शनिवार, 26 नवंबर 2011

स्वभावो के भेद

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों को समझने की कड़ी के रूप में स्वभाव की संकल्पना को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम स्वभावो के भेद पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



स्वभावो के भेद
( differences in human natures )

व्यक्ति के स्वभाव ( nature ) के बारे में हमारी राय सामान्यतः इस व्यक्ति की मानसिक विशेषताओं के हमारे ज्ञान पर आधारित होती है। इस तरह मानसिकतः सक्रिय मनुष्य को, जो सामाजिक परिवेश में परिवर्तनों पर तुरंत प्रतिक्रिया दिखाता है, नये-नये अनुभव पाना चाहता है, उचित हद तक आशावादी है, स्फूर्तिवान और ज़िंदादिल है और हाव-भाव के मामले में उन्मुक्त है, उसे रक्तप्रकृति ( प्रफुल्लस्वभाव ) मनुष्य कहा जाता है। श्लैष्मिक प्रकृति ( शीतस्वभाव ) उसे कहा जाता है, जो अति-संयत है, जिसकी इच्छाएं तथा मनोदशाएं बदलती नहीं रहतीं, जिसकी भावनाओं में स्थायित्व तथा गहनता है, जो अपना संतुलन नहीं खोता, ऊंची आवाज़ में नहीं बोलता और मन के भावों को बाहर नहीं आने देता। इसके विपरीत पित्तप्रकृति ( कोपशील ) व्यक्ति की विशेषताएं उर्जा का उफान, काम के प्रति घोर लगन, कर्मठता, सहज ही भावावेश में आ जाना, मनोदशा में एकाएक परिवर्तन और असंयत चेष्टाएं हैं। वातप्रकृति ( विषादी ) मनुष्य संवेदनशील, सहज ही चोट खा जानेवाला, बाहर से संयत लगने पर भी भावुक, मंदगति और मंदभाषी होता है।

हर प्रकार के स्वभाव में मानसिक विशेषताओं का अपना अन्योन्यसंबंध, क्रियाशीलता तथा संवेगात्मकता का अपना अनुपात और अपनी विशिष्ट गतिशीलता होती है। दूसरे शब्दों में कहें, तो हर स्वभाव के लिए मनुष्य की प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति की एक निश्चित संरचना अभिलाक्षणिक है। स्वाभाविकतः सभी लोगों को इन चार कोटियों में नहीं रखा जा सकता। फिर भी उपरोक्त भेदों को सामान्यतः मुख्य भेद माना गया है और अधिकांश लोग उसके अंतर्गत आते हैं।

१२-१३ वर्ष की आयु में स्वभाव के मुख्य भेदों की ठेठ मिसालें कुछ इस तरह दी जा सकती हैं।

रक्तप्रकृति ( प्रफुल्लस्वभाव ) - राहुल बड़ा ज़िंदादिल तथा चंचल है, कक्षा में कभी चैन से नहीं बैठता, हर समय कुछ न कुछ करता रहता है, तेज़ और कूदते हुए चलता है, जल्दी-जल्दी बोलता है। बड़ा संवेदनशील है और आसानी से प्रभावित हो जाता है। फिल्म या किताब के बारे में बड़े चाव और उत्साह से बातें करता है, पाठ के दौरान हर नई जानकारी को तुरंत ग्रहण कर लेता है और नये कार्यभारों ( assignments ) को पूरा करने को तैयार रहता है। साथ ही उसकी रुचियां और शौक बड़े अस्थायी हैं तथा जैसे आसानी से पैदा होते हैं, वैसे ही आसानी से खत्म भी हो जाते हैं। उसका चेहरा उसकी मनोदशाओं तथा रवैयों ( attitudes ) को साफ़-साफ़ दिखा देता है। जो पाठ उसे दिलचस्प लगते हैं, उनमें वह अत्यधिक क्षमता दिखाता है, और जो पाठ नीरस ( monotonous ) लगते हैं उनमें जम्हाइयां लेता है, बगल के बच्चों से बातों में व्यस्त रहता है। उसकी भावनाएं और मनोदशाएं बड़ी परिवर्तनशील हैं। कम अंक आने पर उसकी आंखों में आंसू छलछला आते हैं, पर थोड़ी देर बाद ही आधी छुट्टी में गलियारे में उछल-कूद मचाने लगता है। उसकी चंचलता और शोख़पन के बावज़ूद उसे क़ाबू में किया जा सकता है, अनुभवी शिक्षकों की कक्षाओं में वह कभी ऊधम नहीं मचाता। वह अन्य लड़के-लड़कियों से खूब हिला-मिला हुआ है और सामूहिक कार्यों में सक्रिय भाग लेता है।

