शनिवार, 25 जनवरी 2014

द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - ४

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास पर आगे चर्चा की थी, इस बार हम उसी चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - ४
( a brief history on the concept of dialectics - 4 )
अधिभूतवाद

अधिभूतवाद’ ( Metaphysics ) का शाब्दिक अर्थ ‘भौतिकी के बाद’ है और यह शब्द कृत्रिम रूप से व्युत्पन्न है। सिकंदरिया के एक पुस्तकालयाध्यक्ष अंद्रोनिकस  ने, जिन्होंने अरस्तू की पांडुलिपियों का अध्ययन किया था, उन्हें एक क्रम में रखते समय तथाकथित ‘प्रथम दर्शन’ या ‘दार्शनिक प्रज्ञान’ से संबंधित ग्रंथों को प्रकृति संबंधी अरस्तू की रचना ‘भौतिकी’ के बाद रखा। उस काल से सारी दार्शनिक कृतियां अधिभूतवादी कहलाने लगीं। यह शायद इसलिए भी लोकप्रिय हो उठा कि इस शब्द से ऐसा भ्रम पैदा होता है कि यह दर्शन, भौतिकी की वैज्ञानिक उपलब्धियों के बाद का है, यानि कि यह प्रतीत होता है कि अधिक वैज्ञानिक और तार्किक सा है। कालांतर में इस शब्द का अर्थ बदल गया। मसलन, हेगेल  ने अधिभूतवाद को गति के बारे में ऐसा दृष्टिकोण बताया, जो द्वंद्ववाद के विपरीत है।

अधिभूतवाद चीज़ों और परिघटनाओं ( phenomena ) को उनकी एकता और अंतर्संबंधों के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखता बल्कि उस समग्र, सामान्य संबंध के बाहर प्रत्येक घटना को दूसरे से अलग-थलग ढंग से, असम्बद्ध ( incoherent, relationless ) करके देखता है, और उनका अध्ययन पारस्परिक संबंधों व अंतर्क्रियाओं ( interactions ) से अलग करके करता है। परिणामस्वरूप उन्हें गतिमान नहीं बल्कि स्थिर, जड़ीभूत, और अपरिवर्तनीय मानता है। अधिभूतवादी दृष्टिकोण, परिवर्तन तथा गति का अध्ययन करते समय, परिघटनाओं के वास्तविक अंतर्संबंधों तथा विकास को दिखा पाने में असमर्थ होता है, और इसीलिए प्रकृति, समाज तथा मनुष्य के चिंतन में मूलतः नई घटनाओं तथा प्रक्रियों के उद्‍भव की संभावनाओं को स्वीकार नहीं करता।

अधिभूतवादी विचार-पद्धति में गति, उसके स्रोत ( source ) तथा उसमें अंतर्निहित अंतर्विरोधों ( inherent contradictions ) को वस्तुओं में अनिवार्य नहीं माना जाता, बल्कि उन्हें अंतिम परिणाम समझा जाता है। चूंकि अधिभूतवादी के लिए वस्तुएं, उनके मानसिक परावर्तन, विचार अलग-अलग होते हैं और उन पर एक-एक करके पृथक विचार करना होता है, अतः उसके लिए वे ऐसे विषय होते हैं, जो हमेशा एक से रहते हैं और जिनका रूप सदा के लिए निर्धारित तथा निश्चित हो गया है। इस दृष्टि से विश्व में परिवर्तन नहीं सिर्फ़ पुनरावर्तन होता है, सब कुछ देर-सवेर पुनरावर्तित होता है, हर चीज़ ऐसे गतिमान होती है, मानो एक वृत्त में घूम रही हो और गति तथा परिवर्तन के स्रोत वस्तुओं और घटनाओं के अंदर नहीं, बल्कि किसी बाहरी प्रणोदन ( external propulsion ) में, उन शक्तियों में निहित होते हैं जो विचाराधीन घटना के संदर्भ में बाहरी होती है। यह बाह्य जगत में आमूल गुणात्मक रूपांतरणों ( radical qualitative conversions ) और क्रांतिकारी परिवर्तनों ( revolutionary changes ) को मान्यता नहीं देता और विकास को ऐसे पेश करता है मानो वह सुचारू क्रमविकास ( smooth evolution ) और महत्त्वहीन परिमाणात्मक परिवर्तन ( insignificant quantitative changes ) हो।

