाओं के अंतरण पर आधारित होता है। अपनी बारी में संक्रियाओं का अंतरण उन परिस्थितियों अथवा वस्तुओं के गुणधर्मों के साम्य पर आधारित होता है, जो व्यक्ति की सक्रियता के लक्ष्यों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

व्यक्ति को इस साम्य का ज्ञान हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। सक्रियता जितनी ही पेचीदी होगी, लक्ष्य जितने ही दूरवर्ती होंगे और उनके लिए वस्तुओं का जितना ही अधिक रूपांतरण आवश्यक होगा, उतनी ही व्यापक सफल अंतरण कर पाने के लिए जरूरी मध्यवर्ती बौद्धिक सक्रियता होगी। फिर भी हर हालत में हम ऐसे अंतरण को कौशल की संज्ञा दे सकते हैं। कौशल को, उपलब्ध ज्ञान तथा आदतों का निर्धारित लक्ष्य के अनुसार क्रिया-प्रणालियों के चयन तथा प्रयोग के लिए इस्तेमाल करने की योग्यता कह सकते हैं

कौशल के लिए बाह्यीकरण, यानि ज्ञान का शारीरिक क्रियाओं में रूपांतरण आवश्यक है। इसका आरंभ-बिंदु प्रत्ययात्मक स्तर पर, यानि चेतना में सूचना का संसाधन होता है और परिणाम व्यवहारिक कार्यों में इस प्रत्ययात्मक सक्रियता के परिणामों का नियमन करना। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति को किसी ज्यामितीय पिंड़ का आयतन निकालना है। इसके लिए उसे पहले यह तय करना होगा कि दत्त पिंड ज्यामितीय पिंडों की किस श्रेणी में आता है। इसके बाद उसे ऐसे पिंडों के आयतन का परिकलन करने की प्रणालियां याद करनी होंगी, मालूम करना होगा कि कौन-कौन से माप लेने हैं, फिर ये माप लेने होंगे और अंत में आवश्यक परिकलन करने होंगे। इस तरह हम देख सकते हैं कि ज्ञान को कौशल में परिवर्तित करने के लिए कई सारी आदतों व संक्रियाओं की आवश्यकता होती है।

इस प्रकार कौशल का अर्थ व्यक्ति द्वारा अपने ज्ञान तथा आदतों के द्वारा सक्रियता के सोद्देश्य नियमन के लिए आवश्यक मानसिक और व्यवहारिक क्रियाओं के जटिल तंत्र में सिद्धहस्त होना है। इस तंत्र में कार्यभार से संबद्ध जानकारी का चयन, कार्यभार के लिए आवश्यक गुणधर्मों को पहचानना, इस आधार पर रूपांतरणों की एक ऐसी श्रृंखला का निर्धारण करना कि जो दत्त कार्यभार की पूर्ति की ओर ले जाती हैं, प्राप्त परिणामों का निर्धारित लक्ष्य से मिलान करने उनपर नियंत्रण रखना और इस आधार पर उपरोक्त सारी प्रक्रियाओं में सुधार करना शामिल हैं।

कौशल-निर्माण की प्रक्रिया का अर्थ ज्ञान में उपलब्ध और वस्तु से प्राप्त सूचना के संसाधन से संबद्ध सभी संक्रियाओं में भी और इस सूचना के अभिज्ञान तथा क्रियाओं से इसके सहसंबंध से जुड़ी हुई संक्रियाओं में भी प्रवीणता हासिल करना है।

उल्लेखनीय है कि कौशल-निर्माण की प्रक्रिया विभिन्न तरीक़ों से साकार बन सकती है, जिन्हें हम दो मुख्य वर्गों में विभाजित कर सकते हैं। पहले में सीखनेवाले को पहले से ही आवश्यक ज्ञान होता है। उसके सामने रखे गये कार्यभार उससे इस ज्ञान के विवेकसंगत उपयोग का तक़ाज़ा करते हैं और वह स्वयं प्रयत्न-त्रुटि प्रणाली से उचित संदर्भ-बिंदुओं, उपलब्ध जानकारी के संसाधन की प्रणालियों तथा सक्रियता की प्रणालियों का पता लगाकर स्वयं उन कार्यभारों के समाधान खोजता है। सबसे कम कारगर होने पर भी यह तरीक़ा ही आज सबसे अधिक प्रचलित है।

दूसरे वर्ग में वे तरीक़े आते हैं, जिनमें प्रशिक्षक विद्यार्थी को उपलब्ध ज्ञान का कारगर उपयोग करने के लिए प्रेरित करके उसकी मानसिक सक्रियता का नियमन करता है। इस मामले में शिक्षक उसे अर्थपूर्ण संकेतों तथा संक्रियाओं के चयन के लिए आवश्यक संदर्भ-बिंदुओं की जानकारी देता है और निर्धारित समस्याओं के समाधान के लिए उपलब्ध जानकारी के संसाधन तथा उपयोग में उसकी सक्रियता का संगठन करता है। शिक्षा मनोविज्ञान में अब इस उपागम पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

आदतों की अन्योन्यक्रिया

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में अभ्यास और आदतों पर चर्चा की थी इस बार हम आदतों की अन्योन्यक्रियाओं के सिद्धांतों को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।




आदतों की अन्योन्यक्रिया

हर आदत पहले से विद्यमान आदतों की पद्धति के अंतर्गत बनती और कार्य करती है। उनमें से कुछ नई आदत को जड़ें जमाने तथा सक्रिय बनने में मदद करती हैं, तो कुछ उसे पनपने नहीं देतीं और कुछ बदलाव लाने का प्रयत्न करती हैं। मनोविज्ञान में इस परिघटना को आदतों की अन्योन्यक्रिया कहा जाता है। इस अन्योन्यक्रिया का स्वरूप क्या है? कोई भी क्रिया उसके उद्देश्य, विषय और परिस्थितियों से निर्धारित होती है, किंतु वह साकार, गतिशील निष्पादन, संवेदी नियंत्रण और केंन्द्रीय नियमन की प्रणालियों की एक पद्धति के रूप में होती है। क्रिया की सफलता, यानि आदत की कारगरता इसपर निर्भर होती है कि ये प्रणालियां लक्ष्य, विषयों और परिस्थितियों के किस हद तक अनुरूप हैं।

कोई नया कार्यभार पैदा होने पर मनुष्य पहले उसे उन विधियों से हल करने की कोशिश करता है, जिनमें उसे दक्षता प्राप्त है, और यह आदत-निर्माण की प्रक्रिया की एक आम विशेषता है। नये लक्ष्य से निदेशित होते हुए वह उसकी प्राप्ति के लिए वे प्रणालियां इस्तेमाल करता है, जिनसे उसने पहले कभी वैसे ही कार्यभार हल किये थे। अतः सक्रियता की ज्ञात प्रणालियों के अंतरण में सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि व्यक्ति कार्यभारों का उनके समाधान की दृष्टि से कैसे मूल्यांकन करता है। वास्तव में आदत-निर्माण की प्रक्रिया चरम स्थितियों का प्रतिनिधित्व करने वाली दो दिशाओं में से कोई एक दिशा ग्रहण करती है।

स्थिति एक : व्यक्ति द्वारा दो क्रियाओं के लक्ष्यों, अथवा विषयों, अथवा परिस्थितियों को एक जैसा माना जाता है, जबकि क्रियाओं के बीच वास्तव में उनके निष्पादन की प्रणाली, अथवा नियंत्रण प्रक्रियाओं, अथवा केंद्रीय नियमन की प्रणालियों के अनुसार भेद होता है। यह स्थिति प्रणालियों की अल्प-कारगरता के रूप में पैदा होती है। चूंकि इस अपूर्णता का उजागर होना, उसके परिणामों से छुटकारा पाना और नयी कारगर प्रणालियां खोजना होता है, तो स्पष्टतः समय ज़्यादा लगता है और बार-बार प्रयत्न करने पड़ते हैं। आदत का निर्माण कठिनतर और धीमा हो जाता है। मनोविज्ञान में इस परिघटना को आदतों का नकारात्मक अंतरण अथवा आदतों का व्यतिकरण कहते हैं।

स्थिति दो : कार्यभारों के लक्ष्य, विषय और परिस्थितियां बाहरी तौर पर भिन्न हैं, किंतु उनकी पूर्ति के लिए आवश्यक क्रियाएं निष्पादन, नियंत्रण और केंद्रीय नियमन की प्रणालियों की दृष्टि से एक जैसी हैं। उदाहरण के लिए, लोहा काटने की आरी से काम करना सीख रहे प्रशिक्षार्थी के लिए रेती से काम करने की अच्छी आदतें प्रायः बड़ी सहायक होती हैं। इसका कारण यह है कि क्रियाओं के विषयों और लक्ष्यों में भेद के बावजूद उनके निष्पादन और संवेदी नियंत्रण की प्रणालियां मिलती-जुलती होती हैं। दोनों ही स्थितियों में काम के दौरान औजार को क्षैतिज अवस्थाओं में रखने के लिए दो हाथों के बीच बल का वितरण और बाद की गतियां एक जैसी ही हैं। इस स्थिति में क्रियाएं शुरू से ही सही होती हैं, जिससे आवश्यक आदतों का निर्माण आसान हो जाता है। इसे सकारात्मक अंतरण अथवा आदतों का प्रेरण कहा जाता है।

नयी आदतों के निर्माण पर अनुभव और पुरानी आदतों का प्रभाव क्रियाओं तथा उनके विषयों के स्वरूप पर ही नहीं, इन क्रियाओं तथा विषयों के प्रति व्यक्ति के रवैये पर भी निर्भर होता है। अधिगम और पुनरधिगम की प्रक्रिया में बाधक नकारात्मक अंतरण का प्रतिकूल प्रभाव काफ़ी घट सकता है, बशर्ते कि छात्र को उनके बुनियादी अंतरों के बारे में बता दिया जाए। दूसरी ओर, आदत के अंतरण का सकारात्मक प्रभाव कहीं अधिक बढ़ सकता है और अधिगम का काल घट सकता है, बशर्ते कि शिक्षक छात्रों के सामने देखने में भिन्न लगनेवाले कार्यभारों की बुनियादी समानता विशेष रूप से दिखा दे।

नये विषयों की ओर पुनरभिविन्यास और इसके साथ क्रिया का जिन परिस्थितियों में वह बनी है, उनसे संबंध-विच्छेद अथवा पृथक्करण एक ऐसी महत्त्वपूर्ण घटना है, जिसके दूरगामी परिणाम निकलते हैं। कई मामलों में ऐसे अंतरण की बदौलत ही व्यक्ति बिना प्रयत्नों और त्रुटियों के नये प्रकार के कार्यभार संपन्न कर लेता है, यानि व्यवहार के एक मौलिकतः नये प्ररूप - बौद्धिक व्यवहार - का मार्ग प्रशस्त कर देता है। अपने मूल परिवेश से कटी हुई ऐसी ‘पुनरारोपित’ क्रिया के महत्त्व के कारण ही उसे ‘संक्रिया’ के विशेष नाम से पुकारा जाता है।

क्रिया का संक्रिया में रूपांतरण केवल एक निश्चित मानसिक सक्रियता - समानता का अवबोधन, सामान्यीकरण, आदि - के आधार पर हो सकता है। ऐसे रूपांतरणों की संभावना के दायरे में क्रिया के केंद्रीय नियमन से संबद्ध प्रक्रियाएं, अर्थात मानसिक क्रियाओं का संक्रियाओं में रूपांतरण भी आ जाता है।

