हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार हमने जीवन के क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति से संबंधित अवधारणाओं पर नज़र ड़ाली थी। इस बार हम यथार्थता के सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन में अंतर को समझने की कोशिश करेंगे। चेतना की उत्पत्ति के मद्देनज़र इनसे गुजरना एक पूर्वाधार का काम करेगा।
चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन
क्या तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उत्पत्ति का यह मतलब है कि उच्चतर जानवरों में चिंतन क्षमता तथा तर्कबुद्धि होती है और वे सचेत व्यवहार कर सकते हैं?
सरलतम एककोशिकीय अंगियों में यथार्थता ( reality ) का परावर्तन (Reflection, a reflex action, an action in return) अत्यंत आदिम रूप में होता है। यदि एक एककोशिकीय अंगी, अमीबा युक्त एक पात्र में अम्ल के सांद्रण ( concentration ) को बढ़ा दिया जाए, तो अमीबा उस तरफ़ को चला जाएगा, जहां अम्ल का सांद्रण कम है। यदि वह संयोगवश भोजन से टकरा जाता है, तो उसे अपने शरीर के किसी भी भाग से गड़प जाता है। इस तरह अमीबा अपने व्यवहार और गति के लिए कोई निश्चित दिशा और लक्ष्य तय नहीं करता।
उत्तेजनशीलता ( Excitability ) के आधार पर यथार्थता के प्रति मात्र निष्क्रिय अनुकूलन ही संभव हो सकता है। निष्क्रिय अनुकूलन का अर्थ है कि एक जीवित अंगी अपने अस्तित्व के लिए केवल पर्यावरण मे उपलब्ध अनुकूल दशाओं को ही चुनता है, किंतु उनकी रचना करना तो दूर, उन्हें खोजता तक नहीं है। पौधों सहित सभी बहुकोशिकीय अंगियों में भी उत्तेजनशीलता होती है। खिड़की पर रखा जिरेनियम का पौधा प्रकाशित पक्ष से अप्रकाशित पक्ष को हार्मोनों की गति के जरिए अपनी पत्तियों को उस दिशा की ओर मोड़ लेता है, जहां से उसकी जीवन क्रिया के लिए आवश्यक अधिक सौर प्रकाश उस पर पड़ता है। यह भी एक तरह का चयनात्मक ( Selective ), फिर भी निष्क्रिय अनुकूलन है, क्योंकि जिरेनियम न तो प्रकाश की खोज में जाता है और न ही प्रकाश की कमी होने पर उसकी रचना करता है।
जब तंत्रिकातंत्र अधिक जटिल हो गया और मस्तिष्क की उत्पत्ति हो गई, तो धीरे-धीरे निष्क्रिय से सक्रिय अनुकूलन में संक्रमण होने लगा। उच्चतर जानवरों में ( पक्षियों और ख़ास तौर से स्तनपायियों में ) सक्रिय अनुकूलन अपने निवास के लिए अनुकूल दशाओं की खोज से संबंधित होता है और व्यवहार के जटिल रूपों के विकास की ओर ले जाता है।
उच्चतम स्तनपायियों में व्यवहार के और भी अधिक जटिल रूप पाये जाते हैं। मसलन, कई शिकारी जानवर अपने क्षेत्र की हदबंदी कर देते हैं और दूसरों को उसके अंदर शिकार नहीं करने देते। एक अनुसंधानकर्ता ने अपने प्रेक्षण के दौरान देखा कि एक भूखी मादा भेडिया एक जंगली हंस का ध्यान आकृष्ट करने तथा झील के तट पर पानी से कुछ दूर उसे अपनी तरफ़ खींचने के लिए घास में उलट-पलट कर, तथा अगल-बगल करवटें लेकर नाचते हुए एक ‘शौकिया नृत्य प्रदर्शन’ कर रही है, उसने हंस को पानी से बाहर काफ़ी दूर तक अपनी ओर आकृष्ट किया और जब उनके बीच की दूरी काफ़ी कम हो गयी, तो अपने शिकार पर झपट्टा मार दिया।
हम जानते हैं कि चींटियां और मधुमक्खियां अत्यंत जटिल संरचनाएं बनाती है, बीवर नामक जीव छतदार बिल और बिल तक जाने के लिए पानी के नीचे से रास्ता ही नहीं बनाते, बल्कि असली बांध भी बनाते हैं, इससे भी बड़ी बात यह है कि वे पानी के बाह्य प्रवाह के लिए तथा तलैया में स्तर के अनुसार नियंत्रण रखने के लिए एक निकास द्वार भी छोड़ देते हैं। इन सब बातों से जानवरों के कथित तर्कबुद्धिपूर्ण, सचेत व्यवहारक की बात कहने का आधार मिलता है, पर वास्तव में यह परावर्तन के अत्यंत विकसित रूपों के आधार पर, पर्यावरण के प्रति उच्चतर जानवरों के सक्रिय अनुकूलन मात्र का मामला हो सकता है।
