शुक्रवार, 18 जून 2010

मनोविज्ञान संबंधी धारणाएं - इतिहास के झरोखे से - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में दिये जाने की योजना है। पिछली बार यहां मनोविज्ञान और उसके कार्यक्षेत्रों के संबंध में चर्चा की गई थी। इस बार हम यहां मन के संदर्भ में पैदा हुई धारणाओं के विकास का संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत करेंगे और देखेंगे मानवजाति इस विषय में कैसे समृद्ध होती गई है।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
०००००००००००००००००००००००००००

( यह देखना दिलचस्प ही नहीं वरन आवश्यक भी होगा कि मानसिक परिघटनाओं के सार तथा स्वरूप से संबंधित धारणाएं समय के साथ कैसे बदलती गईं है, परिष्कृत होती गई हैं। इनको ऐतिहासिकता और क्रम-विकास के रूप में देखना हमें विश्लेषण और चुनाव में परिपक्व बनाता है, और प्रदत्त परिप्रेक्ष्यों में हम ख़ुद अपना एक दॄष्टिकोण निश्चित करने में सक्षम बनते हैं। इतिहास के अवलोकन से हम अपनी धारणाओं को तदअनुसार जांच सकते हैं, उन्हें समय के सापेक्ष देख सकते हैं, और उन्हें आगे के विकास के बरअक्स रखकर बदलने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। चलिए इन्हीं निहितार्थ हम मनोविज्ञान संबंधी धारणाओं पर एक संक्षिप्त ऐतिहासिक अवलोकन करते हैं  )

मनोविज्ञान संबंधी धारणाएं - इतिहास के झरोखे से
प्राचीन काल से ही सामाजिक जीवन की वास्तविकताएं मनुष्य के लिए अपने आसपास के लोगों की मानसिक विशेषताओं के बीच भेद करना और अपने कार्यों में उन्हें ध्यान में रखना आवश्यक बनाती आई हैं। आरंभ में इन विशेषताओं को आत्मा से जोड़ कर देखा जाता था। ‘आत्मा’ की अवधारणा आदिम लोगों के जीववादी विश्वासों की उपज थी। आदिम मनुष्य आत्मा और शरीर में स्पष्ट भेद नहीं कर पाता था। आगे चलकर समाज के विकास के साथ मनु्ष्य में अमूर्त चिंतन का विकास हुआ, और आत्मा की अभौतिक प्रकृति का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने पहले से विद्यमान धारणाओं को अपना प्रस्थानबिंदु बनाया और नई वैचारिक अपेक्षाओं के अनुरूप उनकी पुनर्व्याख्याएं की।

भारत में इस नई प्रवृत्ति की एक ज्वलंत मिसाल दूसरी सहस्त्राब्दी ईसापूर्व में रची गयी वैदिक संहिताएं और उनके कुछ समय बाद ( १००० ईसापूर्व के आसपास ) रची गयी दार्शनिक कृतियां उपनिषदें हैं। आत्मा के प्रश्न का विवेचन मुख्यतः नैतिक दृष्टिकोण से सम्यक् व्यवहार, आत्मोन्नति और परमानंद-प्राप्ति के संदर्भ में किया गया। योग दर्शन के अनुसार स्वतंत्र आत्मा भौतिक शरीर और तथाकथित सूक्ष्म शरीर ( इंद्रियां, मन, आनुभविक ‘अहं’ और बुद्धि ) से जुडी़ हुई है। इसके साथ ही पूर्ववर्ति जीववादी, पौराणिक धारणाओं के स्थान पर आत्मा को प्रकॄति-दर्शन के दृष्टिकोण से परिभाषित करने लगे।
 आयोनिया के दार्शनिकों थेलीज़ ( सातवीं-छठी शताब्दी ईसा पूर्व ), अनेक्सिमेनीज़ और हीरेक्लाइटस ( पांचवी-छठी शताब्दी ईसा पूर्व) ने मनुष्यों और प्राणियों की आत्मा को उस आदितत्व ( जल, वायु, अग्नि ) का जीवनदायी रूप कहा, जिससे विश्व की सभी चीज़ें बनी हैं। इस विचार को सुसंगत ढ़ंग से लागू करते हुए वे पदार्थ ( भूत ) की सार्विक प्राणवत्ता के सिद्धांत भूतजीववाद पर पहुंचे, जो भौतिकवाद का एक विशिष्ट रूप था। इसी परंपरा को आगे जारी रखते हुए प्राचीन अणुवादी डेमोक्राइटस ( पांचवीं-चौथी शताब्दी ईसा पूर्व ), एपीक्यूरस ( चौथी-तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व ) और ल्यूक्रेटियस ( पहली शताब्दी ईसा पूर्व ) ने आत्मा की व्याख्या शरीर में प्राण का संचार करने वाले एक भौतिक अंग के रूप में की, जिसका नियंत्रण चित् अथवा बुद्धि करती है। चूंकि चित् और आत्मा, दोनों ही शरीर के अंग हैं, तो वे स्वयं भी देहयुक्त हैं और गोल, सूक्ष्म गतिशील अणुओं से बने हुए हैं। काफ़ी बचकाना होने पर भी यह सिद्धांत अपने इस दावे के कारण एक प्रगतिशील सिद्धांत था कि जीवधारियों के सभी गुण, निम्नतम शारीरिक प्रकार्यों से लेकर मन तक, बुद्धि तक, स्वयं पदार्थ के ही गुण हैं