पित्तप्रकृति ( कोपशील ) - कमल सहपाठियों के बीच अपने उतावलेपन के लिए प्रसिद्ध है। शिक्षक की बातें यदि उसे दिलचस्प लगती हैं, तो वह अत्यंत उत्तेजित हो जाता है और बीच में ही अपनी प्रतिक्रिया दिखाने लगता है। वह बिना सोचे ही प्रश्नों का उत्तर देने को तैयार रहता है और इसीलिए प्रायः अप्रासंगिक ( irrelevant ) उत्तर देता है। चिढ़ने या निराश होने पर बड़ी जल्दी संयम खो बैठता है और लड़ने लगता है। वह अध्यापक को ध्यान से सुनता है और ऐसे ही ध्यान से गृहकार्य और कक्षा में दिया गया काम भी करता है। मध्यांतर में दौड़ता-भागता रहता है या किसी से गुत्थमगुत्था हो जाता है। जल्दी-जल्दी और जोर से बोलता है, और चेहरा अत्यंत अभिव्यक्तिपूर्ण है। सामूहिक कार्यों, खेलकूद में समर्पण भाव से भाग लेता है। कमल की रुचियां स्थायी और स्थिर हैं, वह कठिनाइयों से नहीं घबराता और उन्हें लांघकर ही दम लेता है।

वातप्रकृति ( विषादी ) - सुमित पाठों के दौरान चुपचाप, एक ही स्थिति में बैठा और हाथों में कोई चीज़ लिए उलटता-पुलटता रहता है। उसकी मनोदशा मामूली-सी वजह से भी बदल सकती है। वह बड़ा संवेदनशील है। एक बार शिक्षक ने उसे दूसरी जगह पर बैठने को कहा, यह उसे अच्छा न लगा और वह बहुत देर तक इसके बारे में सोचता रहा और सारे दिन परेशान और उदास रहा। दूसरी ओर, उसमें भावनाएं धीरे-धीरे ही जागृत होती हैं। सर्कस में वह काफ़ी समय तक चुपचाप , भावशून्य बैठा रहता है, फिर धीरे-धीरे चेहरे पर मुस्कान उभरती है और वह हंसने तथा पडौ़सियों से बातें करने लगता है। वह बड़ी जल्दी घबड़ा जाता है। वह अपनी भावनाओं को मुश्किल से ही प्रकट होने देता है। कम अंक मिलने पर वह चुपचाप, चेहरे के भाव में कोई परिवर्तन लाए बिना अपनी जगह पर जाकर बैठ जाता है, मगर जब घर पहुंचता है, तो देर तक शांत नहीं हो पाता। प्रश्नों के उत्तर झिझकते-झिझकते और रुकते-रुकते देता है। अपनी योग्यताओं और ज्ञान के बारे में कोई ऊंची राय नहीं रखता, हालांकि उनका स्तर सामान्य से ऊंचा ही है। कठिनाइयों से विचलित हो जाता है और अक्सर काम को अंत तक पूरा नहीं कर पाता।

श्लैष्मिक प्रकृति ( शीतस्वभाव ) - सुधीर मंदगति और शांत लड़का है। उत्तर अच्छी तरह जानने पर भी विलंब से और बिना किसी उत्साह के देता है। वह अतिरिक्त दिमाग़ी मेहनत से कतराता नहीं और चाहे कितनी भी देर तक काम करे, कभी थकता नहीं है। वह बोलते समय आवाज़ एक सी बनाए रखता है, अपनी बात को विस्तार से और लंबे-चौडें तर्कों के साथ पेश करना पसंद करता है। वह बाहर से सदा शांत बना रहता है और कक्षा की कोई भी घटना उसे चकित नहीं करती। उसे गणित और शारीरिक व्यायाम के पाठ शुरु से ही पसंद थे, और आज भी लगाव बना हुआ है। वह खेलकूद प्रतियोगिताओं में भाग लेता है, पर अन्य अधिकांश बच्चों जैसे अतिशय जोश और उत्तेजना का प्रदर्शन नहीं करता। किसी ने उसे कभी तमाशा करते, खुलकर हंसते-खेलते या परेशान होते नहीं देखा है।

स्वभावो के इन भेदों के पीछे उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के जन्मजात गुणधर्म और तंत्रिका-सक्रियताओं के वैयक्तिक विकास के दौरान उत्पन्न हुए भेद हैं।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 19 नवंबर 2011

स्वभाव की संकल्पना (concept of human nature)

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में इच्छाशक्ति की व्यक्तिपरक विशिष्टताओं को समझने की कोशिश की थी, इस बार से हम व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों को समझने की कोशिश करेंगे और स्वभाव की संकल्पना से चर्चा शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षण
स्वभाव की संकल्पना ( concept of human nature )

