हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में दिये जाने की योजना है। पिछली बार यहां मन के संदर्भ में पैदा हुई धारणाओं के विकास का संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण का पहला हिस्सा प्रस्तुत किया गया था। इस बार उसी कड़ी को आगे बढ़ाएंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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( यह देखना दिलचस्प ही नहीं वरन आवश्यक भी होगा कि मानसिक परिघटनाओं के सार तथा स्वरूप से संबंधित धारणाएं समय के साथ कैसे बदलती गईं है, परिष्कृत होती गई हैं। इनको ऐतिहासिकता और क्रम-विकास के रूप में देखना हमें विश्लेषण और चुनाव में परिपक्व बनाता है, और प्रदत्त परिप्रेक्ष्यों में हम ख़ुद अपना एक दॄष्टिकोण निश्चित करने में सक्षम बनते हैं। इतिहास के अवलोकन से हम अपनी धारणाओं को तदअनुसार जांच सकते हैं, उन्हें समय के सापेक्ष देख सकते हैं, और उन्हें आगे के विकास के बरअक्स रखकर बदलने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। चलिए इन्हीं निहितार्थ हम मनोविज्ञान संबंधी धारणाओं पर एक संक्षिप्त ऐतिहासिक अवलोकन करते हैं। )
मनोविज्ञान संबंधी धारणाएं - इतिहास के झरोखे से
( दूसरा हिस्सा, पहला यहां देखें )
पिछली बार हमने बात यहां छोड़ी थी कि आनुभविक ज्ञान से संबंध न रह जाने के कारण मनोविज्ञान का विकास अवरुद्ध हो गया था और उसके पुनः शुरू होने के लिए नई सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियां जरूरी थी। आगे बढ़ते हैं कि फिर काफ़ी लंबे अंतराल के बाद उत्पादक शक्तियों और सामाजिक संबंधों के विकास ने ये परिस्थितियां मुहैया की। पहले नीदरलैंड और फिर ग्रेट ब्रिटेन में शुरू हुए भारी उलटफेरों ने, समाज की आवश्यकताओं ने, सोचने के तरीके को बुनियादी तौर पर बदल डाला, जिसके लिए अब प्रकृति और मनुष्य का आनुवभिक अध्ययन एवं यंत्रवादी व्याख्या निदेशनकारी सिद्धांत बन गये।
१७वीं शताब्दी में जीववैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक ज्ञान के विकास में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। शरीर और आत्मा, दोनों से संबंधित अवधारणाओं में बुनियादी परिवर्तन आया। शरीर की एक मशीन के रूप में कल्पना की गई जिसके की संचालन के लिए किसी आत्मा की आवश्यकता नहीं होती। देकार्त ( १५९६-१६५० ) द्वारा की गई व्यवहार के परावर्ती स्वरूप की खोज से इस विचार को बड़ा बल मिला। इस महान फ़्रांसीसी विचारक का कहना था कि, जैसे ह्र्द्पेशी का नियंत्रण रक्त-संचार के आंतरिक तंत्र द्वारा होता है, वैसे ही व्यवहार के सभी स्तरों पर अन्य सभी पेशियों का परिचालन उनके अपने क्रियांतंत्र द्वारा होता है और वे घड़ी की सूइयों की भांति गतिशील रहती हैं। इस प्रकार प्रतिवर्त ( अवयवी की बाह्य उद्दीपन से संबंधित नियमित प्रतिक्रिया ) की संकल्पना उत्पन्न हुई। देकार्त का कहना था कि तंत्रिका प्रणाली के विशिष्ट संगठन के कारण पेशियां बाह्य क्षोभकों के मामलों में स्वतः, आत्मा के हस्तक्षेप के बिना, प्रतिक्रिया करने में समर्थ हैं। किंतु अपनी परावर्तनमूलक पद्धति को वह सारी ही मानसिक सक्रियता पर लागू न कर सके, अतः उनके सिद्धांत में प्रतिवर्त के साथ-साथ शरीर से स्वतंत्र एक पृथक सत्व के रूप में आत्मा को भी स्वीकार कर लिया गया था।