इस तरह द्वंद्ववाद और अधिभूतवाद विकास के परस्पर दो विरोधी दृष्टिकोण ( approach ) हैं, विश्व के ज्ञान की व्याख्या करने की दो भिन्न-भिन्न विधियां ( methods ) हैं। चिंतन की विकास प्रक्रिया में हम देखते हैं कि जहां द्वंद्ववाद गति को मान्यता देता है, वहीं अतीत काल में अधिभूतवाद ने भौतिक घटनाओं और उनके अंतर्संबंधों के एक आवश्यक अनुगुण के रूप में गति से स्वयं को पृथक कर लिया था, हालांकि आधुनिक अधिभूतवाद गति से इन्कार तो नहीं करता है, पर उसे सरलीकृत तरीक़े से लेता है। द्वंद्ववाद विकास की व्याख्या विरोधियों की अंतर्क्रिया, उनकी एकता और संघर्ष के रूप में करता है, वास्तव में यह भीतरी विकास के, यानि स्वविकास के समकक्ष है। इसके विपरीत, अधिभूतवाद विकास को सरल स्थानांतरणों, बढ़ती या घटतियों, या चक्रिक गतियों में परिणत कर देता है और स्वविकास को ठुकरा देता है।

विश्व तथा उसके संज्ञान ( cognition ) के अधिभूतवादी दृष्टिकोण ने उस अवस्था में एक उचित भूमिका निभाई, जब वह विज्ञान की तरक़्क़ी और ज्ञान की प्रगति से जुड़ा हुआ था। इस पद्धति ने अलग-अलग वस्तुओं तथा घटनाओं के बारे में तथ्यों के संचय तथा संग्रह में और तुलना, प्रेक्षण, आदि के द्वारा उनके अनुगुणों की खोज में मदद की। इससे कई विज्ञानों : गणित, भौतिकी, जैविकी, रसायन, आदि में खोजों को प्रेरणा मिली, आवश्यक तथ्य मिले।

फ्रांसीसी जैविकीविद तथा चिंतक जे० लामार्क ने तथ्यात्मक सामग्री के विशाल संग्रह के आधार पर प्राणियों के क्रम-विकास के बारे में एक सिद्धांत की रचना की। इसमें क्रमविकास को सरल से जटिल की ओर गति के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उसे आंतरिक तथा बाह्य कारकों के प्रभावांतर्गत अंगी के सुधार का परिणाम माना गया है। परंतु चिंतन के अधिभूतवादी दृष्टिकोण के प्रभावी होने के कारण ऐसी स्थिति ही बन सकती थी, जिसमें वस्तुओं तथा घटनाओं के साथ उनके रिश्ते के साथ नहीं, बल्कि उनके अकेलेपन में देखा गया था ; वैज्ञानिकों का ध्यान उनके परिवर्तन और विकास से विकर्षित ( detract ) हो गया। यह दृष्टिकोण १९वीं सदी तह प्रभावी रहा और कई वैज्ञानिक विश्व की अपरिवर्तनीयता तथा उसके बुनियादी नियमों पर विश्वास करते थे, जिन्हें यांत्रिकी के नियमों में परिणत कर दिया गया था। इसके अनुसार ब्रह्मांड में कोई नई चीज़ पैदा नहीं हो सकती। इस तरह से अधिभूतवाद, जो इतिहासतः सीमित ज्ञानार्जन विधि है, धीरे-धीरे विज्ञान के क्रम-विकास में बाधा डालने लगा।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 18 जनवरी 2014

द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - ३

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हम ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास पर आगे चर्चा की थी, इस बार हम उसी चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - ३
( a brief history on the concept of dialectics - 3 )


