हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार भूतद्रव्य (Matter) की परिभाषा और मंतव्य पर चर्चा की गई थी।
आज यहां यह देना काफ़ी दिलचस्प हो सकता है कि भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?
आज की चर्चा का यही विषय है। समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
०००००००००००००००००००००००००००००
भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?
अतीतकाल से ही लोग यह सोचने-विचारने लगे थे कि उनके गिर्द विद्यमान वस्तुएं किससे निर्मित हैं और कि उनका कोई सार्विक (Universal) नियम या आधार है या नहीं।
प्राचीन यूनान के पुरानतम दार्शनिकों ने अपनी अटकलों को दैनिक जीवन के अनुभवों तथा प्रेक्षणों पर आधारित किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि पानी ही हर चीज़ का मूल तत्व है। बाद के कुछ दार्शनिक वायु को सबका मूल तत्व समझते थे। फिर सूर्य की दिव्य अग्नि के विचार के चलते आग में सबका मूलतत्व देखा गया। और आगे इन मूलतत्वों में मिट्टी को भी जोड़ दिया गया और यह समझा गया कि सब कूछ इन चार तत्वों से निर्मित है और वही भूतद्रव्य है। किंतु अरस्तु के दृष्टिकोण से यह भूत्द्रव्य निष्क्रिय और अनाकार है और उसे रूप प्रदान करने के लिए एक विशेष बल की आवश्यकता होती है।
प्राचीन भारत में भी लगभग इसी तरह का दृष्टिकोण उभर कर आया, जिसके कि अनुसार सब कुछ पंच तत्वों से निर्मित है। यहां आकाश को भी एक स्वतंत्र तत्व के रूप में सम्मिलित किया गया।
यूनान के दार्शनिक ल्युकिपस और डेमोक्रिटस ( लगभग ५०० ईसा पूर्व ) अदृश्य परमाणु को विश्व का आधार मानते थे। भारत में कणाद का परमाणुवाद भी यही निष्कर्ष स्थापित कर रहा था। लेकिन परमाणु के अस्तित्व की यह कल्पना कहा से पैदा हुई? साधारणतयः हवा में धूलिकणों को नहीं देखा जाता, परंतु अंधेरे में किसी दरार या छिद्र से आती रौशनी में अनगिनत कण किसी भी बाह्य आवेग के बिना चलते-फिरते नज़र आते हैं। अतः परमाणुवादियों ने दलील दी कि परमाणुओं को भी नहीं देखा जा सकता, किंतु ‘मानसिक दृष्टि’ या तर्कबुद्धि से उनकी कल्पना की जा सकती है, वे हमेशा विद्यमान रहते हैं और एक अनवरत गति उनमें अंतर्निहित होती है| यह दलीलें काफ़ी लंबे समय तक मात्र अटकलें ही बनी रही।
मध्ययुगीन दर्शन भौतिक जगत को दैवी रचना का फल मानता था। हर भौतिक वस्तु नीच, जघन्य और पापमय, अतः ध्यान के अयोग्य मानी जाती थी। यहां तक कि कई दार्शनिक धाराओं में तो संपूर्ण वस्तुगत जगत को ही माया, भ्रम घोषित कर दिया गया।