१७वीं शती के अन्य महान विचारकों ने देकार्त के द्वैतवाद को अमान्य ठहराया, कुछ ने भौतिकवादी ( materialistic ) दृष्टिकोण से और कुछ ने प्रत्ययवादी ( idealistic ) दृष्टिकोण से। हॉब्स ( १५८८-१६७९ ) ने आत्मा के अस्तित्व को पूरी तरह ठुकराते हुए यांत्रिक गति को एकमात्र वास्तविकता घोषित किया, जिसके नियम मनोविज्ञान के भी नियम बन गये। इतिहास में पहली बार मनोविज्ञान को आत्मा के विज्ञान की बजाए केवल उन मानसिक परिघटनाओं का विज्ञान माना गया, जो शारीरिक प्रक्रियाओं की छायाओं के रूप में पैदा होती हैं। किंतु यहां मन की वास्तविकता को बिल्कुल नकारकर तथा उसे आभासी मात्र बताकर छुटकारा पाया गया था। हाब्स की भांति ही स्पिनोज़ा ( १६३२-१६७७) भी ( और प्रतिवर्त सिद्धांत के देकार्त की भांति भी ) वैज्ञानिक मनोविज्ञान के एक बुनियादी सिद्धांत, नियतत्ववाद ( determinism ) के समर्थक के तौर पर सामने आते हैं, जिसके अनुसार सभी परिघटनाएं भौतिक कारणों एवं नियमों की क्रिया का फल होती हैं।
यांत्रिकी, प्रकाशिकी और ज्यामिति की उपलब्धियों ने मनोवैज्ञानिक चिंतन को प्रबल प्रेरणा दी। गणित का और विशेषतः समाकलन व अवकलन गणित का लाइबनिट्ज़ ( १६४६-१७१६ ) के विचारों पर ज़बर्दस्त प्रभाव पड़ा। उन्होंने इतिहास में पहली बार अचेतन मन की संकल्पना प्रस्तुत की। उनके मतानुसार मानसिक परिघटनाओं की बहुलता एक समाकल है, न कि एक गणितीय राशि। प्रत्ययवादी होने के कारण लाइबनिट्ज़ मानते थे कि विश्व असंख्य आत्माओं अथवा मोनेडों ( अविभाज्य अणुओं ) से बना है। किंतु उन्होंने मनोविज्ञान को बहुत से नये विचारों और संकल्पनाओं से समृद्ध किया, जिनमें सबसे मुख्य और सबसे महत्वपूर्ण मन की सक्रिय प्रकृति एवं अनवरत विकास का विचार और चेतन एवं अचेतन के बीच जटिल संबंध होने का विचार हैं।
१७वीं शती के विज्ञान और जीवन में तर्कबुद्धिवाद का बोलबाला था, जो तर्कबुद्धि को वास्तविक ज्ञान का एकमात्र उपकरण घोषित करता है। १८वीं शती में विकसित देशों में आए गहन आर्थिक परिवर्तनों, औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक ज्ञान के व्यावहारिक अनुप्रयोग की बदौलत अनुभववाद और संवेदनवाद को प्रमुखता प्राप्त हुई, जो शुद्ध बुद्धि की तुलना में अनुभव और इंद्रियजन्य ज्ञान को अधिक महत्त्व देते हैं और किसी भी तरह के जन्मजात विचारों के अस्तित्व को नहीं मानते। इस सिद्धांत के सबसे अटल प्रतिपादक जॉन लॉक ( १६३२-१७०४ ) थे, जिन्हें आनुभविक मनोविज्ञान का जनक माना जाता है। समस्त ज्ञान का स्रोत अनुभव है, यह अवधारणा मनोविज्ञान के लिए बुनियादी महत्त्व की थी, क्योंकि वह ठोस मानसिक परिघटनाओं के अध्ययन पर, सामान्य परिघटनाओं से जटिल परिघटनाओं में संक्रमण के तरीकों के अध्ययन पर बल देती थी।
