शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

द्वंद्ववाद और संकलनवाद

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने गति के उद्‍गम को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम द्वंद्ववाद और संकलनवाद पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद और संकलनवाद
( चिंतन में अंतर्विरोधों का परावर्तन )

चिंतन में अंतर्विरोध ( contradiction ) किस तरह परावर्तित ( reflect ) होते हैं?, इस प्रश्न की पूरी समझ के लिए हमें निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए : हमारा चिंतन केवल तभी शुद्ध होगा जब वह अंतर्विरोध रहित हो। निस्संदेह, एक ही समय में और एक चीज़ के बारे में परस्पर विरोधी रायें प्रकट नहीं की जानी चाहिए। चिंतन में अंतर्विरोधों को आने देने से हम निर्दोष चिंतन के नियमों का उल्लंघन कर देते हैं। मिसाल के लिए, एक ही व्यक्ति के बारे में एक साथ यह कहना असंभव है कि वह जीवित और मृत है। बेशक, मनुष्य मरते हैं, किंतु यदि मनुष्य जीवित है तो हम उसपर इसी अनुगुण को आरोपित करेंगे और इस तथ्य के बावजूद करेंगे कि आज से कुछ वर्षों बाद वह मर जायेगा। और जब ऐसा होगा तो हम उस विचाराधीन मनुष्य के बारे में कहेंगे कि वह मर गया है।

किंतु हम यह देख और साबित कर चुके हैं कि विश्व में घटनाएं व्याघाती ( अंतर्विरोधी, contradictory ) होती हैं। १७वीं सदी से प्रकाशिकी के क्षेत्र में एक विवाद चल पड़ा था - क्या प्रकाश निर्बाध व तरंगनुमा और इसलिए तरंगों के नियमाधीन होता है, या बाधित, कणिकीय और इसलिए कणों के नियमाधीन होता है। प्रकाश के दो परस्पर विरोधी सिद्धांत बन गये : तरंगीय और कणिकीय। इनमें से कौनसा सिद्धांत सही है, कौनसा वास्तविकता ( actuality ) को अधिक सटीक रूप से परावर्तित करता है - इस प्रश्न को लेकर अनेकानेक वाद-विवाद हुए और दोनों के पक्ष में युक्तियां पेश की गयीं। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि इन दो निष्कर्षों में से केवल एक ही सत्य हो सकता है। किंतु विज्ञान के विकास से यह तथ्य निखरकर सामने आया कि यह ‘विलक्षण’ घटना एक अंतर्विरोधी द्वंद्वात्मक ( dialectic ) प्रकृति की है। बाद में यह साबित कर दिया गया कि प्रकाश एक ही काल में तरंग की और कणों की गति है।

१९वीं सदी में यह प्रमाणित कर दिया गया कि तरंगे दृष्ट प्रकाश की ही नहीं, बल्कि विद्युतीय, चुंबकीय तथा कई अन्य प्रक्रियाओं की भी लाक्षणिकता है। इस तरह दृश्य प्रकाश तथा अदृश्य रेडियो तरंगों, एक्स किरणों, बिजली, चुंबकत्व, ताप का विकिरण व अवशोषण, सामान्यतः ऊर्जा तथा प्रकाशीय प्रभाव के बारे में जानकारी के अधिकाधिक बढ़ने के कारण इस प्रकार थे : पहला, उनकी अंतर्निहित अंतर्विरोधी प्रकृति ( inherent contradictory nature ) की छानबीन तथा व्याख्या ( investigation and explanation ), और, दूसरा, खंडित व अविच्छिन्न ( discrete and continuous ) का, क्वांटा तथा तरंगों का, यानि विरिधियों का एक ही एकत्व के रूप में अध्ययन। इसी तरह की स्थिति नाभिकीय भौतिकी में, इलेक्ट्रोनों तथा अन्य प्राथमिक कणों के अध्ययन में भी उत्पन्न हुई। यह साबित हो गया कि उनकी प्रकृति भी व्याघाती ( contradictory ) है, यानि वे एक ही समय में खंडित भी हैं और तरंग-सम भी ; फलतः क्वांटम और तरंग यांत्रिकी का उद‍भव हुआ और फिर वे इस तथ्य के बावजूद एकीकृत ( unified ) हो गयीं कि एक कण तथा एक तरंग के रूप में इलेक्ट्रोन की संकल्पनाएं मूलतः बेमेल प्रतीत होती हैं।

अतः यदि कोई वस्तु या घटना व्याघाती ( अंतर्विरोधी ) है, तो वह हमारे चिंतन में भी उसी रूप में परावर्तित होनी चाहिए। जीवन भी अंतर्विरोधी है और यथार्थता ( reality ) को समझने के लिए खुले दिमाग़ का होना जरूरी है। जीवन की द्वंद्वात्मकता हमारे चिंतन की, संकल्पनाओं ( concepts ) की द्वंद्वात्मकता में परावर्तित होनी ही चाहिए।