वैयक्तिक-मानसिक भेदों में तथाकथित गतिशील अभिलक्षण ( dynamic characteristics ) भी शामिल किए जाते हैं, जो मनुष्य की मनोरचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गतिशील अभिलक्षणों से आशय मुख्य रूप से मानसिक प्रक्रियाओं की सघनता ( denseness ) और गति से होता है। सर्वविदित है कि सक्रियता तथा व्यवहार के अभिप्रेरक और परिवेशी प्रभाव बहुत कुछ एक जैसे होने पर भी लोगों में संवेदनशीलता ( sensitivity ), आवेगशीलता ( impulsiveness ) और ऊर्जा ( energy ) के लिहाज़ से आपस में बड़ा अंतर होता है। उदाहरण के लिए, एक मनुष्य मंद और ढीला-ढाला होता है, तो दूसरा तेज़ और जल्दबाज़ ; एक की भावनाएं बड़ी आसानी से भड़क जाती हैं, तो दूसरा धैर्य और शांति बनाए रखता है ; एक के बोलते समय अगर उसकी हाथ की मुद्राएं तथा चेहरे के भाव भी भी बोलते हैं, तो दूसरा अपने अंगों की गतियों को नियंत्रण में रखता है और चेहरे पर लगभग कोई भाव नहीं आने देता। अन्य स्थितियां समान होने पर गतिशील भेद मनुष्य की सामान्य क्रियाशीलता, उसकी गतिशीलता तथा संवेगात्मकता में भी दिखाई देते हैं।

निस्संदेह मनुष्य के गातिशील अभिलक्षण काफ़ी हद तक उसके द्वारा सीखी गई आदतों ( habits ), रवैयों ( attitudes ) और स्थिति के तकाज़ों पर निर्भर होते हैं। फिर भी इस बारे में दो रायें नहीं है कि विचाराधीन व्यक्तिगत भेदों का एक जन्मजात आधार भी है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि वे अपने को आरंभिक बाल्यावस्था में ही प्रकट कर देते हैं और स्थिर होते हैं, और व्यवहार के विभिन्न रूपों तथा सक्रियता के अत्यंत विविध क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं।

मनुष्य के जन्मजात गतिशील गुण परस्पर-संबद्ध होते हैं और मिलकर स्वभाव ( nature ) के नाम से पुकारे जाते हैं। स्वभाव मनुष्य की प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति ( reactionary tendency ) के प्राकृतिकतः अनुकूलित अभिलक्षणों ( naturally conditioned characteristics ) की समष्टि है

प्राचीन काल में भी वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने वैयक्तिक मानसिक भेदों की प्रकृति पर ध्यान दिया था। प्रसिद्ध आयुर्विज्ञानी हिप्पोक्रेटीज़ ( पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व ) का विश्वास था कि शरीर की अवस्थाएं मुख्य रूप से ‘रसों’ या शरीर के तरल पदार्थों - रक्त ( blood ), लसीका ( lymph ), पित्त ( bile ) - के परिणामात्मक अनुपात पर निर्भर होती हैं। शनैः शनैः यह माना जाने लगा कि मनुष्य की मानसिक विशेषताएं शरीर में जीवनदायी रसों के इस अनुपात पर निर्भर होती हैं। दूसरी शताब्दी ईसापूर्व के रोमन शरीररचनाविज्ञानी गालेन ने पहली बार स्वभावों का विशद वर्गीकरण किया और उनके १३ भेद बताए। बाद में उनकी संख्या घटाकर केवल ४ कर दी गई। उनमें से प्रत्येक में शरीर के चार द्रवों - रक्त, लसीका, पीत पित्त और कृष्ण पित्त - में से किसी एक द्रव की प्रधानता होती है। ये चार प्रकार के स्वभाव इस प्रकार थे : रक्तप्रकृति ( प्रफुल्लस्वभाव, उत्साही ), श्लैष्मिक प्रकृति ( शीतस्वभाव ), पित्तप्रकृति ( कोपशील ) और वातप्रकृति ( विषादी )।

प्राचीन यूनानी-रोमन विज्ञान द्वारा प्रतिपादित स्वभाव के शारीरिक आधार के सिद्धांत में अब केवल ऐतिहासिक रूचि ली जा सकती है। फिर भी यह कहना ही होगा कि प्राचीन मनीषियों के इस विचार की विज्ञान के उत्तरकालीन विकास से पूर्ण पुष्टि हो गई है कि वैयक्तिक प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्तियों ( मानस की गत्यात्मक अभिव्यक्तियों ) के सभी रूपों को चार आधारभूत रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

