शनिवार, 20 नवंबर 2010

सक्रियता की संरचना - क्रियाएं, गतियां और उनका नियंत्रण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में सक्रियता और उसके लक्ष्यों पर एक संक्षिप्त चर्चा की थी इस बार सक्रियता की संरचना के अंतर्गत क्रियाएं, गतियां और उनके नियंत्रण को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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सक्रियता की संरचना - क्रियाएं, गतियां और उनका नियंत्रण

सक्रियता यथार्थ के प्रति एक तरह का सक्रिय रवैया है, जिसके जरिए मनुष्य अपने और परिवेशी विश्व के बीच संबंध स्थापित करता है। मनुष्य अपनी सक्रियता के द्वारा प्रकृति, बाह्य वस्तुओं और अन्य लोगों पर प्रभाव डालता है। सक्रियता में अपने आंतरिक गुणों को चरितार्थ तथा उद्‍घाटित करते हुए, मनुष्य वस्तुओं के संबंध में कर्ता और अन्य मनुष्यों के संबंध में व्यक्ति के तौर पर सामने आता है। वह चीज़ों को विषयों और लोगों को व्यक्तियों के रूप में देखता है।

क्रियाएं और गतियां

किसी भी पत्थर का भार जानने के लिए हमें उसे उठाना होता है और पैराशूट की विश्वसनीयता जांचने के लिए हमें उसके साथ कूदना होता है। पत्थर उठाकर या पैराशूट के साथ कूदकर, यानि सक्रियता के ज़रिए मनुष्य उनके वास्तविक गुणों का ज्ञान प्राप्त करता है। वह इन वास्तविक क्रियाओं के बदले वैकल्पिक तरीकों से भी काम ले सकता है, मगर इसके लिए भी शुरू में व्यवहार या व्यवहारिक सक्रियता आवश्यक थी। यह सक्रियता न केवल पत्थर या पैराशूट के गुणों को, बल्कि स्वयं मनुष्य के गुणों को भी दिखाती है ( उसने पत्थर क्यों उठाया, पैराशूट क्यों इस्तेमाल किया, वग़ैरह)। व्यवहारिक कार्य निर्धारित करता और दिखाता है कि व्यक्ति क्या जानता है और क्या नहीं, विश्व में उसे क्या दिखाई देता है और क्या नहीं, क्या वह चुनता है और क्या ठुकराता है। दूसरे शब्दों में, व्यवहारिक कार्य मानव मन की अंतर्वस्तु तथा उसके क्रियातंत्रों का निर्धारण तथा उद्‍घाटन करता है

सक्रियता का लक्ष्य आम तौर पर कमोबेश दूरस्थ होता है, जिसकी वज़ह से मनुष्य लक्ष्य को तभी पा सकता है, जब वह राह में अपने सामने पैदा होनेवाले कई सारे विशिष्ट कार्यभारों को पूरा कर ले। उदाहरण के लिए, किसी औजार विशेष को बनाने के लिए लौहार को हर निश्चित कालावधि के भीतर कई सारे छोटे-मोटे कार्य करने होते हैं। जैसे कि लोहे को गरम करना, ठंड़ा होने से पहले उसे पीट कर निश्चित आकार देना, वग़ैरह। किसी सरल तात्कालिक लक्ष्य को पाने के लिए निष्पादित सक्रियता की इन अपेक्षाकृत पृथक इकाईयों को क्रियाएं कहा जाता है। ऊपर बताई गई श्रम क्रियाएं वस्तुसापेक्ष क्रियाएं, यानि बाह्य विश्व की वस्तुओं की अवस्था अथवा गुणों को बदलने के लिए की गई क्रियाएं हैं। हर वस्तुसापेक्ष क्रिया दिक् और काल में आपस में जुड़ी हुई कुछ निश्चित गतियों की संहति होती हैं। जैसे कि, अक्षर ‘अ’ को लिखने की क्रिया में कलम को एक निश्चित ढ़ंग से पकड़ने, उसे उठाने फिर कागज को छूते हुए दो अर्धवृत्त बनाने, फिर नोक को उठाकर एक आड़ी तथा उसे छूते हुई एक खड़ी पाई बनाना, और अंत में उनके ऊपर एक आड़ी रेखा खींचना शामिल है।

मनुष्य की सक्रियता में वस्तुसापेक्ष गतियों के अलावा वे गतियां भी शामिल होती हैं, जो मनुष्य को एक निश्चित मुद्रा ( खड़ा रहना, बैठना, आदि ) अपनाने तथा बनाए रखने, स्थान-परिवर्तन करने ( चलना, दौड़ना, आदि ) और अन्य लोगों से संप्रेषण करने में समर्थ बनाती हैं। संप्रेषण के साधनों में भावात्मक गतियां ( चहरे और शरीर की भंगिमाएं ), अर्थपूर्ण चेष्टाएं और वाचिक गतियां शामिल हैं। उपरोक्त गतियां बांहों और टांगों के अलावा शरीर तथा चहरे की पेशियों, कंठ, स्वरतंत्रियों, आदि द्वारा संपन्न की जाती हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वस्तुसापेक्ष अथवा अन्य किसी बाह्य क्रिया के निष्पादन का अर्थ एक निश्चित गति-श्रृंखला का निष्पादन है। यह क्रिया के लक्ष्य, उन वस्तुओं के गुणों, जिनकी ओर यह क्रिया लक्षित है, और जिन परिस्थितियों में यह क्रिया संपन्न की जाती है, उन पर निर्भर करती है।