किंतु कुछ दार्शनिकों ने एक दूसरे से असंगत ( inconsistent ) विचारों और सिद्धांतों का मनमाना संकलन ( compilation ) तैयार करके दिमाग़ के खुलेपन का ग़लत अर्थ निकाला। ऐसे दार्शनिकों को संकलनवादी ( eclectics ) कहा गया। संकलनवाद विभिन्न विचार-पद्धतियों के लाक्षणिक विचारों का एक सिद्धांतविहीन और असंगत मेल होता है ; यह इस तथ्य के लिए उल्लेखनीय है कि इसमें उन्हें मिलाने की कोशिश की जाती है, जिन्हें मिलाया नहीं जा सकता है और यह उन वास्तविक संबंध-सूत्रों को देखने में असमर्थ होता है, जो किसी वस्तु को एक एकत्व में परिणत कर देता है।

यदि हम पहले यह कहें कि "भूतद्रव्य ( matter, पदार्थ ) मन को जन्म देता है" और फिर साथ ही यह दावा करें कि "मन स्व-अस्तित्वमान, प्रकृति से स्वतंत्र है" और इसपर भी जोर दें कि यह दो प्रस्थापनाएं परस्पर संगत हैं, तो हमें संकलनवादी कहा जायेगा। इस मामले में संकलनवाद ऐसे मूलतः भिन्न दृष्टिकोणों के यांत्रिक मेल के रूप में प्रकट होता है, जो उसके पूर्वानुमानुसार बराबर मूल्य के हैं, यानि भौतिकवाद ( materialism ) और प्रत्ययवाद ( idealism )। कई आधुनिक विचारक द्वंद्ववाद ( dialectics ) को संकलनवाद से प्रतिस्थापित करने की चेष्टा करते हैं। यह बात मिसाल के लिए, ‘अभिसरण’ के सिद्धांत में स्पष्टतः देखी जा सकती है। इसके अनुसार पूंजीवादी और समाजवादी प्रणालियों को एक दूसरी में संलीन ( coalesce ) किया जा सकता है। कुछ राजनीतिज्ञ राजनीति में भी संकलनवाद का उपयोग करने की कोशिश करते हैं और केवल सिद्धांत में ही नहीं करते। यथास्थितिवादी विचारक और राजनीतिज्ञ विज्ञापनों, प्रचार, सामूहिक संपर्क साधनों - रेडियो, प्रेस, टेलीविज़न, सिनेमा - के द्वारा संकलवाद का लाभ उठाते हैं और कुछ निश्चित धारणाओं के स्थान पर, उनके लक्ष्यों के अनुरूप कुछ अन्य धारणाओं को धूर्ततापूर्वक प्रतिस्थापित करने की, विरोधी धारणाओं के घालमेल करने की कोशिश करते हैं।

जब अधिभूतवादी ( metaphysical ) ढंग से सोचनेवाला व्यक्ति अपने व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन, राजनीतिक संघर्ष में और उद्योग या विज्ञान में अंतर्विरोधों से टकराता है, तो वह उन्हें अपने से परे करने, उनसे बचके निकलने, उनकी तीक्ष्णता को घटाने, आदि का प्रयत्न करता है। प्रत्येक नयी घटना और ख़ासकर अनपेक्षित ( unexpected ) घटनाओं के लिए वह केवल बाहरी कारणों की खोज करता है। इस सबसे, बाह्य जगत में होनेवाले परिवर्तनों के वास्तविक कारणों की समझ में ही रुकावट नहीं पड़ती, बल्कि उसके वैयक्तिक जीवन में भी और मानवजाति के भले के लिए उसके सचेत ( conscious ), सोद्देश्य रूपातंरण ( purposive transformation ) में सक्रिय सहभागिता ( active participation ) भी बाधित ( obstructed ) हो जाती है।

इसके विपरीत जो व्यक्ति द्वंद्वात्मक ( dialectic ) ढंग से सोचता है, वह इन अंतर्विरोधों से जूझता है, उन के आपसी संबंधों को समझने की कोशिश करता है, घटनाओं के कारण के रूप में इनकी एकता और संघर्षों के स्वरूप को समझने की कोशिश करता है। इसलिए वह प्रकृति, समाज तथा चिंतन में वस्तुगत ( objective ) अंतर्विरोधों की उपस्थिति की बात को समझता ही नहीं, बल्कि उनको जानने, उनका अध्ययन करने, आंतरिक को बाह्य से, बुनियादी को गौण से, प्रतिरोधी को अप्रतिरोधी से पृथक करने, उनके बीच संपर्क व निर्भरता का पता लगाने और इन अंतर्विरोधों को पराभूत ( defeated ) करने, उन्हें सुलझाने के साधनों, रूपों तथा तरीकों को खोजने के प्रयत्न भी करता है।

बेशक, विकास ( development ) की वस्तुगत प्रक्रियाओं को हमेशा और हर जगह प्रभावित नहीं किया जा सकता है। लेकिन जहां प्रकृति और समाज के जीवन की घटनाओं को मनुष्य के भौतिक क्रियाकलाप के अंतर्गत लाया जा सकता है, वहां यह कर पाने की योग्यता, प्राकृतिक तथा इतिहास के क्रम पर मनुष्य की तर्कबुद्धिसम्मत कार्रवाई के लिए विराट अवसर प्रदान करती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

क्या गति का उद्‍गम है?

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने क्रमविकास पर चर्चा की थी, इस बार हम गति के उद्‍गम को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



क्या गति का उद्‍गम है?

कोई भी वस्तु गतिशील कैसे होती है, विकास कैसे करती है, परिवर्तित क्यों होती है?

