शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

दार्शनिक संकल्पना - भूतद्रव्य ( Matter ) के मंतव्य

हे मानवश्रेष्ठों,

श्रृंखला पर लौटते हैं।
जैसा कि पिछली चर्चाओं में हमने देखा था कि दर्शन का बुनियादी सवाल भूतद्रव्य (Matter) और चेतना (Consciousness) के सवाल, इनके अंतर्संबंधों और प्राथमिकता के सवाल से जुड़ा था।

अतएव यह समीचीन होगा कि इन संकल्पनाओं, भूतद्रव्य और चेतना पर, पहले चर्चा कर ली जाए, इन्हें पहले सुपरिभाषित कर लिया जाए।

आज की चर्चा का यही विषय है। समय यहां अद्यतन ज्ञान को सिर्फ़ समेकित कर रहा है।
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मनुष्य अत्यंत भिन्न वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं की अनगिनत विविधताओं से घिरा हुआ है: जानवर और पौधे, विभिन्न यंत्र और औजार, रासायनिक यौगिक, कला वस्तुएं, प्रकृति की घटनाएं, आदि। हम जानते हैं कि सारी वस्तुएं अणुओं तथा परमाणुओं से बनी हैं और दृश्य ब्रह्मांड़ में अरबों-खरबों तारे, तारकीय निहारिकाएं तथा आकाशगंगीय प्रणालियां हैं।

पहली नज़र में वे सब असंबंधित वस्तुओं तथा घटनाओं का विषम संग्रह जैसा जान पड़ती हैं। इसीलिए दुनिया अक्सर लोगों को एक रेलपेल जैसी, सांयोगिक वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं की उलझी हुई गुत्थी जैसी नज़र आती है, जिनके मध्य मनुष्य रेगिस्तान में खोया-खोया सा लगता है।

किंतु सारी वस्तुओं और घटनाओं के बीच उनकी सारी विभिन्नताओं के बावजूद एक सर्वनिष्ठ विभेदक लक्षण है, अर्थात वे सब मनुष्य की चेतना के बाहर तथा उससे स्वतंत्र रूप से विद्यमान हैं। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के गिर्द वस्तुओं और प्रक्रियाओं की दुनिया एक वस्तुगत यथार्थता (Objective Reality) है।

इसी वस्तुगत यथार्थता को अभिव्यक्त करने वाली संकल्पना ‘भूतद्रव्य’ को वैज्ञानिक रूप में इस तरह परिभाषित किया जाता है: भूतद्रव्य, मनुष्य की चेतना से स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान, और मनुष्य द्वारा उसके संवेदनों (Sensation) द्वारा अनुभूत, वस्तुगत यथार्थता को अभिव्यक्त करने वाला एक दार्शनिक प्रवर्ग है।

यहां, मनुष्य की चेतना से परे तथा स्वतंत्र रूप से विद्यमान वस्तुगत यथार्थता, और इसके लिए प्रयुक्त दार्शनिक संकल्पना (Concept) या प्रवर्ग (Categories) के बीच अंतर करना आवश्यक है। उन्हें परस्पर उलझाना नहीं चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे कि एक वास्तविक, वस्तुगत मोटरकार तथा उसकी संकल्पना ‘मोटरकार’ को। एक वास्तविक मोटरकार को चलाकर ले जाया सकता है, लेकिन उस ‘मोटरकार’ को नहीं चलाया जा सकता है, जो संकल्पना की शक्ल में मनुष्य के दिमाग़ में होती है।

इस परिभाषा से निष्कर्ष निकलता है कि:

० ‘भूतद्रव्य’ का आशय है मनुष्य के गिर्द विद्यमान संपूर्ण विश्व, वह हर चीज़ जो चेतना नहीं है, वह हर चीज़ जो चेतना से परे है, उससे बाहर अस्तित्वमान है।

० इस संकल्पना का गुणार्थ यह है कि किसी भी भौतिक वस्तु, अनुगुण, संबंध या प्रक्रिया का एकमात्र और सबसे महत्वपूर्ण लक्षण उसकी वस्तुगतता तथा चेतना से उसकी स्वाधीनता है।

० प्रवर्ग ‘भूतद्रव्य’ प्रकृति तथा समाज दोनों की घटनाओं पर, मनुष्य चेतना के बाहर अस्तित्वमान और होने वाली, तथा चेतना से स्वतंत्र सामाजिक प्रक्रियाओ पर लागू होता है।

० मनुष्य द्वारा सारी भौतिक प्रक्रियाओ तथा घटनाओं का संज्ञान अथवा उसकी चेतना द्वारा उनका परावर्तन, संवेदनों तथा संवेदन-प्रत्यक्षणों के जरिए होता है।
इनमें केवल वे ही वस्तुएं तथा घटनाएं शामिल नहीं है, जिनका प्रत्यक्षण मनुष्य अपने श्रवण, दृश्य, स्पर्श या गंध संवेदनों से कर सकता है, बल्कि वे भी शामिल हैं, जिनके लिए उन अत्यंत जटिल आधुनिक उपकरणों ( दूरदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, राड़ार आदि ) की जरूरत होती है जो मनुष्य के संवेदन अंगों की क्षमताओं को कई गुना बढ़ा देते हैं।

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आज इतना ही।
अगली बार देखेंगे कि भूतद्रव्य संबंधी दृष्टिकोणों का विकास कैसे हुआ?
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

समय के साये में - आपके दिमाग़ से रूबरू आपकी ज़िंदगी का आईना

4 टिप्पणियां:

Astrologer Sidharth ने कहा…

एक उम्‍दा पोस्‍ट, अगली कड़ी का इंतजार रहेगा...