१७ वीं और १८ वीं शताब्दियों में विज्ञान के विकास के बाद ही विश्व की भौतिक प्रकृति एक बार फिर से दर्शन के ध्यान का केन्द्रबिंदु बनी। फ़्रांसीसी दार्शनिक देकार्त, अंग्रेज भौतिकविद न्यूटन और रूसी वैज्ञानिक लोमोनोसोव सूक्ष्म और कठोर कणिकाभ गोलियों जैसे गतिमान कणों को भूतद्रव्य का आधार मानते थे। चूंकि उस वक्त यांत्रिकी प्रमुख वैज्ञानिक शास्त्र था, और वह पदार्थों के विस्थापन और अंतर्क्रिया का अध्ययन करती थी इसलिए ‘भूतद्रव्य’ (Matter) की संकल्पना को ‘पदार्थ’ (Substance) के तदअनुरूप ही समझा जाता था। पदार्थ के सारे अनुगुण भूतद्रव्य पर आरोपित कर दिये गए।
१९ वीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरूआत में भौतिक क्षेत्रों (विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र, गुरुत्व क्षेत्र) जैसी नयी घटनाओं की खोज ने भूतद्रव्य की समझ को आमूलतः बदल दिया। भूतद्रव्य की, निष्चित द्रव्यमान व ज्यामितिक आकार वाले ‘पदार्थ’ की समरूपी व्याख्या इस समझ के लिए रुकावट थी कि भौतिक क्षेत्र भी भूतद्रव्य का ही विशिष्ट रूप है। भौतिक क्षेत्रों की सारी आश्चर्यजनक विशेषताओं के बावजूद वे परमाणुओं और मूल कणों की भांति ही मनुष्य की चेतना से परे और स्वतंत्र रूप से विद्यमान हैं।
यही वह एकमात्र तथा निर्णायक लक्षण है जो इस बात का उत्तर देना संभव बनाता है कि क्या भौतिक है और क्या अभौतिक, यानि प्रत्ययिक है। एक खंभे में द्रव्यमान होता है, वह प्रकाश के लिए अपारगम्य होता है, परंतु उसकी छाया के लिए ये दोनों बाते लागू नहीं होती। फिर भी खंभा और उसकी छाया भौतिक हैं, क्योंकि वे वस्तुगत रूप से मनुष्य की चेतना से परे विद्यमान हैं।
भूतद्रव्य की अधिभूतवादी (Metaphysical) तथा यांत्रिक (Mechanical) संकल्पनाएं इसलिए भी सीमित व असत्य थीं कि उन्हें यांत्रिकी तथा भौतिकी के बाहर लागू करना असंभंव था। मानवसमाज तथा सामाजिक संबंधों का चित्रण पदार्थ के अनुगुणों के अनुरूप नहीं किया जा सकता। इसलिए भूतद्रव्य की पहले की संकल्पनाओं और समझ को सामाजिक प्रक्रियाओं और इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना की रचना के लिए भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था।
किंतु मनुष्य की पहली दिलचस्पी की चीज़ समाज तथा उसका जीवन है, खास तौर पर महती सामाजिक रूपांतरणों के इस युग में, जब प्रश्न यह पैदा होता है कि आरंभ करने के लिए क्या आवश्यक है- भौतिक सामाजिक संबंध या आत्मिक जीवन की घटनाएं। यही कारण है कि भूतद्रव्य की इस ( पिछली पोस्ट में वर्णित ) समसामयिक परिभाषा ने वैज्ञानिक तथा दार्शनिक अर्थ भी ग्रहण कर लिया है।
०००००००००००००००००००००००००००
आज इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
समय के साये में - आपके दिमाग़ से रूबरू आपकी ज़िंदगी का आईना
पिछली बार भूतद्रव्य (Matter) की परिभाषा और मंतव्य पर चर्चा की गई थी।
आज यहां यह देना काफ़ी दिलचस्प हो सकता है कि भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?
आज की चर्चा का यही विषय है। समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?
