हे मानवश्रेष्ठों,
पिछली बार हमने यथार्थता के सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन में अंतर को समझने की कोशिश की थी। इस बार हम परावर्तन के विकास की अब तक की चर्चा को भी संदर्भित करते हुए मानसिक और दैहिक, प्रत्ययिक और भौतिक संदर्भों में, ‘मन’ की संकल्पना को समझने की कोशिश करेंगे।
चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मानसिक और दैहिक, प्रत्ययिक और भौतिक
तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क भौतिक है। उनमें विभिन्न विविध भौतिक तथा रासायनिक प्रक्रियाएं होती हैं, जैसे उपापचयन, जैव-विद्युत आवेगों का प्रस्फुटन और संचरण, आदि। मस्तिष्क और बाहरी भौतिक जगत की अंतर्क्रिया को ही हम सामान्यतयाः चित् या मन कहते हैं और इसके कार्य को मानसिक क्रिया कहते हैं।
अगर मन की वस्तुगत अवधारणा को थोड़ा समझना चाहे तो इसमें निम्नांकित बाते शामिल होती हैं : ( १ ) वस्तुओं तथा वस्तुगत जगत में विभिन्न प्रक्रियाओं के हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त, यानि दृश्य, संवेदक, प्रकाशिक, श्रव्य, स्पर्शमूलक तथा गंधात्मक बिंब ; ( २ ) लक्ष्यों के चयन तथा उनकी उपलब्धि की क्षमता ( मनुष्य में संकल्प तथा ऐच्छिक व्यवहार इसी क्षमता से विकसित हुए हैं ) जो केवल सोद्देश्य व्यवहार करने वाले उच्चतर जानवरों में ही अंतर्निहित होती हैं ; ( ३ ) भावावेग, अनुभव, अनुभूतियां, जिनके द्वारा जानवर पर्यावरणों के प्रभावों के प्रति सीधे-सीधे अनुक्रिया करते हैं ( मसलन क्रोध, उल्लास, भय, लगाव, आदि ) ; ( ४ ) सूचना, और सर्वोपरी व्यवहार का नियंत्रण करने और पर्यावरण के प्रति अनुकूलित होना संभव बनाने वाले कायदों, मानकों, मापदंड़ों को संचयित तथा उनका विश्लेषण करने की क्षमता ( मनुष्य में चेतना और चिंतन इसी क्षमता से उत्पन्न होते हैं ) ।
यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि मस्तिष्क के क्रियाकलाप का उत्पाद होने के कारण मन को बाहरी वास्तविकता के सरल निष्क्रिय परावर्तन में सीमित नहीं किया जा सकता है। मन बाहरी वास्तविकता की हूबहू, दर्पण-प्रतिबिंब जैसी छवि नहीं होता है। उसमें सूचना ग्रहण तथा उसे रूपातंरित करने की क्षमता और मानसिक बिंबों व क्रियाओं को, सक्रियता से मिलाने और तुलना करने तथा इसके आधार पर मानसिक बिंबों और क्रियाओं का पुनर्गठन करने की क्षमता होती है।
दीर्घ क्रमविकास के फलस्वरूप ये क्षमताएं, मनुष्य के उद्भव के साथ, रचनात्मक कार्य या क्रियाकलाप की विशिष्ट मानवीय क्षमता में तब्दील हो गयीं। परंतु इसके आदि रूपों को उच्चतर जानवरों के मानसिक क्रियाकलापों में देखा जा सकता है।
मानव चेतना की उत्पत्ति के बाद भी, मनुष्य में मानसिक क्रियाकलाप के ऐसे कई स्तर तथा रूप शेष हैं, जिनमें चेतना शामिल नहीं होती और जो सचेत नियंत्रण के अधीन नहीं होते तथा अचेतन मानसिक क्रियाकलाप का क्षेत्र बने रहते हैं। मन की उत्पत्ति तथा कार्यकारिता और मानसिक क्रियाकलाप में चेतन तथा अचेतन के संबंधों का विस्तार से अध्ययन मनोविज्ञान के विषयान्तर्गत किया जाता है।