प्राकृतिक घटनाओं के ऊपरी प्रेक्षण से प्राचीन समय के कई प्राचीन दार्शनिक इस प्रस्थापना तक पहुंचे थे कि कोई वस्तु किसी बाह्य कारक ( external factor ), किसी अन्य वस्तु के प्रभाव से गतिशील या गतिशून्य बनती है। यह प्रस्थापना, इस अन्य प्रस्थापना से घनिष्ठ रूप से संबंधित है कि एक ही वस्तु एक ही समय में विरोधी गुणों, विशेषताओं या प्रवृत्तियों में, जैसे गतिशीलता और गतिशून्यता की स्थिति में नहीं हो सकती। १७वीं-१८वीं सदियों के सबसे बड़े दार्शनिकों का सोचना यह था कि ये दो प्रस्थापनाएं गति और विकास के कारण ( reason ) संबंधी प्रश्न का एकमात्र तर्क संगत उत्तर पेश करती हैं।

स्वाभाविक ही है कि वस्तुओं की संरचना, उनके गुणों और विशेषताओं का अध्ययन करते हुए वैज्ञानिकों और दार्शनिकों का ध्यान सबसे पहले वस्तुओं के बीच मौजूद विरोधों ( conflicts ) पर जाता है न कि किसी वस्तु के अंदर मौजूद विरोधों पर। किंतु जब वे किसी पिंड में घटनेवाली प्रक्रियाओं और परिवेश के साथ उसके संबंधों की जांच करने लगते हैं, तो उनका साक्षात्कार काफ़ी भिन्न स्थिति से होता है।

दूर अतीत काल में ऐसे भी दार्शनिक थे, जो यह मानते थे कि स्वगति, आंतरिक गति तथा एक अवस्था से दूसरी का प्रतिस्थापन करने वाले परस्पर विरोधी आदिकारण या शक्तियां इस विश्व में क्रियाशील हैं। उनका कथन था कि कि प्रत्येक वस्तु दो विरोधी पक्षों ( opposites sides ) से बनी है, जो एक दूसरे के अभाव में अस्तित्वमान नहीं रह सकते हैं क्योंकि वे एक दूसरे की पूर्वापेक्षा करते हैं, साथ ही वे एक दूसरे के सर्वथा विरोधी होते हैं। मसलन, जीवन और मृत्यु, दिन और रात, प्रेम और घृणा, शुभ और अशुभ, पुरुष और नारी, आदि। विश्व में विरोधियों के अस्तित्व के बारे में प्राचीन चीन, भारत, यूनान और मध्यपूर्व के दार्शनिकों ने अपने अनुमानों को अभिव्यक्ति दी थी।

लाओ त्सी जैसे प्राचीन चीनी दार्शनिकों ने सार्विक प्राथमिक उद्‍गम ( universal primary source or origin ) के बारे में बताया और उसे ‘दाओ’ की संज्ञा दी। ‘दाओ’ को कई अंतर्विरोधी अनुगुणों से युक्त बताया गया। ‘दाओ’ रिक्त है और असीम भी, इसी तरह उसके अपने विरोधी में संक्रमण ( transition ) का, रूपांतरण ( conversion ) का विचार भी व्यक्त किया गया है: खंडित पूर्ण को संरक्षित रखने का काम देता है, वक्र ( curve ) ऋजु ( straight ) में परिणत हो जाता है, रिक्त भरा हुआ बन जाता है और पुरातन नूतन से प्रतिस्थापित हो जाता है। सुख में दुर्भाग्य तथा दुर्भाग्य में सुख निहित है । इसी प्रकार के विचार हेराक्लितस  ने भी व्यक्त किये : "हम में सब एक है - जीवित व मृत, जाग्रत व निद्रामग्न, जवान और वृद्ध। क्योंकि पूर्ववर्ती ( preceding ) परवर्ती ( latter ) में विलीन हो जाता है और परवर्ती पूर्ववर्ती में ।" प्राच्य प्रज्ञानियों ने दो आदि तत्वों के बीच संघर्ष की बात कही है : एक ओर प्रकाश और शुभ की, और दूसरी ओर अंधकार और अशुभ की शक्तियों के बीच । इन विचारों का बाद में और अधिक विकास किया गया। उदाहरण के लिए, इतालवी दार्शनिक जिओर्दानों ब्रूनों  का कहना था कि कोई एक विरोध दूसरे का आरंभ होता है, कि विनाश उद्‍भव है और उद्‍भव विनाश, और कि प्रेम घृणा है और घृणा प्रेम। फलतः उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जो कोई प्रकृति के अंतरतम रहस्यों में पैठना चाहता है, उसे चाहिए कि वह अंतर्विरोधों ( contradictions ) और विरोधों ( conflicts ) के न्यूनतम व अधिकतम का प्रेक्षण ( observation ) करे।