Arvind Mishra ने कहा…

मनुष्य के गिर्द वस्तुओं और प्रक्रियाओं की दुनिया एक वस्तुगत यथार्थता (Objective Reality) है।और "स्प्रिचुअल रियलिटी'' ?
और हाँ, द्रष्टा की स्थितियां क्या दृश्य का विचलन /सापेक्षता नहीं उपस्थित करतीं ? फिर वस्तुनिष्ठता इन प्रेक्षणात्मक त्रुटियों से मुक्त कैसे हो ? हर द्रष्टा के इस तरह तो अपने अपने अलग वस्तुनिष्ठ यथार्थ होगें -कहीं इसलिए ही तो भारतीय चिंतन में एक समय इस पूरी दृष्टिमय /गोचर सृष्टि को ही माया /इल्यूजन तो नहीं कहा गया ?
ऐसे विश्लेषण क्या खुद में भ्रामक नहीं हैं ?

रंजू भाटिया ने कहा…

अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट शुक्रिया

Unknown ने कहा…

आदरणीय अरविंद जी,

आपकी जिज्ञासा की विस्तार-पूर्ति तो फिर कभी।
अभी कुछ इशारे, आपकी चिंतन प्रक्रिया में हस्तक्षेप के लिए।

"स्प्रिचुअल रियलिटी'' को जाहिर है आप आत्मा की संकल्पना से तो जोड़ नहीं ही रहे होंगे। मनुष्य की चेतना के बाहर और उससे स्वतंत्र वस्तुगत यथार्थ, इसी को आगे बढ़ाए तो मनुष्य की चेतना के अंदर पर वस्तुगत यथार्थता पर निर्भर, विचारों और संकल्पनाओं की समग्रता को आपके इच्छित शब्द आत्मिक यथार्थता से अभिव्यक्त किया जा सकता है।

आपकी दूसरी जिज्ञासा, दर्शन की कुछ विशेष धाराओं के प्रभाव से उत्पन्न अभिव्यक्तियां हैं। यह आत्मगत प्रत्ययवाद और अज्ञेयवाद की तार्किक युक्तियां हैं, जिनका आपने यहां जिक्र किया है। आत्मगत प्रत्ययवाद ( Subjective Idealism ) केवल प्रदत्त विषयी की चेतना को मान्यता देता है और विषयी की इच्छा तथा चेतना से स्वतंत्र वस्तुगत यथार्थता के अस्तित्व से इंकार करता है। अज्ञेयवाद ( Agnosticism ) आपके द्वारा पेश की गई युक्तियों व तर्कों के आधार पर ही विश्व या वस्तुगतता के संज्ञान की संभावनाओं को पूर्णतः या अंशतः अस्वीकार करते हैं, इस पर आपने सही कहा कि यह हमारे यहां शंकराचार्य के मायावाद (ब्रह्मं सत्यं जगत मिथ्या) की परिणति को प्राप्त होता है।

वस्तुगत यथार्थता के संवेदनात्मक प्रत्यक्षण को परखने और त्रुटियों के निस्तारण के कई तरीके होते हैं। ज्ञान की सत्यता या असत्यता को परखने के लिए, यानि उसे वस्तुगत यथार्थता के तद्‍अनुरूप सिद्ध करने के लिए केवल निष्क्रिय प्रेक्षण ही पर्याप्त नहीं होते हैं। इसके लिए चाहे सरलतम ही क्यों ना हो, प्रयोग करने की भी आवश्यकता होती है। तभी हम संवेदनों के भ्रम तथा वास्तविक स्थिति के बीच भेद करने में कामयाब हो सकते हैं।

यह व्यवहार ही है जो अज्ञेयवाद का खंड़न कर देता है। आखिर लोग विभिन्न वस्तुओं और परिघटनाओं का संज्ञान प्राप्त करते हैं और समझबूझकर उनका पुनरुत्पादन भी करते हैं, नियमों को समझकर नई-नई परिघटनाओ की सम्भावनाओं और यथार्थता को रचते हैं। अगर वस्तुगतता का संवेदनीय प्रेक्षण इतना त्रुटिपूर्ण होता कि जैसा कि आपने कल्पना की है, तो मानवजाति का आज के विकसित हालात तक पहुंचना कैसे संभव हो सकता था?

मनुष्य क्या, पशु जगत भी अपने प्रेक्षणों के जरिए अपनी जिजीविषा को नियमित कर लेता है। परंतु संज्ञान एक जटिल प्रक्रिया है और इसके दौरान उचित संशय पैदा हो सकते हैं, पर इनके निस्तारण के भी उपाय मनुष्य जाति ने अपने व्यवहार के जरिए खोज निकाले हैं।

वस्तुगत यथार्थता के अलग-अलग विषयी या दृष्टा में अलग-अलग परावर्तन का कारण, उसके संज्ञान के तरीकों और विधियों की सीमाओं में होता है। वस्तुगत यथार्थता अपनी जगह उसी सत्यता के साथ बनी रहती है। जिस मनुष्य श्रेष्ठ को उसके व्यवस्थिकरण और नियमन के उद्देश्य से, उस तक यथार्थता के साथ पहुंचना हो पहुंच ले और परिवर्तन कर ले, या फिर अपनी आत्मिक यथार्थता के जगत में इन विचलनों की यथास्थिति से संतुष्ट रहकर ही जैसा है उसी के जरिए अपनी केवल उपस्थिति दर्ज़ कराता रहे।

शुक्रिया।
समय की आकांक्षा है कि इन्हीं संदर्भों में मानवजाति के अद्यतन ज्ञान को कभी यहां विस्तार से समेकित कर सके।

समय

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