रविवार, 26 अगस्त 2018

मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका में बढ़ती पर चर्चा की थी, इस बार हम मनुष्य और समाज’ के अंतर्गत मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद का पहला हिस्सा प्रस्तुत करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


मनुष्य और समाज
मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद - १
(A dialogue on the Essence of Man and the Sense of Life -1)

यह काल्पनिक संवाद यहां की अब तक की सामग्री को भली भांति पढ़ चुके एक पाठक (पा०) तथा एक दार्शनिक (दा०) के बीच हो रहा है, जो द्वंद्ववाद और ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण को अपनाता है।

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पा० - यहां प्रारंभ में आपने कहा था कि दर्शन का और सर्वोपरि द्वंद्वात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद (dialectical and historical materialism) का ज्ञान मनुष्य के सार (essence) को, आधुनिक जगत में उसके स्थान को तथा उसके जीवन व उद्देश्य को समझने के लिए, अतः आधुनिक युग की सर्वाधिक विकट समस्या को समझने के लिए आवश्यक है।

दा० - बिल्कुल ठीक। और हमने इन समस्याओं पर वस्तुतः लगातार विचार-विमर्श किया। यहां हमने दर्शन के बुनियादी सवाल पर, चेतना (consciousness) तथा भूतद्रव्य (matter) के संबंध के सवाल पर ध्यान दिया। यह मूलतः समस्त विश्व के साथ मनुष्य के संबंध का सवाल है। हमने सामाजिक सत्व (social being) तथा सामाजिक चेतना के, लोगो के भौतिक उत्पादन तथा आत्मिक क्रियाकलाप के संबंध की जांच करते हुए अपने विचार-विमर्श को जारी रखा। हमने यहां प्रकृति के साथ मानव समाज के संबंध पर विचार किया। द्वंद्ववादके नियमों का अध्ययन करने तथा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के ज्ञान के सिद्धांत से परिचित होने के बाद हम अन्य अनसुलझे सवालों को समझने के लिए तैयार हुए।

पा० - तो आइये, उनसे निबटने और उन्हें हल करने की कोशिश करें। मसलन, मनुष्य का सार क्या है? उसके जीवन का अर्थ क्या है? मनुष्य किसके लिए जी रहा है? इन प्रश्नों का उत्तर पाना अत्यंत कठिन है।

दा० - आपकी राय में, उनका उत्तर देना किस वजह से कठिन है?

पा० - हम जानते हैं कि दुनिया में कई अरब लोग, अनेक अनेक देशों में रहते हैं - विभिन्न जातियों (nationalities), नस्लों (race) के लोग, पुरुष और नारियां, बूढ़े और जवान, विभिन्न वर्गों (classes) और सामाजिक समूहों के लोग। उनकी शिक्षा-दीक्षा भिन्न है, चरित्र और लक्ष्य भिन्न हैं और वे जीवन को तथा उसमें अपने स्थान को भिन्न-भिन्न ढंगो से समझते हैं। इस स्थिति में क्या हम मनुष्य के, एक एकल सार (single essence) की सामान्य बात कह सकते हैं? समाज की बात तो दूर, जब हम केवल दो भिन्न आदमियों ही को लें, तो भी हम उनके, कम से कम कोटि (degree) के सामान्य लक्ष्यों के बारे में या जीवन के अर्थ के बारे में क्या बातें कर सकते हैं?

दा० - आपके प्रश्न में एक ग़लती की संभावना निहित है। आपकी राय में ये विभिन्नताएं इतनी बड़ी हैं कि आप सामाजिक समूहों और वर्गों के समान लक्ष्यों या किसी प्रकार के सामान्य जीवन के अर्थ की बात स्वीकार नहीं करते। आप यह सुझाते हैं कि मनुष्य का कोई समान सार नहीं है या ऐसा कुछ नहीं है, जो लोगों को एकता में बांध सके। यह बात ऐसी ही अतिवादी (extreme) है, जैसे यह सोचना कि सब लोग एकसमान हैं, कि वे नन्हे, अवैयक्तिक (impersonal), सामाजिक पेंच हैं। किंतु सामान्य, विशेष और व्यष्टिक (general, particular and individual) की एक द्वंद्वात्मक एकता होती है। हमारा दर्शन लोगों के लिए उनके सारे लक्ष्यों या उनके प्रत्येक पृथक कर्म, आदि के लिए नुस्खे़ (prescriptions) तैयार करने का लक्ष्य नहीं रखता है। मनुष्य और समाज एक द्वंद्वात्मक एकत्व (dialectical unity) है, अतः इन प्रश्नों का उत्तर इस शर्त पर ही दिया जा सकता है कि हम लोगों के अंतर तथा समानता को, व्यक्तिगत और सामाजिक हितों के अंतर्संयोजन (interconnections) को, सामाजिक और व्यक्तिगत क्रियाकलाप की अंतर्निर्भरता को मान्यता दें। हम केवल ऐसे ही एक उपागम (approach) से यह समझ सकते हैं कि मनुष्य का सार क्या है और कि उसके जीवन का अर्थ क्या है।