केंद्रीय नियमन की संरचनाओं में साम्य के कारण, एक जैसी व्याकरण पद्धतियों और शब्दावलियों वाली भाषाओं को सीखना परस्पर असमान भाषाओं को सीखने की तुलना में कम कठिन होता है। अंतरण का यह प्ररूप ही सीखी हुई परिकलन को अत्यंत संख्याओं पर लागू करने, विभिन्न समस्याओं के समाधानार्थ साझे सूत्रों का उपयोग करने, आदि की संभावना देता है। सूचनाओं के आत्मसात्करण तथा संसाधन के दौरान मनुष्य द्वारा तार्किक निर्मितियों के स्वतःअनुप्रयोग के मूल में यह अंतरण का सिद्धांत ही होता है।

यह संयोग नहीं है कि आदत के अंतरण के प्रश्न को शिक्षा मनोविज्ञान का एक सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न माना जाता है। आदतमूलक क्रियाओं का नये कार्यभारों की ओर सही और सफल पुनरभिविन्यास करके व्यक्ति थोड़े ही समय के भीतर और कम से कम गलतियां करके नये प्रकार की सक्रियताओं में दक्षता प्राप्त कर लेता है। आदतमूलक क्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्राप्य लक्ष्य जितनें ही विविध होंगे, उतना ही व्यापक उन कार्यभारों का दायरा होगा, जिन्हें मनुष्य अपनी आदतों के बल पर पूरा कर सकता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो अर्जित सचेतन स्वचलताओं का अंतरण जितना व्यापक और जितना परिशुद्ध होगा, उसके अध्ययनों के परिणाम उतने ही फलप्रद और उसकी सक्रियता में उतने ही ज़्यादा सहायक सिद्ध होंगे



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

अभ्यास और आदत

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने  क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में आदतों पर चर्चा शुरू की थी इस बार हम इसे और आगे बढ़ाते हुए अभ्यास और आदतों पर कुछ और विचार करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



सक्रियता का आभ्यंतरीकरण और अभ्यास

क्रिया की प्रणालियों में परिवर्तन कैसे आते हैं और उनका मनोवैज्ञानिक रचनातंत्र क्या है?
मुख्य रूप से यह एक ऐसा रचनातंत्र है, जिसमें अनुसंधान और वरण के तत्व सम्मिलित हैं। जब कोई मनुष्य किसी क्रिया में दक्षता पाने के प्रयत्न करता है और उसके परिणामों को जांचता है, तो वह शनैः शनैः सबसे कार्यसाधक गतियां, सबसे उपयुक्त संदर्भ-बिंदु और नियमन-प्रणालियां चुनता है तथा अपने को उनका आदी बनाता है और जो अनुपयुक्त है, उन्हें ठुकराता है। किन्हीं क्रियाओ अथवा सक्रियता के रूप की ऐसी बारंबार आवृत्ति, जिसका उद्देश्य उनमें दक्षता पाना है और जो समझ पर आधारित हैं तथा सचेतन नियंत्रण व सुधार जिसके अनिवार्य अंग हैं, अभ्यास कहलाती है

अभ्यास के दौरान मनुष्य की क्रियाओं के स्वरूप में परिवर्तन इन क्रियाओं के निष्पादन के दौरान उसकी मानसिक सक्रियता के परिवर्तनों को प्रतिबिंबित करता है। सचेतन नियंत्रण और सुधार के साथ हर नये प्रयत्न से से क्रियाओं की प्रणालियां और उद्देश्य ही याद नहीं हो जाते, वरन् उसमें कार्यभार को देखने का ढ़ंग, उसकी पूर्ति के तरीक़ों और क्रिया के नियमन में परिवर्तन भी शामिल रहता है।

मिसाल के तौर पर, कई सारे एक ही तरह के पुरजों पर निशान बनाने की बारंबार की जानेवाली क्रिया के दौरान प्रशिक्षार्थी की सक्रियता में आनेवाले पारिवर्तनों पर ग़ौर करें। पहले पुर्जे में प्रशिक्षार्थी को एक ऐसी क्रिया करनी है जो उसके लिए नई है। अभी तक उसने देखा और समझा ही है कि इस क्रिया को कैसे किया जाना चाहिए। अब उसे क्रिया को स्वतंत्र रूप से करने के लिए अपने शिक्षक के मौखिक निर्देशों और प्रदर्शन के दौरान बने चाक्षुष बिंबों को स्वतःगतिशीलता, यानि अपनी गतियों के नियमन की भाषा मे अनूदित करना है। क्रिया के मानसिक चित्र और चाक्षुष बिंब के साथ, गतियों के विनियमन के लिए पेशिय संवेदन भी आ जुड़ता है। इस चरण में क्रिया के सामान्य प्रत्यय, और उसके वास्तविक निष्पादन के बीच की खाई ख़त्म होती है। इस आधार पर प्रशिक्षार्थी संक्रिया का एक प्रेरक-संवेदी बिंब और उसकी वस्तुसापेक्ष-बौद्धिक धारणा, यानि क्रिया का मानसिक मॉडल बनाता है, जो उसके निष्पादन का नियमन तथा नियंत्रण करता है।

दूसरे पुर्जे के दौरान उसे अधिकांश कठिनाईयों का सामना नहीं करना पड़ता। गुणता और रफ़्तार, दोनों दृष्टियों से उसके कार्य में छलांगनुमा सुधार होता है। तीसरे-चौथे पुरजे पर काम करते हुए कार्य-प्रक्रिया में परिवर्तन पहले जितने बड़े नहीं होते और मुख्यतया अनावश्यक गतियों से छुटकारा पाने, ग़लत गतियों को सुधारने, परस्परसंबद्ध गतियों को एक अविकल श्रृंखला में संयोजित करने और प्रणालियों का अधिकाधिक मानकीकरण करने तक सीमित रहते हैं। इस एकीकरण के फलस्वरूप गतियां अधिक स्वचालित, चेतना के नियंत्रण से मुक्त और सोपाधिक प्रतिवर्तों से मिलती-जुलती बन जाती हैं।

बाद के पुरजों में, मुख्य नियंत्रण और नियमन-संरूपों का स्वचलन मन को जैसे कि क्षुद्र संरक्षण से छुटकारा दिलाता है और उसे क्रिया की परिस्थितियों का अधिक व्यापक ध्यान रखने में समर्थ बनाता है। प्रशिक्षार्थी अपनी क्रियाओं की रफ़्तार को नियंत्रित करनाम उन्हें बदलते कार्यभार, बई स्थितियों और नये पुरजों के अनुरूप ढ़ालना सीखता है।

सचेतन रूप से स्वचालित क्रिया के रूप में आदत

किसी भी क्रिया को करने की आदत तभी बनती है, जब उस क्रिया को बार-बार दोहराया जाए। इस प्रकट तथ्य के आधार पर कुछ मनोविज्ञानियों और विशेषतः व्यवहारवादियों ने पशुओं और  मनुष्यों की आदत-निर्माण की प्रक्रियाओं में समानता दिखाने की कोशिशें की हैं। किंतु मनोवैज्ञानिक क्रियातंत्रों की समानता के सामने आदत-निर्माण की प्रक्रियाओं के बुनियादी अंतरों को महत्त्वहीन नहीं समझना चाहिए। जीव-जंतुओं के विपरीत मनुष्य द्वारा किसी क्रिया का किया जाना हमेशा किसी न किसी रूप में मन द्वारा नियंत्रित होता है। इस कारण जीव-जंतुओं से संबद्ध प्रक्रियाओं का स्वरूप मनुष्य की तुलना में बिल्कुल ही भिन्न होता है। मनुष्य के व्यवहारिक प्रयोग निश्चित गतियों के पुनरुत्पादन के सचेतन प्रयत्न होते हैं। परिणामों का सत्यापन, परिस्थितियों का मूल्यांकन और क्रियाओं का सुधार भी न्यूनाधिक हद तक चेतना पर आधारित होते हैं। यह अनुसंधान के प्रयत्नों के स्रोत को ही पुनर्गठित कर देता है। उदाहरण के लिए, अनुकरण का स्थान शनैः शनैः आत्मसात् की जा रही मॉडल क्रियाओं का सचेतन सोद्देश्य प्रेक्षण ले लेता है। किंतु इससे भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि मनुष्य द्वारा प्रणालियों के चयन तथा नियमन की प्रक्रिया इन प्रणालियों के प्रयोजन की उसकी समझ पर और उनकी अंतर्वस्तु की उसकी धारणा पर अधिकाधिक निर्भर करती हैं।

आदत-निर्माण की प्रक्रिया में मुख्य कारक वाचिक सक्रियता ( मनुष्य द्वारा प्रेक्षणीय तथा निष्पादनीय क्रियाओं का शाब्दिक पुनरुत्पादन ) और प्रत्ययात्मक सक्रियता ( किये जानेवाले कार्य के बिंब का मन में पुनरुत्पादन ) हैं। मनुष्य में आदत-निर्माण के क्रियातंत्र की ये बुनियादी विशेषताएं ही आदत-निर्माण की प्रक्रिया के नियमों का आधार हैं।

आदत का अर्थ सचेतन रूप से स्वचालित क्रिया अथवा कोई स्वचालित क्रिया करने की प्रणाली समझा जाता है। आदत का उद्देश्य मन को किसी क्रिया के निष्पादन की प्रक्रिया पर नियंत्रण के कार्य से मुक्ति दिलाना और क्रिया के लक्ष्यों तथा जिन परिस्थितियों में वह की जाती है, उन पर ही ध्यान देने को विवश करना है। व्यक्ति की आदत का निर्माण कभी भी एक स्वतंत्र, अलग-थलग प्रक्रिया नहीं होता है। मनुष्य का सारा संचित अनुभव उसे प्रभावित करता है और उसमें व्याप्त भी रहता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

आदतें - सक्रियता का आत्मसात्करण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में सक्रियता के आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण पर चर्चा की थी इस बार हम सक्रियता के आत्मसात्करण यानि आदतों पर विचार करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


आदतें - सक्रियता का आत्मसात्करण

हर कार्य मनुष्य द्वारा सचेतन और अचेतन, दोनों ढ़ंग से किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, शब्दों का उच्चारण करने के लिए कंठ द्वारा की जानेवाली गतियां मनुष्य द्वारा हमेशा अचेतन ढ़ंग से संपन्न्न की जाती हैं। इसके विपरीत व्यक्ति जो वाक्य बोलने जा रहा है, उसके व्याकरणिक रूप और विषयवस्तु हमेशा उसकी चेतना की उपज होते हैं। व्यक्ति आम तौर पर पेशियों के उन जटिल संकुचनों और फैलावों से अनजान होता हैं, जो गति करने के लिए अपेक्षित हैं। ऐसी गतियां स्पष्टतः शुद्ध शरीरक्रियात्मक आधार पर, अचेतन रूप से की जाती हैं। फिर भी मनुष्य को सामान्यतः अपनी क्रियाओं के अंतिम लक्ष्य की, उनके सामान्य स्वरूप की चेतना रहती है। उदाहरण के लिए, वह पूर्ण अचेतनता की अवस्था में साइकिल नहीं चला सकता, उसे अपने गंतव्य, मार्ग, रफ़्तार, आदि की चेतना होनी चाहिए। यही बात श्रम, खेलकूद या किसी अन्य कार्य पर भी लागू होती है। कुछ गतियां सचेतन नियमन और अचेतन नियमन, दोनों के स्तर पर की जाती हैं। चलना एक ऐसी सक्रियता की ठेठ मिसाल है, जिसमें अधिकांश गतियां अचेतन रूप से की जाती हैं। किंतु रस्सी पर चलने में वे ही गतियां, संवेदी नियंत्रण और केंद्रीय नियमन अत्यधिक तनावभरी चेतना का विषय बन जाते हैं, विशेषतः यदि रस्सी पर चलनेवाला अनाड़ी है।