द्वंदवाद के इतिहास की चर्चा करते समय हम हेगेल  की, द्वंद्ववाद के सांमजस्यपूर्ण सिद्धांत के रचयिता की अवहेलना नहीं कर सकते हैं। हेगेल की मान्यता थी कि विश्व विरोधी शक्तियों की अंतर्क्रिया ( interaction ) के फलस्वरूप विकसित होता है, लेकिन उन्होंने इस विकास को किसी एक निरपेक्ष प्रत्यय ( absolute idea ) के, ‘विश्वात्मा’ या ‘विश्व बुद्धि’ से जोड़ दिया। उनके द्वंद्वात्मक मत में विश्व सिर के बल खड़ा प्रतीत होता है, वे प्रकृति तथा मानव इतिहास में विकासमान सभी कुछ को अंततः किसी ‘विश्व बुद्धि’ पर आरोपित कर देते हैं, फलतः उनका द्वंद्ववाद प्रत्ययवादी ( idealistic ) हो जाता है। हेगेल ने वास्तविक विश्व की द्वंद्वात्मकता का अनुमान प्रत्ययों के जगत में ( चिंतन में ) लगाया। उन्होंने कहा कि विश्व इतिहास ‘विश्वात्मा’ का क्रमविकास है। हर चीज़, प्रत्येक वस्तु तथा घटना में अंतर्निहित अंतर्विरोधों ( inherent contradictions ) के कारण विकसित होती है, इसलिए हर चीज़ का अपना ही इतिहास होता है। हेगेल के दर्शन में विद्यमान सही तर्कबुद्धिमूलक ( reasoning intelligence rooted ) सार, विकास के बारे में उनका सिद्धांत है, जिसमें विकास के प्रेरक बल को वे वस्तुओं और घटनाओं में निहित विरोधियों की अंतर्क्रिया पर आरोपित करते हैं। भौतिकवादी द्वंद्ववाद ( materialistic dialectics ) इस सार को ग्रहण करता है, और इसे प्रत्ययवादी घटाघोप से मुक्त कर इसे और आगे विकसित करता है।

लोगों को अपने क्रियाकलापों के दौरान विश्व में होने वाली घटनाओं के बीच विद्यमान कड़ियों की बहुत समय से जानकारी रही है। चीजों के परस्पर संबंधों के बारे में, कारणों की श्रृंखला, आदि के बारे में इन विचारों को पहले-पहल अभिव्यक्ति मिलने के बाद कई सहस्त्राब्दियां बीत गईं। पृथक-पृथक घटनाओं के सह-अस्तित्व ( co-existence ) के अवबोध से प्रांरभ होकर, इन विचारों की व्याख्या तथा विकास विभिन्न संकल्पनाओं ( concepts ) की रचना तथा वस्तुओं व घटनाओं की सार्विक अंतर्निर्भरता ( universal interdependence ) के बारे में एक विचार तक पहुंचा। देमोक्रितस  ने अंतर्संबंध ( interrelation ) के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रूप, कार्य-कारण संबंध के विचार का सैद्धांतिक दलीलों में उपयोग करके मानवजाति के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की। उन्होंने कहा कि हर चीज़ के पीछे उसका अपना कारण ( reason ) होता है, कि बिना कारण के कुछ नहीं हो सकता। देमोक्रितस के अनुसार कार्य-कारण संबंध एक प्राकृतिक आवश्यकता है, इसलिए कारणाभाव प्रदत्त घटना के असली कारणों के बारे में अज्ञान की आत्मगत ( subjective ) अभिव्यक्ति है।

प्राकृतिक घटनाओं की अंतर्निर्भरता के एकमात्र रूप की हैसियत से कार्य-कारण संबंध दर्शन और प्राकृतिक विज्ञान, दोनों में ही सुस्थापित हो गया है। निर्भरता के अन्य रूपों का, खासकर संयोग ( coincidence ), संभावना तथा प्रसंभावना ( possibility and probability ) का, मूल्यांकन मानसिक संवेदों ( mental senses ) के रूप में, आत्मगत धारणाओं ( notions ) के रूप में किया जाता था। मिसाल के लिए, फ्रांसिस बेकन  ने लिखा, "सच्चा ज्ञान वही है, जिसे कारणों से निगमित किया जाता है।"

१७वीं - १९वीं सदियों की यांत्रिक भौतिकी में कार्य-कारण संबंध की व्याख्या एक अपरिवर्तनीय ( irreversible ), प्रत्यक्ष तथा कठोर आवश्यकता के रूप में की गई थी। मिसाल के लिए, एक गेंद जिस रफ़्तार से बिलियर्ड की मेज़ पर चलती है, उसका निर्धारण गेंद पर पड़े आघात ( stroke ) तथा उसके द्रव्यमान ( mass ) से होता है। आघात के बल तथा गेंद के द्रव्यमान की गणना जितनी सूक्ष्मता से की जाएगी, उतनी ही सटीकता से गतिमान गेंद की रफ़्तार तथा प्रत्येक विशिष्ट क्षण पर उसकी स्थिति का अनुमान लगाया जा सकेगा।