अतीतकाल से ही लोग यह सोचने-विचारने लगे थे कि उनके गिर्द विद्यमान वस्तुएं किससे निर्मित हैं और कि उनका कोई सार्विक (Universal) नियम या आधार है या नहीं।
प्राचीन यूनान के पुरानतम दार्शनिकों ने अपनी अटकलों को दैनिक जीवन के अनुभवों तथा प्रेक्षणों पर आधारित किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि पानी ही हर चीज़ का मूल तत्व है। बाद के कुछ दार्शनिक वायु को सबका मूल तत्व समझते थे। फिर सूर्य की दिव्य अग्नि के विचार के चलते आग में सबका मूलतत्व देखा गया। और आगे इन मूलतत्वों में मिट्टी को भी जोड़ दिया गया और यह समझा गया कि सब कूछ इन चार तत्वों से निर्मित है और वही भूतद्रव्य है। किंतु अरस्तु के दृष्टिकोण से यह भूत्द्रव्य निष्क्रिय और अनाकार है और उसे रूप प्रदान करने के लिए एक विशेष बल की आवश्यकता होती है।
प्राचीन भारत में भी लगभग इसी तरह का दृष्टिकोण उभर कर आया, जिसके कि अनुसार सब कुछ पंच तत्वों से निर्मित है। यहां आकाश को भी एक स्वतंत्र तत्व के रूप में सम्मिलित किया गया।
यूनान के दार्शनिक ल्युकिपस और डेमोक्रिटस ( लगभग ५०० ईसा पूर्व ) अदृश्य परमाणु को विश्व का आधार मानते थे। भारत में कणाद का परमाणुवाद भी यही निष्कर्ष स्थापित कर रहा था। लेकिन परमाणु के अस्तित्व की यह कल्पना कहा से पैदा हुई? साधारणतयः हवा में धूलिकणों को नहीं देखा जाता, परंतु अंधेरे में किसी दरार या छिद्र से आती रौशनी में अनगिनत कण किसी भी बाह्य आवेग के बिना चलते-फिरते नज़र आते हैं। अतः परमाणुवादियों ने दलील दी कि परमाणुओं को भी नहीं देखा जा सकता, किंतु ‘मानसिक दृष्टि’ या तर्कबुद्धि से उनकी कल्पना की जा सकती है, वे हमेशा विद्यमान रहते हैं और एक अनवरत गति उनमें अंतर्निहित होती है| यह दलीलें काफ़ी लंबे समय तक मात्र अटकलें ही बनी रही।
मध्ययुगीन दर्शन भौतिक जगत को दैवी रचना का फल मानता था। हर भौतिक वस्तु नीच, जघन्य और पापमय, अतः ध्यान के अयोग्य मानी जाती थी। यहां तक कि कई दार्शनिक धाराओं में तो संपूर्ण वस्तुगत जगत को ही माया, भ्रम घोषित कर दिया गया।
१७ वीं और १८ वीं शताब्दियों में विज्ञान के विकास के बाद ही विश्व की भौतिक प्रकृति एक बार फिर से दर्शन के ध्यान का केन्द्रबिंदु बनी। फ़्रांसीसी दार्शनिक देकार्त, अंग्रेज भौतिकविद न्यूटन और रूसी वैज्ञानिक लोमोनोसोव सूक्ष्म और कठोर कणिकाभ गोलियों जैसे गतिमान कणों को भूतद्रव्य का आधार मानते थे। चूंकि उस वक्त यांत्रिकी प्रमुख वैज्ञानिक शास्त्र था, और वह पदार्थों के विस्थापन और अंतर्क्रिया का अध्ययन करती थी इसलिए ‘भूतद्रव्य’ (Matter) की संकल्पना को ‘पदार्थ’ (Substance) के तदअनुरूप ही समझा जाता था। पदार्थ के सारे अनुगुण भूतद्रव्य पर आरोपित कर दिये गए।