बाद के युगों में स्वभावों के बीच भेदों का कारण बताने के लिए बहुत-सी प्राक्कल्पनाएं ( hypothesis ) प्रस्तुत की गईं। वैज्ञानिक चिंतन पर प्राचीन आयुर्विज्ञानियों के प्रभाव की पुष्टि देहद्रवी तंत्रों को दिये गए महत्व से होती है। जर्मन दार्शनिक इम्मानुएल कांट ( १८वीं शताब्दी ) का विश्वास था कि स्वभाव का निर्धारण रक्त के गुणधर्मों से होता है। इससे ही मिलता जुलता मत रूसी शरीररचनाविज्ञानी प्योत्र लेसगाफ़्त  ने व्यक्त किया, जिन्होंने लिखा ( १९वीं शताब्दी के अंत में ) कि स्वभाव रक्त के संचार, विशेषतः रक्त वाहिकाओं की भित्तियों की मोटाई तथा प्रत्यास्थता, उनके आंतरिक व्यास, ह्र्दय के आकार, आदि की क्रिया है। इस सिद्धांत के अनुसार शरीर की उत्तेज्यता के व्यक्तिपरक अभिलक्षण और विभिन्न उद्दीपनों के संबंध में शरीर की प्रतिक्रिया की अवधि रक्त के प्रवाह की गति और दाब पर निर्भर होते हैं। जर्मन मनश्चिकित्सक एन्सर्ट क्रेट्‍श्मेर ने यह विचार प्रतिपादित किया ( १९२० के दशक और बाद में ) कि मनुष्य की मनोरचना उसके शरीर की रचना तथा डील-डौल के अनुरूप होती है। यहां डील-डौल और कतिपय मानसिक विशेषताओं के बीच संबंध इसलिए है कि उनका एक ही आधार है : रक्त की रासायनिक संरचना और अंतःस्रावी तंत्र की ग्रंथियों द्वारा निस्सारित हार्मोन। १९४० के दशक में अमरीकी वैज्ञानिक वाल्टर शेल्डन ने भी यही मत प्रकट किया कि मनुष्य की वैयक्तिक मानसिक विशेषताएं हार्मोनी तंत्र द्वारा नियंत्रित शारीरिक ढांचे से, यानी शरीर के विभिन्न ऊतकों के परस्परसंबंध से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होती है।

यह नहीं कहा जा सकता कि ये मत सर्वथा निराधार हैं। किंतु वे समस्या के एक ही पहलू की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं और वह भी मुख्य पहलू नहीं है। सभी मानसिक परिघटनाएं सीधे मानस के आधारभूत अंग, मस्तिष्क के गुणधर्मों की उपज होती हैं और यही मुख्य बात है। यद्यपि शरीर के तरलों अथवा रसों के महत्त्व का प्राचीन विचार हार्मोनी कारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका से संबद्ध बाद के विचारों से मेल खाता है, फिर भी स्वभाव के प्राकृतिक आधार के बारे में आजकल किए जा रहे अनुसंधान इस बुनियादी तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते कि व्यवहार की गतिकी ( dynamics ) को प्रभावित करनेवाले सभी आंतरिक ( और बाह्य ) कारक अपना कार्य अनिवार्यतः मस्तिष्क के माध्यम से करते हैं। आधुनिक विज्ञान स्वभाव के व्यक्तिपरक भेदों का कारण मस्तिष्क ( प्रमस्तिष्कीय प्रांतस्था और अवप्रांतस्था केंद्रों ) की प्रकार्यात्मक ( functional ) विशेषताओं में, उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के गुणधर्मों में देखता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 12 नवंबर 2011

इच्छाशक्ति की व्यक्तिपरक विशिष्टताएं

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में संकल्पात्मक क्रियाओं की संरचना को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम इच्छाशक्ति की व्यक्तिपरक विशिष्टताओं पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



इच्छाशक्ति की व्यक्तिपरक विशिष्टताएं
( Subjective features of volition )

मनुष्य की सक्रियता के सचेतन संगठन तथा नियमन ( regulation ) के रूप में इच्छाशक्ति आंतरिक कठिनाइयों को लांघने की ओर लक्षित होती है और मुख्य रूप से आत्म-नियंत्रण ( self control ) के रूप में अपने को प्रकट करती है। सर्वविदित है कि आत्म-नियंत्रण की क्षमता सभी लोगों में एक जैसी नहीं होती। इच्छाशक्ति की बहुत ही विविध व्यक्तिपरक विशिष्टताएं मिलती हैं। फिर तीव्रता की दृष्टि से भी, प्रचंड और दुर्बल के बीच इसकी बहुविध अभिव्यक्तियां पाई जाती हैं। प्रचंड इच्छाशक्तिवाला मनुष्य अपने लक्ष्य के मार्ग में आनेवाली कैसी भी कठिनाइयों को लांघ सकता है और दृढ़निश्चय, साहस और सहनशक्ति जैसे संकल्पमूलक गुण प्रकट करता है। इसके विपरीत दुर्बल इच्छाशक्तिवाला आदमी कठिनाइयों से कतराता है, साहस, दृढ़ता तथा संयम का अभाव दिखाता है और नैतिक सिद्धांतों पर आधारित उच्चतर अभिप्रेरकों की ख़ातिर क्षणिक इच्छाओं, आकांक्षाओं को दबाने में असमर्थ सिद्ध होता है।

दुर्बल इच्छाशक्ति की अभिव्यक्तियां भी उतनी ही विविध हैं, जितने विविध दृढ़ इच्छाशक्ति के लिए लाक्षणिक गुण हैं। इच्छाशक्ति की दुर्बलता की चरम अभिव्यक्तियां, जैसे संकल्प-अक्षमता और गति-अक्षमता, सामान्य मानस की सीमा के बाहर है।