इस प्रकार मानसिक क्रियाकलाप के वैज्ञानिक संज्ञान के क्षेत्र में उठाये गये पहले बड़े कदम इनके भौतिक विश्व के नियमों के अधीन होने की मान्यता और जीवधारी की शरीररचना तथा शरीरक्रिया पर निर्भर होने की खोज से अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे। किंतु उस युग तक की उपलब्ध जानकारी इस गुत्थी को नहीं सुलझा सकती थी कि मनुष्य की अंतर्जात अमूर्त तार्किक चिंतन क्षमता, उसके नैतिक गुणों, उसकी चुनाव करने की क्षमता, शरीर को अपनी इच्छा के अधीन बनाने की क्षमता के स्रोत क्या हैं?

मानव व्यवहार की इन विशेषताओं को अणुओं की गति, ‘रसों ’ के सम्मिश्रण अथवा मस्तिष्क की दृश्य संरचना से व्युत्पन्न नहीं बताया जा सकता था। अतः समुचित जानकारी के अभाव ने मानस के बारे में दासप्रथात्मक समाज के विचारपोषक दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित प्रत्ययवादी ( idealistic ) विचारों के विकास के लिए आधार तैयार किया। इनमें सर्वप्रमुख प्लेटो ( ४२८-३४७ ईसापूर्व ) मनोविज्ञान के क्षेत्र में द्वैतवाद के प्रवर्तक थे। उन्होंने प्रतिपादित किया कि भौतिक और आत्मिक, शरीर और मन दो स्वतंत्र और परस्पर-विरोधी मूलतत्व हैं। किंतु उनके शिष्य अरस्तु ( ३८४-३२२ ईसापूर्व ) ने इस द्वैतवाद को काफ़ी हद तक त्याग दिया और मनोवैज्ञानिक चिंतन को पुनः प्रकृतिवैज्ञानिक आधार, जीवविज्ञान तथा आयुर्विज्ञान का आधार प्रदान किया। अरस्तु की रचना ‘आत्मा के बारे में’ दिखाती है कि मनोविज्ञान तब तक एक स्वतंत्र विज्ञान-शाखा का दर्जा हासिल कर चुका था, और उसकी उपल्ब्धियां मनुष्यों और पशुओं में जीवन की ठोस अभिव्यक्तियों के प्रेक्षण, वर्णन तथा विश्लेषण पर आधारित थीं। अरस्तु मानसिक क्रियाकलाप के अध्ययन की प्रयोगात्मक, वस्तुमूलक प्रणाली के पक्षधर थे।
जहां पहले यह माना जाता था कि शरीर और आत्मा का एक दूसरे से स्वतंत्र अस्तित्व हो सकता है, वहीं इतिहास में अरस्तु पहले विचारक थे, जिन्होंने आत्मा और जीवित शरीर की अविभाज्यता का विचार प्रतिपादित किया। उन्होंने यह विचार भी दिया कि संज्ञान-क्षमता की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति संवेदन हैं, उन्होंने इसे वस्तुओं के रूप को उनके पदार्थ के बिना ग्रहण करने की क्षमता बताया। संवेदन धारणाओं के रूप में अपनी छाप छोड़ जाते हैं। अरस्तु ने दिखाया कि धारणाएं, ज्ञानेन्द्रियों के कार्य का विषय बनी वस्तुओं की याद के बिंब के रूप में विद्यमान रह सकती हैं। उन्होंने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि स्वभाव अथवा चरित्र का निर्माण व्यावहारिक कार्यकलाप के दौरान ही होता है। मनुष्य सदाचारी और संयमी तभी बन सकता है, जब वह व्यवहार में सदाचार और संयम का नियमित पालन करे।