लॉक के अनुसार अनुभव के दो स्रोत हैं, इंद्रियों की क्रिया ( बाह्य अनुभव ) और अपने कार्य को प्रतिबिंबित करनेवाले मन की आंतरिक क्रिया ( आंतरिक अनुभव )। मनुष्य विचारों के साथ नहीं पैदा होता। जन्म के समय उसकी आत्मा कोरी तख्ती जैसी होती है, जिस पर अनुभव तरह-तरह के विचार लिखता है। अनुभव सामान्य और जटिल विचारों से बनता है, जिनका स्रोत संवेदन या अनुचिंतन ( आंतरिक प्रत्यक्ष ) होता है। अनुचिंतन के मामले में मन अपने में बंद रहता है और अपनी ही क्रियाओं के बारे में सोचता है। लॉक की अनुचिंतन की अवधारणा इस मान्यता पर आधारित थी कि मनुष्य का मनोवैज्ञानिक तथ्यों का संज्ञान बुनियादी तौर पर अंतर्निरीक्षणात्मक होता है, जो कि भौतिक तथ्यों के बारे में नहीं कहा जा सकता। इस तरह फिर द्वैतवाद का प्रतिपादन किया गया। इसमें चेतना और बाह्य जगत को इस आधार पर एक दूसरे के मुकाबले में रखा गया कि उनके संज्ञान के तरीके आपस में बिल्कुल भिन्न हैं।
अपने इसी द्वैतवादी स्वरूप के कारण लॉक के मत ने भौतिकवादी और प्रत्ययवादी, दोनों ही दृष्टिकोणों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। भौतिकवादियों ने, जिनमें प्रमुख हार्टले ( १७०५-१७५७ ), दिदेरो ( १७१३- १७८४ ) और रदीश्चेव ( १७४९-१८०२ ) थे, बाह्य अनुभव को आधार बना कर मनुष्य के आंतरिक सारतत्व को परिवेश से उसके संबंध का परिणाम बताया। इसके विपरीत प्रत्ययवादियों ने, जिनमें प्रमुख बर्कले थे, इस सारतत्व को प्राथमिक और किसी भी तरह के बाह्य प्रभाव से स्वतंत्र घोषित किया। लॉक के बाद इस मत ने गहरी जड़ें जमा लीं कि विचारों का साहचर्य ही मनोविज्ञान का मुख्य नियम है। यह साहचर्यवाद मनोवैज्ञानिक चिंतन में मुख्य प्रवृति बन गया और इस प्रवृत्ति के भीतर ही भौतिकवाद और प्रत्ययवाद के बीच संघर्ष, मन की संकल्पना को लेकर चला और दोनों ने ही मानसिक परिघटनाओं की प्रकृति की व्याख्या अपने-अपने ढ़ंग से की।
साहचर्यात्मक मनोविज्ञान को एक ऐसा सिद्धांत माना गया, जो तंत्रिका-तंत्र पर किसी निश्चित ढ़ंग से प्रभाव डालकर पूर्वनिर्धारित गुणों से युक्त मनुष्यों के निर्माण और उनके व्यवहार के नियंत्रण की संभावना दर्शाता था। इस सिद्धांत के समर्थकों का मत था कि स्वयं तंत्रिका-तंत्र में किसी प्रकार की प्रवृत्तियां और जन्मजात गुण नहीं होते। इस दृष्टिकोण के विरोध में १८वीं शती के मनोवैज्ञानिक चिंतन में योग्यताओं का मनोविज्ञान नामक धारा उत्पन्न हुई। इसके मुख्य प्रतिनिधि क्रिश्चियन वोल्फ़ और टॉमस रीड थे। इनका दावा था कि आत्मा में आरंभ से ही कुछ निश्चित आंतरिक शक्तियां होती हैं, जिनमें मुख्य संज्ञान और इच्छा का रूप लेनेवाली कल्पना करने की योग्यता है। उन्हें आद्य और स्वतः उद्भूत माना जाता था। इस तरह योग्यता एक ऐसी मिथ्या अवधारणा के रूप में उभरती थी, जो वस्तुतः वैज्ञानिक व्याख्या का स्थान लेती थी।