उच्चतर जानवरों में सक्रिय अनुकूलन, अपने निवास के लिए अपने परिवेशी पर्यावरण का सक्रिय उपयोग, अधिक अनुकूल दशाओं की खोज तथा अपनी जीवन क्रिया के लिए, चाहे सीमित पैमाने पर ही क्यों ना हो, पर्यावरण को अपने अनुसार अनुकूलित करने में निहित होता है। किंतु उनके क्रियाकलापों में कोई योजना नहीं होती और वे बाह्य वास्तविकता को आमूलतः रूपांतरित नहीं करते।
जानवरों के व्यवहार के अनेक रूप, क्रमविकास के लाखों वर्षों के दौरान विकसित होते हैं और आनुवंशिकता द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित होते हैं। व्यवहार के इन अंतर्जात ( inborn, inbred ) रूपों को सहजवृत्ति कहते हैं और वे अत्यंत जटिल हो सकती हैं। किंतु जीवन की दशाओं में तीव्र परिवर्तन होने पर ये जानवर, अपनी ही सहजवृत्तियों के ‘बंदी’ हो जाते हैं और अपने को नयी स्थितियों के अनुकूल बनाकर उन्हें बदलने में अक्षम होते हैं। इसके अलावा वे उन दशाओं को निर्णायक ढ़ंग से बदलने तथा उन्हें अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित करने की स्थिति में नहीं होते।
इस बात को स्पष्ट करने के लिए हम अत्यंत संगठित कीटों के जीवन से एक उदाहरण लेते हैं। चीड़ के पेड़ों पर रहने तथा जुलूस की शक्ल में चलनेवाले पतंगों की शुंडियां भोजन की तलाश में एक सघन कालम बनाकर आगे बढ़ती हैं। प्रत्येक शुंडी अपने आगेवाले को अपने रोयों से छूते हुए उसके पीछे-पीछे चलती है। शुंडियां महीन जालों का स्रावण करती हैं, जो पीछे से आनेवाली शुंडियों के लिए मार्गदर्शक तागे का काम देता है। सबसे आगेवाली शुंडी सारी भूखी सेना को चीड़ के शीर्षों की तरफ़, नये ‘चरागाहों’ की तरफ़, ले जाती है।
प्रसिद्ध फ़्रांसीसी प्रकृतिविद जान फ़ाब्रे ने अगुआई करने वाली शुंडी के सिर को कालम के अंत की शुंडी की ‘पूंछ’ की तरफ़ लगा दिया। वह फ़ौरन मार्गदर्शक तागे से चिपक गई और, इस तरह, ‘सेनापति’ शुंडी मामूली ‘सिपाही’ में तब्दील हो गई, तथा उस सबसे पीछे वाली शुंडी के पीछे-पीछे चलने लगी, जिससे वह जुडी हुई थी। इस तरह कालम का सिरा और दुम परस्पर जुड गये और शुंडियों ने एक ही स्थान पर एक मर्तबान के गिर्द अंतहीन चक्कर काटने शुरू कर दिये। सहजवृत्ति उन्हें इस मूर्खतापूर्ण स्थिति से छुटकारा दिलाने में असमर्थ सिद्ध हुई। भोजन पास ही रख दिया गया लेकिन किसी भी शुंडी ने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। एक घंटा बीता, दूसरा बीता, दिन गुजर गये और शुंडियां, मंत्रमुग्ध जैसी चक्कर पर चक्कर लगाती रहीं। वे पूरे एक सप्ताह तक चक्कर लगाती रहीं, इसके बाद कालम टूट गया, शुंडियां इतनी कमजोर हो गयीं कि अब वे जरा भी आगे नहीं बढ सकीं।
स्पष्ट है कि शुरूआत में जो सवाल पेश किया गया था, उसका सिर्फ़ नकारात्मक उत्तर ही दिया जा सकता है। अर्थात तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उपस्थिति मात्र से ही, चिंतन क्षमता और तर्कबुद्धियुक्त सचेत व्यवहार पैदा हो पाना संभव नहीं हो जाता।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
पिछली बार हमने जीवन के क्रमविकास और तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति से संबंधित अवधारणाओं पर नज़र ड़ाली थी। इस बार हम यथार्थता के सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन में अंतर को समझने की कोशिश करेंगे। चेतना की उत्पत्ति के मद्देनज़र इनसे गुजरना एक पूर्वाधार का काम करेगा।
चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन
क्या तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उत्पत्ति का यह मतलब है कि उच्चतर जानवरों में चिंतन क्षमता तथा तर्कबुद्धि होती है और वे सचेत व्यवहार कर सकते हैं?