पा० - तो बताइए यह सार क्या है?

दा० - दर्शन के इतिहास ने इसके कई भिन्न-भिन्न उत्तर दिये हैं। मसलन, प्राचीन यूनानी दार्शनिकों का विचार था कि मनुष्य का सार यह है कि वह स्वयं में एक सूक्ष्म ब्रह्मांड (microcosm) है, यानी एक नन्हा, जीवित गतिमान जगत है, जो अपनी परिवेशीय दुनिया को, बॄहत ब्रह्मांड (macrocosm) को सूक्ष्मीकृत रूप में दोहराता है। लेकिन तब से अब तक विज्ञान के विकास ने यह दर्शाया है कि मनुष्य की जीवन क्रिया सामाजिक विकास के नियमों से संचालित है, जबकि बाह्य जगत प्रकृति के नियमों के अनुसार विकसित होता है। जीवन ने मनुष्य के सार की प्राचीन यूनानी समझ का खंडन कर दिया। मध्ययुगीन ईसाई दर्शन ने उसका सार दैवी उत्पत्ति (divine origin) में, उनके अनुसार इस तथ्य में देखा कि उसमें आत्मा (soul) का निवास है। किंतु आत्मा का सृजन हमेशा के लिए ईश्वर ने किया है, जबकि लोग नितांत भिन्न हैं। लोग वैर पालते हैं, लड़ते हैं और अत्यंत अधार्मिक कार्य करते हैं, दैव विरोधी कर्म करते हैं। इससे बड़ी बात यह है कि मनुष्य की जीवन पद्धति, रुचियां, दृष्टिकोण तथा स्वयं जीवन की समझ युग-दर-युग बदलती रहती हैं। मनुष्य के सार की ईसाई संकल्पना भी काल कसौटी में खरी नहीं उतरी। अपने विचारों की विभिन्नता के बावजूद पूंजीवादी दार्शनिक मनुष्य के सार को तथा उसके मुख्य लक्ष्य को, प्रकृति पर और अन्य लोगों पर प्रभुत्व (domination) में देखते हैं।

पा० - (बात काटते हुए) तो फिर जीवन का अर्थ और मानवता की सर्वोच्च अभिव्यक्ति (supreme manifestation) क्या है?

दा० - लोगों की सबसे बड़ी संख्या मेहनतकशों (working people) की है और प्रतिरोधी वर्ग समाजों (antagonistic class societies) में उनका शोषण होता है। वे कोई मुनाफ़ा (profit) नहीं कमाते और इस प्रभुत्व से कोई हितलाभ (benefits) हासिल नहीं करते हैं। इसके अलावा यह प्रभुत्व, मनुष्यों को नीचा बनाता है, उनकी हैसियत गिराता है और प्रकृति को नष्ट तथा अस्तव्यस्त करता है। इसलिए प्रभुत्व और किसी भी क़ीमत पर मुनाफ़ा कमाना अधिकांश लोगों के लिए जीवन का सार या अर्थ नहीं हो सकता है। वे केवल चंद शोषकों (exploiters) के सार तथा लक्ष्यों को निर्धारित करते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 12 अगस्त 2018

समाजवाद के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता पर चर्चा की थी, इस बार हम समाजवाद के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


समाजवाद के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका में बढ़ती
(Growth of the Role of the Subjective Factor under socialism)

सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता (relative independence) पर विचार करते और इसके विविध रूपों की सक्रियता पर जोर देते समय हमने यह साबित किया कि वे सब सामाजिक यथार्थता (reality) के विविध पक्षों को परावर्तित (reflect) ही नहीं करते, बल्कि उस पर एक सक्रिय प्रतिप्रभाव (active reverse effect) भी डालते हैं। यह प्रभाव विभिन्न प्रकार की प्रगतिशील प्रवृतियों के विकास को बढ़ावा भी दे सकता है और साथ ही उनके वास्तवीकरण (realisation) को रोक भी सकता है। ऐतिहासिक प्रक्रिया में आत्मगत (subjective)’ मानवीय कारक की महत्वपूर्ण भूमिका दोनों ही मामलों में अभिव्यक्त होती है।