इस दृष्टिकोण से सारा वस्तुगत विश्व अंतर्संबंधों की एक श्रृंखला द्वारा मज़बूती से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। हम ब्रह्मांड के सारे पिंडों के द्रव्यमान तथा वेग का बिल्कुल सही मूल्य निर्धारित करके भविष्य के किसी भी क्षण में उनकी स्थिति का निर्धारण कर सकते हैं। इससे ऐसा भी प्रतीत होता है कि विश्व में सब कुछ पूर्वनिर्धारित ( predetermined, predestined ) है। लेकिन ऐसा प्रतीत होना ही नियतिवादी दृष्टिकोण ( determinist approach ) है, यानि भाग्य या प्रारब्ध ( destiny ) पर विश्वास है।

कार्य-कारण संबंध को सामान्य ( सार्विक ) कड़ी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रूप माननेवाली, संगत भौतिकवादी व्याख्या उसकी वस्तुगत प्रकृति ( objective nature ) को उद्‍घाटित कर देती है। भौतिकवादी द्वंद्ववाद दृष्टिकोण संपूर्ण विश्व को, गतिमान और बदलती हुई वस्तुओं को एक समग्र संबंध ( a composite bonding ) के रूप में देखता है। इस सार्विक विश्व संबंधों के ढांचे के बाहर न तो किसी अलग-थलग घटना को समझा जा सकता है, न प्रक्रिया को और न ही गति को। इसीलिए, द्वंद्ववाद प्रत्येक विषय या वस्तु की वैज्ञानिक और वस्तुगत जांच को, उसके अधिकाधिक नये पक्षों, रिश्तों और संपर्क-सूत्रों को प्रकाश में लाने की एक असीम प्रक्रिया के रूप में देखता है। आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान, ब्रह्मांड में होनेवाली घटनाओं के व्यापक परिसर - आकाशगंगाओं के उद्‍भव से लेकर प्राथमिक कणों में जारी सूक्ष्मतम प्रक्रियाओं तक - अंतर्संबंधों की नियमसंगतियों की एक ठोस अभिव्यक्ति देता है। हमें गति के सारे प्रकारों - यांत्रिक स्थान परिवर्तनों, विभिन्न भौतिक, रासायनिक व जैविक प्रक्रियाओं और सामाजिक परिघटनाओं ( phenomena ) - में सार्विक अंतर्संबंध दिखाई देता है।

बेशक, द्वंद्ववाद के इतिहास में ऐसे दृष्टिकोण भी सामने आए थे, जो गति में परिवर्तनों की भूमिका को अतिरंजित ( exaggerated ) करते और उसे निरपेक्ष बनाते थे। मसलन, प्राचीन यूनानी दार्शनिक और हेराक्लितस के शिष्य क्रातीलस  ने कहा कि एक ही नदी में दो बार प्रवेश करना असंभव है, क्योंकि जब हम उसमें प्रविष्ट होते हैं तो हम और नदी, दोनों ही बदल रहे होते हैं। इससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि ज्ञान अलभ्य ( unachievable ) है, हम किसी भी वस्तु के बारे में कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि हम जिसके बारे में कह रहे होंगे अब वह अस्तित्व में ही नहीं है, बदल गई है। इस दृष्टिकोण में जिसे कई बार सापेक्षवाद कहा जाता है, गत्यात्मकता, परिवर्तनीयता और गति की भूमिका को अतिरंजित कर दिया जाता है और यह माना जाता है कि यदि हर चीज़ गतिमान है, तो वस्तुओं के बारे में कोई भी निश्चयात्मक बात नहीं की जा सकती है। यह दृष्टिकोण द्वंद्ववाद को उसके प्रतिपक्ष - अधिभूतवाद - में परिवर्तित कर देता है, जिस पर हम आगे विचार करने जा रहे हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

रविवार, 12 जनवरी 2014

द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - २
( a brief history on the concept of dialectics - 2 )


