बुधवार, 16 सितंबर 2009

दर्शन का बुनियादी सवाल और इसकी प्रवृत्तियां

हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार हमने दर्शन और विश्व को देखने के मनुष्य के नज़रिए यानि उसके विश्वदृष्टिकोण के बीच क्या संबंध होता है, इसे समझने की कोशिश की थी।
चर्चा आगे बढ़ाते हैं।
आज हम दर्शन के बुनियादी सवाल से गुजरेंगे।
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प्रत्येक विज्ञान का अपना प्रमुख बुनियादी सवाल होता है, यानि उन घटनाओं और प्रक्रियाओं का परास (range) जिनका वह अध्ययन करता है और अंत में अनुसंधान की उसकी अपनी विशेष विधि होती है। फलतः दर्शन की गहन समझ के लिए जरूरी है कि उसके बुनियादी सवाल, विषयवस्तु तथा अध्ययन-विधि को परिभाषित किया जाए।

जर्मनी के दार्शनिक इमानुएल कांट का विश्वास था कि दार्शनिक को तीन प्रश्नों का उत्तर देना ही चाहिए: "मैं क्या जान सकता हूं?", "मुझे क्या करना चाहिए?" और "मैं किसकी उम्मीद कर सकता हूं?" आइए, यह देखें कि इन तीन प्रश्नों में कोई अधिक सामान्य प्रश्न तो छुपा नहीं है।

वास्तव में मनुष्य सीखता है, उम्मीदें करता है और केवल इसी कारण से कि वह एक मन, चेतना और संकल्प से संपन्न है और अपने इर्द-गिर्द होने वाले सब कुछ का अवबोध व व्याख्या करने में समर्थ है। मनुष्य पेशियों और तंत्रिकाओं का ढे़र मात्र नहीं है, केवल एक शरीर नहीं है, वह जैसा कि प्राचीन काल में कहा जाता था, एक "आत्मा" से भी संपन्न है। सारे विशेष प्रश्नों का उत्तर इस बात पर पूर्णतः निर्भर है कि इस मुख्य प्रश्न का उत्तर किस तरह से दिया जाता है कि आत्मा, चित्त या चेतना क्या है? यह कहां से आती है और अजैव प्रकृति से किस प्रकार जुड़ी है? परिवेशीय जगत के साथ मनुष्य का संबंध क्या है और क्या वह उसे जान तथा परिवर्तित कर सकता है?

यही दर्शन के बुनियादी सवाल का सार है। चूंकि अन्य प्राणियों से भिन्न चिंतनशील, तर्कबुद्धिसंपन्न, सचेत सत्व होने की अपनी विशेषता को लोग बहुत पहले ही जान गए थे, इसलिए विश्व के साथ मनुष्य के संबंध की समस्या को आम तौर पर इस प्रकार निरुपित किया जाता था: सत्व के साथ आसपास की वास्तविकता के या भूतद्रव्य के साथ चेतना और चिंतन का संबंध।

अतः दर्शन का मूल प्रश्न मन और प्रकृति, चेतना और पदार्थ के अंतर्संबंध का प्रश्न है। दर्शन के उपरोक्त बुनियादी सवाल के दो पक्ष हैं जिनके आधार पर दर्शन के क्षेत्र की दिशाओं का निर्धारण होता है। आइए उन्हें समझने की कोशिश करते हैं।
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दर्शन के बुनियादी सवाल का पहला पक्ष:

भूतद्रव्य तथा चिंतन के संबंध पर विचार व्यक्त करते समय यह समुचित प्रश्न पैदा होता है कि इनमें से प्राथमिक कौन है? निर्धारक तत्व कौनसा है? भौतिक जगत या चिंतन और चेतना? दर्शन के बुनियादी सवाल का पहला पक्ष यही है।

हमारा जीवन अनुभव यह दर्शाता है कि प्रत्येक ठोस मामले में इस प्रश्न का उत्तर देना बिल्कुल सहज है। मसलन, चंद्रमा की संकल्पना ( विचार ) तथा उसके कविता बिंबों के प्रकट होने से बहुत पहले ही चंद्रमा विद्यमान था। फलतः यह कहा जा सकता है भौतिक वस्तु ( चंद्रमा ) अपने वैज्ञानिक या कवित्वमय रूप की, यानि चंद्रमा के प्रत्यय ( संकल्पना ) की पूर्ववर्ती थी।