यह भूमिका किसमें निहित है? आज मानवीय कारक (human factor) इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया है? समाज का विकास, एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया होते हुए भी अलग-अलग लोगों या पृथक-पृथक सामाजिक समूहों द्वारा अपने लिए तय कुछ निश्चित लक्ष्यों की समझ के साथ हमेशा संबद्ध (connected) होता है। इन उद्देश्यों की उपलब्धि और लक्ष्यों की पूर्ति और उपलब्धि, क्रियाकलाप की पद्धति के चयन तथा लिये गये निर्णय पर निर्भर हैं। यहां दो संभावनाएं विद्यमान हैं।

पहली यह है कि लोग अपने लिए अलभ्य (unattainable) लक्ष्य निश्चित करते हैं, अपने कार्यों का गलत निरूपण करते हैं, कुविचारित फ़ैसले लेते हैं और कार्य पद्धति का ऐसा तरीक़ा छांटते हैं जो प्रदत्त दशाओं, प्रदत्त समय, प्रदत्त स्थान तथा प्रदत्त समाज के लिए अनुपयुक्त (unsuitable) होता है, या इच्छित परिणामों की उपलब्धि के लिए कारगर नहीं होता है। इस प्रकार के फ़ैसले और ऐसी कार्रवाइयां सामाजिक प्रगति को रोक सकती हैं, जीवन के हालतों को बदतर बना सकती हैं और अवांछित (undesirable) तथा कभी-कभी विनाशक (disastrous) परिणामों पर पहुंचा सकती है। यह इस बात का द्योतक भी है कि सामाजिक विकास के ग़लत ढंग से अनुबोधित (understood) नियमसंगतिया तथा वस्तुगत परिस्थितियां लोगों से इस बात का `बदला' लेती हैं कि उन्हें उनकी जानकारी नहीं है, कि उन्होंने उनका अध्ययन नहीं किया और अपने क्रियाकलाप में उन्हें परावर्तित नहीं किया। देर-सवेर ये नियमसंगतिया और उनकी ग़लत समझ के परिणाम उन्हें अपने ग़लत फ़ैसलों को बदलने तथा वस्तुगत यथार्थता के अधिक अनुरूप ज़्यादा सही कार्य पद्धति को खोजने के लिए बाध्य कर देते हैं। पर जब तक ऐसा होता है तब तक ग़लत ढंग से लिये गये फ़ैसलों पर चलने तथा अलभ्य लक्ष्यों का अनुसरण करने वाले लोगों को अपनी ग़लतियों की भारी क़ीमत अदा करनी पड़ती है।

दूसरी संभावना यह है कि लोगों को वस्तुगत नियमितताओं का गहन तथा ठीक अवबोध होता है और वे सामाजिक सत्व की वास्तविक दशओं व प्रवृतियों को समझते हैं। इस कारण से वे वास्तविक, विज्ञानसम्मत लक्ष्यों तथा किये जा सकनेवाले कार्यों को प्रस्तुत करने में समर्थ होते हैं। वे सच्चे फ़ैसले लेने और कार्य के कारगर तथा विश्वसनीय साधनों को काम में लाने में समर्थ होते हैं। बेशक, इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता है कि ऐसी स्थिति में सब कुछ सरल और आसान हो जाएगा तथा लक्ष्य संघर्ष के बिना ही सुलभ्य हो जाएंगे और समुचित कार्रवाई को कठिनाइयों और बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। जीवन की वस्तुगत जटिलता (complexity) और अंतर्विरोधी (contradictory) स्वभाव के कारण तथा इस कारण से कि समाज में लोगों, सामाजिक तथा व्यवसायिक समूहों की बड़ी संख्या और साथ ही अपने-अपने हितों की रक्षा करने वाले विभिन्न संगठन एक ही समय क्रियाशील हैं, इसलिए प्रमुख और समान लक्ष्यों की उपलब्धि में कठिनाइयों और बाधाओं का आना स्वाभाविक है।