१८वीं शती में ही तंत्रिका-तंत्र के अध्ययन के क्षेत्र में महती सफ़लताएं पायी गईं, उनसे यह धारणा बनी कि मन की कल्पना यांत्रिक गति कि नमूने पर नहीं, अपितु अवयवी की अन्य जीवनीय क्रियाओं के नमूने पर की जानी चाहिए। नतीजे के तौर पर मन के मस्तिष्क की क्रिया होने का सिद्धांत पैदा हुआ। उसके प्रतिपादकों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि चिंतन की प्रक्रिया का समारंभ बाहर से आने आनेवाले प्रभावों के साथ होता है, और अंत विचार को शब्द अथवा अंगक्रिया के रूप में व्यक्त करने के साथ होता है।
१९वीं शती के पूर्वार्ध में यह सर्वमान्य धारणा बन गई कि शरीर दो प्रकार की गतियां करता है, ऐच्छिक ( सचेतन ) और अनैच्छिक ( अचेतन, परावर्ती )। शरीरक्रियाविज्ञान के विकास से इस मत को और बल मिला। चार्ल्स बेल और फ़्रांसुआ मजांदी द्वारा की गई खोजों ने प्रतिवर्त को एक दार्शनिक प्राक्कल्पना से प्रयोगसिद्ध तथ्य में परिवर्तित कर दिया। किंतु प्रतिवर्त चाप के क्रियातंत्र से प्रेरक अनुक्रियाओं के केवल सरलतम रूपों की ही व्याख्या की जा सकती थी। बहुसंख्य तथ्य इसमें संदेह पैदा करते थे कि व्यवहार से संबंधित सब कुछ प्रतिवर्त की संकल्पना के जरिए समझाया जा सकता है। किंतु, दूसरी ओर, इस संकल्पना में यह मूल्यवान विचार निहित था कि अवयवी की क्रियाशीलता उसके भौतिक शरीर पर भौतिक प्रभावों से निर्धारित होती है। इस विचार को अनदेखा करने का अर्थ था कि उसी पुरानी धारणा पर लौटना कि आत्मा शरीर की गतिप्रेरक है। विज्ञान में एक पेचीदी स्थिति पैदा हो गई, एक ओर केवल प्रतिवर्त की संकल्पना से जीवधारियों की क्रियाशीलता का कारण समझाया जा सकता था और, दूसरी ओर, इस क्रियाशीलता का प्रेक्षण दिखाता था कि उसे तंत्रिकाओं के सामान्य यांत्रिक संबंध का उत्पाद नहीं माना जा सकता।
( चित्र क्रम से: १-देकार्त, २-हॉब्स, ३-लाईबनिट्ज़, ४-लॉक, ५-दिदेरो, ६-वोल्फ़, ७-चार्ल्स बेल, ८-सेचेनोव, ९- पाव्लोव )
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हम अगली बार मन के परावर्ती स्वरूप पर थोड़ा विचार करेंगे।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
इस बार इतना ही।
समय
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में दिये जाने की योजना है। पिछली बार यहां मन के संदर्भ में पैदा हुई धारणाओं के विकास का संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण का पहला हिस्सा प्रस्तुत किया गया था। इस बार उसी कड़ी को आगे बढ़ाएंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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( यह देखना दिलचस्प ही नहीं वरन आवश्यक भी होगा कि मानसिक