सरलतम एककोशिकीय अंगियों में यथार्थता ( reality ) का परावर्तन (Reflection, a reflex action, an action in return) अत्यंत आदिम रूप में होता है। यदि एक एककोशिकीय अंगी, अमीबा युक्त एक पात्र में अम्ल के सांद्रण ( concentration ) को बढ़ा दिया जाए, तो अमीबा उस तरफ़ को चला जाएगा, जहां अम्ल का सांद्रण कम है। यदि वह संयोगवश भोजन से टकरा जाता है, तो उसे अपने शरीर के किसी भी भाग से गड़प जाता है। इस तरह अमीबा अपने व्यवहार और गति के लिए कोई निश्चित दिशा और लक्ष्य तय नहीं करता।
उत्तेजनशीलता ( Excitability ) के आधार पर यथार्थता के प्रति मात्र निष्क्रिय अनुकूलन ही संभव हो सकता है। निष्क्रिय अनुकूलन का अर्थ है कि एक जीवित अंगी अपने अस्तित्व के लिए केवल पर्यावरण मे उपलब्ध अनुकूल दशाओं को ही चुनता है, किंतु उनकी रचना करना तो दूर, उन्हें खोजता तक नहीं है। पौधों सहित सभी बहुकोशिकीय अंगियों में भी उत्तेजनशीलता होती है। खिड़की पर रखा जिरेनियम का पौधा प्रकाशित पक्ष से अप्रकाशित पक्ष को हार्मोनों की गति के जरिए अपनी पत्तियों को उस दिशा की ओर मोड़ लेता है, जहां से उसकी जीवन क्रिया के लिए आवश्यक अधिक सौर प्रकाश उस पर पड़ता है। यह भी एक तरह का चयनात्मक ( Selective ), फिर भी निष्क्रिय अनुकूलन है, क्योंकि जिरेनियम न तो प्रकाश की खोज में जाता है और न ही प्रकाश की कमी होने पर उसकी रचना करता है।
जब तंत्रिकातंत्र अधिक जटिल हो गया और मस्तिष्क की उत्पत्ति हो गई, तो धीरे-धीरे निष्क्रिय से सक्रिय अनुकूलन में संक्रमण होने लगा। उच्चतर जानवरों में ( पक्षियों और ख़ास तौर से स्तनपायियों में ) सक्रिय अनुकूलन अपने निवास के लिए अनुकूल दशाओं की खोज से संबंधित होता है और व्यवहार के जटिल रूपों के विकास की ओर ले जाता है।
उच्चतम स्तनपायियों में व्यवहार के और भी अधिक जटिल रूप पाये जाते हैं। मसलन, कई शिकारी जानवर अपने क्षेत्र की हदबंदी कर देते हैं और दूसरों को उसके अंदर शिकार नहीं करने देते। एक अनुसंधानकर्ता ने अपने प्रेक्षण के दौरान देखा कि एक भूखी मादा भेडिया एक जंगली हंस का ध्यान आकृष्ट करने तथा झील के तट पर पानी से कुछ दूर उसे अपनी तरफ़ खींचने के लिए घास में उलट-पलट कर, तथा अगल-बगल करवटें लेकर नाचते हुए एक ‘शौकिया नृत्य प्रदर्शन’ कर रही है, उसने हंस को पानी से बाहर काफ़ी दूर तक अपनी ओर आकृष्ट किया और जब उनके बीच की दूरी काफ़ी कम हो गयी, तो अपने शिकार पर झपट्टा मार दिया।
हम जानते हैं कि चींटियां और मधुमक्खियां अत्यंत जटिल संरचनाएं बनाती है, बीवर नामक जीव छतदार बिल और बिल तक जाने के लिए पानी के नीचे से रास्ता ही नहीं बनाते, बल्कि असली बांध भी बनाते हैं, इससे भी बड़ी बात यह है कि वे पानी के बाह्य प्रवाह के लिए तथा तलैया में स्तर के अनुसार नियंत्रण रखने के लिए एक निकास द्वार भी छोड़ देते हैं। इन सब बातों से जानवरों के कथित तर्कबुद्धिपूर्ण, सचेत व्यवहारक की बात कहने का आधार मिलता है, पर वास्तव में यह परावर्तन के अत्यंत विकसित रूपों के आधार पर, पर्यावरण के प्रति उच्चतर जानवरों के सक्रिय अनुकूलन मात्र का मामला हो सकता है।