दैनंदिन जीवन, विज्ञान और राजनीतिक संघर्ष, सभी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि वास्तविकता अंतर्विरोधों से भरी पड़ी है। किंतु वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इस तथ्य को मान्यता देना ही काफ़ी नहीं है। यह भी जरूरी है कि प्रकृति में विद्यमान विरोधियों ( opponents ) के बीच संबंधों की जड़ तक पैठा जाये। केवल दार्शनिक और विज्ञानी ही नहीं, बल्कि साहित्यकार और कवि भी इस तथ्य के प्रति सचेत रहे हैं। मसलन, १७वीं सदी के अफ़गान कवि अब्दुल क़ादिर ख़ान  ने लिखा : बुराई पिटती अच्छाई से / तो पिटती दया बुराई से / दया उचित ठहराती जिसको / क्रोधित निंदा पाता वही बुराई सेरविन्द्रनाथ टैगोर  ने, जिनकी कविताएं उचित ही दार्शनिक निबंध कही जाती है, लिखा कि जीवन अपने सभी रूपों में शुभ है, क्योंकि एक चीज़ दूसरी से उपजती है और दूसरी के द्वारा वांछित ( desired ) होती है। उन्होंने जीवन के अंतर्विरोधों से निष्क्रियता में लौटने से इनकार कर दिया तथा वस्तुओं और घटनाओं की विराट विविधता को सराहा : भाव ललकता होने को साकार रूप में / चाह रूप की भावों में खो जाना / अभिलाषा असीम की सीमित होना / सीमा इच्छुक असीम में घुलने की / बंधन में जकड़े सारे मुक्ति मांगते / मुक्ति चाहती बंधन में बंध जाना

विरोधियों के बीच के संबंध शनैः शनैः प्रकाश में आ रहे थे। हेराक्लितस  ने कहा : "सब एक है - विभाज्य और अविभाज्य, जन्मा और अजन्मा, बुद्धित्व और चिरंतनता, पिता और पुत्र..."। यह साफ़ होता जा रहा था कि विरोधियों के बीच का संपर्क सूत्र घनिष्ठ और अटूट होता है, उसके परे उनका अस्तित्व नहीं। किंतु विरोधियों के बीच मात्र एकता ( unity ) के संबंध ही नहीं होते, वे मुखाभिमुख संघर्ष ( struggle ) में भी होते हैं। जर्मनी के महान कवि गेटे का कहना था कि जीवन स्वयं संघर्ष का नाम है, कि वह अच्छाई और बुराई के, प्रेम और घृणा, उल्लास और पीड़ा के बीच संघर्ष है।

जैसे-जैसे पिंड़ो में घट रही प्रक्रियाओं और परिवेश के साथ उसके संबंधों पर ध्यान दिया जाने लगा, वस्तुओं के संबंध में नये तथ्यों और जानकारियों का ज्ञान बढ़ने लगा, प्रकृति की द्वंद्वात्मकता ( dialectics ) का व्यापक रूप सामने आने लगा। हर गतिशून्य पिंड़ गतिशील और हर गतिशील पिंड गतिशून्य भी होता है, कि पिंड में गति और गतिशून्यता, दोनों साथ-साथ पायी जाती हैं और वे एक दूसरे से अविभाज्य ( indivisible ) हैं। हर प्रकार की गति वास्तव में विरोधियों के बीच इसी प्रकार के एकता और अंतर्विरोधों के संबंधों का परिणाम ( result ) होती है।

उदाहरण के लिए, जीवन भी एक गति है, जिसका कारण शरीर से बाहर नहीं होता। शरीर में गति उसमें निहित कारण का ही परिणाम है। इस गति का स्रोत शरीर के अंगीभूत विरोधों - द्रव्यों का आत्मसात्करण ( assimilation ) तथा निस्सारण ( extraction ) - की अन्योन्यक्रिया ( interaction ) है। इन विरोधों के बीच संतुलन, यहां तक कि आंशिक, स्थूल संतुलन भी, बहुत ही कम समय तक जारी रह पाता है। उनमें पूर्ण संतुलन कभी नहीं होता, वे एक दूसरे को निष्क्रिय कभी नहीं कर पाते। जब तक जीवन ( और इसीलिए उनका स्रोत - विरोधों का टकराव ) है, तब तक उनके बीच असंगति ( inconsistency ), विरोध भी बने रहते हैं। इसीलिए स्वतः गतिशीलता ही जीवन है।

निस्संदेह, बाह्य कारकों की भूमिका को पूरी तरह अस्वीकार करना ठीक नहीं होगा, जो किसी न किसी प्रकार से गति में सहायक या बाधक हो सकते हैं। किंतु सभी प्रकार की गति का उद्‍गम, स्रोत ( मूल ) आंतरिक विरोध ही होते हैं : नये विरोधों के आविर्भाव से गति का नया रूप पैदा होता है और जब उनका विलोपन ( elimination ) होता है, तो गति का भी रूप बदल जाता है, जिसकी प्रेरक शक्ति अन्य विरोध होते हैं। प्रत्येक अंतर्विरोध का एक अपना ही इतिवृत ( chronicle ) होता है। वह उत्पन्न होता है, बढ़ता है और फिर उसका समाधान हो जाता है। इस तरह संघर्ष के जरिये विकास होता है, संघर्ष विरोधियों के बीच संबंध का सार है। अधिभूतवादी दार्शनिक विरोधियों की एकता को अस्वीकार करते हैं, वे यह मानते हैं कि प्रत्येक विरोधी स्वतंत्र रूप से विद्यमान होता है। जो लोग विरोधियों की एकता को मानते हैं किंतु उनके बीच संघर्ष को स्वीकार नहीं करते, वे भी इसी अधिभूतवादी स्थिति में होते हैं।

अंत में कहा जा सकता है कि हमें जीवन में, वास्तविकता में लगातार अंतर्विरोधों का सामना करना पड़ता है। वे गति के, विकास के प्राथमिक सारतत्व तथा उद‍गम हैं। इसीलिए उन्हें जानना महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह ज्ञान हमारे क्रियाकलाप को कारगर बना देता है। यही इस प्रश्न का आधार है कि हमारे चिंतन में अंतर्विरोध किस तरह परावर्तित ( reflected ) होते हैं? यह अगली बार।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

क्रमविकास किस प्रकार होता है?