परिघटनाओं के सार तथा स्वरूप से संबंधित धारणाएं समय के साथ कैसे बदलती गईं है, परिष्कृत होती गई हैं। इनको ऐतिहासिकता और क्रम-विकास के रूप में देखना हमें विश्लेषण और चुनाव में परिपक्व बनाता है, और प्रदत्त परिप्रेक्ष्यों में हम ख़ुद अपना एक दॄष्टिकोण निश्चित करने में सक्षम बनते हैं। इतिहास के अवलोकन से हम अपनी धारणाओं को तदअनुसार जांच सकते हैं, उन्हें समय के सापेक्ष देख सकते हैं, और उन्हें आगे के विकास के बरअक्स रखकर बदलने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। चलिए इन्हीं निहितार्थ हम मनोविज्ञान संबंधी धारणाओं पर एक संक्षिप्त ऐतिहासिक अवलोकन करते हैं। )
मनोविज्ञान संबंधी धारणाएं - इतिहास के झरोखे से
( दूसरा हिस्सा, पहला यहां देखें )
पिछली बार हमने बात यहां छोड़ी थी कि आनुभविक ज्ञान से संबंध न रह जाने के कारण मनोविज्ञान का विकास अवरुद्ध हो गया था और उसके पुनः शुरू होने के लिए नई सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियां जरूरी थी। आगे बढ़ते हैं कि फिर काफ़ी लंबे अंतराल के बाद उत्पादक शक्तियों और सामाजिक संबंधों के विकास ने ये परिस्थितियां मुहैया की। पहले नीदरलैंड और फिर ग्रेट ब्रिटेन में शुरू हुए भारी उलटफेरों ने, समाज की आवश्यकताओं ने, सोचने के तरीके को बुनियादी तौर पर बदल डाला, जिसके लिए अब प्रकृति और मनुष्य का आनुवभिक अध्ययन एवं यंत्रवादी व्याख्या निदेशनकारी सिद्धांत बन गये।
१७वीं शताब्दी में जीववैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक ज्ञान के विकास में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। शरीर और आत्मा, दोनों से संबंधित अवधारणाओं में बुनियादी परिवर्तन आया। शरीर की एक मशीन के रूप में कल्पना की गई जिसके की संचालन के लिए किसी आत्मा की आवश्यकता नहीं होती। देकार्त ( १५९६-१६५० ) द्वारा की गई व्यवहार के परावर्ती स्वरूप की खोज से इस विचार को बड़ा बल मिला। इस महान फ़्रांसीसी विचारक का कहना था कि, जैसे ह्र्द्पेशी का नियंत्रण रक्त-संचार के आंतरिक तंत्र द्वारा होता है, वैसे ही व्यवहार के सभी स्तरों पर अन्य सभी पेशियों का परिचालन उनके अपने क्रियांतंत्र द्वारा होता है और वे घड़ी की सूइयों की भांति गतिशील रहती हैं। इस प्रकार प्रतिवर्त ( अवयवी की बाह्य उद्दीपन से संबंधित नियमित प्रतिक्रिया ) की संकल्पना उत्पन्न हुई। देकार्त का कहना था कि तंत्रिका प्रणाली के विशिष्ट संगठन के कारण पेशियां बाह्य क्षोभकों के मामलों में स्वतः, आत्मा के हस्तक्षेप के बिना, प्रतिक्रिया करने में समर्थ हैं। किंतु अपनी परावर्तनमूलक पद्धति को वह सारी ही मानसिक सक्रियता पर लागू न कर सके, अतः उनके सिद्धांत में प्रतिवर्त के साथ-साथ शरीर से स्वतंत्र एक पृथक सत्व के रूप में आत्मा को भी स्वीकार कर लिया गया था।