संकल्प-अक्षमता सक्रियता के उत्प्रेरण के अभाव और निर्णय लेने या कार्य करने की अयोग्यता को कहते हैं, जिनका कारण मस्तिष्क के विकार हैं। संकल्प-अक्षमता का रोगी चिकित्सक के निर्देशों के पालन की आवश्यकता स्पष्टतः अनुभव करने पर भी अपने को उनके पालन के लिए तैयार नहीं कर पाता। गति-अक्षमता प्रमस्तिष्क के प्रेरक क्षेत्र ( ललाट खंडों ) में विकृतियों के कारण सोद्देश्य क्रियाएं करने की अयोग्यता को कहते हैं। यह अपने को निर्धारित कार्यक्रम के बाहर स्थित गतियों तथा क्रियाओं के ऐच्छिक विनिमयन ( voluntary regulation ) के क्षीण बनने में प्रकट करता है। गति-अक्षमता संकल्पात्मक क्रियाओं के निष्पादन ( execution ) को असंभव बना देती है।

संकल्प-अक्षमता और गति-अक्षमता अपेक्षाकृत विरल विकृतियां हैं और मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचे होने का संकेत देती हैं। शिक्षकों का अपने कार्य के दौरान दुर्बल इच्छाशक्ति की जिस परिघटना से प्रायः साक्षात्कार होता है, सामान्यतः उसका कारण कोई विकृति नहीं, अपितु ग़लत शिक्षा और पालन होते हैं। यह कमी व्यक्तित्व-निर्माण की व्यूह रचना के दायरे में संगठित शिक्षा प्रयासों से दूर की जा सकती है। दुर्बल इच्छाशक्ति की सबसे ठेठ अभिव्यक्ति आलस्य ( laziness ), अर्थात कठिनाइयों से बचने और संकल्पात्मक प्रयासों से कतराने की प्रवृत्ति है। ध्यान देने योग्य बात है कि बहुत-से लोग सामान्यतः अपनी कमियां स्वीकार करने को सहमत न होने पर भी आलस्य को अपनी सभी दिक़्क़तों की जड़ मान लेने पर तुरंत राज़ी हो जाते हैं। "आपने ठीक कहा, मैं आलसी हूं" - मित्रों द्वारा आलोचना किए जाने पर कोई भी आदमी यह कह सकता है और मुस्कुराते हुए अपनी छोटी-मोटी ग़लतियां सहर्ष स्वीकार कर लेता है। इस सहजता से की हुई स्वीकारोक्ति के पीछे वास्तव में मनुष्य की अपने बारे में ऊंची राय छिपी होती है। वह जैसे यह कहती है कि इस आदमी में बहुत से गुण छिपे हैं, जो अगर यह आलसी न होता, तो वे अपने को अवश्य ही प्रकट कर देते।

किंतु स्वीकारोक्ति में छिपा यह भाव सर्वथा भ्रांतिजनक है। निष्कर्मण्यता मनुष्य की अशक्तता तथा ढीले-ढालेपन को, उसकी अपने को जीवन के अनुकूल ढाल पाने की असमर्थता तथा साझे ध्येय के प्रति उदासीनता को इंगित करती है। आलसी मनुष्य की विशेषता नियंत्रण का बाह्य स्थान-निर्धारण है और इसलिए वह ग़ैर-ज़िम्मेदार होता है। आलस्य और दुर्बलता की अन्य अभिव्यक्तियां - कायरता, अनिश्चय, संयम का अभाव, आदि - व्यक्तित्व के गंभीर दोष हैं, जिन्हें दूर करने के लिए बड़े शैक्षिक प्रयासों और मुख्य रूप से कड़ी आत्म-शिक्षा ( self-education ) की आवश्यकता होती है।

इच्छाशक्ति के सकारात्मक गुण, उसकी दृढ़ता की अभिव्यक्तियां सफल सक्रियता की महत्त्वपूर्ण पूर्वापेक्षा ( pre-requisite ) हैं और उनसे मनुष्य के व्यक्तित्व की अच्छी तस्वीर बनती है। इन गुणों में निर्भीकता, कर्मठता, दृढ़निश्चय, आत्मनिर्भरता, आत्म-नियंत्रण, आदि शामिल किए जाते हैं। दृढ़निश्चय ( determination ) एक संकल्पमूलक गुण है, जो दिखाता है कि दत्त मनुष्य स्वतंत्र महत्त्वपूर्ण निर्णय ले सकता है और उन्हें क्रियान्वित कर सकता है। दृढ़ चरित्रवाले मनुष्य में अभिप्रेरकों का द्वंद लंबी प्रक्रिया नहीं बनता और शीघ्र ही किसी निर्णय के लिए जाने और क्रियान्वित किए जाने के साथ समाप्त हो जाता है। यह निर्णय सदा सामयिक ( कभी-कभी तत्क्षण भी ) और खूब सोचा-विचारा होता है। जल्दबाज़ी में लिया हुआ निर्णय प्रायः मनुष्य की आंतरिक तनाव से मुक्ति पाने और अभिप्रेरकों के द्वंद को खत्म करने की इच्छा का सूचक होता है, ना कि चरित्र की दृढ़ता का। दूसरी ओर, निर्णय लेने तथा उसे अमली रूप देने को लगातार टालना निश्चय ही कमज़ोर इच्छाशक्ति का प्रमाण है।