इसके विपरीत चंद्रमा पर साक्षात पदार्पण करने से पहले वहां पहुंचने की कल्पना, साधनों के अभिकल्पन ( design ) का विचार निश्चय ही पहले पैदा हुआ और इसके बाद ही इन्हें मूर्त रूप दिया जा सका। फलतः इस मामले में यह कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक प्रत्यय ( विचार ), रॉकेटों तथा स्वचालित प्रयोगशालाओं के रूप में भौतिक वस्तुओं की रचना का पूर्ववर्ती था।

यदि यह ऐसी ही स्थितियों का मामला होता, तो दर्शन के बुनियादी सवाल का पहला पक्ष निहायत ही सरल होता। लेकिन दर्शन में ऐसे सरल मामलों की पड़ताल नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के प्रति मनुष्य के रुख़ पर विचार किया जाता है। यह स्पष्ट है कि सवाल के इस पहले भाग को समझना और सार्विक रूप में व्याख्यायित करना इतना आसान नहीं है। वास्तव में यह स्पष्ट करना आवश्यक है के ब्रह्मांड़ के संपूर्ण ऐतिहासिक क्रमविकास के पैमाने पर प्राथमिक और निर्धारक है: चिंतन या भौतिक जगत, और मनुष्य के क्रियाकलाप के किसी भी रूप में निर्धारक कौन है? केवल इसी संदर्भ में यह प्रश्न सार्थक है।

इस प्रश्न के उत्तर के अनुसार सारे दार्शनिकगण दो बड़े शिविरों या प्रवृत्तियों - भौतिकवाद ( Materialism ) और प्रत्ययवाद ( Idealism ) - में बंटे हुए हैं। भौतिकवादी इस बात पर जोर देते हैं कि भूतद्रव्य, पदार्थ प्राथमिक व निर्धारिक है और चेतना द्वितीयक तथा निर्धारित है। प्रत्ययवादी ( भाववादी, आदर्शवादी पर्याय शब्द भी काम में लिए जाते हैं ) विचार, चेतना को प्राथमिक और भूतद्रव्य, पदार्थ को द्वितीयक मानते हैं।

दर्शन के इतिहास में ऐसे भी चिंतक हुए हैं, जिन्होनें एक मध्यवर्ती स्थिति अपनाने की कोशिश की। उन्होंने दोनो विश्व तत्वों , अर्थात भूतद्रव्य तथा चेतना के बीच एक प्रकार की समांतरता, स्वाधीनता तथा समानता को मान्यता दी। इन्हें द्वेतवादी कहा जाता है। द्वेतवाद का कोई स्वाधीन महत्व नहीं है क्योंकि इसके महान प्रवक्ता देर-सवेर या तो प्रत्ययवाद की स्थिति पर जा पहुंचे या भौतिकवाद की।

दर्शन के बुनियादी सवाल का दूसरा पक्ष:

जब हम भूतद्रव्य और चिंतन तथा चेतना के बीच संबंध की जांच करते हैं, तो यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या हमारा चिंतन बाह्य जगत का सही-सही संज्ञान प्राप्त कर सकता है, क्या हम अपने आसपास की घटनाओं और प्रक्रियाओं के बारे में सही अंदाज़ा लगा सकते है और कि क्या हम उनके संबंध में सच्ची राह जाहिर कर सकते हैं और अपने निर्णयों तथा कथनों के आधार पर सफलतापूर्वक कर्म कर सकते हैं?