ऐसा भी हो सकता है कि सक्रियता के कुछ पहलुओं के लिए पहले विस्तृत सचेतन की जरूरत पड़े, जो फिर शनैः शनैः बढ़ती हुई स्वचलताओं के कारण अनावश्यक होता जाता है। सोद्देश्य गतियों के निष्पादन तथा नियमन की यह आंशिक स्वचलता ही आदत कहलाती है

इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि अचेतन या स्वतःनियमन की बात केवल गतियों के संबंध में की जा रही है, कि गतियों का नियमन और क्रियाओं का नियमन एक ही चीज़ नहीं है। गतियों की स्वचलता का बढ़ना और ये गतियां जिन क्रियाओं का अंग हैं, उनके सचेत नियमन का विस्तार, ये दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चल सकती हैं। जैसे कि, साइकिलचालक गतियों की जिस स्वचलता की बदौलत संतुलन बनाए रखता है, वह उसे अपने इर्द-गिर्द के वाहनों, सड़क की हालत, आदि का ध्यान रखने की संभावना देती हैं और इस तरह वह अपनी क्रियाओं का बेहतर सचेत नियंत्रण करता है।

‘शुद्ध आदत’ की बात स्पष्टतः केवल जीव-जंतुओं के संदर्भ में की जा सकती है, क्योंकि विकारग्रस्त लोगों के अलावा अन्य सभी मनुष्यों की सक्रियता चेतना द्वारा नियंत्रित होती है। क्रिया के किन्हीं घटकों की स्वचलता केवल सचेतन नियंत्रण के विषय को बदल देती है और चेतना में क्रिया के सामान्य लक्ष्यों, उसके निष्पादन की अवस्थाओं और उसके परिणामों के नियंत्रण व आकलन को आगे ले जाती है।

आदतों की संरचना

आंशिक स्वचलता के कारण क्रिया की संरचना में आनेवाले परिवर्तन गतियों के ढ़ांचों, क्रिया के संवेदी नियंत्रण की प्रणालियों और केंद्रीय नियमन की प्रणालियों को प्रभावित करते हैं।

१. गतियों के ढ़ाचें - बहुत सी व्यष्टिक गतियां, जो अब तक अलग-अलग की जाती थीं, एक ही क्रिया में, अलग-अलग घटकों ( साधारण गतियों ) के बीच विराम या अंतराल से रहित एक समेकित गति में विलयित हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, प्रशिक्षार्थी द्वारा क्रमिक क्रिया के तौर पर की जानेवाली गियर बदलने की प्रक्रिया अनुभवी ड्राइवर द्वारा हाथ की एक ही तथा झटकारहित गति के रूप में संपन्न की जाती है। सभी अनावश्यक गतियां छोड़ जाती हैं। बच्चा जब लिखना सीखता है, तो बहुत सारी फालतू गतियां करता है, जैसे मुंह से जीभ निकालना, कुर्सी में हिचकोले खाना, सिर झुकाना, आदि। ज्यों-ज्यों दक्षता बढ़ती है, सारी अनावश्यक गतियां लोप होती जाती हैं। इस तरह रफ़्तार बढ़ती जाती है, आदत के पक्की होने के साथ-साथ क्रिया की स्वतः गतिशीलता हर लिहाज़ से ज़्यादा प्रभावी बन जाती है, गतियों का ढ़ांचा ज़्यादा सरल हो जाता है और व्यष्टिक गतियां एक अनवरत, साथ-साथ तथा तेज़ रफ़्तार से संपन्न की जा रही प्रक्रिया में विलयित हो जाती हैं।

२. क्रिया के संवेदी नियंत्रण की प्रणालियां - गतियों के चाक्षुष नियंत्रण का स्थान काफ़ी हद तक पेशीय नियंत्रण ले लेता है। यह परिवर्तन एक ऐसे कुशल टाइपिस्ट की मिसाल से देखा जा सकता है, जो अपने काम को की-बोर्ड़ पर देखे बिना करता है। अभ्यास और समय के साथ विकसित विशेष संवेदी संश्लेषण मनुष्य को गतियों के स्वरूप का निर्धारण करनेवाले विभिन्न चरों के सहसंबंध को आंकने में समर्थ बना देते हैं। ऐसे संश्लेषणों की मिसालें ड्राइवर की तेज़ निगाह और गति का बोध, बढ़ई की लकड़ी की पहचान, ख़रादी का पुरजे के आकार का अहसास और विमान चालक का ऊंचाई का बोध है। मनुष्य अपनी क्रियाओं के परिणामों का नियंत्रण करने के लिए महत्त्वपूर्ण संदर्भ-बिंदुओं को तुरंत पहचानना और अलग करना सीख लेता है

३. क्रिया के केंद्रीय नियमन की प्रणालियां - मनुष्य का ध्यान अब क्रियाओं की प्रणालियों के अवबोधन से हटकर, मुख्य रूप से स्थिति और क्रिया के परिणामों पर केंद्रित हो जाता है। कुछ परिकलन, समाधान और अन्य बौद्धिक संक्रियाएं जल्दी और एक अनवरत प्रक्रिया में  ( सहज ढ़ंग से ) की जाने लगती हैं। इससे तुरंत प्रतिक्रिया करना संभव बन जाता है। जैसे, इंजन की आवाज़ से ही, ड्राइवर तुरंत, बिना सोचे, पता कर लेता है कि उसे किस गियर पर चलाना चाहिए। उपकरणों पर सरसरी निगाह डालकर ही ऑपरेटर मालूम कर लेता है कि कहां क्या गड़बड़ी है। विमान को उतारना शुरू करते समय विमानचालक सभी बंधी-बंधाई आवश्यक क्रियाओं के लिए पहले से ही मानसिकतः तैयार रहता है। इसलिए एक गति से दूसरी गति में संक्रमण बिना किसी पूर्व योजना के कर लिया जाता है। योजना केवल उतराई की प्रणाली की बनाई जाती है। जो प्रणालियां इस्तेमाल की जानी हैं, उनकी पूरी श्रृंखला की ऐसी पहले से विद्यमान चेतना को पूर्वाभास कहते हैं



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 27 नवंबर 2010

सक्रियता का आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में सक्रियता की संरचना के अंतर्गत क्रियाएं, गतियां और उनके नियंत्रण को समझने की कोशिश की थी इस बार हम सक्रियता के आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


सक्रियता का आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण

मस्तिष्क भविष्य का पूर्वानुमान कैसे कर लेता है? जो क्रियाएं अभी की ही नहीं गई हैं, मस्तिष्क उनके परिणामों को कैसे प्रतिबिंबित कर पाता है?

पूर्वानुमान की संभावना परिवेशी विश्व की एक बुनियादी विशेषता, यानि इसके नियमशासित स्वरूप से पैदा होती है। इसका यह अर्थ है कि विश्व की विभिन्न परिघटनाएं आपस में कुछ निश्चित स्थायी संबंधों व संपर्कों से जुड़ी हुई हैं, कि विश्व की सभी वस्तुओं के कुछ निश्चित स्थायी गुणधर्म तथा संरचनाएं हैं, जो अपने को कुछ खास परिस्थितियों में प्रकट करते हैं ( आग सदा जलती है; रात के बाद दिन आता है; कोई भी पिंड उतनी ही तेज़ी से गति करेगा, जितना अधिक उसपर बल लगाया जाएगा: जोड़ी जानेवाली राशियों को ऊपर-नीचे, आगे-पीछे करने से योगफल नहीं बदलता: वग़ैरह )।

वस्तुओं के बीच, परिघटनाओं के बीच मौज़ूद ऐसे स्थायी ( अपरिवर्तनीय ) संबंधों को वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्म और परिघटनाओं की नियमसंगतियां कहा जाता है। इन्हीं की बदौलत ही निश्चित परिस्थितियों में वस्तुओं तथा परिघटनाओं के ‘व्यवहार-संरूपों’ का पूर्वानुमान किया जाता है, अर्थात् किन्हीं निश्चित प्रभावों के अंतर्गत उनके परिवर्तनों की भविष्यवाणी करना और निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप उन्हें नियमित करना संभव बनता है। बाह्य, वस्तुसापेक्ष क्रिया से पहले जैसे कि एक आंतरिक, प्रत्ययात्मक क्रिया का निष्पादन होता है। वस्तुओं से जुड़ी क्रियाओं का स्थान वस्तुओं के बुनियादी गुणों की प्रत्ययात्मक ( मानसिक ) जोड़-तोड़ ले लेती है। दूसरे शब्दों में, वस्तुओं की भौतिक जोड़-तोड़ की जगह उनके अर्थों की मानसिक जोड़-तोड़ को दे दी जाती है।

बाह्य, वास्तविक क्रिया से आंतरिक, प्रत्ययात्मक क्रिया में संक्रमण की इस प्रक्रिया को आभ्यंतरीकरण ( Internalization ) कहा जाता है। इसकी बदौलत मानव मन उन वस्तुओं के बिंबों के साथ भी क्रियाएं कर सकता है, जो दत्त क्षण में उसके दृष्टि-क्षेत्र के भीतर नहीं है। मनुष्य जीवित वर्तमान की सीमाएं लांघ जाता है और कल्पना के बल पर विगत तथा भविष्य, दिक् तथा काल में स्वच्छंद विचरण करने लगता है। वह बाह्य स्थिति के, जो जीव-जंतुओं के सारे व्यवहार का निर्धारण और नियमन करती है, बंधनों को तोड़ डालता है।

यह अकाट्यतः सिद्ध किया जा चुका है कि इस संक्रमण का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण शब्द हैं, कि यह संक्रमण वाक्, यानि वाचिक सक्रियता के जरिए संपन्न होता है। शब्द वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्मों को और मानवजाति के व्यावहारिक जीवन में विकसित सूचना के उपयोग की प्रणालियों को अलग तथा अपने में समेकित कर लेता है। अतः शब्दों का सही प्रयोग सीखना और वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्मों व सूचना-उपयोग की विधियों को जानना, ये दोनों कार्य साथ-साथ होते हैं। शब्द के ज़रिए मनुष्य सारी मानवजाति के अनुभव, यानि सैकड़ों पूर्ववर्ती पीढ़ियों और अपने से हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित लोगों और समूहों के अनुभव को आत्मसात् करता है।

शब्दों और वस्तुओं के आपसी संबंधों के परिचायक अन्य प्रतीकों के उपयोग से, मनुष्य वस्तुओं के अभाव में भी चर्चागत संबंधों से ताल्लुक़ रखनेवाली सूचना के उपयोग तथा अनुभव, ज्ञान तथा आदर्शों और अपेक्षाओं के जरिए अपनी सक्रियता तथा व्यवहार का नियमन करना संभव बनाता है। मनुष्य की सक्रियता एक बड़ी पेचीदी और अदभुत प्रक्रिया है, वह मनुष्य की आवश्यकताओं की साधारण तुष्टि तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि काफ़ी हद तक समाज के लक्ष्यों तथा मांगों से भी निर्धारित होती है। लक्ष्य की चेतना और उसकी प्राप्ति के लिए सामाजिक अनुभवों पर निर्भरता उसकी एक ख़ास विशेषता है।