परंतु पहली और दूसरी संभावना के बीच मूल अंतर यह है कि दूसरी सूरत में नियोजित (planned) लक्ष्य की तरफ़ गति अधिक तेज़ होती है और ग़लतियां कम होती हैं। ऐसी स्थिति में लोग हमेशा दूसरी ही संभावना को कार्यान्वित क्यों नहीं करते? बात यह है कि वास्तविक समाज में सामान्यतः सामाजिक चेतना, सामाजिक सत्व (social being) के मु्क़ाबले पिछड़ी हुई होती है। वास्तविकता का सही, गहरा और, उससे भी अधिक, वैज्ञानिक बोध हमेशा उपलब्ध होना दूर की बात है, क्योंकि विविध सामाजिक शक्तियां, अर्थात सामाजिक-वर्गीय अंतर्विरोध तथा संघर्ष, विभिन्न पूर्वाग्रह, वैचारिक उसूल, सामाजिक मनोदशाएं तथा भावावेग, सूचना की कमी, आदि चेतना, यानी सामाजिक विकास के आत्मगत कारकों को प्रभावित करती है। सही फ़ैसला लिया जाना तथा लक्ष्यों और वस्तुस्थिति का सच्चा बोध अक्सर नेताओं, राजनीतिक चिंतकों तथा विचारकों के व्यक्तिगत गुणों के कारण बाधित हो जाता है। जिन लोगों पर सामाजिक लक्ष्यों और वैचारिकी का निर्धारण निर्भर होता है, उनमें अगर सही निर्णय लेने में बाधक गुण हों, तो वे अक्सर समुचित लक्ष्यों तथा कार्यों की ग़लत समझ पर जा पहुंचते हैं। यही वजह है कि अंततोगत्वा वस्तुगत कारक ( विकासमान सामाजिक सत्व ) के निर्णायक होने के बावजूद कभी-कभी आत्मगत कारक ऐतिहासिक विकास में उल्लेखनीय भूमिका अदा कर सकता है

समाजवादी समाज में प्रतिरोधी (antagonistic) अंतर्विरोधों पर काबू पा लिया जाता है, जिसकी वजह से सामाजिक यथार्थता की पूर्णतर तथा गहनतर समझ के लिए और लक्ष्यों तथा उनकी उपलब्धि के साधनों के वैज्ञानिक निर्धारण के लिए वस्तुगत पूर्वाधारों (objective preconditions) की रचना हो जाती है। परंतु इसका यह मतलब नहीं है कि समाजवादी समाज में लिए गए सारे फ़ैसले और सामाजिक कार्रवाइयों की सारी पद्धतियां स्वतः सही होती हैं और कि वे फ़ैसले रायों के संघर्ष, हितों के टकराव और गंभीर राजनीतिक व आत्मिक प्रयत्नों के बिना ही ले लिये जाते हैं। समाजवादी समाज में आत्मगत कारक की, और सामाजिक समस्याओं के सही समाधान में सचेत, सक्रिय रचनात्मक चिंतनशील व्यक्तियों की भूमिका में तेजी से बढ़ती होती है

समाज के जीवन को नई प्रेरणा देने तथा सामाजिक-आर्थिक विकास में निर्णायक त्वरण (acceleration) लाने के लिए समाज के फ़ौरी (immediate) लक्ष्यों तथा उसके निकट भविष्य की संभावनाओं, दोनों के अधिक गहन बोध की तथा यह समझने की जरूरत है की उन्नति में बाधक क्या है और कौन सी शक्तियां उसे बढ़ावा दे सकती हैं, आगे ले जा सकती हैं। किंतु केवल पार्टी तथा राज्य के नेताओं की इसकी जानकारी होना काफ़ी नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि परिवर्तनों की ऐतिहासिक आवश्यकता की समझ प्रत्येक व्यक्ति की चेतना तथा हृदय में पैठे, और सारी श्रम समष्टियों (work collectives), सामाजिक समूहों तथा सामाजिक संगठनों द्वारा अपनायी जाये

इन सब बातों से यह प्रकट होता है कि समाजवाद के निर्माण में मौलिक प्रतिरोधी अंतर्विरोधों से रहित समाज में ऐतिहासिक प्रकृति काफ़ी हद तक आत्मगत कारक पर निर्भर होती है। इसलिए उसे सक्रिय किया जाना चाहिए। इस प्रकार, समाजवादी समाज में आत्मगत कारक की भूमिका को ऊंचा उठाने की समस्या को निरूपित करना, ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन के विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