यह प्रश्न कि क्या विश्व संज्ञेय है और अगर ऐसा है, तो किस सीमा तक तथा क्या मनुष्य बिल्कुल सही या लगभग सही ढ़ंग से अपने आसपास की यथार्थता का संज्ञान प्राप्त कर सकता है, उसे समझ तथा उसकी छानबीन कर सकता है। यही दर्शन के बुनियादी सवाल का दूसरा पक्ष है।

विश्व की संज्ञेयता के प्रश्न के उत्तर के अनुसार सारे दार्शनिक दो प्रवृत्तियों में विभाजित हो जाते हैं। एक प्रवृत्ति में विश्व की संज्ञेयता के समर्थक शामिल हैं ( भौतिकवादियों तथा प्रत्ययवादियों की एक विशेष धारा, वस्तुगत प्रत्ययवादियों की एक बड़ी संख्या ) ; दूसरी प्रवृत्ति में इस संज्ञेयता के विरोधी शामिल हैं, जो यह मानते हैं कि विश्व पूर्णतः या अंशतः अज्ञेय है ( वे प्रत्ययवादियों की एक विशेष धारा, आत्मगत प्रत्ययवादी होते हैं )। विश्व की ज्ञेयता के विरोधियों को सामान्यतः अज्ञेयवादी कहते हैं।
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अधिकांश लोग साधारण जीवन के व्यवहार में स्वाभाविक तथा अचेतन रूप से भौतिकवादी होते हैं। वे ज़िंदगी के भौतिक पक्ष से भली-भांति परिचित होते हैं और अपने दैनन्दिनी कार्यकलापों में भौतिक सिंद्धांतों से परिचालित होते हैं। यह बात दीगर है कि जब जीवन से जुड़ी जिन चीज़ों में अनिश्चितता या असुरक्षा शामिल हो जाती है, तब वे पारंपरिक रूप से प्राप्त अपनी समझ के हिसाब से प्रत्ययवादी चिंतन का सहारा लेते हैं।

इसलिए समस्त भौतिकवादी गतिविधियों के बाबजूद, प्रत्ययवादी चिंतन के अस्तित्व में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। प्रत्ययवाद के उद्‍भव का कारण सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियां हैं। प्राचीन काल में जिन प्रांरभिक दार्शनिक मतों का जन्म हुआ, वे उन दशाओं में विकसित हुए, जब धर्म का प्रभाव बहुत ही प्रबल था। अधिकांश धार्मिक मतों के अनुसार, विश्व की रचना एक ईश्वर या देवताओं के द्वारा, अभौतिक, आध्यात्मिक, सर्वशक्तिमान सत्वों के द्वारा हुई। विश्व के धार्मिक-प्रत्ययवादी स्पष्टीकरण को स्वीकारने वाले अनेक दार्शनिक मतों पर इन विचारों का निश्चित प्रभाव पड़ा था।

फिर क्या कारण है कि वर्तमान युग में जब विज्ञान तथा इंजीनियरी के विकास ने भौतिकवाद की सत्यता की अनगिनत अकाट्य पुष्टियां कर दी हैं, तब भी प्रत्ययवाद ज्यों का त्यों बना हुआ है? मुद्दा यह है कि स्वयं मानव जीवन में और सामाजिक जीवन की दशाओं में प्रत्ययवाद की निश्चित जड़ें विद्यमान हैं। प्रत्ययवाद, प्रभावी वर्गों के विश्वदृष्टिकोण तथा वैचारिकी के साथ जुड़ा है और कुछ सामाजिक शक्तियों के लिए उपयोगी है, क्योंकि यह मौजूदा विश्व व्यवस्था की शाश्वतता तथा निरंतरता के पक्ष में दलीले मुहैया कराता है। यथास्थिति को बनाए रखने और सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तनों को गैरजरूरी सिद्ध कर उनकी धार को कुंद करने के लिए कटिबद्ध होता है। यह सत्ता से नाभिनालबद्ध है इसीलिए उसे भरपूर प्रश्रय, संजीवनी और प्रचार मिलता है।
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आज के लिए काफ़ी हो गया।
अब काफ़ी आधारभूत सामग्री हो गई है जो दर्शन के अवबोध के लिए एक सुसंगत स्थिति पैदा करने में सक्षम लगती है।

अगली बार दर्शन की अध्ययन विधियों पर चर्चा करते हुए आगे बढ़ेंगे।
जिज्ञासाओं और संवाद का स्वागत है।

समय

1 टिप्पणियां:

Smart Indian ने कहा…

नमस्कार!

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