१९ वीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरूआत में भौतिक क्षेत्रों (विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र, गुरुत्व क्षेत्र) जैसी नयी घटनाओं की खोज ने भूतद्रव्य की समझ को आमूलतः बदल दिया। भूतद्रव्य की, निष्चित द्रव्यमान व ज्यामितिक आकार वाले ‘पदार्थ’ की समरूपी व्याख्या इस समझ के लिए रुकावट थी कि भौतिक क्षेत्र भी भूतद्रव्य का ही विशिष्ट रूप है। भौतिक क्षेत्रों की सारी आश्चर्यजनक विशेषताओं के बावजूद वे परमाणुओं और मूल कणों की भांति ही मनुष्य की चेतना से परे और स्वतंत्र रूप से विद्यमान हैं।
यही वह एकमात्र तथा निर्णायक लक्षण है जो इस बात का उत्तर देना संभव बनाता है कि क्या भौतिक है और क्या अभौतिक, यानि प्रत्ययिक है। एक खंभे में द्रव्यमान होता है, वह प्रकाश के लिए अपारगम्य होता है, परंतु उसकी छाया के लिए ये दोनों बाते लागू नहीं होती। फिर भी खंभा और उसकी छाया भौतिक हैं, क्योंकि वे वस्तुगत रूप से मनुष्य की चेतना से परे विद्यमान हैं।
भूतद्रव्य की अधिभूतवादी (Metaphysical) तथा यांत्रिक (Mechanical) संकल्पनाएं इसलिए भी सीमित व असत्य थीं कि उन्हें यांत्रिकी तथा भौतिकी के बाहर लागू करना असंभंव था। मानवसमाज तथा सामाजिक संबंधों का चित्रण पदार्थ के अनुगुणों के अनुरूप नहीं किया जा सकता। इसलिए भूतद्रव्य की पहले की संकल्पनाओं और समझ को सामाजिक प्रक्रियाओं और इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना की रचना के लिए भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था।
किंतु मनुष्य की पहली दिलचस्पी की चीज़ समाज तथा उसका जीवन है, खास तौर पर महती सामाजिक रूपांतरणों के इस युग में, जब प्रश्न यह पैदा होता है कि आरंभ करने के लिए क्या आवश्यक है- भौतिक सामाजिक संबंध या आत्मिक जीवन की घटनाएं। यही कारण है कि भूतद्रव्य की इस ( पिछली पोस्ट में वर्णित ) समसामयिक परिभाषा ने वैज्ञानिक तथा दार्शनिक अर्थ भी ग्रहण कर लिया है।
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आज इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
समय के साये में - आपके दिमाग़ से रूबरू आपकी ज़िंदगी का आईना
17 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर पाठ है। मेरा तो पुनर्पठन हो गया। इस के लिए आभार!यहाँ विवेचना के लिए कुछ नहीं है और विवाद तो असंभव ही है।
bakwaas hai
धन्यवाद सत्यवति मिश्रा जी,
बहुत-बहुत शुक्रिया। आप आईं और अपने कृपा शब्द बिखेरे।
समय जी,
मैँ यह जानना चाहता हूँ क़ि सभ्यता के विकास मेँ और मानव जीवन की बेहतरी मेँ दर्शन का क्या योगदान रहा है ।
क्या दार्शनिक का प्रयास अँधेरे कमरे मेँ उस काली बिल्ली को ढूँढ्ने के प्रयास जैसा नहीँ है जो वहाँ है ही नहीँ ।
मुझे तो लगता है कि यह एक मानसिक मनोरंजन से ज्यादा नहीँ है ।
यह ऐसे ही है जैसे कोई अपने पैर को पकडकर खुद अपने आप को उठाने की कोशिश करे ।
आप इसे अन्यथा ना लेँ , बल्कि मेरी जिग्यासा समझेँ ।
आप की इस बारे मेँ क्या राय है ।