१७वीं शती के अन्य महान विचारकों ने देकार्त के द्वैतवाद को अमान्य ठहराया, कुछ ने भौतिकवादी ( materialistic ) दृष्टिकोण से और कुछ ने प्रत्ययवादी ( idealistic ) दृष्टिकोण से। हॉब्स ( १५८८-१६७९ ) ने आत्मा के अस्तित्व को पूरी तरह ठुकराते हुए यांत्रिक गति को एकमात्र वास्तविकता घोषित किया, जिसके नियम मनोविज्ञान के भी नियम बन गये। इतिहास में पहली बार मनोविज्ञान को आत्मा के विज्ञान की बजाए केवल उन मानसिक परिघटनाओं का विज्ञान माना गया, जो शारीरिक प्रक्रियाओं की छायाओं के रूप में पैदा होती हैं। किंतु यहां मन की वास्तविकता को बिल्कुल नकारकर तथा उसे आभासी मात्र बताकर छुटकारा पाया गया था। हाब्स की भांति ही स्पिनोज़ा ( १६३२-१६७७) भी ( और प्रतिवर्त सिद्धांत के देकार्त की भांति भी ) वैज्ञानिक मनोविज्ञान के एक बुनियादी सिद्धांत, नियतत्ववाद ( determinism ) के समर्थक के तौर पर सामने आते हैं, जिसके अनुसार सभी परिघटनाएं भौतिक कारणों एवं नियमों की क्रिया का फल होती हैं।
यांत्रिकी, प्रकाशिकी और ज्यामिति की उपलब्धियों ने मनोवैज्ञानिक चिंतन को प्रबल प्रेरणा दी। गणित का और विशेषतः समाकलन व अवकलन गणित का लाइबनिट्ज़ ( १६४६-१७१६ ) के विचारों पर ज़बर्दस्त प्रभाव पड़ा। उन्होंने इतिहास में पहली बार अचेतन मन की संकल्पना प्रस्तुत की। उनके मतानुसार मानसिक परिघटनाओं की बहुलता एक समाकल है, न कि एक गणितीय राशि। प्रत्ययवादी होने के कारण लाइबनिट्ज़ मानते थे कि विश्व असंख्य आत्माओं अथवा मोनेडों ( अविभाज्य अणुओं ) से बना है। किंतु उन्होंने मनोविज्ञान को बहुत से नये विचारों और संकल्पनाओं से समृद्ध किया, जिनमें सबसे मुख्य और सबसे महत्वपूर्ण मन की सक्रिय प्रकृति एवं अनवरत विकास का विचार और चेतन एवं अचेतन के बीच जटिल संबंध होने का विचार हैं।
१७वीं शती के विज्ञान और जीवन में तर्कबुद्धिवाद का बोलबाला था, जो तर्कबुद्धि को वास्तविक ज्ञान का एकमात्र उपकरण घोषित करता है। १८वीं शती में विकसित देशों में आए गहन आर्थिक परिवर्तनों, औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक ज्ञान के व्यावहारिक अनुप्रयोग की बदौलत अनुभववाद और संवेदनवाद को प्रमुखता प्राप्त हुई, जो शुद्ध बुद्धि की तुलना में अनुभव और इंद्रियजन्य ज्ञान को अधिक महत्त्व देते हैं और किसी भी तरह के जन्मजात विचारों के अस्तित्व को नहीं मानते। इस सिद्धांत के सबसे अटल प्रतिपादक जॉन लॉक ( १६३२-१७०४ ) थे, जिन्हें आनुभविक मनोविज्ञान का जनक माना जाता है। समस्त ज्ञान का स्रोत अनुभव है, यह अवधारणा मनोविज्ञान के लिए बुनियादी महत्त्व की थी, क्योंकि वह ठोस मानसिक परिघटनाओं के अध्ययन पर, सामान्य परिघटनाओं से जटिल परिघटनाओं में संक्रमण के तरीकों के अध्ययन पर बल देती थी।