रविवार, 5 अगस्त 2018

सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता के बारे में

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत व्यष्टिक और सामाजिक चेतना पर चर्चा की थी, इस बार हम सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता के बारे में
(On the Relative Independence of Social Consciousness)

सामाजिक चेतना में होने वाले सारे परिवर्तनों तथा स्वयं उसके विकास की प्रक्रिया का निर्धारण अंततः सामाजिक सत्व (social being) में होने वाले परिवर्तनों से होता है। परंतु यह सोचना ग़लत होगा कि यह चेतना, हमेशा सामाजिक सत्व से पीछे (lags behind) होती है। राजनीतिक चेतना, नैतिकता, कलात्मक चेतना, धर्म और दर्शन लोगों की भौतिक यथार्थता (material reality), वर्ग संघर्ष (class struggle), विभिन्न घटनाओं, शनैः शनैः होनेवाले तथा क्रांतिकारी परिवर्तनों को एक दर्पण की तरह निष्क्रिय ढंग से परावर्तित (reflect) नहीं करते, बल्कि कुछ आदर्शों (ideals), मानकों (norms), मानदंडों (standards) ,व्यवहार के क़ायदों की रचना भी करते हैं और सामाजिक जीवन के संगठन की एक अधिक वांछित (desirable), वरेण्य (preferable) छवि का विकास भी करते हैं। सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता और तथाकथित पूर्वानुमानिक परावर्तन (anticipatory reflection) की उसकी क्षमता इसी में व्यक्त होती है।

अतीत काल की साहित्यिक कृतियों, दार्शनिकों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों तथा राजनीतिक चिंतकों की रचनाओं में हमें इस आशय की अनेक दलीलें मिलती हैं कि तर्कबुद्धिसम्मत (rational) न्यायोचित समाज कैसा होना चाहिए, राजकीय प्रशासन का संगठन कैसे किया जाना चाहिए, सबसे ज़्यादा न्यायोचित क़ानून और नैतिकता के सर्वाधिक मानवीय मानक कैसे होने चाहिए। बेशक, ये सारी दलीलें न सिर्फ सार्विक (universal), बल्कि सर्वथा निश्चित वर्गीय-सामूहिक आदर्शों, न्याय और मानवता की धारणाओं को भी परावर्तित करती है। इसके साथ ही वह इतिहासतः सीमित होती हैं। परंतु अतीतकाल के चिंतकों ने भविष्य में देखने के जो प्रयत्न किए और उन्होंने सामाजिक जीवन, आदर्शों तथा मानकों के जिन बिंबो की रचना की, व्यवहार में उन्हें जिस सामाजिक सत्व से वास्ता पड़ा और जो युग की सामाजिक चेतना में परावर्तित हुआ था - उस सब ने उनकी दलीलों की सामग्री का काम दिया। इसलिए पूर्वानुमानिक परावर्तन भी अंततोगत्वा सामाजिक सत्व से निर्धारित होता है।

पूर्ववर्ती आर्थिक-सामाजिक विरचनाओं (socio-economic formations) के स्वतःस्फूर्त विकास के यु्गों में सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता अक्सर विभिन्न प्रकार के यूटोपिया (utopias) बनाने में व्यक्त होती थी। न्यायोचित, तर्कबुद्धिसम्मत, मानवीय संगठनवाले ऐसे भावी समाज से संबंधित विचारों, बिंबों तथा सैद्धांतिक परावर्तनों को यूटोपियाई कहते हैं, जिसका वस्तुगत (objective) वैज्ञानिक आधार नहीं होता। यूटोपियाओं के रचयिता अक्सर जैसे चिंतक होते थे, जो सर्वाधिक उत्पीड़ित और शोषित वर्गों के हितों तथा मनोदशाओं को व्यक्त करते थे, हालांकि वे स्वयं कभी-कभी विशेषाधिकारप्राप्त वर्गों या सामाजिक श्रेणियों के लोग होते थे। इस प्रकार के दृष्टिकोणों का यह नाम १६वीं सदी के प्रारंभ के अंग्रेज़ राजनीतिज्ञ टॉमस मूर की ‘यूटोपिया’ शीर्षक पुस्तक से पड़ा। उसमें एक ऐसे काल्पनिक समाजवादी समाज का चित्रण था जिसमें सार्विक समानता, न्याय और समृद्धि का बोलबाला था।