बेहतर हो कि इस विषय पर एक पोस्ट लिखेँ ।
यह सब तो पाठ्य पुस्तकों में इससे भी दुरूह टेक्स्ट के रूप में उपलब्ध है -यहाँ नया क्या है ? प्रस्तुति भी पुस्तकाऊ ही है ! क्षमा करे,सृजनात्मक लेखन की इन्गिति मेरी अल्प समझ में नित नए भाव बोध उद्दीमानो ,उद्भावनाओं से है -यद्यपि आप ने स्पष्ट किया है की यह मौजूदा ज्ञान का समेकन मात्र हैं किन्तु फिर भी अपेक्षा रहेगी की भले ही अति सरलीकरण न हो मगर यह ज्ञान आम मनुष्य तक भी संवादित हो सके ! शंकर और बुद्ध तक ने इस दिशा में प्रयास किये हैं -
*उद्दीपनों
@ अर्कजेश:
भाई अर्कजेश जी,
आपका नाम और जिज्ञासुपन अच्छा लगा।
आपने कई सामान्य प्रचलित बातें उठाई हैं, और बखूबी यहां रखा है।
इसने कई कार्यभार और संभावनाएं प्रस्तुत की हैं, समय इसके लिए आपका आभारी है।
अगर आपकी मंशा वाकई इसे समझने की है, जो कि लगती भी है, तो कृपया लगभग इसी विषय पर लिखी समय की पिछली दर्शन विषयक प्रविष्टियां पढ़ें।
आपकी सुविधा के लिए उनके लिंक यहां हैं:
http://main-samay-hoon.blogspot.com/2009/08/blog-post_29.html
main-samay-hoon.blogspot.com/2009/09/blog-post.html
यहां से आपको एक आधार मिल सकता है, बाकी तो आपकी रुची और जुंबिशों पर निर्भर है।
इसके बाद अनुत्तरित और नई जिज्ञासाओं को बताएं।
समय अपनी कोशिशों के लिए यहां है ही।
शुक्रिया
@ अरविंद मिश्रा
आदरणीय,
आपने सही कहा है और यथास्थिति को बिल्कुल साफ़ रख दिया है। आईना दिखाते रहने के लिए समय आपका आभारी है।
आपके लिए यह निश्चय ही नया नहीं है, पर समय को लगा कि हो सकता है बहुतों के लिए इससे गुजरना नवीन अनुभव और प्रेरणा का कार्य कर सके।
पुराने को जाने समझे बगैर, आखिर नया सृजित भी कैसे हो सकता है। दरअसल अपनी सोच और जीवन से जुड़ी सामान्य मान्यताओं तथा व्यवहार में इसे पैठा पाना, इसकी दुरूहता को समझ लेने से भी अधिक दुरूह कार्य है। कई बार, नये-नये परिप्रेक्ष्यों के साथ इसकी पुनरावृत्ति, इस दुरूहतर कार्य में मदद कर सकती है, ऐसा लगता है।
आपका क्षोभ जायज़ है। समय मुआफ़ी की दरकार रखता है।
शुक्रिया।
नहीं समय,
मुझे आपके तक़रीरों से निरंतर लाभ हुआ है मगर मुझे लगता है की आम लोगों के लिए (मैं भी उन्ही में हूँ क्योंकि मेरा आधिकारिक अल्प ज्ञान केवल प्राणी शास्त्र में है ) विषय की प्रस्तुति और रोचक हो तो बात बने !
बहरहाल ,
सादर
आपके पुराने लेखों की अपेक्षा इसे मैंने सरसरी निगाह से पढ़ा, वस्तुतः आपके मौलिक विश्लेषण ज्यादा रोचक और सटीक होते हैं..मुझे उनकी प्रतिक्षा है.
बाकि मुझे जो कहना था मित्र अरविन्द जी पहले ही कह चुके.
अरविन्द जी से सहमत, अपनी political science की किताबों में पढ़ी है मैंने ये सब कुछ ,...... पर बधाई भी दूंगा कि ऐसे विषय भी लेके आये आप...इन्हें थोड़ी सरल भाषा में रख देवें और अपने व्यापक अनुभव भी मिला देवें बस देखिये, लेखिनी क्या चमत्कार दिखाती है...