इच्छा की स्वतंत्रता के लिए, एक ओर, दूसरों की सलाहों तथा रायों को सुनना और, दूसरी ओर, उनके बारे में संयत रवैया ( moderate attitude ) अपनाना आवश्यक है। दृढ़निश्चय और स्वावलंबन ( independence ) संकल्पात्मक कार्यों में नियंत्रण के आंतरिक स्थान-निर्धारण के परिचायक होते हैं। स्वतंत्र इच्छा, एक ओर, जिद्दीपन ( waywardness ) तथा नकारवाद ( denial ) की विरोधी है और, दूसरी ओर, सहजप्रभाव्यता ( impressionable ) तथा अनुकारिता ( imitability ) की प्रतिध्रुवस्थ। सहजप्रभाव्य मनुष्य की अपनी कोई राय नहीं होती और उसका व्यवहार परिस्थितियों तथा दूसरे लोगों के प्रभाव पर निर्भर होता है, जबकि जिद्दीपन मनुष्य को तर्कबुद्धि के विरुद्ध कार्य करने और अन्य लोगों की सलाह पर कोई ध्यान न देने को प्रेरित करता है। अंतर्वैयक्तिक संबंधों में आत्म-निर्भरता अथवा इच्छा-स्वातंत्र्य व्यक्तित्व की एक विशेषता के नाते अपने को सामूहिकतावादी आत्म-निर्णय में अधिकतम व्यक्त करते हैं।

इच्छाशक्ति को "दृढ़ता-दुर्बलता" के मापदंड से ही नहीं आंका जा सकता। इच्छा का नैतिक पहलू, उसकी समाजोन्मुखता तथा परिपक्वता भी, अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। दूसरे शब्दों में, संकल्पात्मक कार्यों का नैतिक मूल्यांकन मनुष्य के अभिप्रेरकों की सामाजिक महत्व पर निर्भर होता है



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

शनिवार, 5 नवंबर 2011

संकल्पात्मक क्रियाओं की संरचना

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में इच्छाशक्ति और जोखिम के अंतर्संबंधों पर चर्चा की थी, इस बार हम संकल्पात्मक क्रियाओं की संरचना को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संकल्पात्मक क्रियाओं की संरचना
( structure of volitive actions )

मनुष्य की इच्छाशक्ति और सामान्यतः क्रियाशीलता का आधार उसकी आवश्यकताएं ( needs ) हैं, जो क्रियाओं और कार्यों के लिए तरह-तरह के अभिप्रेरकों ( motivators ) को जन्म देती हैं।

संकल्पात्मक क्रियाओं के अभिप्रेरक

मनोविज्ञान में अभिप्रेरक तीन अपेक्षाकृत स्वतंत्र प्रकार की मानसिक परिघटनाओं ( phenomena ) को कहा जाता है, जो आपस में घनिष्ठतः संबद्ध ( related, associated ) तो हैं, किंतु एक नहीं है। इनमें सर्वप्रथम वे अभिप्रेरक आते हैं, जो मनुष्य की आवश्यकताओं की तुष्टि की ओर लक्षित सक्रियता के लिए अभिप्रेरणा का काम करते हैं। इस दृष्टि से देखे जाने पर अभिप्रेरक मनुष्य की सामान्यतः क्रियाशीलता का और मनुष्य को सक्रियता के लिए जागृत करने वाली आवश्यकताओं का स्रोत है।

दूसरे, अभिप्रेरक क्रियाशीलता की वस्तुओं को इंगित करते हैं और बताते हैं कि मनुष्य ने किसी ख़ास स्थिति में किसी ख़ास ढंग से ही व्यवहार क्यों किया है। इस अर्थ में अभिप्रेरकों को मनुष्य द्वारा चुने गए व्यवहार के एक निश्चित ढंग के पीछे छिपे कारणों का समानार्थक समझा जा सकता है और अपनी समग्रता में वे मनुष्य के व्यक्तित्व की अभिमुखता ( personality orientation ) के परिचायक होते हैं।

तीसरे, अभिप्रेरक मनुष्य के स्वतःनियमन ( self-regulation ) के साधन, यानि अपने व्यवहार तथा सक्रियता को नियंत्रित ( control ) करने का उपकरण हैं। इन साधनों में संवेगों, इच्छाओं, अंतर्नोदों, आदि को शामिल किया जाता है। संवेग मनुष्य द्वारा अपनी क्रिया के व्यक्तिगत महत्त्व का मूल्यांकन हैं और यदि क्रिया उसकी सक्रियता के अंतिम लक्ष्य से मेल नहीं खाती, तो संवेग उस क्रिया की सामान्य दिशा को बदल देते हैं, मनुष्य के व्यवहार को पुनर्गठित ( reconstituted ) करते हैं और मूल उत्प्रेरकों के प्रबलन ( reinforcement ) के लिए नये उत्प्रेरक लाते हैं।