विश्व में हर चीज़ परिवर्तित, गतिमान और विकसित हो रही है, इस तथ्य को कई प्राचीन दार्शनिक पहले ही जान चुके थे। इस संदर्भ में यूनानी भौतिकवादी हेराक्लितस  ने, जिन्हें एक महान द्वंद्ववादी माना जाता है, अत्यंत स्पष्ट विचार प्रस्तुत किए। उनका कहना था कि विश्व एक असीम आदिकारण तथा चिरंतन अग्नि की वज़ह से लगातार परिवर्तन की स्थिति में है। प्रत्येक वस्तु गतिमान है, प्रकृति चिरंतन गति से भरी है। हेराक्लितस के द्वंद्ववाद में विश्व विरोधी तत्वों की अंतर्क्रिया के, उनकी एकता और संघर्ष के रूप में प्रकट होता है। सत्य का ज्ञान विरोधियों के पारस्परिक परिवर्तन की, उनके संघर्ष की समझ से उत्पन्न होता है। इस तरह हेराक्लितस का द्वंद्ववाद एक भिन्न आशय ग्रहण कर चुका था, जो कि विश्व की एक प्रकार की व्याख्या, उसकी गति का, क्रमविकास का अनुचिंतन है।

पूर्व के महान चिंतकों इब्न रूश्द और इब्न सिना ( अविसेना ) के दृष्टिकोण भी इसी प्रकार के थे। इब्न रुश्द यह मानते थे कि गति चिरंतन और अविनाशी है। उत्पत्ति, परिवर्तन तथा विनाश सभी भूतद्रव्य ( matter ) में संभावना के रूप में निहित हैं, क्योंकि विनाश पुनरुत्पत्ति की ही श्रेणी की एक क्रिया है। प्रत्येक गर्भस्थ सत्व में उसका अपना पतन एक संभावना के रूप में निहित होता है। अविसेना, जिन्हें उनके समकालीन ‘दर्शन का राजा’ कहते थे, भी यह समझते थे कि गति भूतद्रव्य में निहित एक क्षमता के रूप में होती है और रूपांतरण की उसकी योग्यता के समकक्ष होती है। प्राचीन चीनी दार्शनिक ज़ाङ्‍ त्ज़ाङ्‍  ने गति में उस भौतिक शक्ति त्सी को आरोपित किया, जो चक्रों में कंपित होती है और बारी-बारी से विखंडित होकर महाशून्य में लौटती है और फिर सांद्रित ( concentrate ) होकर सारे दृश्य जगत को साकार बनाती है।

भारत में सर्वाधिक प्राचीन भौतिकवादी दार्शनिक प्रवृत्ति लोकायत ( या चार्वाकों की विचार-पद्धति ) है, जिसकी स्थापना बृहस्पति  ने की माना जाता है। इसके अनुयायियों का विश्वास था कि विश्व भौतिक है और पांच प्राथमिक भूतों - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश - से निर्मित है। सारे जीवित प्राणी भी इन्हीं भूतों से निर्मित होते हैं और मृत्यु पर इन्हीं में विखंडित हो जाते हैं। उन्होंने अनश्वर आत्मा, ईश्वर तथा परलोक की धार्मिक धारणाओं की आलोचना की और यह साबित करने का प्रयत्न किया कि शरीर की मृत्यु के बाद चेतना ( consciousness ) भी नष्ट हो जाती है। इसी वज़ह से उन्होंने पुनर्जन्म की मान्यता को भी ठुकरा दिया। चार्वाकों का भौतिकवाद उनके अनीश्वरवाद के साथ घनिष्ठता से जुडा हुआ था और उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करते हुए यह स्थापित करने की कोशिश की भौतिक जगत किसी भी दैवी अनुकम्पा से स्वतंत्र ( independent ) है और अंतर्निहित ( inherent ) कार्य-कारणता के संबंधों के अनुसार विकसित होता है।

प्राचीन भारतीय उपनिषदों में भी कई जगह इस तरह के विचार व्यक्त किए गए है कि भौतिक प्रक्रियाएं परिवर्तनीय और अस्थिर हैं। कई अन्य विचार-पद्धतियों में भी भौतिकवादी ( materialistic ) रुझान अभिव्यक्त हुए हैं। कपिल द्वारा संस्थापित सांख्य दार्शनिक मत में विश्व को भौतिक तत्वों की संख्या से स्पष्ट किया गया है। इसके प्रतिनिधि विश्व को एक सार्विक प्राथमिक पदार्थ ( प्रकृति ) से शनैः शनैः विकसित भौतिक जगत मानते थे। इस प्राचीन मत की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह स्थापना थी कि गति, देश और काल भूतद्रव्य के गुण हैं तथा उससे अविभाज्य हैं। बाद में प्रत्ययवाद ( idealism ) के विरुद्ध संघर्ष में यह पद्धति पीछे हट गई और समझौते के बतौर उसने भूतद्रव्य से पृथक आत्मा ( पुरुष ) के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया।