मेरे भाई,
आप इससे गुजरे, और अपनी प्रतिक्रिया दर्ज़ की। समय आपका आभारी है।
थोड़ा सा प्रतिवाद है।
यह श्रृंखला भूतद्रव्य और चेतना की प्राथमिकता और उत्पत्ति के संदर्भ में चल रही है। यह दर्शन का विषय है, और उसका बुनियादी सवाल भी। एक तरफ़ प्रत्ययवादी, भाववादी दर्शन है जो चेतना को प्राथमिक मानता है और भूतद्रव्य (Matter) को उससे व्युत्पन्न। इसे आप ऐसे समझेंगे कि विश्व का नियंता एक विचार, एक ईश्वर है और उसी से इस विश्व का, सारे भूत्द्रव्य का सृजन हुआ है।
दूसरी ओर द्वंदवादी भौतिकवादी दर्शन है जो मानवजाति के यथार्थ ज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करता है कि भूतद्रव्य प्राथमिक है और चेतना इसके विकास का जटिलतम रूप है। यानि भूतद्रव्य (आप इसे फिलहाल पदार्थ भी समझ सकते हैं) से ही सारी जैव, अजैव प्रकृति का विकास हुआ है, चेतना की उत्पत्ति हुई है। जाहिर है इसके अनुसार विश्व को समझने के लिए किसी पवित्र विचार या ईश्वर की परिकल्पनाओं की आवश्यकता नहीं।
ये दोनों अलग-अलग धाराएं है, जो दुनिया को देखने का अपना-अपना नज़रिया विकसित करती हैं।
अब आप इनमें से अपने नज़रिए को टटोल सकते हैं कि आप किस राह के राही हैं। और चीज़ों को समझने के लिए अमूर्त विचार की शरण लेते हैं या यथार्थ वास्तविकता के विश्लेषण की।
जाहिर है, इन दृष्टिकोणों को आप कई पुस्तकों में पा सकते हैं, यहां भी यह पुस्तकों से ही प्राप्त हैं। परंतु असली मंतव्य इन्हें समझना और एक सही विधि का चुनाव कर उसे अपनी समझ और व्यवहार में लाना है, जो कि अक्सर नहीं हो पाता है। मनुष्य अपने हितों के अनुकूल ही, कभी आस्थाओं का सहारा लेता है और कभी तर्कों का, जहां जिससे उसका हित सध जाए वह अवसरवादी होकर उसकी शरण में चला जाता है। हालांकि इसके पीछे भी उसकी भौतिक आवश्यकताएं कार्य कर रही होती हैं, और वह गहराई से इस बात को समझता है कि जीवन यथार्थ वास्तविक कार्यों और प्रयत्नों से ही आकार लेता है।
अब अगर मेरे भाई, पढ़ भी लिया गया हो पर समझ का हिस्सा नहीं बन पाया हो तो व्यर्थ है। इसी उद्देश्य से कि उस व्यर्थता के सुधार की गुंजाईश एक बार फिर बन सके, फिर एक आधार बनाया जा सके, जिन ज्ञान के हिस्सों से हम मजबूरी में, परीक्षाओं में सफल होने के तात्कालिक उद्देश्य से गुजर कर आये हैं, अपने ज्ञान और समझ को बढ़ाने के उद्देश्य से फिर से बावस्ता हो सकें, यह एक मौका समय अपने आपको दे रहा है। यहां इसलिए कि और मनुष्यश्रेष्ठ भी इसमें शामिल हो सकें।
००००००
आप श्री मिश्रा जी के साथ रौ में बहकर ऐसा लिख गये हैं, पर सच्चाई शायद यह है कि आपने political science की किताबों में यह पढ़ा हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह उसकी विषयवस्तु के दायरे में नहीं आता।
हां, आपने दर्शन, भौतिकवाद, द्वंदात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद आदि किसी विषय पर पुस्तक पढ़ी हो, या यह थोड़ा सा सतही रूप में philosophy की पाठ्यपुस्तकों में भी उपलब्ध है, उनसे गुजरना हुआ हो तो आपने जरूर ऐसी ही बातें पढ़ी हो सकती हैं।