मनुष्य की सक्रियता का एक लक्षण यह है कि उसके बाह्य ( भौतिक ) और आंतरिक ( मानसिक ) पहलुओं के बीच अटूट संबंध है। बाह्य पहलू या गतियां, जिनके द्वारा मनुष्य बाह्य विश्व को प्रभावित करता है, आंतरिक ( मानसिक ) सक्रियता द्वारा, अभिप्रेरणा, संज्ञान तथा विनिमयन से संबद्ध प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित और नियमित होती हैं। दूसरी ओर, आंतरिक ( मानसिक ) सक्रियता का निदेशन व नियंत्रण बाह्य सक्रियता करती है, जो वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं के गुणधर्मों को प्रकाश में लाती है, उनका लक्ष्योद्दिष्ट रूपांतरण करती है और बताती है कि मानसिक मॉडल कहां तक पूर्ण हैं और क्रियाएं व उनके परिणाम उनके प्रत्ययात्मक बिंबों से कहां तक मेल खाते हैं।

जैसा की हम ऊपर देख चुके हैं, आंतरिक, मानसिक सक्रियता को बाह्य, वस्तुसापेक्ष सक्रियता के आभ्यंतरीकरण का परिणाम माना जा सकता है। इसी प्रकार बाह्य, वस्तुसापेक्ष सक्रियता को भी आंतरिक, मानसिक सक्रियता का बाह्यीकरण समझा जा सकता है।


                                                                                     
इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 20 नवंबर 2010

सक्रियता की संरचना - क्रियाएं, गतियां और उनका नियंत्रण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में सक्रियता और उसके लक्ष्यों पर एक संक्षिप्त चर्चा की थी इस बार सक्रियता की संरचना के अंतर्गत क्रियाएं, गतियां और उनके नियंत्रण को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रियता की संरचना - क्रियाएं, गतियां और उनका नियंत्रण

सक्रियता यथार्थ के प्रति एक तरह का सक्रिय रवैया है, जिसके जरिए मनुष्य अपने और परिवेशी विश्व के बीच संबंध स्थापित करता है। मनुष्य अपनी सक्रियता के द्वारा प्रकृति, बाह्य वस्तुओं और अन्य लोगों पर प्रभाव डालता है। सक्रियता में अपने आंतरिक गुणों को चरितार्थ तथा उद्‍घाटित करते हुए, मनुष्य वस्तुओं के संबंध में कर्ता और अन्य मनुष्यों के संबंध में व्यक्ति के तौर पर सामने आता है। वह चीज़ों को विषयों और लोगों को व्यक्तियों के रूप में देखता है।

क्रियाएं और गतियां

किसी भी पत्थर का भार जानने के लिए हमें उसे उठाना होता है और पैराशूट की विश्वसनीयता जांचने के लिए हमें उसके साथ कूदना होता है। पत्थर उठाकर या पैराशूट के साथ कूदकर, यानि सक्रियता के ज़रिए मनुष्य उनके वास्तविक गुणों का ज्ञान प्राप्त करता है। वह इन वास्तविक क्रियाओं के बदले वैकल्पिक तरीकों से भी काम ले सकता है, मगर इसके लिए भी शुरू में व्यवहार या व्यवहारिक सक्रियता आवश्यक थी। यह सक्रियता न केवल पत्थर या पैराशूट के गुणों को, बल्कि स्वयं मनुष्य के गुणों को भी दिखाती है ( उसने पत्थर क्यों उठाया, पैराशूट क्यों इस्तेमाल किया, वग़ैरह)। व्यवहारिक कार्य निर्धारित करता और दिखाता है कि व्यक्ति क्या जानता है और क्या नहीं, विश्व में उसे क्या दिखाई देता है और क्या नहीं, क्या वह चुनता है और क्या ठुकराता है। दूसरे शब्दों में, व्यवहारिक कार्य मानव मन की अंतर्वस्तु तथा उसके क्रियातंत्रों का निर्धारण तथा उद्‍घाटन करता है

सक्रियता का लक्ष्य आम तौर पर कमोबेश दूरस्थ होता है, जिसकी वज़ह से मनुष्य लक्ष्य को तभी पा सकता है, जब वह राह में अपने सामने पैदा होनेवाले कई सारे विशिष्ट कार्यभारों को पूरा कर ले। उदाहरण के लिए, किसी औजार विशेष को बनाने के लिए लौहार को हर निश्चित कालावधि के भीतर कई सारे छोटे-मोटे कार्य करने होते हैं। जैसे कि लोहे को गरम करना, ठंड़ा होने से पहले उसे पीट कर निश्चित आकार देना, वग़ैरह। किसी सरल तात्कालिक लक्ष्य को पाने के लिए निष्पादित सक्रियता की इन अपेक्षाकृत पृथक इकाईयों को क्रियाएं कहा जाता है। ऊपर बताई गई श्रम क्रियाएं वस्तुसापेक्ष क्रियाएं, यानि बाह्य विश्व की वस्तुओं की अवस्था अथवा गुणों को बदलने के लिए की गई क्रियाएं हैं। हर वस्तुसापेक्ष क्रिया दिक् और काल में आपस में जुड़ी हुई कुछ निश्चित गतियों की संहति होती हैं। जैसे कि, अक्षर ‘अ’ को लिखने की क्रिया में कलम को एक निश्चित ढ़ंग से पकड़ने, उसे उठाने फिर कागज को छूते हुए दो अर्धवृत्त बनाने, फिर नोक को उठाकर एक आड़ी तथा उसे छूते हुई एक खड़ी पाई बनाना, और अंत में उनके ऊपर एक आड़ी रेखा खींचना शामिल है।

मनुष्य की सक्रियता में वस्तुसापेक्ष गतियों के अलावा वे गतियां भी शामिल होती हैं, जो मनुष्य को एक निश्चित मुद्रा ( खड़ा रहना, बैठना, आदि ) अपनाने तथा बनाए रखने, स्थान-परिवर्तन करने ( चलना, दौड़ना, आदि ) और अन्य लोगों से संप्रेषण करने में समर्थ बनाती हैं। संप्रेषण के साधनों में भावात्मक गतियां ( चहरे और शरीर की भंगिमाएं ), अर्थपूर्ण चेष्टाएं और वाचिक गतियां शामिल हैं। उपरोक्त गतियां बांहों और टांगों के अलावा शरीर तथा चहरे की पेशियों, कंठ, स्वरतंत्रियों, आदि द्वारा संपन्न की जाती हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वस्तुसापेक्ष अथवा अन्य किसी बाह्य क्रिया के निष्पादन का अर्थ एक निश्चित गति-श्रृंखला का निष्पादन है। यह क्रिया के लक्ष्य, उन वस्तुओं के गुणों, जिनकी ओर यह क्रिया लक्षित है, और जिन परिस्थितियों में यह क्रिया संपन्न की जाती है, उन पर निर्भर करती है।

क्रिया का नियंत्रण तथा निगरानी

किसी भी गति के निष्पादन का उसके परिणामों का क्रिया के अंतिम लक्ष्य के साथ मिलान करके लगातार नियंत्रण और समंजन किया जाता है। वांछित परिणाम ज्ञानेन्द्रियों ( दृष्टि, श्रवण, पेशी संवेदन ) की सहायता से प्राप्त किया जाता है। गतियों का नियंत्रण इनके जरिए प्रतिपुष्टि ( feed back ) के सिद्धांत के अनुसार होता है। इस प्रतिपुष्टि का माध्यम ज्ञानेन्द्रियां और सूचना का स्रोत वस्तुओं तथा गतियों के निश्चित अवबोधित लक्षण होते हैं, जो क्रिया के संदर्भ-बिंदु की भूमिका अदा करते हैं।

इस प्रकार वस्तुसापेक्ष क्रिया अथवा किसी अन्य बाह्य क्रिया का निष्पादन एक निश्चित गति-श्रॄंखला के निष्पादन तक सीमित नहीं है। इसमें गतियों का ऐंद्रिक नियंत्रण और उनके मौजूद परिणामों तथा क्रिया के विषयों के गुणों के अनुसार संशोधन भी शामिल है। यह प्रक्रिया मस्तिष्क को परिवेश की अवस्था एवं उसमें की जा रही गतियों तथा प्राप्त परिणामों की सूचना देनेवाले इंद्रियगत संदर्भ-बिंदुओं के आभ्यंतरीकरण ( Internalization ) पर आधारित होती है।

लुहार तपे हुए लोहे के तापमान को देखकर, जिसे मोटे तौर पर धातु की चमक से आंका जाता है, उस पर कम या ज़्यादा जोर से हथौड़ा मारता है। बढ़ई पेशियों द्वारा लकड़ी के प्रतिरोध की अनुभूति को देखते हुए रंदे पर दाब की मात्रा और उसे चलाने की रफ़्तार तय करता है। ट्रक चालक जब ब्रेक लगाता है, तो अपने ट्रक की रफ़्तार तथा भार, सड़क की दिशा, आदि को ध्यान में रखता है। यानि कि किसी भी क्रिया में सम्मिलित गति-श्रृंखला का नियंत्रण उस क्रिया के लक्ष्य द्वारा किया जाता है। वास्तव में हम गतियों के परिणामों को उनके लक्ष्य की दृष्टि से ही आंकते हैं और लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही उनमें आवश्यक सुधार या परिवर्तन करते हैं।

लक्ष्य सामान्यतः एक ऐसी चीज़ है, जो दत्त क्षण में नहीं होती और जिसे क्रिया द्वारा पाया जाना है। अतः मस्तिष्क में लक्ष्य एक बिंब का, क्रिया के प्रत्याशित परिणाम के एक गतिशील मॉडल का रूप लेता है। इस अभीष्ट भविष्य के मॉडल के साथ ही हम अपनी क्रिया के वास्तविक परिणामों का मिलान करते हैं और यह मॉडल ही गतियों के ढ़ांचे का नियंत्रण तथा संशोधन करता है। इस तरह हम देखते हैं कि भावी क्रियाओं तथा उनके परिणामों का मस्तिष्क में पूर्वानुमान कर लिया जाता है, अन्यथा लक्ष्योन्मुख सक्रियता संभव ही नहीं होती।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 13 नवंबर 2010

सक्रियता और उसके लक्ष्य

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में मनुष्य की आवश्यकताओं के विकास पर एक छोटी सी चर्चा की थी इस बार सक्रियता और उसके लक्ष्यों को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रियता और उसके लक्ष्य

जीव-जंतुओं का व्यवहार पूर्णतः उनके प्रत्यक्ष परिवेश से निदेशित होता है, किंतु मनुष्य की क्रियाशीलता का नियमन बचपन से ही समस्त मानवजाति के अनुभव तथा सामाजिक अपेक्षाओं द्वारा किया जाता है। यह इतने विशिष्ट ढ़ंग का व्यवहार है कि मनोविज्ञानियों ने इसे नाम भी विशेष दिया है, सक्रियता। इस अनन्यतः मानव क्रियाशीलता अथवा सक्रियता की मनोवैज्ञानिक विशेषताएं क्या हैं।