उच्चतर जानवरों में सक्रिय अनुकूलन, अपने निवास के लिए अपने परिवेशी पर्यावरण का सक्रिय उपयोग, अधिक अनुकूल दशाओं की खोज तथा अपनी जीवन क्रिया के लिए, चाहे सीमित पैमाने पर ही क्यों ना हो, पर्यावरण को अपने अनुसार अनुकूलित करने में निहित होता है। किंतु उनके क्रियाकलापों में कोई योजना नहीं होती और वे बाह्य वास्तविकता को आमूलतः रूपांतरित नहीं करते।
जानवरों के व्यवहार के अनेक रूप, क्रमविकास के लाखों वर्षों के दौरान विकसित होते हैं और आनुवंशिकता द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित होते हैं। व्यवहार के इन अंतर्जात ( inborn, inbred ) रूपों को सहजवृत्ति कहते हैं और वे अत्यंत जटिल हो सकती हैं। किंतु जीवन की दशाओं में तीव्र परिवर्तन होने पर ये जानवर, अपनी ही सहजवृत्तियों के ‘बंदी’ हो जाते हैं और अपने को नयी स्थितियों के अनुकूल बनाकर उन्हें बदलने में अक्षम होते हैं। इसके अलावा वे उन दशाओं को निर्णायक ढ़ंग से बदलने तथा उन्हें अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित करने की स्थिति में नहीं होते।
इस बात को स्पष्ट करने के लिए हम अत्यंत संगठित कीटों के जीवन से एक उदाहरण लेते हैं। चीड़ के पेड़ों पर रहने तथा जुलूस की शक्ल में चलनेवाले पतंगों की शुंडियां भोजन की तलाश में एक सघन कालम बनाकर आगे बढ़ती हैं। प्रत्येक शुंडी अपने आगेवाले को अपने रोयों से छूते हुए उसके पीछे-पीछे चलती है। शुंडियां महीन जालों का स्रावण करती हैं, जो पीछे से आनेवाली शुंडियों के लिए मार्गदर्शक तागे का काम देता है। सबसे आगेवाली शुंडी सारी भूखी सेना को चीड़ के शीर्षों की तरफ़, नये ‘चरागाहों’ की तरफ़, ले जाती है।
प्रसिद्ध फ़्रांसीसी प्रकृतिविद जान फ़ाब्रे ने अगुआई करने वाली शुंडी के सिर को कालम के अंत की शुंडी की ‘पूंछ’ की तरफ़ लगा दिया। वह फ़ौरन मार्गदर्शक तागे से चिपक गई और, इस तरह, ‘सेनापति’ शुंडी मामूली ‘सिपाही’ में तब्दील हो गई, तथा उस सबसे पीछे वाली शुंडी के पीछे-पीछे चलने लगी, जिससे वह जुडी हुई थी। इस तरह कालम का सिरा और दुम परस्पर जुड गये और शुंडियों ने एक ही स्थान पर एक मर्तबान के गिर्द अंतहीन चक्कर काटने शुरू कर दिये। सहजवृत्ति उन्हें इस मूर्खतापूर्ण स्थिति से छुटकारा दिलाने में असमर्थ सिद्ध हुई। भोजन पास ही रख दिया गया लेकिन किसी भी शुंडी ने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। एक घंटा बीता, दूसरा बीता, दिन गुजर गये और शुंडियां, मंत्रमुग्ध जैसी चक्कर पर चक्कर लगाती रहीं। वे पूरे एक सप्ताह तक चक्कर लगाती रहीं, इसके बाद कालम टूट गया, शुंडियां इतनी कमजोर हो गयीं कि अब वे जरा भी आगे नहीं बढ सकीं।
स्पष्ट है कि शुरूआत में जो सवाल पेश किया गया था, उसका सिर्फ़ नकारात्मक उत्तर ही दिया जा सकता है। अर्थात तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क की उपस्थिति मात्र से ही, चिंतन क्षमता और तर्कबुद्धियुक्त सचेत व्यवहार पैदा हो पाना संभव नहीं हो जाता।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
11 टिप्पणियां:
जंतु व्यवहार के विकास में तंत्रिकातंत्र की भूमिका पर अच्छी परिचयात्मक जानकारी !