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने विज्ञान की दुनिया की तीन महान खोजों पर चर्चा की थी, इस बार हम क्रमविकास को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



क्रमविकास किस प्रकार होता है?

दार्शनिक वस्तुओं को उनके परिमाण ( quantity ) तथा गुण ( quality ) से पृथक करते थे। मसलन, देमोक्रितस  ने कहा कि विश्व में परमाणु हैं और शून्य है। परमाणु अपने रूप और भार ( यानि परिमाण ) में भिन्न होते हैं और यह सजीव और निर्जीव वस्तुओं के बीच एकमात्र अंतर है। उन्होंने कहा कि आत्मा भी परमाणुओं से बनी है, जिनका रूप गोलाकार और भार हलका होता है। प्रकृति में परिमाणात्मक संबंधों के प्रश्न को पेश करने वाले पहले व्यक्ति पायथागोरस  थे। उनका विश्वास था कि समस्त अस्तित्वमान वस्तुओं का मूल स्रोत अंक हैं।

परंतु वैज्ञानिकों ने परिमाण तथा गुण के बीच संबंध को बहुत पहले ही मान्यता दे दी थी। मसलन यह बात अरब किमियागरों को ज्ञात थी, जिन्होंने तत्वों के रूपातंरण का सिद्धांत बनाया था। एक प्रवर्ग ( category ) के रूप में गुण का विश्लेषण सबसे पहले अरस्तु  ने किया था। उन्होंने इसे सार की एक विशिष्ट विशेषता के रूप में परिभाषित किया था।

प्रत्येक व्यक्ति जान सकता है कि किसी एक वस्तु या घटना में परिमाणात्मक ( quantitative ) परिवर्तन नये गुण को जन्म देते हैं। हम बढ़ते हैं, अर्थात बालपन से किशोरावस्था में, फिर प्रौढ़ होकर बूढ़े हो जाते है। यह प्रक्रिया ( एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाना ) हमारे अनजाने ही होती है और बालपन व किशोरावस्था के बीच की विभाजक रेखा को हमेशा नहीं खोजा जा सकता है। परिमाणात्मक परिवर्तनों का सातत्य ( continuity ) प्राकृतिक तथा सामाजिक प्रक्रियाओं के दौरान नूतन के आविर्भाव का स्पष्टीकरण नहीं देता, साथ ही उसे समझना भी अधिक कठिन बना देता है। नूतन की धारणा एक छलांग सरीखे गुणात्मक ( qualitative ) रूपातंरण के रूप में विकास के साथ अनिवार्यतः जुड़ी होती है।

प्राचीन यूनानी दार्शनिक इस बात को समझ गये थे। उन्होंने ऐसी विशिष्ट मानसिक युक्तियों का सुझाव दिया, जिसमें प्रकृति और मानवजीवन में छलांग सरीखे गुणात्मक रूपांतरणों की अवश्यंभाविता को तार्किक दृष्टि से प्रमाणित किया गया है। ऐसी छलांगें परिमाणात्मक सातत्य का क्रम भंग कर देती हैं। मिसाल के लिए, ‘अंबार’ युक्तिमाला में यह प्रश्न पेश किया जाता है कि रेत के अलग-अलग कणों से एक पूरा अंबार कैसे उत्पन्न होता है। रेत का अकेला कण अंबार नहीं है और दो, तीन, चार या पांच भी अंबार नहीं....अन्य रेत-कणों में एक और रेत-कण डालने से भी अंबार नहीं बनता। तो यह कैसे उत्पन्न हो जाता है? किस विशेष क्षण पर होता है?  इसी तरह ‘गंजा’ युक्तिमाला में इसी प्रक्रिया पर विपरीत क्रम में विचार किया जाता है - कि पुरुष गंजा कैसे हो जाता है? जबकि उसके बालों में एक, दो या तीन, इत्यादि बालों की कमी होने पर वह गंजा नहीं होता है। फिर भी अंबार बन रहे हैं और पुरुष गंजे हो रहे हैं।

इन घटनाओं को परिमाणात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तनों के बीच अंतर्संबंध के विश्लेषण ही से समझा तथा स्पष्ट किया जा सकता है। दोनों ही मामलों में परिमाण में हो रहा सतत परिवर्तन गुणों में परिवर्तन पैदा कर देता है, यानि इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि परिमाणात्मक संचय एक गुणात्मक विशेषता में परिवर्तित हो जाता है। इसका एक अन्य विनोदपूर्ण उदाहरण, जिसे हेगेल  ने प्रस्तुत किया था, इस प्रकार है : आप एक पैसा या चवन्नी-अठन्नी खर्च कर सकते हैं, और यह खर्च महत्त्वहीन है, किंतु यही महत्त्वहीनता आपके बटुवे को खाली कर सकती है और यह एक मौलिक गुणात्मक अंतर है।