आपने सरल भाषा का अनुरोध किया है, एक अनुरोध समय का भी है कि आप इससे ऐसी ही क्लिष्टता के साथ, शब्दकोष साथ रखकर इससे गंभीरता से गुजर कर तो देखें। देखिएगा कि कैसे आपका ज्ञान, आपकी समझ, और आपकी भाषा को निखरने और विकास करने का अवसर मिलता है। थोड़ा समय तो देना ही होगा ना इस महती कार्य के लिए, और समय यहां है ही आपकी सेवा में।
००००००००००
समय आपकी अमूल्य सलाह और शब्दों के लिए आपका आभारी है, इसकी पुरजोर कोशश की जाएगी और भविष्य में आप असर भी देखेंगे, हालांकि समय किसी भी तरह का चमत्कार दिखाने और चमत्कृत अनुरागियों की भीड़ का कतई आकांक्षी नहीं है।
शुक्रिया।
प्रतिक्रिया दें। संवाद बनाए रखें।
समय
"आप श्री मिश्रा जी के साथ रौ में बहकर ऐसा लिख गये हैं, पर सच्चाई शायद यह है कि आपने political science की किताबों में यह पढ़ा हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह उसकी विषयवस्तु के दायरे में नहीं आता।"
000000
आदरणीय "समय" जी (यही मूल नाम है क्या..)
ऐसी टिप्पणी के पीछे मंतव्य सिर्फ इतना कि आपसे कुछ और बेहतर निकाल लिया जाए.
000000
political philosophy के प्रारम्भ के अध्यायों में मैंने ऐसी चर्चाएँ पढी हुई हैं. और political phlosophy ही क्यों; political science में जब political thought की शुरुआत होती है तो ग्रीक चिंतन में सोफिस्ट विचारकों से थोड़ा पहले इन्हीं मुद्दों पर तो बात होती है. द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जो 'व्यवहारवादी आन्दोलन' की आंधी चली थी उस के परिणामस्वरूप आज सामाजिक विषयों में interdisciplinary approach का बोलबाला है..,तो ये तो ना कहिये कि किसी एक विषय में किसी दूसरे विषय के सन्दर्भों का scope नहीं है.
श्री मिश्रा जी की रौ में यदि बह भी गया हूँ तो भी ठीक है फिलहाल अभी तक इसमे कोई बुराई दिखी नहीं....
मेरी टिप्पणी के पीछे मनसा बड़ी सकारात्मक थी, वो भी आपकी इस बात से प्रेरित होकर:"आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।"
मान लेता हूँ, शायद भाषा से आपको परेशानी रही हो...
फिर भी शुभकामनाओं सहित.....श्रीश पाठक..
भौतिकवाद, द्वंदात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद
......आदरणीय "समय" जी प्लेटो से लेकर मार्क्स तक इन्ही वादों(isms) से गुजर कर ही तो राजनीतिक चिंतन का विकास हुआ है...
"एक अनुरोध समय का भी है कि आप इससे ऐसी ही क्लिष्टता के साथ, शब्दकोष साथ रखकर इससे गंभीरता से गुजर कर तो देखें.."
०००००
जी माता-पिता-अध्यापकों की महती कृपा से ठीक-ठाक समझ लेने भर की भाषा का ज्ञान है, मुझमे..फ़िलहाल क्लिष्टता का वो स्तर आपने स्पर्श नहीं किया है कि हिन्दी शब्दकोष लेकर बैठूं...
०००००
मैंने पहले भी इसी ब्लॉगजगत में किसी सज्जन को टिप्पणी देते हुए ये बात कही थी, फिर दुहरा रहा हूँ...ज्ञान प्राप्ति के प्रयास में विविध विषयों को विभिन्न disciplines में दो मुख्य उद्देश्यों से बांटा गया...
१.ताकि शोध कार्य 'विशिष्टता' में हो सके..
२.सृष्टि की गुत्थियों को सुलझाकर उन्हें आम भाषा में ( सरल समझाने योग्य) बनाया जाय ताकि ज्ञान महज विशेषज्ञों की चीज ना रह जाय..