रोचक आलेख ...अच्छा लगा..
..मनुष्य से इतर पशुओं में निर्णय क्षमता तो देखने को मिली है, परन्तु विश्लेषण क्षमता नही(कम से कम अब तक के शोधों में )....अगर सिर्फ इसे ही आधार बनाया जाए तब आपका निष्कर्ष सटीक है.
समझा।
आभार।
... ब्लाग प्रभावशाली है !!!
अब एक सवाल सरल रूप में तो सहजवृत्ति ठीक है लेकिन
मान लीजिए इसी ज्ञान को लेकर मैं एक एलियन की तरह पृथ्वी पर आता हूं और अपनी उड़नतश्तरी से देखता हूं कि एक आदमी स्कीईंग के औजार लेकर पर्वत पर चढ़ता और फिसलता हुआ नीचे आता है फिर चढ़ता और फिसलता हुआ आता है। घंटों तक उसका यह क्रम चलता रहता है...
कहीं भोजन नहीं, कहीं प्रेरक तत्व नहीं तो इस क्रिया को कौनसी श्रेणी में रखूं...
सिद्धार्थ जी,
आपकी जिज्ञासा।
नाचीज़ पूरी तरह समझ नहीं पाया। कृपया मंतव्य समझाएं।
आप समझे नहीं तो यह मेरी कमी है समय जी,
मैं एक बार पुन: स्पष्ट करने का प्रयास करता हूं। सरलता से जटिलता की ओर विकास की अवधारणा मूलत इंसान को जानवर या जानवर जैसा मानने की बाध्यता पैदा करती है। तंत्रिका तंत्र का विकास और फिर चेतन और अवचेतन की अवधारणा मुझे पश्चिम सोच जिसमें एक गडरिया और बाकी भेड़ें के सिद्धांत को स्थापित करने की साजिश से अधिक कुछ नहीं लगती।
शंका करना दार्शनिक का धर्म है सो मैं शंका करता हूं कि विज्ञान या छद्म विज्ञान की आड़ में एक हाइपोथिसिस को इतना अधिक महत्व दिया गया कि डार्विन का सिद्धांत सार्वभौम लगने लगा है - वही सरलता से जटिलता की ओर वाला-
अब मैं अपने दिमाग की हलचल पर एक पोस्ट डालूंगा-
बहुत साल पहले मैंने अपनी एक डायरी में एक पेज का मैटर लिखा और छोड़ दिया था कि किसी दिन मौका मिला तो दोबारा लिखूंगा- अब लिख सकता हूं सो ब्लॉग पर लिखकर विस्तार से बताने की कोशिश करूंगा कि
विकास के दौर में चींटी से इंसान बनने और फिर मोक्ष पाने की बजाय इंसान के बाद मरते मरते चौरासी लाख यानियां पार कर चींटी या अमीबा बनकर मोक्ष भी मिल सकता है क्या...
हालांकि तब भी सवाल ही अधिक छोडूंगा लेकिन यह सोचने का दूसरा तरीका भी है....