दैनिक जीवन की एक परिघटना के वैज्ञानिक विश्लेषण से भी इसे समझा जा सकता है। पानी को यदि  सतत उष्मा दी जाए, तो ग्रहण की जा रही उष्मा के परिमाण में हो रही वृद्धि के अनुरूप ही पानी के तापमान में भी वृद्धि होती है। पानी के गुण में कोई परिवर्तन नहीं होता केवल उसके ताप के परिमाण में परिवर्तन होता रहता है। तापमान में वृद्धि का एक निश्चित मान प्राप्त होने पर ही, यानि १०० डिग्री सेल्सियस पर, यह परिणामात्मक परिवर्तन, गुणात्मक परिवर्तन में एक छलांग लगा देता है। पानी भाप बन जाता है जो कि गुणों में पानी से निश्चित ही भिन्न होता है। इस तरह हम समझ सकते हैं कि एक निश्चित परिमाणात्मक संचय किस तरह छलांग रूप में गुणात्मक परिवर्तनों का कारण बनता है।

परिमाणात्मक परिवर्तन विभिन्न प्रकार के होते हैं : वे या तो मंद और अगोचर होते हैं ( जैसे बचपन से वयस्क अवस्था में परिवर्तन ), या त्वरित हो सकते हैं। परिमाणात्मक परिवर्तनों को क्रमविकासीय विकास ( evolutionary development ) कहते हैं। क्रमविकास ( evolution ) शनैः शनैः होनेवाला, सुचारू तथा मंद प्रकार का विकास है। गुणात्मक विकास क्रांतिकारी ( revolutionary ) होता है, इसमें अतीत का मूलोच्छेद ( extirpate ) हो जाता है और सामाजिक संबंध, संस्कृति, तकनीक, विश्वदृष्टिकोण, आदि आमूलतः बदल जाते हैं। सामाजिक क्रांतियां ( social revolutions ) तथा वैज्ञानिक खोजें इसी प्रकार के विकास का उदाहरण हैं।

परंतु कुछ वैज्ञानिक और दार्शनिकों का ख़्याल है कि प्रकृति और समाज में केवल परिमाणात्मक परिवर्तन ही होते हैं। इस तरह से वे अधिभूतवादी ( metaphysical ) दृष्टिकोण अपना लेते हैं, जिससे परिमाणात्मक संबंध निरपेक्ष ( absolute ) और प्रमुख हो जाते हैं। मसलन, अनाक्सागोरस  ने कहा है कि मनुष्य के बीज में आंखों से न देखे जा सकनेवाले सूक्ष्म बाल, नख, वाहिकाएं, पेशियां तथा हड्डियां होती हैं, जो विकास के दौरान परस्पर मिलती हैं, बढ़ती तथा दृश्य हो जाती हैं। इसी तरह के दृष्टिकोण किंचिंत परिवर्तित रूप में जैविकी में और आगे चलकर समाज विज्ञान में भी प्रविष्ट हो गये। इस तरह समाज के विकास को क्रमविकास में सीमित कर दिया जाता है और क्रांतिकारी परिवर्तनों से इंकार कर दिया जाता है। इसके व्यावहारिक परिणाम होते हैं। राजनीति में क्रमविकासवाद, सुधारवाद तथा दक्षिणपंथी अवसरवाद के लिए प्रचार का द्योतक है। इस सिद्धांत के अनुयायी सामाजिक परिवर्तनों को केवल एक सुचारू रूप से क़दम-ब-क़दम चलने वाली प्रक्रिया मानते हैं। इसलिए वे वर्गों के बीच सहयोग की वकालत करते हैं और सरकारी सुधारों तथा संवैधानिक संशोधनों, आदि के महत्त्व को बढा-चढ़ाकर पेश करते हैं, जिसके फलस्वरूप वे समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण की प्रक्रिया को रोकने की कोशिश करते हैं यानि वास्तव में क्रांति के विरुद्ध ही खड़े होते हैं।

इसी का दूसरा छोर है गुणात्मक परिवर्तनों को निरपेक्ष बनाना। इसमें विकास को एक अनन्य गुणात्मक परिवर्तन मात्र माना जाता है। कुछ पश्चिमी वैज्ञानिक फ्रांसीसी प्रकृतिविद जी. कुविए  रचित महाविपत्तिवाद के सिद्धांत को दर्शन के क्षेत्र में जबरन घसीट लाते हैं। कुविए का विचार था कि विकास प्रशांत अवस्था से महाविपत्ति की अवस्था की ओर जा रहा है। यद्यपि आगे चलकर विज्ञान ने कुविए के विचारों का खंडन कर दिया, तथापि उन्हें सामाजिक प्रक्रियाओं की व्याख्या करने के लिए इस्तेमाल किया गया और उन्होंने अराजकतावादियों ( anarchists ) तथा हर प्रकार के राजनीतिक दुस्साहसवादियों के लिए राजनीतिक कार्यकलाप के आधार का काम किया। उपरोक्त तरह के विचार अधिभूतवादी है, क्योंकि वे या तो मात्र परिमाणात्मक परिवर्तनों पर या केवल गुणात्मक परिवर्तनों पर आधारित हैं। किंतु वास्तव में विकास, परिमाणात्मक और गुणात्मक परिवर्तनों का एकत्व है, जिसमें परिमाणात्मक परिवर्तन, छलांगों के लिए या गुणात्मक परिवर्तनों के लिए, क्रमविकास में नये, आमूल परिवर्तन के लिए रास्ता तैयार करते हैं।