न्याय और वैशेषिक  दर्शन की विचार-पद्धति ने इन प्रत्ययों का विकास किया कि विश्व जल, वायु, अग्नि और पृथ्वी के आकाश, देश तथा काल में विद्यमान गुणात्मकतः विविध कणों ( अणुओं ) से बना है। उनके लिए ‘अणु’ शाश्वत, अनादि और अविनाशी थे, जबकि उनसे निर्मित वस्तुएं परिवर्तनशील, अस्थिर थीं। मीमांसा संप्रदाय के कुमारिल  तथा प्रभाकर  ने इस मत की स्थापना की कि इस विश्व में ‘उत्पत्ति तथा विनाश की प्रक्रियाएं सतत ( continuous ) चलती रहती हैं। भारतीय दर्शन के अंतर्गत बौद्ध दर्शन में द्वंद्वात्मक चिंतन के प्रथम बीज पाए जाते हैं। ‘प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत’, अर्थात यह सिद्धांत कि प्रत्येक वस्तु अपनी उत्पत्ति के लिए किसी दूसरी वस्तु पर निर्भर है, तथा ‘अनित्यतावाद तथा अनात्मवाद’, अर्थात यह सिद्धांत कि प्रत्येक वस्तु अनित्य है तथा यह सिद्धांत कि स्थायी आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं, में यह देखा जा सकता है।


इस तरह हम देखते हैं कि यूनान, मध्यपूर्व, भारत और चीन के कई प्राचीन दार्शनिकों ने गति के असीम परिवर्तन तथा विश्व के क्रमविकास को मान्यता दी थी।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

शनिवार, 4 जनवरी 2014

द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार यहां विषय-प्रवेश हेतु एक संक्षिप्त भूमिका प्रस्तुत की गई थी, इस बार हम ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास पर चर्चा शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - १
( a brief history on the concept of dialectics - 1 )

हमारे आस-पास विद्यमान विश्व अविराम बदल रहा है, गतिमान और विकसित हो रहा है। यह बात हमारे दैनिक जीवन से, विज्ञान के जरिए, मानवीय क्रियाकलापों और राजनीतिक संघर्षों से प्रदर्शित होती है। इनमें से कुछ परिवर्तनों की तरफ़ हमारा ध्यान नहीं जाता, जबकि कुछ अन्य जनता के लिए, राज्यों, मनुष्यजाति तथा समग्र प्रकृति के लिए बहुत महत्त्व के होते हैं। असीम ब्रह्मांड अनवरत गतिमान है, ग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं, तारे जन्मते हैं और बुझ जाते हैं। हमारा भूमंडल - यह पृथ्वी - भी परिवर्तित हो रहा है : द्वीपों और पर्वतों का उद्‍भव होता है, ज्वालामुखी फटते हैं, भूकंप आते हैं, सागर के तटों और नदियों के किनारों की रूपरेखाएं बदलती हैं और जीव-जंतु व वनस्पतियां भी रूपांतरित हो रही हैं। अपने क्रम-विकास ( evolution ) की लंबी राह में मनुष्य और समाज में, आदिम समूहों ( primitive groups ) से लेकर वर्तमान राजनीतिक व्यवस्थाओं तक, उल्लेखनीय परिवर्तन हो गए हैं।  दुनिया के नक़्शे में भी परिवर्तन हो रहे हैं : जिन देशों पर पहले स्पेनी, फ़्रांसीसी, ब्रिटिश और पुर्तगाली उपनिवेशवादियों का शासन था, वे स्वतंत्र हो कर स्वाधीन राज्य बन गए हैं।