पहली विशेषता तो यह है कि इस सक्रियता की अंतर्वस्तु केवल उसे जन्म देनेवाली आवश्यकता से ही निर्धारित नहीं होती। जहां अभिप्रेरक के नाते आवश्यकता व्यक्ति की सक्रियता की शुरुआत करती है तथा उसे बढ़ावा देती है, वहां स्वयं इस सक्रियता के रूप तथा अंतर्वस्तु सामाजिक परिस्थितियों, सामाजिक अपेक्षाओं और अनुभव पर निर्भर होते हैं। मनुष्य काम करने के लिए आहार की आवश्यकता से अभिप्रेरित हो सकता है। फिर भी, उदाहरण के लिए, कोई ख़रादी अपना काम इसलिए नहीं करता है कि काम से उसकी भूख शांत होती है, बल्कि इसलिए करता है कि उसे एक निश्चित पुरज़ा बनाने का ज़िम्मा सौंपा गया है और ख़राद ( lathe machine ) पर काम करके वह अपनी इस ज़िम्मेदारी को पूरा करता है। उसकी सक्रियता की अंतर्वस्तु आवश्यकता से नहीं, अपितु लक्ष्य - समाज द्वारा अपेक्षित निश्चित उत्पाद को तैयार करना - से निर्धारित होती है। सक्रियता का कारण और सक्रियता का लक्ष्य एक ही चीज़ नहीं है। मनुष्य के कार्यों के प्रणोदक तथा अभिप्रेरक इन कार्यों के प्रत्यक्ष लक्ष्य से भिन्न होते हैं। अतः सक्रियता की पहली विशेषता यह है कि वह आवश्यकता से पैदा और सचेतन लक्ष्य द्वारा नियंत्रित होती है। आवश्यकता उसका स्रोत है और सचेतन लक्ष्य उसका नियामक।

सक्रियता का मानसिक नियमन तभी सफल हो सकता है, जब मानस वस्तुओं के यथार्थ गुणों को परावर्तित करे और उन्हें ( न कि अवयवी की आवश्यकताओं को ) मार्गदर्शक के तौर पर इस्तेमाल करते हुए निर्धारित लक्ष्य को पाने की विधियां तय करे। इसके अतिरिक्त सक्रियता के दौरान मनुष्य को अपने व्यवहार का नियंत्रण करने में इसलिए समर्थ होना चाहिए कि लक्ष्योद्दिष्ट कार्य कर सके, यानि ऐसी आवश्यक क्रियाशीलता पैदा कर सके तथा बनाए रख सके, जो अपने आप में किन्हीं भी पैदा हो रही आवश्यकताओं की तत्काल तुष्टि नहीं करती। सक्रियता सीधे संज्ञान और इच्छा से जुड़ी होती है, उनसे समर्थन पाती है और संज्ञानात्मक तथा इच्छामूलक प्रक्रियाओं के बिना संपन्न नहीं होती। अतः सक्रियता मनुष्य की सचेतन लक्ष्य द्वारा नियमित आंतरिक ( मानसिक ) और बाह्य ( शारीरिक ) क्रियाशीलता है

इस प्रकार सक्रियता के लिए एक सचेतन लक्ष्य का होना आवश्यक है, जो अपने को मनुष्य की क्रियाशीलता में प्रकट करता है। सक्रियता के अन्य सभी पहलू, जैसे उसके अभिप्रेरक, ठोस कार्य और आवश्यक सूचना का चयन तथा संसाधन, चेतना के स्तर को छू भी सकते हैं और नहीं भी छू सकते हैं। यह भी संभव है कि व्यक्ति को उनकी आंशिक चेतना ही हो या वह उनके वास्तविक रूप को गलत ढ़ंग से समझे। उदाहरण के लिए, स्कूलपूर्व आयु के बच्चे को अपनी खेलने की इच्छा के मूल में निहित आवश्यकता की या निचली कक्षाओं के बच्चों को पाठ याद करने के अभिप्रेरकों की विरले ही चेतना होती है। अनुशासनहीन किशोर भी अपने कार्यों के वास्तविक अभिप्रेरकों को पूरी तरह नहीं जान पाता और प्रायः उन्हें गलत ढ़ंग से समझता है। यहां तक कि बड़े भी अक्सर उनकी चेतना द्वारा उनके ग़लत तथा अनुचित व्यवहार के औचित्य के तौर पर उन्हें सुझाए गये ‘गौण’ अभिप्रेरकों में विश्वास कर लेते हैं।

मनुष्य अभिप्रेरकों को ही नहीं, बल्कि बहुत-सी चिंतन प्रक्रियाओं को भी, जिनके फलस्वरूप सक्रियता की कोई निश्चित योजना चुनी जाती है, पूरी तरह विरले ही समझ पाता है। जहां तक सक्रियता को साकार बनाने की प्रणालियों का सवाल है, तो उनमें से अधिकांश का नियमन अचेतन रूप से होता है। ऐसा ही आदतवश किये जानेवाले कार्यों, जैसे टहलना, बोलना, लिखना, वाहन चलाना, कोई बाजा बजाना, आदि के मामले में भी होता है।

सक्रियता से संबंधित व्यक्ति की चेतना का स्तर इससे निर्धारित होता है कि सक्रियता के ये सभी पहलू चेतना में किस हद तक प्रतिबिंबित हुए हैं

किंतु चेतना का स्तर कोई भी क्यों न हो, लक्ष्य की चेतना हमेशा सक्रियता की एक आवश्यक विशेषता होती है। जिन मामलों में सक्रियता में यह विशेषता नहीं होती, वहां हमारे सामने केवल आवेगी व्यवहार होता है, न कि मानवसुलभ सक्रियता। सक्रियता के विपरीत, आवेगी व्यवहार सीधे आवश्यकताओं और संवेगों से नियमित होता है। वह मनुष्य के भावों और वृत्तियों को ही व्यक्त करता है, जो बहुत बार स्वार्थमूलक और असामाजिक होते हैं। उदाहरणार्थ, क्रोध या अदम्य वासना से अंधे हुए व्यक्ति का व्यवहार आवेगी ही होता है।

आवेगी व्यवहार अचेतन व्यवहार नहीं है। किंतु आवेगवश ( स्वतःस्फूर्त ढ़ंग से ) काम करते हुए मनुष्य को केवल व्यक्तिगत अभिप्रेरक की चेतना होती है, जो उसके व्यवहार का नियंत्रण करता है। इस स्थिति में मनुष्य को लक्ष्य में निहित इसकी सामाजिक अंतर्वस्तु की चेतना नहीं होती।

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इस बार इतना ही।

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समय

शनिवार, 6 नवंबर 2010

मनुष्य की आवश्यकताओं का विकास

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हम जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में आवश्यकताओं की क़िस्मों पर एक मनोवैज्ञानिक नज़रिये से गुजरे थे, इस बार मनुष्य की आवश्यकताओं के विकास पर एक छोटी सी चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मनुष्य की आवश्यकताओं का विकास

जीव-जंतुओं का व्यवहार सदा सीधे उनकी किसी न किसी आवश्यकता की तुष्टि की ओर उन्मुख रहता है। आवश्यकता न केवल क्रियाशीलता को जन्म देती है, बल्कि उसके रूप भी निर्धारित करती है। उदाहरण के लिए, आहार की आवश्यकता ( भूख ) लार टपकने, खाने की खोज, शिकार को पकड़ने, खाने, आदि के रूप में पशु की आहारिक सक्रियता को जन्म देती है।


अनुकूलित प्रतिवर्त इस सक्रियता को नये उत्तेजकों ( उदाहरणार्थ, घंटी की आवाज़ ) या नयी क्रियाओं ( उदाहरणार्थ, पैडल दबाना ) से जोड़ सकते हैं। किंतु इन सभी मामलों में पशु के व्यवहार की संरचना वही रहेगी। बाह्य उत्तेजकों में से घंटी के बजने को आहार के संकेत के तौर पर अलग कर लिया जाता है, इसी तरह पैडल का दबाना भी व्यवहार की एक ऐसी क्रिया के रूप में सामने आता है, जिसके फलस्वरूप आहार प्रकट होता है। दूसरे शब्दों में, अनुकूलित प्रतिवर्तों पर आधारित अत्यंत जटिल सक्रियता में भी पशु की आवश्यकताएं उसके मानस के परावर्ती और नियामक, दोनों तरह के कार्यों को प्रत्यक्षतः निर्धारित करती हैं। यह उसके शरीर की आवश्यकताओं पर निर्भर होता है कि उसका मानस परिवेशी विश्व में किन तत्वों को पृथक करेगा और उनके उत्तर में क्या क्रियाएं करेगा


मनुष्य का व्यवहार एक सर्वथा भिन्न सिद्धांत पर आधारित है। खाने की कुर्सी पर बैठे और चम्मच से खाते हुए छोटे बच्चे की क्रियाएं भी पूरी तरह उसकी नैसर्गिक आवश्यकताओं की उपज नहीं होती। उदाहरण के लिए, बच्चे की भूख की शांति के लिए चम्मच क़तई जरूरी नहीं है। मगर पालन की प्रक्रिया में बच्चा ऐसी वस्तुओं को ऐसी वस्तुओं को ऐसी आवश्यकता की तुष्टि की आवश्यक शर्त मानने का आदी हो जाता है। उसके व्यवहार के रूपों का निर्धारण स्वयं आवश्यकता से नहीं, अपितु उसकी तुष्टि के समाज में स्वीकृत तरीक़ों से होने लगता है।

अतः बच्चे की क्रियाशीलता आरंभ से ही जैविकतः महत्त्वपूर्ण वस्तुओं द्वारा नहीं, अपितु मनुष्य जिन जिन तरीक़ों से उनका उपयोग करता है, उनके द्वारा, अर्थात सामाजिक व्यवहार में इन वस्तुओं के प्रकार्यों द्वारा प्रेरित की जाती है। बच्चे द्वारा इस प्रकार सीखे गये व्यवहार-संरूप वस्तुओं को मानव व्यवहार में उनके समाज द्वारा विकसित तथा मान्य प्रकार्यों के अनुसार इस्तेमाल करने के तरीक़े हैं, जैसे मेज़ पर और चम्मच से खाना, बिस्तर पर सोना, वग़ैरह।


सभी माता-पिता और शिक्षाविद्‍ भली-भांति जानते हैं कि ऐसी आदतें डाल पाना आसान नहीं है। बच्चा मेज़ या कुर्सी के नीचे घुस जाता है, चम्मच से मेज़ बजाता है, प्लेट में हाथ डालता है, टट्टी-पेशाब लगने पर उन्हें उनके लिए नियत जगहों और तरीकों से करना भूल जाता है, वग़ैरह। ऐसी ‘शरारतों’ और ‘गंदी बातों’ से लगातार लड़ना और कुछ नहीं, बल्कि बड़ों द्वारा बच्चों को संबंधित वस्तुओं के इस्तेमाल के सामाजिकतः स्वीकृत तरीक़े सिखाना और संबंधित वस्तुओं को इस्तेमाल करके अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि के मानवसुलभ रूप बताना ही है। 

बच्चे की आवश्यकताओं की तुष्टि से जुड़े मानव परिवेश के प्रभाव से वस्तुओं का जैव महत्त्व धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में चला जाता है और बच्चे के व्यवहार में उनका सामाजिक महत्त्व निर्णायक भूमिका अदा करने लगता है

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

आवश्यकताओं की क़िस्में

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताओं पर चर्चा की थी, इस बार आवश्यकताओं की क़िस्मों पर एक मनोवैज्ञानिक नज़रिया देखते हैं।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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आवश्यकताओं की क़िस्में