इसका समापन करते हुए हमें इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि छलांगें भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है और सब की सब एकसमान नहीं होतीं। मसलन, वे एक निश्चित तापमान पर धातु के तरल में या पानी के भाप में रूपांतरित होने के समकक्ष हो सकती है, अथवा वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति के। छलांगों को कई सहस्त्राब्दियां भी लग सकती हैं, जिसका एक उदाहरण भौगोलिक युगों का अनुक्रम है, या वे ऐतिहासिक दृष्टि से एक अल्पावधि में ही हो सकती हैं।

परिमाण से गुण में संक्रमण का सिद्धांत भौतिकवादी द्वंद्ववाद को एक विशिष्ट क्रांतिकारी स्वरूप प्रदान कर देता है। यह सामाजिक प्रगति ( progress ) के बुनियादी सार का स्पष्टीकरण देता है और एक प्रदत्त अवस्था में समाज या देश के क्रमविकास के सहज परिणाम-रूप में क्रांति को लानेवाले क्रमविकासीय परिवर्तनों को समझना आसान बना देता है।

अब जबकि हम यह समझ चुके हैं कि गति परिमाणात्मक से गुणात्मक परिवर्तन की ओर होती है, तो हम यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि गति का स्रोत क्या है? इसे अगली बार देखेंगे।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

तीन महान खोजें

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हम ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास के अंतर्गत अधिभूतवाद पर चर्चा की थी, इस बार हम विज्ञान की दुनिया की तीन महान खोजों पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



तीन महान खोजें
( three great discoveries )

विज्ञान के विकास के साथ ही विश्व के अधिभूतवादी दृष्टिकोण की कमजोरियां स्पष्ट होती गईं। ऐसा सबसे पहले ब्रह्मांडिकी ( cosmology ) में हुआ। जर्मनी के प्राकृतिक वैज्ञानिक और दार्शनिक कांट  तथा फ्रांसीसी खगोलविद व गणितज्ञ पियेर लाप्लास  ने सौरमंडल की उत्पत्ति पर मिलती-जुलती प्राक्कल्पनाएं ( hypothesis ) पेश कीं। इसके अनुसार सौरमंडल धूलि सरीखे भूतद्रव्य ( matter ) से स्वाभाविक रूप से विरचित हुआ। उनका सिद्धांत आकाशीय पिंडो के बारे में अधिभूतवादी संकल्पना पर पहला आघात ( shock ) था।

परिवर्तन तथा क्रमविकास से संबंधित द्वंदवादी विचार, स्वयं विज्ञान के ही गर्भ में उपज रहे थे। खास तौर पर १९वीं सदी के मध्य से, विज्ञान में यह विचार भली भांति प्रतिष्ठित हो गया कि क्रमविकास के सिद्धांत का ही सहारा लेकर परिवर्तनशील विश्व की विविधता का स्पष्टीकरण देना संभव है। विश्व के द्वंद्वात्मक स्वरूप के निरूपण ( demonstration ) में १९वीं सदी में संपन्न तीन महान खोजों का विराट महत्त्व है। ये हैं जीवित अंगियों की कोशिकीय संरचना ( cellular structure of living organism ) , ऊर्जा की अविनाशिता तथा रूपांतरण का नियम ( law of conservation and conversion of energy ) और क्रमविकास का सिद्धांत ( theory of evolution )। इन खोजों ने विश्व की वस्तुओं और घटनाओं के सार्विक अंतर्संबंधों को उद्‍घाटित करने में सहायता की और यह दर्शाया कि विकास सरल से जटिल और निम्न से उच्चतर की ओर होता है। इससे पहले वैज्ञानिक और अधिभूतवादी दार्शनिक यह मानते थे कि पदार्थ के विभिन्न रूप - कैलोरीय, चुंबकीय, यांत्रिक और विद्युतीय - एक दूसरे से स्वतंत्र रूप में अस्तित्वमान हैं। किंतु अब उनका आंतरिक संबंध ( internal relation ) प्रमाणित हो गया था।

१९वीं सदी के तीसोत्तरी दशक में जर्मन जैविकीविद ( biologist ) थियोडोर श्वान और वनस्पति वैज्ञानिक ( botanist ) मैथियाज़ श्‍लैदेन  ने जीवित अंगियों के विकास का अध्ययन करते समय कोशिका ( cell ) की खोज की, जो सारे पेड़-पौधों और प्राणियों की संरचना का आधार है। इस खोज का अकूत दार्शनिक महत्त्व ( vast philosophical significance ) था, क्योंकि इसने समस्त जीव-धारियों की एकता तथा पारस्परिक नातेदारी ( mutual kinship ) को प्रमाणित कर दिया।

अंग्रेज भौतिकीविद जेम्स जूल और रूसी भौतिकीविद एमिल लेंट्‍ज़  द्वारा अन्वेषित ऊर्जा की अविनाशिता और रूपांतरण का नियम बतलाता है कि अकारण न कोई वस्तु प्रकट होती है, न ग़ायब होती है। सदियों पहले इसी प्रकार का विचार कई प्राचीन दार्शनिकों ने भी व्यक्त किया था किंतु यह उनका एक अनुमान मात्र था, उन्होंने भी कहा था कि शून्य से किसी की उत्पत्ति नहीं होती। यह सूक्ति वैज्ञानिक दृष्टि से तभी प्रमाणित हुई जब जूल और लेंट्‍ज़ ने ऊर्जा के सारे प्रकारों के बीच अंतर्संबंध को प्रमाणित कर दिया कि ऊर्जा अविनाशी और असर्जनीय है और उसे केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित भर किया जा सकता है यथा यांत्रिक से ताप ऊर्जा में और ताप ऊर्जा से विद्युत ऊर्जा में, आदि।