"ज्ञान" की जरूरत तो सबको है ना...गूढ़ शब्दों में यदि पुनर्पाठ कर दिया तो उसका आम लोगों के लिए क्या मोल...
क्षमा चाहूँगा यदि मै आपको अपनी बात नहीं समझा पा रहा हूँ.....
मेरे प्रखर भाई,
सबसे पहले तो आपसे व्यक्तिगत रूप से मुआफ़ी की दरकार है।
क्योंकि आपके व्यक्तिगत अहम् को चोट पहुंची है शायद, जो कि समय का असली मंतव्य कतई नहीं था।
आपकी चिंतन प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की मंशा जरूर थी।
व्यक्तिगत रूप से और शाब्दिक वाद-विवाद से कुछ हासिल नहीं होता। निस्संदेह आप अपनी श्रेष्ठता को बखूबी अभिव्यक्त कर सकते हैं, और समय इसका कायल हो गया है।
आपकी बातों से बिल्कुल सहमति है।
पर असल मुद्दा यहां की श्रृंखला मे पुनर्प्रस्तुत विचारों पर बातचीत का था। उनके विष्लेषण और आलोचना के जरिए उनके स्वांगीकरण के प्रयासों का था।
जब आपने इन्हें तो ‘...ये सब कुछ....’ , लिखकर दरकिनार कर दिया और भाषा के सरलीकरण और पाठ्यपुस्तको के पुनर्पाठ का दूसरा आयाम सामने ले आए, तो समय ने इसी विषय को आपके सामने पुनः थोड़ा खोलकर सामने रखने की धृष्टता की, ताकि आलोचनात्मक संवाद इसी विषय पर केन्द्रित रहे।
बाद वाली टिप्पणियों में भी आपने संदर्भित विषय को, ‘..इन्हीं मुद्दों...’ के अंतर्गत दरकिनार रखकर, दूसरे आयामों पर समय का ज्ञान बढ़ाया है, जिसके लिए समय आपका आभारी है।
भाषा के प्रश्न पर समय ने पिछली पोस्ट अलग से केन्द्रित की थी, जिससे गुजरना भी आपको शायद वैचारिक जुंबिश के लिए और प्रेरित करे। उसका लिंक यह है:
http://main-samay-hoon.blogspot.com/2009/10/blog-post.html
शायद, अब समय अपना असली मंतव्य आप तक पहुंचाने में सफल रहा हो। पहले वाली बात पुनः दोहरा रहा हूं: ‘पुराने को जाने समझे बगैर, आखिर नया सृजित भी कैसे हो सकता है। दरअसल अपनी सोच और जीवन से जुड़ी सामान्य मान्यताओं तथा व्यवहार में इसे पैठा पाना, इसकी दुरूहता को समझ लेने से भी अधिक दुरूह कार्य है। कई बार, नये-नये परिप्रेक्ष्यों के साथ इसकी पुनरावृत्ति, इस दुरूहतर कार्य में मदद कर सकती है, ऐसा लगता है।’, यही समय के इच्छित को व्यक्त करता है।
हमारे आपसी मित्रवत संवाद और आलोचनाएं हमें और समृद्ध करते हैं, हमारी समझ को विकसित करते हैं। यही महत्वपूर्ण है।
एक बार पुनः मुआफ़ी की गुजारिश के साथ आपके सकारात्मक संवाद का शुक्रिया।
आशा है, आपकी विषयगत आलोचनाएं और प्रतिक्रियाएं निरंतर देखने को मिलती रहेंगी।
समय
"समय" जी आप हमारे वरिष्ठ हैं, बस आशीर्वाद दीजिये, मुझसे जो त्रुटि हुई हो, इसके लिए क्षमा कर देवें..आपके विमर्शों में भाग लेने की कोशिश करता रहूँगा...आभार..
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।