सिद्धार्थ जी,
मुआफ़ कीजिएगा, समय अक्सर आपकी अभिव्यक्ति को जिज्ञासा समझने की भूल कर बैठता है। इसी वज़ह से आपकी शान में गुस्ताखी़ हो जाती है।
शंका करना, सवाल उठाना दार्शनिक दृष्टिकोण की बुनियाद है। आप इस हेतु प्रेरित हैं, अच्छा लगता है। अभी आपकी शंकाएं मानवजाति के अद्यतन ज्ञान पर ज्यादा उठती हैं, और आपकी समझ पुरातन ज्ञान से ज्यादा अभिप्रेरित होती है।
ज्ञान का, सत्य की राह का, सोच का मामला पूर्वी-पश्चिमी नहीं होता, यह पूरी मानवजाति की थाति होता है। गलत हर जगह गलत ही होना चाहिए, सही सही, यह हम कहें या कोई और कहे।
ज्ञान की राह मानवीय मूल्यों को और ऊंचा उठाने की दिशा के लिए ही अभिप्रेरित होती है, होनी चाहिए। अगर यह नहीं हो पा रहा है तो शंका की ही जानी चाहिए।
यह आपके दार्शनिक दृष्टिकोण की शुरूआती समझ ही है, कि आप जीवन की यथार्थता के ज़मीनी विश्लेषणों और अवधारणाओं को काल्पनिक प्रभामंड़ल ( हाईपोथिसीस ) के शब्द से नवाज़ते हैं, और ‘इसी ज्ञान को लिए एलियन, पृथ्वी पर आना, काल्पनिक स्थिति के ढ़ांचे में सोचना’, ‘ चौरासी लाख यौनियां’ एवं ‘मोक्ष’ वाली अपनी चिंतन प्रक्रिया को ज़्यादा यथार्थ समझते हैं।
सही है, यह सोचने का दूसरा नहीं पहला तरीका है। ऐसे सोचे बगैर, इस पर शंकाएं किए बगैर इससे पार नहीं पाया जा सकता।
आपने अपनी बात रखी, अच्छा लगा। दोबारा स्पष्ट किया, और बेहतर रहा। सवाल हमें बेहतरी की ओर ही ले जाते हैं।
सोचने के हर तरीके को निरंतर जांचते रहना चाहिए।
आपके ‘दिमाग की हलचल’ की प्रतीक्षा रहेगी।
पढ़ा पहले भी लेकिन इस बार समझ सका। सहजवृत्ति यानि यही कारण है जानवरों के जानवर बने रहने का? इस पर एक किताब याद आती है 'क्या मनुष्य सचमुच सर्वश्रेष्ठ प्राणी है?', जो गायत्री परिवार से प्रकाशित थी।
एक सवाल है कि आज जो बन्दर देखे जाते हैं, क्या वे ऐसे ही रहेंगे या उनपर भी विकास का सिद्धान्त काम करेगा? आखिर किन कारणों से वे जीव भी हमें दिखते हैं जो मानव विकास के क्रम में मौजूद थे। इसका कुछ जवाब तो सुना है। लेकिन आपसे कहने का मतलब है कि आप अपनी दृष्टि और थोड़ा विस्तृत पक्ष यहाँ रखेंगे। अभी अगली पोस्ट पढ़ते समय अचानक यह खयाल आ गया।
@ चंदन जी,
आनंद ले रहे हैं मित्र। इससे जाहिर होता है कि आपने विकास के सिद्धांत और उसकी ऊपरी सामान्य प्रचलित अवधारणाओं के बारे में सिर्फ़ इधर-उधर से कुछ सुना-पढ़ा मात्र है, इसे या इसके बारे में भली-भांति पढ़ने और समझने का अवसर अभी आपको उपलब्ध नहीं हो पाया है। इसी कारण आपकी इस पर जिज्ञासा बहुत ही शुरुआती प्राथमिक स्तर की है।
हमें भी अधिक अवसर उपलब्ध नहीं हो पाए हैं, इसलिए अपनी और यहां की सीमाओं के मद्देनज़र यहां इसकी विस्तार से विवेचना अभी संभव नहीं है। आप इसके लिए अध्ययन सामग्री जुटाइये और अधिक जानने-समझने की कोशिश कीजिए। तभी आपकी इस जिज्ञासा और इस सतही समाधान का ( जो कभी-कभी कुछ समझदारों के द्वारा दे दिया जाता है ) का शमन संभव हो पाएगा कि, ‘सीधी सी बात है, जिन्होंने कोशिश की वे आदमी हो गए, और जिन्होंने नहीं की वे अभी भी बंदर ही हैं।’