संकल्पनाएं ‘चेतना’ ( consciousness ) तथा ‘चिंतन’ ( thinking ) अक्सर पर्यायों की भांति इस्तेमाल की जाती हैं। किंतु इनके बीच कुछ अंतर है। चिंतन का अर्थ, मुख्यतः, बाहरी वास्तविकता के बारे में ज्ञान की सिद्धी की प्रक्रिया, संकल्पनाओं, निर्णयों और निष्कर्षों की प्रक्रिया है, जिसकी प्रारंभिक अवस्था संवेदनों ( sensations ) तथा संवेद प्रत्यक्षों ( संवेदनों के जरिए हासिल सीधे अनुभवों ) की रचना है, जबकि चेतना का अर्थ है चिंतन की इस प्रक्रिया का परिणाम और पहले से ही रचित संकल्पनाओं, निर्णयों तथा निष्कर्षों को बाह्य जगत पर लागू करना, ताकि उसे समझा और परिवर्तित किया जा सके।
इस तरह, चिंतन और चेतना मन के और मानसिक क्रियाकलाप के उच्चतम स्तर हैं। वे केवल मनुष्य में अंतर्निष्ठ ( inter-engrossed ) हैं। जानवरों में केवल उसके वे आद्य रूप, सरलतम तत्व या वे क्षमताएं होती हैं, जिनसे विकास की एक दीर्घावधि में मानव चिंतन और चेतना का जन्म हुआ।
चिंतन और चेतना सहित मन प्रत्ययिक ( idealistic ) है। यद्यपि वे भौतिक मस्तिष्क और भौतिक बाह्य जगत की अंतर्क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न हुए, तथापि उनमें वे अनुगुण और विशेषताएं नहीं होती जो सारी भौतिक घटनाओं में अंतर्निहित होती हैं। भौतिक घटनाएं किसी प्राणी की मानसिकता या उसमें हुए परिवर्तनों से निरपेक्ष होती है और लगातार सतत रूप से गतिमान हैं। इसके विपरीत मन में होने वाला कोई भी परिवर्तन, भौतिक मस्तिष्क तथा बाहरी भौतिक वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों पर निर्भर होता है।
भूतद्रव्यीय भौतिक जगत के संदर्भ में मन द्वितीयक है, क्योंकि भौतिक जगत उस पर निर्भर नहीं है और प्राथमिक है। मन सारे भूतद्रव्य में अंतर्निहित परावर्तन के अनुगुण के विकास का परिणाम है, परंतु यह सारे भूतद्रव्य द्वारा विकसित नहीं हुआ, बल्कि केवल जैव-पदार्थ के सबसे जटिल रूप- मस्तिष्क के द्वारा हुआ। यह दर्शाता है कि मन अपने भौतिक पात्र के बिना, उसे विकसित करने वाले मस्तिष्क के बिना अस्तित्वमान नहीं हो सकता है।
आधुनिक विज्ञान के तथ्यों पर भरोसा करते हुए, की द्वंद्वात्मक भौतिकवादी धारा यह दावा करती है कि मन द्वितीयक होते हुए भी अपने ही नियमों के अनुसार विकसित होता तथा संक्रिया करता है और उसे यांत्रिक रूप से भौतिक, रासायनिक या जैविक घटनाओं और प्रक्रियाओं में परिणत नहीं किया जा सकता।
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परावर्तन के विकास का साररूपी विवेचन और अवलोकन करने के पश्चात हम इस स्थिति में हैं कि मानव चेतना की विशिष्ट प्रकृति पर चर्चा शुरू की जा सके। अगली बार हम यही करेंगे।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
पिछली बार हमने यथार्थता के सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन में अंतर को समझने की कोशिश की थी। इस बार हम परावर्तन के विकास की अब तक की चर्चा को भी संदर्भित करते हुए मानसिक और दैहिक, प्रत्ययिक और भौतिक संदर्भों में, ‘मन’ की संकल्पना को समझने की कोशिश करेंगे।
चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मानसिक और दैहिक, प्रत्ययिक और भौतिक
तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क भौतिक है। उनमें विभिन्न विविध भौतिक तथा रासायनिक प्रक्रियाएं होती हैं, जैसे उपापचयन, जैव-विद्युत आवेगों का प्रस्फुटन और संचरण, आदि। मस्तिष्क और बाहरी भौतिक जगत की अंतर्क्रिया को ही हम सामान्यतयाः चित् या मन कहते हैं और इसके कार्य को मानसिक क्रिया कहते हैं।
अगर मन की वस्तुगत अवधारणा को थोड़ा समझना चाहे तो इसमें निम्नांकित बाते शामिल होती हैं : ( १ ) वस्तुओं तथा वस्तुगत जगत में विभिन्न प्रक्रियाओं के हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त, यानि दृश्य, संवेदक, प्रकाशिक, श्रव्य, स्पर्शमूलक तथा गंधात्मक बिंब ; ( २ ) लक्ष्यों के चयन तथा उनकी उपलब्धि की क्षमता ( मनुष्य में संकल्प तथा ऐच्छिक व्यवहार इसी क्षमता से विकसित हुए हैं ) जो केवल सोद्देश्य व्यवहार करने वाले उच्चतर जानवरों में ही अंतर्निहित होती हैं ; ( ३ ) भावावेग, अनुभव, अनुभूतियां, जिनके द्वारा जानवर पर्यावरणों के प्रभावों के प्रति सीधे-सीधे अनुक्रिया करते हैं ( मसलन क्रोध, उल्लास, भय, लगाव, आदि ) ; ( ४ ) सूचना, और सर्वोपरी व्यवहार का नियंत्रण करने और पर्यावरण के प्रति अनुकूलित होना संभव बनाने वाले कायदों, मानकों, मापदंड़ों को संचयित तथा उनका विश्लेषण करने की क्षमता ( मनुष्य में चेतना और चिंतन इसी क्षमता से उत्पन्न होते हैं ) ।
यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि मस्तिष्क के क्रियाकलाप का उत्पाद होने के कारण मन को बाहरी वास्तविकता के सरल निष्क्रिय परावर्तन में सीमित नहीं किया जा सकता है। मन बाहरी वास्तविकता की हूबहू, दर्पण-प्रतिबिंब जैसी छवि नहीं होता है। उसमें सूचना ग्रहण तथा उसे रूपातंरित करने की क्षमता और मानसिक बिंबों व क्रियाओं को, सक्रियता से मिलाने और तुलना करने तथा इसके आधार पर मानसिक बिंबों और क्रियाओं का पुनर्गठन करने की क्षमता होती है।
दीर्घ क्रमविकास के फलस्वरूप ये क्षमताएं, मनुष्य के उद्भव के साथ, रचनात्मक कार्य या क्रियाकलाप की विशिष्ट मानवीय क्षमता में तब्दील हो गयीं। परंतु इसके आदि रूपों को उच्चतर जानवरों के मानसिक क्रियाकलापों में देखा जा सकता है।
मानव चेतना की उत्पत्ति के बाद भी, मनुष्य में मानसिक क्रियाकलाप के ऐसे कई स्तर तथा रूप शेष हैं, जिनमें चेतना शामिल नहीं होती और जो सचेत नियंत्रण के अधीन नहीं होते तथा अचेतन मानसिक क्रियाकलाप का क्षेत्र बने रहते हैं। मन की उत्पत्ति तथा कार्यकारिता और मानसिक क्रियाकलाप में चेतन तथा अचेतन के संबंधों का विस्तार से अध्ययन मनोविज्ञान के विषयान्तर्गत किया जाता है।
संकल्पनाएं ‘चेतना’ ( consciousness ) तथा ‘चिंतन’ ( thinking ) अक्सर पर्यायों की भांति इस्तेमाल की जाती हैं। किंतु इनके बीच कुछ अंतर है। चिंतन का अर्थ, मुख्यतः, बाहरी वास्तविकता के बारे में ज्ञान की सिद्धी की प्रक्रिया, संकल्पनाओं, निर्णयों और निष्कर्षों की प्रक्रिया है, जिसकी प्रारंभिक अवस्था संवेदनों ( sensations ) तथा संवेद प्रत्यक्षों ( संवेदनों के जरिए हासिल सीधे अनुभवों ) की रचना है, जबकि चेतना का अर्थ है चिंतन की इस प्रक्रिया का परिणाम और पहले से ही रचित संकल्पनाओं, निर्णयों तथा निष्कर्षों को बाह्य जगत पर लागू करना, ताकि उसे समझा और परिवर्तित किया जा सके।