लॉक के अनुसार अनुभव के दो स्रोत हैं, इंद्रियों की क्रिया ( बाह्य अनुभव ) और अपने कार्य को प्रतिबिंबित करनेवाले मन की आंतरिक क्रिया ( आंतरिक अनुभव )। मनुष्य विचारों के साथ नहीं पैदा होता। जन्म के समय उसकी आत्मा कोरी तख्ती जैसी होती है, जिस पर अनुभव तरह-तरह के विचार लिखता है। अनुभव सामान्य और जटिल विचारों से बनता है, जिनका स्रोत संवेदन या अनुचिंतन ( आंतरिक प्रत्यक्ष ) होता है। अनुचिंतन के मामले में मन अपने में बंद रहता है और अपनी ही क्रियाओं के बारे में सोचता है। लॉक की अनुचिंतन की अवधारणा इस मान्यता पर आधारित थी कि मनुष्य का मनोवैज्ञानिक तथ्यों का संज्ञान बुनियादी तौर पर अंतर्निरीक्षणात्मक होता है, जो कि भौतिक तथ्यों के बारे में नहीं कहा जा सकता। इस तरह फिर द्वैतवाद का प्रतिपादन किया गया। इसमें चेतना और बाह्य जगत को इस आधार पर एक दूसरे के मुकाबले में रखा गया कि उनके संज्ञान के तरीके आपस में बिल्कुल भिन्न हैं।
अपने इसी द्वैतवादी स्वरूप के कारण लॉक के मत ने भौतिकवादी और प्रत्ययवादी, दोनों ही दृष्टिकोणों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। भौतिकवादियों ने, जिनमें प्रमुख हार्टले ( १७०५-१७५७ ), दिदेरो ( १७१३- १७८४ ) और रदीश्चेव ( १७४९-१८०२ ) थे, बाह्य अनुभव को आधार बना कर मनुष्य के आंतरिक सारतत्व को परिवेश से उसके संबंध का परिणाम बताया। इसके विपरीत प्रत्ययवादियों ने, जिनमें प्रमुख बर्कले थे, इस सारतत्व को प्राथमिक और किसी भी तरह के बाह्य प्रभाव से स्वतंत्र घोषित किया। लॉक के बाद इस मत ने गहरी जड़ें जमा लीं कि विचारों का साहचर्य ही मनोविज्ञान का मुख्य नियम है। यह साहचर्यवाद मनोवैज्ञानिक चिंतन में मुख्य प्रवृति बन गया और इस प्रवृत्ति के भीतर ही भौतिकवाद और प्रत्ययवाद के बीच संघर्ष, मन की संकल्पना को लेकर चला और दोनों ने ही मानसिक परिघटनाओं की प्रकृति की व्याख्या अपने-अपने ढ़ंग से की।
साहचर्यात्मक मनोविज्ञान को एक ऐसा सिद्धांत माना गया, जो तंत्रिका-तंत्र पर किसी निश्चित ढ़ंग से प्रभाव डालकर पूर्वनिर्धारित गुणों से युक्त मनुष्यों के निर्माण और उनके व्यवहार के नियंत्रण की संभावना दर्शाता था। इस सिद्धांत के समर्थकों का मत था कि स्वयं तंत्रिका-तंत्र में किसी प्रकार की प्रवृत्तियां और जन्मजात गुण नहीं होते। इस दृष्टिकोण के विरोध में १८वीं शती के मनोवैज्ञानिक चिंतन में योग्यताओं का मनोविज्ञान नामक धारा उत्पन्न हुई। इसके मुख्य प्रतिनिधि क्रिश्चियन वोल्फ़ और टॉमस रीड थे। इनका दावा था कि आत्मा में आरंभ से ही कुछ निश्चित आंतरिक शक्तियां होती हैं, जिनमें मुख्य संज्ञान और इच्छा का रूप लेनेवाली कल्पना करने की योग्यता है। उन्हें आद्य और स्वतः उद्भूत माना जाता था। इस तरह योग्यता एक ऐसी मिथ्या अवधारणा के रूप में उभरती थी, जो वस्तुतः वैज्ञानिक व्याख्या का स्थान लेती थी।