मामला ऐसा और इतना सरल भी नहीं है। हम यहां कुछ मूल बातों को प्रस्तुत कर देते हैं। आप इनके आधार पर आगे का संधान जारी रख सकते हैं। इनको एक्सप्लोर कर सकते हैं।
जीव का आवीरूप ( बाह्यतः प्रकट रूप ) उसके जीनरूप ( जीव को बनानेवाला तथा एक संतति से दूसरी संतति में संप्रेषित होने वाला कार्यक्रम ) पर निर्भर है और यह साथ ही अगली संतति के लिए इस कार्यक्रम की अनुकृति भी बना लेता है। इस अनुकृति को तैयार करने के लिए, सांचे के रूप में पिछली संतति का जीनरूप ही काम में लिया जाता है और यह कार्य सामान्यतः बिना किसी त्रुटि के संपन्न होता है, यानि परिवर्तन होने की, गलतियां होने की सम्भावनाएं बहुत ही कम होती हैं। इसलिए एक ही तरह के जंतिकीय आवीरूप प्रकृति में निरंतर अपना अस्तित्व संभव बनाए रखते हैं।
लेकिन फिर भी यह प्रक्रिया आदर्श रूप में शत-प्रतिशत शुद्ध नहीं होती। अगर ऐसा होता तो जीवन सबसे पहले विकसित हुई आदिकोशिका की अवस्था में ही अटका रहा होता और पृथ्वी पर इतनी जैव विविधता नहीं होती। इसका मतलब यह हुआ कि परिस्थितिवश जंतिकीय प्रोग्राम में उत्परिवर्तन होते हैं और परिणामस्वरूप हमें प्रकृति में विभिन्न आवीरूपों के दर्शन होते हैं।
विकास का प्राकृतिक चयन का सिद्धांत जंतिकीय प्रोग्रामों में हुए इन्हीं सायोंगिक उत्परिवर्तनों और उनके प्रबलीकरण से संबंधित है। जंतिकीय प्रोग्राम एक संतति से दूसरी में संचार के दौरान अनेक कारणों से परिवर्तित होता है, ये परिवर्तन सांयोगिक और दिशाहीन होते हैं, सिर्फ़ संयोगवश ही अनुकूलक गुण रखते हैं। ये सांयोगिक परिवर्तन, जीव के आवीरूप के विरचन के दौरान असंख्य गुना प्रबल हो जाते हैं और पारिवेशिक परिस्थितियों द्वारा चयित होते हैं।
यदि जंतिकीय प्रोग्राम में हुए सांयोगिक उत्परिवर्तन से प्राप्त विशेषताएं पारिवेशिक परिस्थितियों में जीव के ज़िंदा रहने में मददगार साबित होती हैं, उनके अनुकूल होती हैं तो ये अगली संततियों में जारी रहते हैं। यदि ये उत्परिवर्तन जीवनीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है तो जीव अपने को ज़िंदा नहीं रख पाएगा और जाहिर है अगली संततियों तक ये सांयोगिक उत्परिवर्तन नहीं पहुंच पाएंगे। इसी तरह प्राकृतिक, नैसर्गिक चयन संपन्न हो जाता है, और विकासक्रम जारी रहता है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है जंतिकीय प्रोग्रामों में हुए वही उत्परिवर्तन आगे जारी रह पाते हैं जो परिस्थितियों के सर्वाधिक अनुकूल होते हैं।
शायद इससे आप समझ सकेंगे कि क्यों कुछ जंतिकीय आवीरूप आगे भी अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं और क्यों कुछ विकास-क्रम में आगे परिवर्तित हो जाते हैं और नये-नये आवीरूप अस्तित्व में आते जाते हैं। यहां आप इसमें समय की एक बहुत ही लंबी अवधि को ध्यान में रखना तो भूलेंगे ही नहीं।
शुक्रिया।
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।