हीरेक्लाइटस, डेमोक्राइटस, प्लेटो और अरस्तु की शिक्षाओं ने मनोवैज्ञानिक चिंतन के आगामी विकास की नींव रखी। शनैः शनैः आत्मा की संकल्पना को, जिसे हम आज मानस अथवा मन कहते हैं, तक ही सीमित कर दिया गया। फिर जब मन की संकल्पना की भी और अधिक गहराई में पैठा गया, तो उससे चेतना की संकल्पना पैदा हुई। मनुष्य ने महसूस किया कि उसकी धारणाएं, प्रत्यक्ष और विचार ही नहीं हो सकते, बल्कि वह उनका जन्मदाता भी हो सकता है, कि स्वैच्छिक क्रियाएं करना ही नहीं, उनके लिए आधार पैदा करना भी उसकी सामर्थ्य के भीतर है।
तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में हेरोफ़ाइलस और एरासिस्ट्रेटस ने तंत्रिकाओं की खोज की और स्नायुओं तथा कंडराओं से उनका भेद दर्शाया। उन्होंने मानसिक क्रियाओं की प्रमस्तिष्क के क्षोभ पर निर्भरता का अध्ययन किया और पाया कि मन से सारा शरीर नहीं, अपितु उसके कुछ निश्चित अंग ( तंत्रिकाएं और प्रमस्तिष्क ) ही अभिन्नतः जुड़े हुए हैं। इस तरह सिद्ध हुआ कि जो आत्मा जीवन की किसी भी अभिव्यक्ति का मूलाधार मानी जाती है, और जो आत्मा तंत्रिकाओं से संबद्ध संवेदनों एवं गतियों का मूलाधार है, वे एक दूसरी से सर्वथा भिन्न चीज़ें हैं। दूसरी शताब्दी ईसापूर्व में रोमन चिकित्सक गालेन ने मानसिक परिघटना के शरीरक्रियात्मक आधार से संबंधित ज्ञान का विस्तार किया और चेतना की धारणा के निकट पहुंचे। परंतु फिर पहले प्लोटिनस ( तीसरी शताब्दी ईस्वी ) और फिर आगस्टिन ( चौथी-पांचवी शताब्दी ईस्वी ) ने चेतना की अवधारणा को फिर से शुद्धतः प्रत्ययवादी रूप दे दिया। उन्होंने कहा कि सारा ज्ञान आत्मा में अवस्थित होता है, जो अपने भीतर झांकने और अत्यंत स्पष्टता तथा प्रामाणिकता के साथ अपने क्रियाकलाप एवं उसके अदृश्य फलों का संज्ञान करने की क्षमता रखती है। आत्मा का यह आत्मज्ञान ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त अनुभव से सर्वथा भिन्न आंतरिक अनुभव है।

समाज पर छायी हुई धार्मिक विचारधारा ने यथार्थ विश्व के ज्ञान के प्रति द्वेषपूर्ण रवैये को जन्म  दिया और आत्मध्यान तथा ईश्वर से पुनर्मिलन की आवश्यकता पर जोर दिया। आनुभविक ज्ञान से संबंध न रह जाने के कारण मनोविज्ञान का विकास अवरुद्ध हो गया। उसके पुनः शुरू होने के लिए नई सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियां जरूरी थी।
००००००००००००००००००००००००००००००००

इसके बाद के नये अवतरण को अगली बार प्रस्तुत करेंगे।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

इस बार इतना ही।

समय

4 टिप्पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

श्रंखला का आरंभ बहुत सुंदर और रुचिकर है, मुझे विश्वास है कि इस से हम पाठकों को बहुत कुछ नया जानने और सीखने को मिलेगा।

L.Goswami ने कहा…

मनोविज्ञान का अतीत लम्बा है पर इतिहास छोटा ...

शेरघाटी ने कहा…

साथियो, आभार !!
आप अब लोक के स्वर हमज़बान[http://hamzabaan.feedcluster.com/] के /की सदस्य हो चुके/चुकी हैं.आप अपने ब्लॉग में इसका लिंक जोड़ कर सहयोग करें और ताज़े पोस्ट की झलक भी पायें.आप एम्बेड इन माय साईट आप्शन में जाकर ऐसा कर सकते/सकती हैं.हमें ख़ुशी होगी.

स्नेहिल
आपका
शहरोज़

बेनामी ने कहा…

इस गूढ ज्ञान को हम तक पहुंचाने का आभार।
---------
क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।

एक टिप्पणी भेजें

अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।

Related Posts with Thumbnails