अंग्रेज प्रकृति वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन  द्वारा निरूपित क्रमविकास के सिद्धांत ने वनस्पति जगत तथा प्राणी जगत के बीच अंतर्संबंध को ज़ाहिर किया। डार्विन ने तथ्यात्मक ( factual ) सामग्री के विशाल भंडार के आधार पर यह साबित किया कि पौधों से लेकर मनुष्य तक सारी प्रकृति एक अनवरत प्रवाह और क्रमिक विकास की स्थिति में है। क्रमविकास का विचार ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी फैल गया। २०वीं सदी में भौतिकी तथा खगोलविद्या में ब्रह्मांड की उत्पत्ति और विकास संबंधी सिद्धांतों का आविर्भाव ( emersion ) हुआ। भूविज्ञान ( geology ) और भूगोल ( geography ) ने इस विचार की पुष्टि की कि पृथ्वी, उसका आभ्यंतर और सतह लगातार बदल रही है। भूविज्ञान ने पदार्थों के विकास का अध्ययन शुरू कर दिया। इतिहास ( history ) में यह विचार पेश किया जाने लगा कि प्रगति निम्नतर से उच्चतर अवस्थाओं की ओर गति है। मनोविज्ञान ( psychology ) ने बताया कि मनुष्य की मानसिकता भी बदलती है। इस प्रकार, सार्विक क्रमविकास का सिद्धांत विज्ञान और दर्शन में सर्वव्याप्त हो गया और विश्व की अपरिवर्तनीयता के दृष्टिकोण का पूर्णतः खंडन हो गया।

यह विचार भी सत्य सिद्ध हो रहा है कि सारी यथार्थता ( reality ) अंतर्संबंधित है। जलवायु में परिवर्तन से वनस्पति और प्राणी जगत में परिवर्तन हो जाते हैं। सूर्य में उठनेवाले चुंबकीय तूफ़ान रेडियो संचार को ही नहीं गड़बड़ाते हैं, बल्कि मौसम पर भी असर डालते हैं, जबकि वायुमंडलीय दबाब मनुष्यों के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। वस्तुओं और घटनाओं के सार्विक संबंधों के बारे में वैज्ञानिक जगत के साथ-साथ साहित्यिक जगत में भी काफ़ी कुछ लिखा जा रहा है। प्रकृति की केवल एक कड़ी का विनाश या दुर्बलीकरण प्रकृति के ही नहीं, बल्कि समाज के आगे के विकास पर भी असर डालता है। पश्चिमी जर्मनी के एक दार्शनिक रॉबर्ट श्तैगरवाल्ड  वस्तुओं और घटनाओं के बीच सार्विक संबंध के एक उदाहरण के रूप में एक अत्यंत कारगर कीटनाशी पदार्थ डी. डी. टी. की खोज की चर्चा करते हैं। इसके अनुप्रयोग से कीड़ों का उन्मूलन ( abolition ) करना सहज हो गया, किंतु इसने पक्षियों का भोजन भी नष्ट कर दिया, फलतः बसंत ख़ामोश हो गया। डी. डी. टी. से पक्षी और मधुमक्खियां मर गईं तो पहले से कम फूलों का परागण हुआ, फल और फ़सल घट गई। वर्षाजल से डी. डी. टी. सतह के पानी में प्रविष्ट हो गया, फिर नदियों और सागरों में और अंततः हमारे भोजन में। यह लोगों की मांसपेशियों में संचित हो गया। चूंकि डी. डी. टी. को जीवित शरीर से हटाना असंभव है, इसलिए वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि डी. डी. टी. के उपयोग को ख़त्म कर दिया जाए। किंतु घटनाओं के बीच सार्विक संबंध हमेशा जाहिर नहीं होता है, कभी-कभी तो हम उसे देख ही नहीं सकते।

विश्व केवल परिवर्तनशील और गतिमान ही नहीं ह, यह एक अविभक्त साकल्य ( a indivisibly whole ) है और इसमें हर चीज़ अभिन्न ( integral ) रूप से जुड़ी है। विज्ञान ने प्राचीन दार्शनिकों के द्वारा लगाए गए इस अनुमान को सही साबित कर दिया कि कोई भी वस्तु शून्य से सर्जित ( create ) नहीं होती और कोई भी चिह्न छोड़े बग़ैर लुप्त नहीं होती। परमाणु प्राथमिक कणों से बनते हैं, फिर उनसे अणुओं की रचना होती है। बड़े आकाशीय पिंड भी एक दूसरे से जुड़े हैं ; पौधे और प्राणी जातियां, वर्गों और कुलों की रचना करते हैं ; सूर्य पृथ्वी से, हमारी आकाशगंगा अन्य से जुड़ी है, आदि। अतः विश्व का अध्ययन करते समय हमें उसे उसके अंतर्संबंधों, एकता और परिवर्तनों के सहित देखना चाहिए।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय
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