इस तरह, चिंतन और चेतना मन के और मानसिक क्रियाकलाप के उच्चतम स्तर हैं। वे केवल मनुष्य में अंतर्निष्ठ ( inter-engrossed ) हैं। जानवरों में केवल उसके वे आद्य रूप, सरलतम तत्व या वे क्षमताएं होती हैं, जिनसे विकास की एक दीर्घावधि में मानव चिंतन और चेतना का जन्म हुआ।
चिंतन और चेतना सहित मन प्रत्ययिक ( idealistic ) है। यद्यपि वे भौतिक मस्तिष्क और भौतिक बाह्य जगत की अंतर्क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न हुए, तथापि उनमें वे अनुगुण और विशेषताएं नहीं होती जो सारी भौतिक घटनाओं में अंतर्निहित होती हैं। भौतिक घटनाएं किसी प्राणी की मानसिकता या उसमें हुए परिवर्तनों से निरपेक्ष होती है और लगातार सतत रूप से गतिमान हैं। इसके विपरीत मन में होने वाला कोई भी परिवर्तन, भौतिक मस्तिष्क तथा बाहरी भौतिक वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों पर निर्भर होता है।
भूतद्रव्यीय भौतिक जगत के संदर्भ में मन द्वितीयक है, क्योंकि भौतिक जगत उस पर निर्भर नहीं है और प्राथमिक है। मन सारे भूतद्रव्य में अंतर्निहित परावर्तन के अनुगुण के विकास का परिणाम है, परंतु यह सारे भूतद्रव्य द्वारा विकसित नहीं हुआ, बल्कि केवल जैव-पदार्थ के सबसे जटिल रूप- मस्तिष्क के द्वारा हुआ। यह दर्शाता है कि मन अपने भौतिक पात्र के बिना, उसे विकसित करने वाले मस्तिष्क के बिना अस्तित्वमान नहीं हो सकता है।
आधुनिक विज्ञान के तथ्यों पर भरोसा करते हुए, की द्वंद्वात्मक भौतिकवादी धारा यह दावा करती है कि मन द्वितीयक होते हुए भी अपने ही नियमों के अनुसार विकसित होता तथा संक्रिया करता है और उसे यांत्रिक रूप से भौतिक, रासायनिक या जैविक घटनाओं और प्रक्रियाओं में परिणत नहीं किया जा सकता।
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परावर्तन के विकास का साररूपी विवेचन और अवलोकन करने के पश्चात हम इस स्थिति में हैं कि मानव चेतना की विशिष्ट प्रकृति पर चर्चा शुरू की जा सके। अगली बार हम यही करेंगे।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
7 टिप्पणियां:
अच्छी व्याख्या.
व्याख्यापूर्ण!
आदि रूपों को उच्चतर जानवरों के मानसिक क्रियाकलापों
यानि जानवरों की शृंखला की आखिरी कड़ी मनुष्य में एकाएक एक नई क्षमता विकसित हुई जो उसे सर्वश्रेष्ठ बनाती है....
पता नहीं कहीं कुछ गड़बड़ है.... क्या है मैं समझ नहीं पा रहा हूं
लेकिन आपका प्रस्तुतिकरण गजब का है...
जारी रखिएगा
हम यानि आपके चाहने वाले पाठक पढ़ रहे हैं... :)
भाई सिद्धार्थ,
एकाएक नहीं...दीर्घ क्रमविकास के फलस्वरूप।
बाकी आपकी कोशिशें चल ही रही हैं। शुक्रिया।
Aaj man kuchh uddvigna hai, aapka lekh padh nahi saka.
बहुत अहंकार-पूर्ण लेखन है आपका,कोई प्रवाह एकतरफ़ा नहीं रह सकता लंबे समय तक..
chintan kisi bhi karya ka subh pahalu he chintan bhotikata ko dekh kar hi kiya jata he . man chintan ke liye chetana utpan karata he ye teeno cheeje bhotikata par adharit he n ap bhoticata dekhate na apkoi chintan karate yadi ap chintan n karate to man se chetana utpann hi nahi hoti
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