१८वीं शती में ही तंत्रिका-तंत्र के अध्ययन के क्षेत्र में महती सफ़लताएं पायी गईं, उनसे यह धारणा बनी कि मन की कल्पना यांत्रिक गति कि नमूने पर नहीं, अपितु अवयवी की अन्य जीवनीय क्रियाओं के नमूने पर की जानी चाहिए। नतीजे के तौर पर मन के मस्तिष्क की क्रिया होने का सिद्धांत पैदा हुआ। उसके प्रतिपादकों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि चिंतन की प्रक्रिया का समारंभ बाहर से आने आनेवाले प्रभावों के साथ होता है, और अंत विचार को शब्द अथवा अंगक्रिया के रूप में व्यक्त करने के साथ होता है।
१९वीं शती के पूर्वार्ध में यह सर्वमान्य धारणा बन गई कि शरीर दो प्रकार की गतियां करता है, ऐच्छिक ( सचेतन ) और अनैच्छिक ( अचेतन, परावर्ती )। शरीरक्रियाविज्ञान के विकास से इस मत को और बल मिला। चार्ल्स बेल और फ़्रांसुआ मजांदी द्वारा की गई खोजों ने प्रतिवर्त को एक दार्शनिक प्राक्कल्पना से प्रयोगसिद्ध तथ्य में परिवर्तित कर दिया। किंतु प्रतिवर्त चाप के क्रियातंत्र से प्रेरक अनुक्रियाओं के केवल सरलतम रूपों की ही व्याख्या की जा सकती थी। बहुसंख्य तथ्य इसमें संदेह पैदा करते थे कि व्यवहार से संबंधित सब कुछ प्रतिवर्त की संकल्पना के जरिए समझाया जा सकता है। किंतु, दूसरी ओर, इस संकल्पना में यह मूल्यवान विचार निहित था कि अवयवी की क्रियाशीलता उसके भौतिक शरीर पर भौतिक प्रभावों से निर्धारित होती है। इस विचार को अनदेखा करने का अर्थ था कि उसी पुरानी धारणा पर लौटना कि आत्मा शरीर की गतिप्रेरक है। विज्ञान में एक पेचीदी स्थिति पैदा हो गई, एक ओर केवल प्रतिवर्त की संकल्पना से जीवधारियों की क्रियाशीलता का कारण समझाया जा सकता था और, दूसरी ओर, इस क्रियाशीलता का प्रेक्षण दिखाता था कि उसे तंत्रिकाओं के सामान्य यांत्रिक संबंध का उत्पाद नहीं माना जा सकता।
इस अंधगली से निकास १९वीं शती के उत्तरार्ध में सेचेनोव ( १८२९ -१९०५ ) द्वारा सुझाया गया। उन्होंने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि सचेतन और अचेतन जीवन की सभी क्रियाएं अपने मूल की दृष्टि से प्रतिवर्त हैं, परंतु मानसिक क्रियाएं एक अविभाज्य परावर्ती क्रिया के रूप में आगे बढ़ती हैं, और किसी कार्यमूलक परिणाम का कारक बनती हैं। उन्होंने मन के परावर्ती स्वरूप और मनुष्य के क्रियाकलाप के मन द्वारा नियमन का विचार प्रतिपादित किया, बाद में पाव्लोव ( १८४९-१९३६ ) ने इस महती सैद्धांतिक प्रस्थापना की प्रयोगों द्वारा पुष्टि की।
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हम अगली बार मन के परावर्ती स्वरूप पर थोड़ा विचार करेंगे।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
इस बार इतना ही।
समय
5 टिप्पणियां:
कुछ पढ़ा है, कल यात्रा पर रहूँगा। परसों आ कर दुबारा पढ़ता हूँ।
useful post
पहले पाश्चात दार्शिनिकों के बारे में केवल सतही ज्ञान था मगर अब आपके इस लेख से सतह से थोड़ा नीचे उतर रहा हूं....
मानव सचमुच श्रेष्ट है |
मन ही सब कुछ है |सरीर को मन ही तो चलाता है | जन्मो जन्मो की यादे ,भावनायें, जिज्ञासा
कल्पना ए, सामजिक सरोकार दुनिया जहान का ज्ञान सब कुछ मन सम्हाले रहता है |
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।