संकल्पात्मक क्रिया में उसकी अभिप्रेरणा के उपरोक्त तीनों प्रकारों अथवा पहलुओं - क्रियाशीलता का स्रोत, उसकी दिशा और स्वतःनियमन के साधन - का समावेश रहता है।

संकल्पात्मक क्रिया के घटक

आवश्यकताओं से पैदा होनेवाले अभिप्रेरक मनुष्य को कुछ क्रियाएं करने को प्रोत्साहित करते हैं और कुछ क्रियाएं करने से रोकते हैं। मनुष्य को अपने अभिप्रेरकों का कितना ज्ञान है, इसे देखते हुए अभिप्रेरकों को अंतर्नोदों और आकांक्षाओं में बांटा जाता है।

अंतर्नोद सक्रियता का ऐसा अभिप्रेरक है, जो अभी पूरी तरह न समझी गई, न पहचानी गई आवश्यकता का प्रतिनिधित्व करता है। किसी निश्चित व्यक्ति के प्रति अंतर्नोद की अभिव्यक्ति यह है कि मनुष्य को उस व्यक्ति को देखते ही, उसकी आवाज़ सुनते ही हर्ष अनुभव होता है, और वह उससे, प्रायः अनजाने ही, मिलना, बातें करना चाहता है। किंतु कभी-कभी मनुष्य अपने हर्ष के कारण से अनभिज्ञ भी हो सकता है। अंतर्नोद अस्पष्ट और अव्यक्त होते हैं।

आकांक्षाएं सक्रियता के वे अभिप्रेरक हैं, जिनकी विशेषता है उनके मूल में निहित आवश्यकताओं की मनुष्य को चेतना। प्रायः मनुष्य अपनी आवश्यकता की वस्तु को ही नहीं जानता, अपितु उसकी तुष्टि के संभावित उपाय भी जानता है। गरमी में चिलचिलाती धूप में प्यास लगने पर आदमी छाया और शीतल जल के बारे में सोचने लग जाता है।

सक्रियता के अभिप्रेरक मनुष्य के जीवन की परिस्थितियों और अपनी आवश्यकताओं की उसकी चेतना को प्रतिबिंबित करते हैं। मनुष्य को कभी कोई अभिप्रेरक अधिक महत्त्वपूर्ण लगते हैं, तो कभी कोई। उदाहरण के लिए, अपने मित्र के साथ सिनेमा जाने की अपेक्षाकृत गौण इच्छा कभी-कभी किशोर के लिए अपनी पढ़ाई करने की आवश्यकता से अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत हो सकती है। विभिन्न उत्प्रेरकों के बीच से किसी एक ( या कुछेक ) को चुनने की आवश्यकता से पैदा होनेवाले अभिप्रेरकों के द्वंद में उच्चतर क़िस्म के अभिप्रेरक, यानि जिनके मूल में सामाजिक हित ( social interests ) हैं, वे अभिप्रेरक स्वार्थसिद्धि की ओर लक्षित निम्नतर क़िस्म के अभिप्रेरकों से टकरा सकते हैं। यह संघर्ष कभी-कभी मनुष्य के लिए बड़ी पीड़ा तथा चिंता का कारण बनता है, किंतु कभी-कभी वह विभिन्न विकल्पों के बारे में शांतिमय बहस चलाए जाने और हर विकल्प का सभी पहलुओं से मूल्यांकन किए जाने का रूप भी ले सकता है। उदाहरण के लिए, किसी छात्र के लिए यह तय करने में कठिनाई हो सकती है कि शाम को पुस्तकालय जाए या थियेटर, अथवा अपने मित्र के किसी बेईमानीभरे काम की वज़ह से उससे मैत्री तोड़ने का निर्णय करते समय कर्तव्य की भावना और मित्र से लगाव की भावना के बीच टकराव की पीड़ा सहनी पड़ सकती है। अभिप्रेरकों के इस संघर्ष में निर्णायक भूमिका कर्तव्य की भावना, विश्व-दृष्टिकोण तथा नैतिक मान्यताओं की होती हैं

अभिप्रेरकों के संयत विश्लेषण ( analysis ) अथवा संघर्ष ( struggle ) के परिणामस्वरूप मनुष्य कोई निश्चित निर्णय करता है, यानी लक्ष्य और उसकी प्राप्ति के साधन निर्धारित करता है। इस निर्णय पर या तो तुरंत अमल किया जा सकता है या अमल को टाला जा सकता है। टालने की स्थिति में निर्णय एक दीर्घकालिक इरादे ( intention ) का रूप ले लेता है। इरादे का निर्णय लिए जाने और उसपर अमल के बीच की अवधि में मनुष्य के व्यवहार पर नियामक ( regulatory ) प्रभाव पड़ता है ( उसके बारे में सोचता रहना, उससे संबंधित तैयारी करते रहना, उसे जांचते-परखते रहना, आदि )। कभी-कभी इरादा त्यागा जा सकता है, निर्णय बदला जा सकता है या काम को अधूरा छोड़ा जा सकता है। किंतु यदि हर बार या ज़्यादातर, निर्णय को क्रियान्वित नहीं किया जाता, तो यह दुर्बल इच्छाशक्ति का परिचायक होता है।

