शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

मनुष्य और पशुओं के मानस में भेद

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने मानसिक कार्यकलाप के भौतिक अंगरूप में, मस्तिष्क को समझने की कोशिश की थी। जैसा कि पिछली प्रविष्टियों में बार-बार मानव व्यवहार का पशुओं के साथ तुलनात्मक उल्लेख होता रहा है, यह समीचीन और रोचक रहेगा कि हम मनुष्य और पशुओं के बीच विभाजक रेखा को, उनके मानस के तात्विक अंतरों को देख लें और समझ का हिस्सा बनाने की कोशिश कर लें। यह मानव चेतना के आधार के रूप में श्रम पर चर्चा शुरू करने से पहले, प्रासंगिक भी रहेगा।

चलिए चर्चा को आगे बढाते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मनुष्य और पशुओं के मानस में भेद

इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य के मन और पशुओं के मानस में बहुत बड़ा अंतर है।

बहुसंख्य प्रयोगों ने दिखाया है के उच्चतर पशुओं का चिंतन पूर्णतः व्यवहारिक होता है। सभी जीव-जंतु केवल एक निश्चित, प्रत्यक्षतः अनुभूत स्थिति के दायरे में ही कार्य कर सकते हैं, वे इसकी सीमाओं को लांघने और इसकी विशिष्टताओं को अनदेखा करके, मात्र सामान्य मूलतत्व पर ध्यान देने तथा उसे ह्रदयंगम करने में असमर्थ हैं। हर पशु अपने सामने मौजूद स्थिति का दास होता है।

इसके विपरीत मानव व्यवहार की विशेषता यह है कि मनुष्य में अपने सामने मौजूद स्थिति से निरपेक्ष ( अनासक्त ) होने और उस स्थिति के कारण जो परिणाम पैदा हो सकते हैं, उनका पूर्वानुमान करने की क्षमता है। इसी कारण जहाज़ी, जहाज़ के पेटे में हुए मामूली छेद की तुरंत मरम्मत करने लगते हैं, और पायलट अपने विमान में थोड़ा ही ईंधन रह जाने पर निकटतम हवाई अड्डे की खोज करने लगता है। मनुष्य अपने सामने मौजूद स्थिति के दास नहीं होते और वे भविष्य का पूर्वानुमान भी कर सकते हैं।

इस प्रकार अगर पशुओं का ठोस, व्यवहारिक चिंतन उन्हें अपने सामने मौजूद स्थिति के प्रत्यक्ष प्रभाव की दया पर छोड़ता है, तो मनुष्य की अमूर्त चिंतन की क्षमता उसे अपने सामने मौजूद स्थिति से अपेक्षाकृत स्वतंत्र बनाती है। मनुष्य परिवेश के तात्कालिक प्रभावों का ही नहीं, उनके भावी परिणामों का भी परावर्तन कर सकता है। मनुष्य सचेतन ढ़ंग से, आवश्यकता के अपने ज्ञान के अनुसार कार्य कर सकता है। अन्य जीवधारियों के मानस से मनुष्य के मन का पहला मुख्य भेद यही है।

मनुष्य और पशु के बीच दूसरा भेद यह है कि मनुष्य में औज़ार बनाने और सुरक्षित रखने की योग्यता होती है। पशु किसी निश्चित, यथार्थतः अनुभूत स्थिति में अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं के लिए ही चीज़ों का औज़ारों के रूप में प्रयोग करते हैं। उस ठोस स्थिति के बाहर वह औज़ार को ना तो पहचानता हैं ना उसे भावी उपयोग के लिए संभालकर ही रखता है। ज्यों ही औज़ार का काम पूरा हो जाता है, उसका औज़ार के रूप में अस्तित्व तुरंत खत्म हो जाता है। उदाहरण के लिए, वानर ने जिस डंडे को अभी-अभी वृक्ष से फल तोडने के लिए इस्तेमाल किया था, उसके कुछेक मिनट बाद ही वह उसके टुकड़े-टुकड़े कर सकता है अथवा किसी दूसरे वानर को यह करते देख सकता है। जीव-जंतु स्थायी वस्तुओं की दुनिया में नहीं रहते।