१८वीं और १९वीं सदियों के दौरान मेहनतकशों के शोषण बढ़ने के साथ-साथ यूटोपियाई समाजवाद का बहुत प्रसार हो गया था। मार्क्स और एंगेल्स ने समाज के समाजवादी पुनर्संगठन तथा पुनर्रचना की आवश्यकता को प्रमाणित करने तथा, मुख्यतया, पूंजीवाद की तीखी आलोचना करने के प्रयत्नों के लिए १९वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों के यूटोपियाई समाजवाद के रचयिताओं फ़ुरिये, ओवेन और सेंट-सीमोन का बहुत ऊंचा मूल्यांकन किया। इसके साथ ही मार्क्स और एंगेल्स ने इस क़िस्म के समाजवाद के अवैज्ञानिक स्वभाव पर ज़ोर भी दिया। यह कल्पना प्रधान (imaginative), अतिकाल्पनिक (fantastic), अभिलाषा जनित समाजवाद था। उस के रचयिताओं ने सुझाया कि नया समाज तीव्र वर्ग संघर्ष के ज़रिये नहीं, बल्कि नैतिक स्वपूर्णता (self-perfection), परहितकारिता (benevolent), परोपकारी क्रियाकलाप तथा प्रबोधन (enlightenment) के द्वारा निर्मित होगा। ऐसी परियोजनाओं का अवैज्ञानिक तथा यूटोपियाई स्वभाव, उन्हें वास्तविक बनाने के अलग-अलग प्रयत्नों (मसलन, रॉबर्ट ओवेन द्वारा) की घोर विफलता से प्रमाणित हो गया।

सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता, वैज्ञानिक समाजवाद (scientific socialism) के सिद्धांत की रचना में विशेष स्पष्टता से व्यक्त हुई। मार्क्स तथा एंगेल्स द्वारा रचित तथा कालांतर में लेनिन द्वारा विकसित यह सिद्धांत, पूंजीवाद के सामाजिक-आर्थिक अंतर्विरोधों का सीधा सरल परावर्तन नहीं था, बल्कि सामाजिक सत्व के सच्चे वैज्ञानिक पूर्वानुमानिक परावर्तन का पहला उदाहरण था। इसने समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण (revolutionary transformation), निजी स्वामित्व के उन्मूलन (abolition of private property) तथा मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के ख़ात्मे की आवश्यकता को वैज्ञानिक ढंग से प्रमाणित ही नहीं किया, बल्कि ऐसे रूपांतरण के वास्तविक मार्गों तथा विधियों का संकेत भी दिया। पूर्वानुमानिक परावर्तन तथा संपूर्ण सामाजिक चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता की स्वयं संभावना (possibility) का मूल क्या है?

मुद्दा यह है कि सामाजिक सत्व, प्रदत्त क्षण पर सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण घटनाओं की समग्रता (aggregate) मात्र नहीं है। यह कोई संघनित और अपरिवर्तनीय तत्व नहीं है। यह अनवरत विकास की अवस्था में होता है और इसमें विविध प्रवृतियां निरंतर पैदा होती तथा बढ़ती रहती हैं। फलतः, इसमें वस्तुगत नियमितताएं (objective patterns) होती हैं जो इन प्रवृतियों, प्रक्रियाओं और परिवर्तनों का नियमन (govern) करती हैं। इन प्रवृतियों तथा नियमितताओं को परावर्तित करके सामाजिक चेतना भविष्य में झांकने की, यानी आगे बढ़ निकलने की क्षमता अर्जित कर लेती है। इसकी सापेक्ष स्वाधीनता इसी में व्यक्त होती है। 

चूंकि सामाजिक सत्व, स्वयं अंतर्विरोधी (contradictory) होता है और विभिन्न संघर्षरत वैचारिकियों (ideologies) के अंदर भिन्न-भिन्न वर्गीय स्थितियों से परावर्तित होता है, इसलिए सामाजिक तत्व का परावर्तन भी अंतर्विरोधी सिद्ध होता है। इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना (materialist conception) की रचना तक, यह पूर्वानुमानिक परावर्तन मूल रूप से अवैज्ञानिक होता था और कुछ सत्य अनुमानों के बावजूद इस में यूटोपियाई लक्षण विद्यमान रहते थे। इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना का निरूपण करनेवाले ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन की रचना से सामाजिक विकास की वस्तुगत प्रवृतियों तथा नियमसंगतियों की विशुद्ध वैज्ञानिक समझ की संभावना पहली बार प्रकट हुई।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम
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