निर्णय पर अमल ( implementation of decision ) संकल्पात्मक क्रिया का अंतिम चरण है और मनुष्य की इच्छाशक्ति को प्रदर्शित करता है। इच्छाशक्ति को कर्म से आंका जाना चाहिए, न कि उदात्त अभिप्रेरकों, दृढ़ निर्णयों और नेक इरादों से। कार्यों का विश्लेषण मनुष्य के अभिप्रेरकों को समझने की कुंजी है और अपनी बारी में अभिप्रेरकों का ज्ञान विभिन्न परिस्थितियों में मनुष्य के व्यवहार का पूर्वानुमान करना संभव बनाता है।

संकल्पात्मक प्रयास

संकल्पात्मक क्रिया के मुख्य घटकों - निर्णय लेना और उसपर अमल करना - को साकार बनाने के लिए प्रायः संकल्पात्मक प्रयास ( volitive efforts ) की आवश्यकता होती है, जो एक विशिष्ट संवेगात्मक अवस्था है। संकल्पात्मक प्रयास को यूं परिभाषित किया जा सकता है : यह संवेगात्मक खिंचाव का वह रूप है, जो मनुष्य की मानसिक शक्तियों ( स्मृति, चिंतन, कल्पना, आदि ) को जुटाता है, क्रिया के लिए अतिरिक्त अभिप्रेरक पैदा करता है और काफ़ी अधिक तनाव की अवस्था के रूप में अनुभव किया जाता है

इच्छाशक्ति या संकल्प के प्रयास से मनुष्य कुछ अभिप्रेरकों को निष्प्रभावी और अन्य को अधिकतम प्रभावी बना सकता है। कर्तव्य-बोध वश किया जानेवाला प्रयास बाह्य बाधाओं ( किसी कठिन समस्या को हल करने में, थकान की अवस्था में, आदि ) और आंतरिक कठिनाइयों ( किसी दिलचस्प पुस्तक को पढ़ने से अपने को न रोक पाना, दिनचर्या का पालन करने की अनिच्छा, आदि ) को लांघने के लिए मनुष्य की मानसिक शक्तियों को एकजुट करता है। संकल्पात्मक प्रयास के फलस्वरूप आलस्य, भय, थकान, आदि पर विजय पाने से मनुष्य को बड़ा नैतिक संतोष मिलता है और इसे वह अपने ऊपर विजय के रूप में अनुभव करता है।

बाह्य बाधा को लांघने के लिए संकल्पात्मक प्रयास की आवश्यकता तब होती है, जब उसे ऐसी आंतरिक कठिनाई के तौर पर, ऐसी आंतरिक बाधा के तौर पर अनुभव किया जाता है, जिसे अवश्य लांघा जाना है।

इसकी एक सरल सी मिसाल देखें। यदि हम फ़र्श पर एक मीटर के फ़ासले पर रेखा खींचकर इस बाधा ( फ़ासले ) को लांघने का प्रयत्न करें, तो इसमें हमें कोई कठिनाई नहीं होगी और कोई विशेष प्रयास न करना पड़ेगा। किंतु यदि पर्वत पर चढ़ते हुए बर्फ़ में उतनी ही चौडी़ दरार सामने आ जाए, तो इसे एक गंभीर बाधा समझा जाएगा और इसे लांघने के लिए हमें काफ़ी इच्छाशक्ति जुटानी होगी। फिर भी पहाड़ों में इस डग के भरे जाने से दो अभिप्रेरकों - आत्मरक्षा की भावना और कर्तव्य ( उदाहरणार्थ, ख़तरे में पड़े साथी की सहायता करने के कर्तव्य ) की पूर्ति की भावना - के बीच संघर्ष चलता है। यदि जीत पहले अभिप्रेरक की हुई, तो पर्वतारोही डरकर पीछे खिसक जाएगा और यदि कर्तव्य-भावना अधिक बलवती सिद्ध हुई, तो अपने भय पर काबू पाकर बाधा को लांघ जाएगा।

संकल्पात्मक प्रयास हर शौर्यपूर्ण कर्म का अभिन्न अंग होता है। संकल्प, इच्छाशक्ति से काम लेना दृढ़ चरित्र के निर्माण की एक आवश्यक पूर्वापेक्षा है। हर राष्ट्र का इतिहास शौर्यपूर्ण कारनामों से भरा हुआ है और उनमें से हर कारनामे को संकल्पात्मक क्रिया की मिसाल समझा जा सकता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय
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