शनिवार, 6 नवंबर 2010

मनुष्य की आवश्यकताओं का विकास

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हम जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में आवश्यकताओं की क़िस्मों पर एक मनोवैज्ञानिक नज़रिये से गुजरे थे, इस बार मनुष्य की आवश्यकताओं के विकास पर एक छोटी सी चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मनुष्य की आवश्यकताओं का विकास

जीव-जंतुओं का व्यवहार सदा सीधे उनकी किसी न किसी आवश्यकता की तुष्टि की ओर उन्मुख रहता है। आवश्यकता न केवल क्रियाशीलता को जन्म देती है, बल्कि उसके रूप भी निर्धारित करती है। उदाहरण के लिए, आहार की आवश्यकता ( भूख ) लार टपकने, खाने की खोज, शिकार को पकड़ने, खाने, आदि के रूप में पशु की आहारिक सक्रियता को जन्म देती है।


अनुकूलित प्रतिवर्त इस सक्रियता को नये उत्तेजकों ( उदाहरणार्थ, घंटी की आवाज़ ) या नयी क्रियाओं ( उदाहरणार्थ, पैडल दबाना ) से जोड़ सकते हैं। किंतु इन सभी मामलों में पशु के व्यवहार की संरचना वही रहेगी। बाह्य उत्तेजकों में से घंटी के बजने को आहार के संकेत के तौर पर अलग कर लिया जाता है, इसी तरह पैडल का दबाना भी व्यवहार की एक ऐसी क्रिया के रूप में सामने आता है, जिसके फलस्वरूप आहार प्रकट होता है। दूसरे शब्दों में, अनुकूलित प्रतिवर्तों पर आधारित अत्यंत जटिल सक्रियता में भी पशु की आवश्यकताएं उसके मानस के परावर्ती और नियामक, दोनों तरह के कार्यों को प्रत्यक्षतः निर्धारित करती हैं। यह उसके शरीर की आवश्यकताओं पर निर्भर होता है कि उसका मानस परिवेशी विश्व में किन तत्वों को पृथक करेगा और उनके उत्तर में क्या क्रियाएं करेगा


मनुष्य का व्यवहार एक सर्वथा भिन्न सिद्धांत पर आधारित है। खाने की कुर्सी पर बैठे और चम्मच से खाते हुए छोटे बच्चे की क्रियाएं भी पूरी तरह उसकी नैसर्गिक आवश्यकताओं की उपज नहीं होती। उदाहरण के लिए, बच्चे की भूख की शांति के लिए चम्मच क़तई जरूरी नहीं है। मगर पालन की प्रक्रिया में बच्चा ऐसी वस्तुओं को ऐसी वस्तुओं को ऐसी आवश्यकता की तुष्टि की आवश्यक शर्त मानने का आदी हो जाता है। उसके व्यवहार के रूपों का निर्धारण स्वयं आवश्यकता से नहीं, अपितु उसकी तुष्टि के समाज में स्वीकृत तरीक़ों से होने लगता है।

अतः बच्चे की क्रियाशीलता आरंभ से ही जैविकतः महत्त्वपूर्ण वस्तुओं द्वारा नहीं, अपितु मनुष्य जिन जिन तरीक़ों से उनका उपयोग करता है, उनके द्वारा, अर्थात सामाजिक व्यवहार में इन वस्तुओं के प्रकार्यों द्वारा प्रेरित की जाती है। बच्चे द्वारा इस प्रकार सीखे गये व्यवहार-संरूप वस्तुओं को मानव व्यवहार में उनके समाज द्वारा विकसित तथा मान्य प्रकार्यों के अनुसार इस्तेमाल करने के तरीक़े हैं, जैसे मेज़ पर और चम्मच से खाना, बिस्तर पर सोना, वग़ैरह।