मनुष्य की आवश्यकताओं का सामाजिक स्वरूप भी होता है और व्यक्तिगत स्वरूप भी। वास्तव में अपनी देखने में संकीर्ण व्यक्तिगत आवश्यकताओं ( उदाहरणार्थ, जैसे भोजन की आवश्यकता ) की तुष्टि के लिए भी मनुष्य सामाजिक श्रम-विभाजन के फलों को इस्तेमाल करता है ( उदाहरण के लिए, रोटी किसानों, कृषिविज्ञानियों, विभिन्न कृषि यंत्र चालकों, अनाज-गोदाम कर्मियों, बेचने वालों, चक्कीवालों, आदि के संयुक्त श्रम-प्रयासों का वास्तवीकृत परिणाम है )। इसके अतिरिक्त, मनुष्य दत्त सामाजिक परिवेश में ऐतिहासिकतः विकसित उपभोग के साधन तथा तरीक़े इस्तेमाल करता है और कुछ निश्चित शर्तों की पूर्ति चाहता है ( उदाहरण के लिए, खाना खाने से पहले खाने वाले के लिए उसे स्वीकार्य तरीक़े से पकाना जरूरी है। फिर खाना खाने के साधनों की भी जरूरत होगी और कुछ समय तथा स्वच्छता संबंधी शर्तें भी पूरी करनी होंगी )।

अतः बहुत सारी मानवीय आवश्यकताएं व्यक्ति की संकीर्ण आवश्यकताएं कम और उस समाज, उस समूह की आवश्यकताएं ज़्यादा होती हैं, जिसका वह व्यक्ति सदस्य है और जिसमें वह कार्य करता है। यहां समूह की आवश्यकताएं व्यक्ति की अपनी आवश्यकताओं का रूप ग्रहण कर लेती हैं। इसे स्पष्ट करने के लिए एक ऐसे विद्यार्थी की मिसाल लेते हैं जिसे अपने ग्रुप या कक्षा की सभा में किसी कार्य-विशेष के संदर्भ में एक रिपोर्ट पेश करने का काम सौंपा गया है। वह विद्यार्थी बड़े ध्यान और मनोयोग से रिपोर्ट तैयार करता है, किंतु इसलिए नहीं कि रिपोर्ट तैयार करने का काम उसके लिए किसी रोचक पुस्तक को पढ़ने या पसंद का खेल खेलने से ज़्यादा आकर्षक है, बल्कि सिर्फ़ इसलिए कि वह अपने समूह या कक्षा के अनुरोध को पूरा करने की, उस समूह का अंग होने के नाते अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह की आवश्यकता महसूस करता है।

आवश्यकताओं में उनके मूल और विषय के अनुसार भेद किया जा सकता है। अपने मूल की दृष्टि से आवश्यकताएं नैसर्गिक और सांस्कृतिक, इन दो प्रकार की होती है।

नैसर्गिक आवश्यकताएं मनुष्य की सक्रियता की उसके तथा उसकी संतान के जीवन की रक्षा तथा निर्वाह के लिए आवश्यक परिस्थितियों पर निर्भरता की परिचायक हैं। खाना, पीना, मैथुन, निद्रा, शीत तथा अतिशय गर्मी से रक्षा, आदि नैसर्गिक आवश्यकताएं हैं और ये सभी लोगों की होती हैं। यदि कोई नैसर्गिक आवश्यकता लंबे समय तक पूरी नहीं हो पाती है, तो मनुष्य या तो मर जाएगा, या वह अपने पीछे अपनी संतान नहीं छोड़ सकेगा।

यद्यपि आज के लोगों की भी वही नैसर्गिक आवश्यकताएं, जो हमारे पशु पूर्वजों और आदिम लोगों की थीं, फिर भी उनका मनोवैज्ञानिक सारतत्व बिल्कुल भिन्न है। उनकी तुष्टि के उपाय और तरीक़े ही नहीं बदल गये हैं, बल्कि इससे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि स्वयं आवश्यकताओं में तात्विक परिवर्तन आ गया है और आज का आदमी उन्हें उस रूप में महसूस नहीं करता, जिस रूप में उसके प्रागैतिहासिक पुरखे किया करते थे। मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकताओं का सामाजिक-ऐतिहासिक स्वरूप होता है

सांस्कृतिक आवश्यकताएं मनुष्य की सक्रियता की मानव संस्कृति के उत्पादों पर निर्भरता की परिचायक है। उनकी जड़े पूर्णतः मानव इतिहास में होती हैं। सांस्कृतिक आवश्यकताओं का विषय वे वस्तुएं हैं, जो किसी स्थापित संस्कृति के दायरे में किसी नैसर्गिक आवश्यकता की पूर्ति करती हैं ( जैसे पश्चिमी छुरी-कांटा, चीनी खाने की डंडियां, आदि )। सांस्कृतिक आवश्यकताओं का विषय वे वस्तुएं भी हैं, जिनकी श्रम, अन्य लोगों से सांस्कृतिक संपर्क और जटिल तथा विविध सामाजिक जीवन में जरूरत पड़ती है। विभिन्न आर्थिक और राजनीतिक पद्धतियों में व्यक्ति अपनी शिक्षा और समाज में स्वीकृत प्रथाओं तथा व्यवहार-संरूपों के आत्मसातीकरण की मात्रा के अनुसार अपनी विभिन्न सांस्कृतिक आवश्यकताएं बनाता है। सांस्कृतिक आवश्यकताओं की तुष्टि ना होने से मनुष्य की मृत्यु तो नहीं होती ( जैसा कि नैसर्गिक आवश्यकताओं के सिलसिले में होता है ), पर उसका मानवत्व अवश्य बुरी तरह प्रभावित होगा।

सांस्कृतिक आवश्यकताएं एक दूसरी से सारतः अपने स्तर के अनुसार, अर्थात वे व्यक्ति से समाज की जिन अपेक्षाओं को प्रतिबिंबित करती हैं, उनके अनुसार भिन्न होती हैं। आख़िर एक युवा आदमी का मार्गदर्शन करने वाली रोचक और शिक्षाप्रद पुस्तकों की आवश्यकता और दूसरे युवक की फ़ैशनेबुल रंगों की टाई की आवश्यकता को एक ही स्तर पर तो नहीं रखा जा सकता। इन दोनों आवश्यकताओं और वे जिन सक्रियताओं का आधार बनती हैं, उनका अलग-अलग मूल्यांकन किया ही जाना चाहिए। नैतिक दृष्टि से उचित आवश्यकता वह है, जो व्यक्ति जिस समाज में रहता है, उस समाज की अपेक्षाएं पूरी करती हैं और जो इस समाज में सामान्यतः मानव रुचियों, मूल्यांकनों तथा सार्विक दृष्टिकोण से मेल खाती हों।

अपने विषयों की प्रकृति के अनुसार आवश्यकताओं को भौतिक और आत्मिक में बांटा जा सकता है।

भौतिक आवश्यकताएं भौतिक संस्कृति की वस्तुओं पर मनुष्य की निर्भरता को दर्शाती हैं ( भोजन, वस्त्र, आवास, घर-गृहस्थी की चीज़ों की आवश्यकताएं ), जबकि आत्मिक आवश्यकताएं सामाजिक चेतना के उत्पादों पर उसकी निर्भरता को प्रकट करती हैं। आत्मिक आवश्यकताएं अपने को आत्मिक संस्कृति के सृजन तथा आत्मसातीकरण में व्यक्त करती हैं। मनुष्य अपने विचारों और भावनाओं में दूसरे लोगों को भागीदार बनाने, पत्र-पत्रिकाएं तथा पुस्तकें पढ़ने, सिनेमा तथा नाटक देखने, संगीत सुनने, आदि की आवश्यकता महसूस करता है।

आत्मिक आवश्यकताएं भौतिक आवश्यकताओं से अभिन्नतः जुड़ी हुई हैं। आत्मिक आवश्यकताओं की तुष्टि भौतिक वस्तुओं ( पुस्तकों. पत्र-पत्रिकाओं, कागज़, रंग, आदि ) के बिना नहीं हो सकती और अपनी बारी में ये सब भौतिक आवश्यकताओं का विषय हैं।

इस तरह अपने मूल की दृष्टि से नैसर्गिक की श्रेणी में आनेवाली आवश्यकता विषय की दृष्टि से भौतिक हो सकती है और मूल की दृष्टि से सांस्कृतिक आवश्यकता विषय की दृष्टि से भौतिक या आत्मिक, कोई भी हो सकती है। इस तरह हम देखते हैं कि यह वर्गीकरण अपने दायरे में अति विविध प्रकार की आवश्यकताओं को शामिल कर लेता है तथा एक ओर, मन के विकास के इतिहास के साथ उनके संबंध को, वहीं दूसरी ओर, वे जिस विषय की ओर लक्षित हैं, उसके साथ संबंध को दर्शाता है।

मनुष्य की क्रियाशीलता को जन्म देने और उसकी दिशा का निर्धारण करने वाली आवश्यकताओं की तुष्टि से संबंधित सक्रियता के प्रणोदकों को अभिप्रेरक या अभिप्रेरणा कहा जाता है। आवश्यकताओं में मनुष्य की परिवेशी परिस्थितियों पर निर्भरता अपने को उसके व्यवहार और सक्रियता की अभिप्रेरणा के रूप में प्रकट करती है। यदि आवश्यकताएं सभी प्रकार की मानव सक्रियता का सारतत्व और प्रेरक शक्ति हैं, तो अभिप्रेरक इस सारतत्व की ठोस, विविध अभिव्यक्तियां हैं। मनोविज्ञान में अभिप्रेरक या अभिप्रेरणा को व्यवहार और सक्रियता की दिशा का निर्धारण करनेवाला कारण माना जाता है।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताएं

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां मानस की परिवेश और अंग-संरचना पर निर्भरता पर चर्चा की थी, इस बार जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताओं पर एक नज़र ड़ालेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताएं


पिछली बार, मानस की परिवेश और अंग संरचना पर निर्भरता पर संक्षिप्त विवेचना में हमने जाना था कि मानस का उदविकास ग्राहियों और संकेतन-सक्रियता के रूपों तथा कार्यों के उत्तरोत्तर जटिलीकरण में प्रकट होता है। इस तरह मानस के उदविकास की प्रक्रिया से गुजरते हुए हम देखते हैं कि सर्वोच्च प्राणियों के मानस और मनुष्य के मानस में बहुत बड़ा अंतर है। मनुष्य और पशुओं के मानस में भेदों पर हम यहां पहले एक बार चर्चा कर चुके हैं। जिज्ञासु व्यक्तियों को मनोविज्ञान के संदर्भ में इस पायदान पर एक बार उस प्रविष्टि मनुष्य और पशुओं के मानस में भेद’ से जरूर गुजर लेना चाहिए।

इसके साथ ही, सामाजिक संबंधों के विकास की पूर्वापेक्षा और परिणाम के रूप में श्रम-सक्रियता को समझने के लिए, उपरोक्त के बाद की प्रविष्टि ‘चेतना के आधार के रूप में श्रम’ से भी इसी पायदान पर गुजरना भी श्रेष्ठ रहेगा। यह दोनों प्रविष्टियां मनोविज्ञान के व्यापक परिप्रेक्ष्य में अभी चल रहे हमारे विषय मन और चेतना की उत्पत्ति तथा उदविकास को समझने में हमारी मदद करेंगी। मन को वस्तुगत रूप से समझ लेना, मानसिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए एक महत्त्वपूर्ण आधार का काम करेगा।

अब हम आगे बढ़ते हैं और जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की ओर कदम बढ़ाते हैं।