इसके अतिरिक्त, प्राणियों की औज़ार-निर्माण तथा उपयोग से संबंधित सक्रियता का स्वरूप कभी सामूहिक नहीं होता। वानर अपने साथी वानर के कार्य को अधिक से अधिक देख ही सकता है। वह उसमें कभी हाथ नहीं बंटायेगा या उसके साथ मिलकर कार्य नहीं करेगा। किंतु इसके विपरीत मनुष्य पूर्वनिर्मित योजना के अनुसार औज़ार बनाता है, वांछित उद्देश्य को पाने के लिए उसे इस्तेमाल करता है और समान भावी परिस्थितियों के लिए उसे संभालकर रखता है। मानव अपेक्षाकृत स्थाई वस्तुओं की दुनिया में रहता है। वह औज़ार को अन्य लोगों के साथ मिलकर भी इस्तेमाल करता है और कुछ से उसके उपयोग का अनुभव सीखता है तथा कुछ को उसे सिखाता है।

मनुष्य के मानस की तीसरी विभेदक विशेषता उसकी सामाजिक अनुभव को आत्मसात् करने की योग्यता है। सामजिक अनुभव व्यक्ति के व्यवहार का निर्धारक तत्व है और मनुष्य के मन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। बच्चा जन्म के समय से ही सामाजिक संपर्क के व्यवहारों, उपकरणों तथा तकनीक के उपयोग की प्रणालियां सीखना शुरू कर देता है। मानवजाति की सांस्कृतिक प्रगति के आत्मसातिकरण की प्रक्रिया के दौरान उसकी मानसिक क्रियाओं में गुणात्मक परिवर्तन आता है। वह अपने से ऐच्छिक स्मृति, ऐच्छिक ध्यान और अमूर्त चिंतन जैसी सर्वोच्च मानवीय विशेषताएं विकसित करता है।

अमूर्त चिंतन के विकास की भांति ज्ञानेन्द्रियों का विकास भी यथार्थ के अधिक पर्याप्त परावर्तन का एक तरीका है। अतः मनुष्य और पशुओं के बीच चौथा बुनियादी भेद उनकी ज्ञानेन्द्रियों में भेद से संबंध रखता है। बेशक, मनुष्य और पशु दोनों ही अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं से उदासीन नहीं रहते हैं। परिवेशी विश्व की परिघटनाएं और वस्तुएं उनमें बाह्य प्रभावों के प्रति कुछ ख़ास प्रकार के रवैये, सकारात्मक और नकारात्मक संवेग जगा सकती है। फिर भी केवल मनुष्य में दूसरे के दुख या हर्ष में सहभागी होने की विकसित क्षमता है और केवल मनुष्य ही प्रकृति के सौंदर्य का आनंद उठा सकता है अथवा संज्ञान की प्रक्रिया में बौद्धिक संतोष की भावना अनुभव कर सकता है।

मनुष्यों और पशुओं के मानस में जो भेद हैं, उसकी जड़ उनके विकास की परिस्थितियों में हैं। यदि पशुजगत में मानस की प्रगति जैव उदविकास के नियमों पर आधारित थी, तो मनुष्य मन, मानव चेतना का विकास सामाजिक-ऐतिहासिक विकास के नियमों से निर्देशित होता है। मानव समाज के अनुभव को आत्मसात् किये बिना, अन्य मनुष्यों के संपर्क में आए बिना कोई भी व्यक्ति अपने में परिपक्व मानवीय भावनाओं, ऐच्छिक ध्यान, स्मृति तथा अमूर्त चिंतन का विकास नहीं कर सकता और सच्चे अर्थों में व्यक्ति नहीं बन सकता। जंगली जानवरों के बीच पले तथा बड़े हुए मानव शिशुओं की सच्ची कहानिया इसका प्रमाण हैं। बंदर का बच्चा दुर्भाग्यवश अपने झुंड़ से बिछड़ जाने पर भी बंदर जैसे ही व्यवहार करेगा, मगर मनुष्य का बच्चा मनुष्य तभी बनेगा, जब वह लोगों के बीच पलेगा तथा बड़ा होगा