सभी माता-पिता और शिक्षाविद्‍ भली-भांति जानते हैं कि ऐसी आदतें डाल पाना आसान नहीं है। बच्चा मेज़ या कुर्सी के नीचे घुस जाता है, चम्मच से मेज़ बजाता है, प्लेट में हाथ डालता है, टट्टी-पेशाब लगने पर उन्हें उनके लिए नियत जगहों और तरीकों से करना भूल जाता है, वग़ैरह। ऐसी ‘शरारतों’ और ‘गंदी बातों’ से लगातार लड़ना और कुछ नहीं, बल्कि बड़ों द्वारा बच्चों को संबंधित वस्तुओं के इस्तेमाल के सामाजिकतः स्वीकृत तरीक़े सिखाना और संबंधित वस्तुओं को इस्तेमाल करके अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि के मानवसुलभ रूप बताना ही है। 

बच्चे की आवश्यकताओं की तुष्टि से जुड़े मानव परिवेश के प्रभाव से वस्तुओं का जैव महत्त्व धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में चला जाता है और बच्चे के व्यवहार में उनका सामाजिक महत्त्व निर्णायक भूमिका अदा करने लगता है

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

6 टिप्पणियां:

ASHOK BAJAJ ने कहा…

'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय ' यानी कि असत्य की ओर नहीं सत्‍य की ओर, अंधकार नहीं प्रकाश की ओर, मृत्यु नहीं अमृतत्व की ओर बढ़ो ।

दीप-पर्व की आपको ढेर सारी बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं ! आपका - अशोक बजाज रायपुर

ग्राम-चौपाल में आपका स्वागत है
http://www.ashokbajaj.com/2010/11/blog-post_06.html

L.Goswami ने कहा…

बेहतर पोस्ट ...
व्यवहारवादियों का सामाजिक अधिगम के सिद्धांत के निर्माण में बहुत योगदान रहा है.वाटसन, जिन्हें व्यवहारवाद का अधिकारिक संस्थापक माना जाता है ..अपनी पुस्तक में साफ लिख गए हैं ...

Give me a dozen healthy infants.......i'll gurantee to take anyone at random and train him to become any type of specialist.


हालाँकि यह एक व्यवहारवादी का अतिवादी बयान ही कहा जा सकता है ..पर यह अधिकतर मामलों में प्रासंगिक और सत्य तो है ही (अगर शेष चीजें सामान्य रहे तब).

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

महत्वपूर्ण कड़ी।

श्याम जुनेजा ने कहा…

श्री एल.गोस्वामी, "हालाँकि यह एक व्यवहारवादी का अतिवादी बयान ही कहा जा सकता है ..पर यह अधिकतर मामलों में प्रासंगिक और सत्य तो है ही (अगर शेष चीजें सामान्य रहे तब)."
मुझे नहीं लगता कि यह कोई अतिवादी बयान है..प्राचीन समय में गुरु का स्थान इसी कारण से सर्वोपरी था..शासक वर्ग को सत्ता स्थापना के लिए जैसे लोग चाहिए होते थे वैसे लोगों की फौज तैयार करना इन्हीं गुरुओं का काम हुआ करता था..और वे इस कार्य में दक्ष हुआ करते थे!

आज नए समाज की स्थापना का श्री गणेश करने के लिए ऐसे तथ्यों की जानकारी बहुत जरूरी है ..

L.Goswami ने कहा…

@श्री श्याम जी - पता नही आप मेरा मंतव्य सही कब इन्टरप्रेट करेंगे? हर जगह (जायज हो या नाजायज )असहमति दिखाना एक अटेन्सन सीकिंग विहेवियर है .....हर चीज का सामान्यीकरण बुरा होता है ....
आपके जवाब में सिर्फ इतना की ..हर मनुष्य स्वयं में प्रकृति की विशिष्ट कृति है ...वरना हर वैज्ञानिक का पुत्र वैज्ञानिक और अपराधी का पुत्र अपराधी ही होता ...पर ऐसा नही होता अक्सर.

Vinashaay sharma ने कहा…

थोड़ा संक्षिप्त था यह लेख,परन्तु प्रारम्भ अच्छा लगा,अगली कड़ी की प्रतिक्षा है ।

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