जीवधारियों की एक सार्विक विशेषता उनकी क्रियाशीलता है, जिसके जरिए वे परिवेशी विश्व से अपने जीवनीय संबंध बनाए रखते हैं। क्रियाशीलता जीवधारियों में अंतर्निहित स्वतंत्र प्रतिक्रिया की क्षमता है। क्रियाशीलता का स्रोत जीवधारियों की आवश्यकताएं हैं, जो उसे किसी निश्चित ढ़ंग से कार्य करने को प्रेरित करती हैं। आवश्यकता अवयवी की वह अवस्था है, जो उसकी उसके अस्तित्व की ठोस परिस्थितियों पर निर्भरता को व्यक्त करती है और उसे इन परिस्थितियों के संबंध में क्रियाशील बनाती है

मनुष्य की क्रियाशीलता अपने को आवश्यकताओं की तुष्टि की प्रक्रिया में प्रकट करती है और यह प्रक्रिया स्पष्टतः दिखाती है कि मनुष्य की क्रियाशीलता तथा पशुओं के व्यवहार में क्या अंतर है। पशु अपने व्यवहार में क्रियाशीलता इसलिए दिखाता है कि उसकी प्राकृतिक संरचना ( शरीर तथा अंगों की रचना तथा सहजवृत्तियां ) जैसे कि पहले ही निर्धारित कर देती हैं कि कौन-कौन सी वस्तुएं उसकी आवश्यकताओं का विषय बन सकती हैं, और इस तरह उसमें उन वस्तुओं को पाने की सक्रिय इच्छा पैदा करती है। जीव-जंतुओं का अपने को परिवेश के अनुकूल बनाना वास्तव में इसपर निर्भर होता है कि वे अपनी आवश्यकताओं को किस हद तक तुष्ट कर सकते हैं। किसी भी पशु की क्रियाशीलता को वह प्राकृतिक वस्तु उत्प्रेरित करती है, जो उसकी आवश्यकताओं का प्रत्यक्ष अंग है


किंतु मनुष्य की क्रियाशीलता का तथा जो आवश्यकताएं उसका स्रोत हैं, उनका स्वरूप इससे भिन्न है। मनुष्य की आवश्यकताएं उसके पालन की प्रक्रिया में बनती हैं, अर्थात वे उसके द्वारा मानव संस्कृति के आत्मसातीकरण का परिणाम होती हैं। इस तरह प्राकृतिक वस्तु मात्र शिकार, आदि द्वारा हासिल की हुई वस्तु, यानि आहार का जैविक अर्थ रखने वाली वस्तु ही नहीं रह जाती है। श्रम के औजारों के माध्यम से मनुष्य इस वस्तु को बदल और ऐतिहासिक विकास की लंबी प्रक्रिया के फलस्वरूप बनी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ढ़ाल सकता है। अतः मनुष्य द्वारा अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि वास्तव में एक सक्रिय सोद्देश्य प्रक्रिया है, जिसके जरिए मनुष्य सामाजिक विकास द्वारा निर्धारित सक्रियता के किसी निश्चित रूप को सीखता है

मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि करने के साथ-साथ उसका विकास और रूपांतरण भी करता है। आज के मनुष्य की आवश्यकताएं उसके पूर्वजों की आवश्यकताओं से भिन्न हैं। इसी तरह उसके वंशजों की आवश्यकताएं भी उसकी आवश्यकताओं से भिन्न होंगी।

जैसा कि कहा जाता है एक आदर्श व्यवस्था वह होगी जहां हर मनुष्य अपनी योग्यतानुसार काम करेगा और अपनी आवश्यकतानुसार प्रतिदान पाएगा, तो क्या इससे हम यह निष्कर्ष निकालें कि जो अपनी सभी आवश्यकताओं की सहज पूर्ति का अवसर पाता है, वह स्वतः अपने में व्यक्ति के उच्च गुण विकसित कर लेगा और उसकी क्रियाशीलता स्वतः उच्च आदर्शों की ओर लक्षित होगी? ऐसा निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा। आवश्यकताओं की तुष्टि मनुष्य के सर्वतोमुखी विकास की शर्त तो है, पर यही एकमात्र शर्त नहीं है। इसके अलावा व्यक्तित्व-निर्माण की अन्य शर्तों, विशेषतः श्रम, के अभाव में आवश्यकताओं की सहज तुष्टि की संभावना बहुधा व्यक्ति को पतन की ओर ही ले जाती हैं।

पराश्रयी आवश्यकताएं, जिनपर श्रम का अंकुश नहीं होता, समाजविरोधी और आपराधिक व्यवहार का स्रोत बन सकती हैं और बनती भी हैं। अतएव एक बेहतर समाज की पूर्वापेक्षा यह है कि श्रम की आवश्यकता को प्रोत्साहित करना मनुष्य की शिक्षा का अनिवार्य अंग हो।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

मानस की परिवेश और अंग-संरचना पर निर्भरता

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां पशुओं के बीच संप्रेषण और उनकी ‘भाषा पर चर्चा की थी, इस बार विकसित होते मानस की परिवेश और अंग-संरचना पर निर्भरता पर एक नज़र डालेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मानस की परिवेश और अंग-संरचना पर निर्भरता


        यदि जीवधारियों का वासस्थान सर्वत्र एक ही जैसा होता, तो सारी पृथ्वी पर शायद एक ही जाति के जीव रह रहे होते। किंतु वास्तव में जलवायु और वासीय परिस्थितियों के लिहाज़ से परिवेश बहुत ही विविध है और इसी कारण जीवजातियों में इतनी अधिक विविधता पाई जाती है। पृथ्वी पर १० लाख से अधिक क़िस्मों की जीवजातियां रहती हैं। फिर अपनी सारी विविधताओं की बावज़ूद पर्यावरणीय परिघटनाओं में वार्षिक चक्र, दिन और रात्रि का एकांतरण, तापमान में उतार-चढ़ाव, आदि चक्रीय परिवर्तन आते रहते हैं। सभी जीव अवयवियों को अपने को विद्यमान स्थितियों के अनुरूप ढ़ालना पड़ता है।

        सामान्य उत्तेजनशीलता से आरंभ होनेवाला आत्म-नियमन मनुष्य की सृजनात्मक तर्कबुद्धि में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचता है।

        परावर्तन की प्रणालियां जितनी ही उन्नत होंगी, जीवजाति परिवेश के प्रत्यक्ष प्रभाव से उतना ही अधिक स्वतंत्र होगी। एककोशीय अवयवी पूरी तरह और प्रत्यक्ष रूप से परिवेशीय परिस्थितियों पर निर्भर होता है। उच्चतर जीवों का व्यवहार निम्नतर जीवों से अत्यधिक भिन्न होता जाता है। बहुत से जीव देशांतरण करते हैं। स्तेपियाई कछुए औए चूहे अपने को ज़मीन में गहरे गाड़ लेते हैं, जहां तापमान उनके अस्तित्व के ज़्यादा अनुकूल होता है। ऐसा वे सहजवृत्तिवश करते हैं। अधिक गर्मी में हाथी अपने पर ठंड़ा पानी डालता है तथा घनी छांह में शरण लेता है। इसी तरह बंदर भी ऐसी जगह चुनता है, जहां गर्मी को ज़्यादा आसानी से झेला जा सकता है। वे सहजवृत्तियों के अलावा, अनुकूलित संबंधों यानि जीवनकाल में संचित अनुभवों से भी निदेशित होते हैं।

        इस तरह जीव-जंतु अपने को परिवेश पर प्रत्यक्ष निर्भरता से शनैः शनैः मुक्त करते जाते हैं। किंतु जीवधारी पर्यावरण से पूर्णतः स्वतंत्र कभी नहीं होंगे, चाहे उनके विकास का स्तर कितना ही ऊंचा ही क्यों न हो। पर्यावरण जीव अवयवियों के लिए अस्तित्व की एक आवश्यक शर्त और जीवन का एक मुख्य निर्धारक कारक है। दूसरे शब्दों में कहें, तो सभी जीवधारियों का अस्तित्व परिवेशी परिस्थितियों द्वारा निर्धारित होता है

        परावर्तन की पर्याप्तता मुख्य रूप से ज्ञानेन्द्रियों और तंत्रिका-तंत्र की संरचना पर निर्भर होती हैं। किसी क्षोभक या उत्तेजक के बारे में ग्राही की प्रतिक्रिया जितनी ही सही होगी, उतनी ही पर्याप्त वह प्रतिक्रिया होगी। कुछ सीमाओं के भीतर इन दोनों के बीच प्रत्यक्ष संबंध है। उदाहरण के लिए, चाक्षुष ग्राही का विकास अवयवी द्वारा अपने को सूर्य के विसरित प्रकाश के परावर्तन के अनुकूल बनाने पर निर्भर था।

        एककोशीय और सरलतम बहुकोशीय सीलेंटरेटा में प्रकाश की केवल सामान्य प्रतिक्रिया, प्रकाशानुवर्तन देखी जा सकती है। केंचुए की बाह्यत्वचा में प्रकाशसंवेदी कोशिकाएं होती हैं, ये कोशिकाएं प्रकाश और अंधकार के बीच भेद कर सकती हैं। चपटे मोलस्क में प्रकाशसंवेदी कोशिकाओं के कई समूह पाये जाते हैं, जो शरीर में धंसी हुई एक छोटी थैली पर बनी होती हैं। दर्शनेंद्रिय की ऐसी रचना की बदौलत मोलस्क प्रकाश की विद्यमानता और अभाव को दर्ज़ कर लेने के साथ-साथ यह भी जान लेता है कि प्रकाश किधर से आ रहा है। कीटों की आंखों की फलकित रचना उन्हें छोटी वस्तुओं की आकृति का पता लगाने में मदद देती है। अधिकांश कशेरुकियों की आंखों में विशेष अपवर्तन लेंस बने होते हैं, जिनकी बदौलत वस्तु की रूपरेखा स्पष्टतः देखी जा सकती है।

        ग्राहियों का विकास कुछ सीमाओं के भीतर तंत्रिका-तंत्र के एक विशेष प्ररूप के विकास से जुड़ा हुआ है। ज्ञानेंद्रियों और तंत्रिका-तंत्र के विकास का स्तर अनिवार्यतः मानसिक परावर्तन के स्तर तथा रूपों का निर्धारण करता है

        विकास की निम्नतर अवस्था के जालनुमा तंत्रिका-तंत्रवाले जीव उद्दीपनों का उत्तर मुख्यतः अनुवर्तनों से देते हैं। उनके अस्थायी संबंध कठिनता से बनते हैं और जल्दी ही लुप्त हो जाते हैं। गुच्छिकीय तंत्रिका-तंत्र वाले अवयवियों के परावर्तन में गुणात्मक परिवर्तन आते हैं। अधिक उन्नत गुच्छिकीय तंत्रिका-तंत्र से युक्त जीव जन्मजात और अर्जित, दोनों तरह के प्रतिवर्तों की मदद से बाह्य प्रभावों का परावर्तन करते हैं। किंतु इस चरण में बहुसंख्य आनुवांशिक प्रतिक्रियाएं स्पष्टतः प्रमुख भूमिका अदा करती हैं।

        नलिकादार तंत्रिका-तंत्र इससे उच्चतर क़िस्म का तंत्रिका-तंत्र है। उदविकास के दौरान कशेरुकी मेरु-रज्जु और मस्तिष्क, यानि केंन्द्रीय तंत्रिका-तंत्र का विकास कर लेते हैं। तंत्रिका-तंत्र के विकास के साथ-साथ जीवों की ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति तथा सुधार भी होता रहता है। तंत्रिका-तंत्र और ग्राही जैसे-जैसे परिष्कृत बनते जाते हैं, वैसे-वैसे मानसिक परावर्तन के रूप भी जटिलतर होते जाते हैं। उदविकास नये मानसिक प्रकार्यों को जन्म देता है और जो पहले से विद्यमान थे, उनमें सुधार करता है। ( संवेदन, प्रत्यक्ष, स्मृति और अंततः चिंतन ) तंत्रिका-तंत्र जितना ही जटिल होगा, मानस उतना ही परिष्कृत बनेगा। कशेरुकियों के उदविकास में मस्तिष्क और इसके स्थानीय प्रकार्यात्मक केंद्रों का विभेदन का विशेष महत्व है। जितने उच्च स्तर का प्राणी होगा, ये क्षेत्र उतने ही परिष्कृत होंगे।