मनुष्य के मानस की उत्पत्ति जैव पदार्थ के लंबे उदविकास का परिणाम थी। मन के विकास के वैज्ञानिक विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चेतना की उत्पत्ति के लिए कुछ जैव पूर्वापेक्षाएं थी। मनुष्य के पुरखे में निश्चय ही वस्तुमूलक सक्रिय चिंतन की योग्यता थी और वह बहुत से साहचर्य भी बना सकता था। हाथों जैसे अग्र अंगों वाले मानवपूर्व प्राणी निश्चित परिस्थितियों में साधारण औज़ार बना और इस्तेमाल कर सकते थे। यह सब हमें आज पाये जाने वाले मानवाभ वानरों में भी मिलता है।

किंतु मन, चेतना को सीधे पशुओं के उदविकास का परिणाम मानना गलत होगा : मनुष्य सामाजिक संबंधों का उत्पाद है। सामाजिक संबंधों की जैव पूर्वापेक्षा यूथ या झुंड़ था। मनुष्य के पूर्वज यूथ बनाकर रहते थे, जिससे परस्पर सहायता और बहुसंख्य शत्रुओं से रक्षा के लिए अनुकूलतम परिस्थितियां पैदा होती थीं।

वानर के नर बनने में, यूथ के समाज में परिवर्तित होने में निर्णायक भूमिका श्रम ने, यानि औज़ारों के संयुक्त निर्मा्ण तथा उपयोग पर आधारित सक्रियता ने अदा की।

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अगली बार हम मानव चेतना के आधार के रूप में इसी श्रम पर थोड़ा और विस्तार से चर्चा करेंगे।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

7 टिप्पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

मनुष्य में अधिगम (सीखने ) की बड़ी भूमिका है -आपके दृष्टिकोण को समझ रहा हूँ -आगे की कड़ी का इंतज़ार है !

L.Goswami ने कहा…

अच्छी व्याख्या...आगे की कड़ी का इंतज़ार है.

निर्झर'नीर ने कहा…

मनुष्य और पशु में जो भेद है ..वो है मनुष्य की सृजनशीलता

आपका लेख ज्ञानवर्धक है

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

'केवल मनुष्य ही प्रकृति के सौंदर्य का आनंद उठा सकता है' ---इस पर संदेह होता है। यहाँ प्रकृति के सौंदर्य से आपका अभिप्राय क्या है? कहा जाता है कि संगीत सुनकर पशु खिंचा जाता है। तो क्या संगीत यानि मधुर ध्वनियों का एक क्रमिक समूह प्रकृति के सौंदर्य के अन्दर नहीं? जिज्ञासा है, बताने पर मेल से बता देंगे तो यहाँ आकर सब देखना सम्भव हो पाएगा।

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

शायद प्रकृति से आपका अभिप्राय है मात्र पशु-पक्षी-पेड़-पौधे-पर्वत-नदियाँ-सागर आदि।

Unknown ने कहा…

@ चंदन जी,

प्रकृति निरपेक्ष है, बस है। उसमें सौन्दर्य की सापेक्षता ( relativity ), अवधारणा मनुष्य ही अपनी चेतना के क्रियाकलापों के ज़रिए भरता है, और उसमें आनंद पाता है।

पशुओं का प्रकृति से संबंध सिर्फ़ सहजवृत्तिक और जीवनीय उपयोगिता मात्र का है। सौन्दर्य और आनंद की अवधारणाओं के सापेक्ष मनुष्य ही उसे देखता है।

यहां उपरोक्त बात प्रकृति के सापेक्ष नहीं, बल्कि उसमें सौन्दर्य की अवधारणा और उससे आनंद प्राप्त करने के संदर्भ में कही गई है, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ मनुष्यों के लिए संभव और सार्थक है।

संगीत की ध्वनी पशुओं में जिज्ञासा जगा सकती है, किन्हीं सहजवृत्तिक प्रतिवर्तों को जगा सकती है, परंतु उसमें किन्हीं मनुष्यगत संवेगों से जोड़ना निरर्थक है।

शुक्रिया।

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

शायद कुछ कुछ समझ पाया। 'प्रकृति निरपेक्ष है, बस है। ' --यह वाक्य तो वाकई दमदार है! लेकिन क्या छोटे शिशु में में पशुवत् जिज्ञासा ही होती है इन ध्वनियों को लेकर? उन्हें इसका आनन्द नहीं आता? शायद सही है कि वे मात्र ध्वनि के प्रति आश्चर्य और जिज्ञासा रखते हैं। आपने दिशा-निर्देश दिया, इसके लिए शुक्रगुज़ार हूँ।

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