इस दुनिया में जीवित बचे रहने, उसके अनुकूल बन सकने और अपने लक्ष्यों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप इसे बदलनें के लिए मनुष्य को इसकी विविधता का अर्थ जानना और समझाना होता है। ऐसी समस्याओं पर प्राचीन काल के लोग भी दिलचस्पी रखते थे, जैसे विश्व क्या है और इसमें किस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं? क्या विभिन्न वस्तुओं के बीच कोई संयोजन सूत्र है? विश्व गतिमान क्यों हैं और गति का मूल क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए, कई सभ्यताओं के पुरोहितों ने ग्रहों की गति के प्रेक्षण तथा सौर व चंद्र ग्रहणों का वर्णन करने के लिए अनेक वर्ष बिताए। लोग प्रेक्षण और वर्णन ( observation and description ) से चलकर विश्व के गहनतर ज्ञान ( deep knowledge ) की ओर बढ़े - उन्होंने उसका स्पष्टीकरण ( clarification ) देने का प्रयत्न किया। प्राचीन चिंतकों ने महसूस किया कि विश्व में होनेवाली गति की भूमिका को ध्यान में लाए बिना उसे समझना असंभव है। फलतः इस प्रश्न कि ‘क्या गति का अस्तित्व ( existence ) है?’ में एक प्रश्न और आ जुड़ा कि ‘इस गति का कारण ( reason ) क्या है?’ और यह एक और अधिक तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न पेश करने के समकक्ष था। जैसा कि दर्शन में बहुधा होता है, उसकी अनुक्रिया में विभिन्न मत तथा उत्तर सामने आए। इसके फलस्वरूप विश्व को समझने के उपागम की दो विरोधी विधियां बन गईं - द्वंद्ववाद और अधिभूतवाद।

द्वंद्ववाद क्या है

शुरू-शुरू में ‘द्वंदवाद’ ( dialectics ) का तात्पर्य विभिन्न मतों के टकराव के द्वारा सत्य तक पहुंचने के लक्ष्य से वार्तालाप करने की कला से होता था। अफ़लातून  ने द्वंदवादी का वर्णन एक ऐसे व्यक्ति के रूप में किया है, जो प्रश्न पूछना और उत्तर देना जानता है, जो किसी वस्तु या घटना के बारे में हर संभव आपत्तियां उठाने के बाद ही उस वस्तु या घटना की परिभाषा सुझाता है। ऐसे एक महान द्वंदवादी सुकरात  थे, जिन्होंने ऐसी ही जांच-पड़ताल संबंधी वार्तालापों के द्वारा सत्य की खोज में अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया था। ऐसे वार्तालापों के दौरान सुकरात प्रश्न पूछते, उत्तरों का खंड़न करते और अपने विरोधियों के दृष्टिकोणों में अंतर्विरोधों ( contradictions ) का उद्‍घाटन करते थे। वार्तालाप करने, विरोधी मतों की तुलना करके सत्य का पता लगाने, विश्लेषण करने और उनका खंड़न करने की यह विधि द्वंदवाद कहलाती थी। कालांतर में यह कुछ भिन्न अर्थ का द्योतक बन गया।

शुरू में ‘सोफ़िस्ट’ ( वितंडावादी ) का अर्थ ‘प्रज्ञा-वान’ या ‘उस्ताद’ था। जो प्रज्ञानी और वाक्कुशल प्रशिक्षक मामूली वेतन पर विवाद की कला सिखाते थे, उन्हें सोफ़िस्ट कहा जाता था। ये लोग, जो दुनिया के पहले वेतनभोगी अध्यापक थे, अपने शिष्यों को ‘सोचना, बोलना और कर्म करना’ सिखाते थे। किंतु उनका मुख्य उद्देश्य वार्तालाप के समय दूसरे पक्ष पर किसी भी तरीक़े से हावी होना होता था, जिसमें हर प्रकार के छल और धोखाधड़ी भी अनुज्ञेय ( permissible ) थी। वितंडावादियों का विश्वास था कि एक निश्चित लक्ष्य को पाने के लिए कोई भी साधन इस्तेमाल किया जा सकता है। एक वितंडावादी जीतना चाहता है, किसी भी क़ीमत पर अपने को सही सिद्ध करना चाहता है। इस तरह के कई दार्शनिकों ने अनेकों कूटतर्क सोच निकाले थे, जिनके जरिए वे अजीबोगरीब युक्तियां और निष्कर्ष पेश किया करते थे। वितंडावादी के कूटतर्क वास्तविकता ( reality ) को विरूपित ( deform ) करते हैं, यह द्वंदवाद का विरोधी होता है, हालांकि यह बाहरी तौर पर उसका एक रूप ग्रहण करने का प्रयत्न करता है।

एक वितंडावादी से भिन्न द्वंद्ववादी के वार्तालाप का लक्ष्य, तर्कणा की दार्शनिक कला की सहायता से सत्य तक पहुंचना होता है। बताया जाता है कि प्रसिद्ध द्वंद्वात्मक चिंतक सुकरात  ने कहा था : "मैं केवल यह जानता हूं कि मैं कुछ नहीं जानता किंतु मैं ज्ञानोपार्जन का प्रयास कर रहा हूं।"



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय
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