        इस प्रकार मानस का उदविकास ग्राहियों और संकेतन-सक्रियता के रूपों तथा कार्यों के उत्तरोत्तर जटिलीकरण में प्रकट होता है

        प्राणियों के शरीर, तंत्रिका-तंत्र और ज्ञानेंद्रियों के विकास के फलस्वरूप परावर्तन के रूपों में परिमाणात्मक और गुणात्मक परिवर्तन आते हैं और परिवेश के साथ जीवधारियों के उत्तरोत्तर जटिल एवं बहुविध संबंध जन्म लेते हैं। मानसिक क्रियाएं जीव के वासस्थान और जीव की बनावट की विशिष्टताओं के अनुरूप विकास करती हैं। किंतु यह सोचना गलत होगा कि यदि परिस्थितियां एक जैसी हैं, तो सभी जीवों में एक ही जैसे मुख्य ग्राही विकसित होंगे। उनमें संवेदिता का जातिगत विकास मुख्यतः इसपर निर्भर होता है कि किस प्रकार के उत्तेजन जैविक महत्त्व प्राप्त करते हैं। एक ही जैसे परिवेश में मकड़ी कंपन से निदेशित होती है, मेंढ़क मनुष्य के लिए लगभग अश्रव्य सरसराहट से, चमगादड़ पराश्रव्य ध्वनियों से और कुत्ता मुख्यतः गंधों से ( सभी तरह की गंधों से नहीं, अपितु जैव अम्लों की गंधों से, क्योंकि कुत्ते की घ्राणशक्ति फूलों, जड़ी बूटियों, आदि की गंध के मामले में इतनी अधिक तीव्र नहीं होती )।

        मानस का विकास ऋजुरैखिक ढ़ंग से नहीं होता। वह एक साथ बहुत-सी दिशाओं में होता है। एक ही तरह के परिवेश में बहुत ही भिन्न परावर्तन-स्तरोंवाले जीव पाये जाते हैं। यही बात उल्टे क्रम में भी होती ह, यानि बहुत ही भिन्न परिवेशों में एक जैसे परावर्तन-स्तरवाले जीव मिल सकते हैं। उदाहरण के लिए, सामान्यतः माना जाता है कि इस दृष्टि से डोल्फ़िनों, हाथियों और भालूओं का समान रूप से ऊंचा परावर्तन स्तर है।

        परिवेश अपरिवर्तनशील नहीं है। सब कुछ की भांति परिवेश भी बदलता रहता है और उसमें रहने वाली जीवजातियां अपने को उसके अनुकूल ढ़ालती रहती हैं। मगर हो सकता है कि कुछ जातियों के लिए परिवेश इतना अधिक बदल जाए कि उसका उनकी मानसिक क्रियाओं पर गंभीर प्रभाव पड़े, जबकि अन्य जातियों की मानसिक क्रियाओं का विकास उससे नाममात्र को ही प्रभावित हो। उदाहरणार्थ, वासीय परिस्थितियों में आमूल परिवर्तन से प्राचीन मानवाभ वानरों के व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन आया था और अंततः यह पृथ्वी पर मनुष्य की उत्पत्ति का कारण बना

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 25 सितंबर 2010

संप्रेषण और पशुओं की "भाषा"

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां पशुओं के बौद्धिक व्यवहार पर चर्चा की थी, इस बार पशुओं के बीच संप्रेषण पर कुछ तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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संप्रेषण और पशुओं की "भाषा"


‘सामाजिक’ प्राणियों के परस्पर संबंध कभी-कभी अत्यधिक जटिल होते हैं। गुच्छिकीय तंत्रिकातंत्र वाले जीवों में भी, जो बड़े-बड़े समूह बनाकर रहते हैं, न केवल जटिल सहजवृत्तिमूलक व्यष्टिक व्यवहार मिलता है, बल्कि वे समूह के सदस्यों की "भाषा" ( यहां भाषा से अभिप्राय किसी भी संकेत-तंत्र अथवा सूचना-संप्रेषण के किसी भी माध्यम से है ) के बारे में अत्यंत परिष्कृत सहज प्रतिक्रियाएं भी दिखाते हैं।


उदाहरण के लिए, पाया गया है कि मकरंद लेकर लौटती और एक निश्चित अंदाज़ में हरकतें ( "नृत्य") करती हुई मधुमक्खी इस ढंग से सारे मधुमक्खी समुदाय को ऐसे फूलों के स्थान की सूचना देती हैं, जिनसे मकरंद मिल सकता है। चींटियों की "भाषा" भी बड़ी जटिल है। कुछ निश्चित हरकतें एक निश्चित संकेत का काम करती हैं। प्रेरक अनुक्रियाएं संयुक्त कार्य के आह्वान, भोजन की प्रार्थना, आदि की परिचायक भी हो सकती हैं।

गुच्छिकीय तंत्रिका-तंत्र से युक्त जीवों की "भाषा" मुद्राओं, ध्वनि-संकेतों, रासायनिक ( गंध संबंधी ) सूचना और तरह-तरह के स्पर्शमूलक संकेतों से बनी होती है। समुदाय में कीटों का व्यवहार प्रेक्षक को अपनी सामान्य कार्यसाधकता और समन्वय से चकित कर देता है। फिर भी यह समन्वित कार्यसाधकता सूचना पाने वाले जीवों की रूढ़ बनी हुई प्रतिक्रियाओं की उपज है। उनकी प्रतिक्रियाएं सूचना के किसी भी तरह के विश्लेषण या संसाधन से पूर्णतः वंचित होती हैं। उनके द्वारा ग्रहण किये गये संकेत स्वतः अनुक्रिया उत्पन्न करते हैं, जिसका स्वरूप उदविकास के दौरान निश्चित हुआ था।

उच्चतर जीवों ( पक्षियों, स्तनपायियों ) के समुदायों में भी कुछ निश्चित प्रकार के परस्पर-संबंध मिलते हैं। उनका हर जमघट अनिवार्यतः उसके विभिन्न सदस्यों के बीच सम्पर्क के लिए आवश्यक "भाषा" के जन्म का कारण बन जाता है


हर समुदाय में जैविकतः स्वाभाविक असमानता पायी जाती है, यानि शक्तिशाली जीव निर्बल जीवों को दबाते हैं। जो शक्तिशाली होते हैं, उन्हें आहार का बेहतर भाग मिलता है। निर्बल जीव अन्य जातियों के जीवों के लिए आहार का काम करते हुए अपनी जाति के सर्वोत्तम जीवों की उत्तरजीविता सुनिश्चित करते हैं। दूसरी ओर, निर्बल जीवों के पास ऐसे साधन भी होते हैं, जो समुदाय के भीतर उन्हें सापेक्ष सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। इन साधनों में अधीनता की विशिष्ट मुद्रा भी है, जिसके माध्यम से अधिक शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी से लड़ाई में हारा हुआ जीव अपनी पराजय-स्वीकृति की सूचना देता है।

हम अपने आस-पास विभिन्न पक्षियों, मुर्गे-मुर्गियों, कुत्तों आदि की ऐसी कई आक्रामक और अधीनता की मुद्राओं का प्रदर्शन देख सकते हैं। एक ऐसी स्थिति यूं देखी गई, एक युवा भेडि़ये ने, जो अपने में अदम्य शक्ति का उभार महसूस कर रहा था, झुंड़ के सरदार पर हमला कर दिया। मगर बूढ़े तपे हुए लड़ाके ने युवा दावेदार को अपने दांतों की ताकत जल्दी ही महसूस करवा दी। युवा भेड़िए ने तुरंत अधीनता-स्वीकृति की मुद्रा अपना ली, उसने अपने शरीर का सबसे नाज़ुक हिस्सा, यानि अपनी गरदन, जिसे लड़ाई के दौरान जानवर बहुत बचाकर रखता है, सरदार के सामने कर दी। बूढ़े सरदार का सारा गुस्सा तुरंत शांत हो गया, क्योंकि हारे हुए प्रतिद्वंद्वी के संकेत ने उसमें हजारों पीढ़ियों के अनुभव से उत्पन्न सहजवृत्ति को जगा दिया था। अधीनता की मुद्राएं समूहों में रहनेवाले सभी जीवों में मिलती हैं। वानरों में तो वे बड़ी ही अभिव्यक्तिपूर्ण होती हैं।

मुद्राओं और स्पर्शजन्य संपर्कों की "भाषा" के अतिरिक्त एक श्रव्य संकेतों की "भाषा" भी है। अनुसंधानकर्ताओं ने कौओं, डोल्फ़िनों और बंदरों की जटिल संकेत प्रणालियों का वर्णन किया है। जीवों द्वारा पैदा की गई ध्वनियां उनकी संवेगात्मक अवस्था को व्यक्त करती हैं। चिंपाजियों की वाचिक प्रतिक्रियाओं के विश्लेषण ने दिखाया है कि वानरों के मुंह से निकली हर ध्वनि किसी निश्चित प्रतिवर्ती क्रिया से जुड़ी होती है। कई ध्वनि-समूहों को पहचाना गया है, जैसे खाते समय निकाली गई ध्वनियां, दिशा, प्रतिरक्षा और आक्रमण की सूचक ध्वनियां, काम-व्यापार से जुड़ी हुई ध्वनियां, वगैरह।



सभी जीव अपने समुदाय के अन्य सदस्यों की वाचिक प्रतिक्रियाओं पर ध्यान देते हैं। ये प्रतिक्रियाएं समुदाय के सदस्यों को उनके जातिबंधुओं की अवस्था के बारे में भी सूचित करती हैं और इस तरह अंतर्सामुदायिक व्यवहार के लिए दिग्दर्शक का काम करती हैं।



उदाहरणार्थ, भूखे जीव भागकर वहां पहुंच सकते हैं, जहां से कोई चीज़ खा रहे दूसरे जीवों की तृप्तिसूचक आवाजें आ रही हैं। स्वस्थ और तृप्त जीव अपने समुदाय के अन्य जीवों की खेलकूद अथवा अभिविन्यास सूचक आवाजों पर ध्यान देते हैं और इस तरह गति अथवा अभिविन्यासात्मक व्यवहार की आवश्यकता की पूर्ति की संभावना पाते हैं। लड़ते हुए वानरों की आक्रामक आवाजें सुनते ही उनका सरदार झुंड़ में व्यवस्था बनाए रखने के लिए झगड़े के स्थल पर पहुंच जाता है। खतरे का संकेत सारे झुंड में भगदड़ मचा देता है।

किंतु पशुओं की भाषा में एक महत्त्वपूर्ण कमी है, मनुष्यों की भाषा की भांति वह अनुभव के संप्रेषण का साधन नहीं बन सकती। इसलिए चाहे हम यह मान भी ले कि किसी जीव ने आहार प्राप्त करने का कोई निराला तरीक़ा निकाला है, वह इस नई जानकारी को चाहने पर भी अपने "भाषायी" साधनों से अन्य जीवों तक नहीं पहुंचा सकता।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय
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