क्रिया का नियंत्रण तथा निगरानी

किसी भी गति के निष्पादन का उसके परिणामों का क्रिया के अंतिम लक्ष्य के साथ मिलान करके लगातार नियंत्रण और समंजन किया जाता है। वांछित परिणाम ज्ञानेन्द्रियों ( दृष्टि, श्रवण, पेशी संवेदन ) की सहायता से प्राप्त किया जाता है। गतियों का नियंत्रण इनके जरिए प्रतिपुष्टि ( feed back ) के सिद्धांत के अनुसार होता है। इस प्रतिपुष्टि का माध्यम ज्ञानेन्द्रियां और सूचना का स्रोत वस्तुओं तथा गतियों के निश्चित अवबोधित लक्षण होते हैं, जो क्रिया के संदर्भ-बिंदु की भूमिका अदा करते हैं।

इस प्रकार वस्तुसापेक्ष क्रिया अथवा किसी अन्य बाह्य क्रिया का निष्पादन एक निश्चित गति-श्रॄंखला के निष्पादन तक सीमित नहीं है। इसमें गतियों का ऐंद्रिक नियंत्रण और उनके मौजूद परिणामों तथा क्रिया के विषयों के गुणों के अनुसार संशोधन भी शामिल है। यह प्रक्रिया मस्तिष्क को परिवेश की अवस्था एवं उसमें की जा रही गतियों तथा प्राप्त परिणामों की सूचना देनेवाले इंद्रियगत संदर्भ-बिंदुओं के आभ्यंतरीकरण ( Internalization ) पर आधारित होती है।

लुहार तपे हुए लोहे के तापमान को देखकर, जिसे मोटे तौर पर धातु की चमक से आंका जाता है, उस पर कम या ज़्यादा जोर से हथौड़ा मारता है। बढ़ई पेशियों द्वारा लकड़ी के प्रतिरोध की अनुभूति को देखते हुए रंदे पर दाब की मात्रा और उसे चलाने की रफ़्तार तय करता है। ट्रक चालक जब ब्रेक लगाता है, तो अपने ट्रक की रफ़्तार तथा भार, सड़क की दिशा, आदि को ध्यान में रखता है। यानि कि किसी भी क्रिया में सम्मिलित गति-श्रृंखला का नियंत्रण उस क्रिया के लक्ष्य द्वारा किया जाता है। वास्तव में हम गतियों के परिणामों को उनके लक्ष्य की दृष्टि से ही आंकते हैं और लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही उनमें आवश्यक सुधार या परिवर्तन करते हैं।

लक्ष्य सामान्यतः एक ऐसी चीज़ है, जो दत्त क्षण में नहीं होती और जिसे क्रिया द्वारा पाया जाना है। अतः मस्तिष्क में लक्ष्य एक बिंब का, क्रिया के प्रत्याशित परिणाम के एक गतिशील मॉडल का रूप लेता है। इस अभीष्ट भविष्य के मॉडल के साथ ही हम अपनी क्रिया के वास्तविक परिणामों का मिलान करते हैं और यह मॉडल ही गतियों के ढ़ांचे का नियंत्रण तथा संशोधन करता है। इस तरह हम देखते हैं कि भावी क्रियाओं तथा उनके परिणामों का मस्तिष्क में पूर्वानुमान कर लिया जाता है, अन्यथा लक्ष्योन्मुख सक्रियता संभव ही नहीं होती।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

4 टिप्पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

मुझे भौतिकवाद की बारीकियाँ देखने को मिल रही हैं इस श्रृंखला में। बहुत उपयोगी है।

sumit das ने कहा…

aap ke diye jane wale gyan aur jankari adbhut hai

JAGSEER ने कहा…

निसंदेह, वस्तुओं के संबंध में मनुष्य कर्त्ता और अन्य व्यक्तियों के संबंध में व्यक्ति के तौर पर सामने आता है. लेकिन वस्तुओं और अन्य व्यक्तियों की भौतिक या मानसिक स्थिति बदलने की कोशिश एकांगी या एकतरफा नहीं होती. मानव का प्रकृति और अन्य व्यक्तियों के साथ द्वंदात्मक रिश्ता है. मानव द्वारा दूसरी प्रकृति के निर्माण और अन्य व्यक्तियों को प्रभावित करने का इतिहास एकांगी नहीं है. अगर मानव ने व्यापक प्रकृति में दखल से वस्त्र, घर, भोजन आदि की खोज की है तो बदले में इस प्रक्रिया ने उसे वस्त्र पहनने, घर में रहने या भोजन करने का सलीका प्रदान किया है. इस प्रकार मानव-जन की अन्य व्यक्तियों को बदलने की कोशिश उनका स्वयं का भी रुपान्तरण कर देती है.

ऐसी बात नहीं है कि आप इसे स्वीकार नहीं करते. इसकी पुष्टि के लिए आपके इन वाक्यों "किसी भी गति के निष्पादन का उसके परिणामों का क्रिया के अंतिम लक्ष्य के साथ मिलान करके लगातार नियंत्रण और समंजन किया जाता है। वांछित परिणाम ज्ञानेन्द्रियों ( दृष्टि, श्रवण, पेशी संवेदन ) की सहायता से प्राप्त किया जाता है। गतियों का नियंत्रण इनके जरिए प्रतिपुष्टि ( feed back ) के सिद्धांत के अनुसार होता है।" और "इस प्रकार वस्तुसापेक्ष क्रिया अथवा किसी अन्य बाह्य क्रिया का निष्पादन एक निश्चित गति-श्रॄंखला के निष्पादन तक सीमित नहीं है। इसमें गतियों का ऐंद्रिक नियंत्रण और उनके मौजूद परिणामों तथा क्रिया के विषयों के गुणों के अनुसार संशोधन भी शामिल है।" को दोहराना भी बेमानी है. इसके अलावा लुहार, बढ़ई और ड्राईवर भी लोहे, लकड़ी और ट्रक आदि से प्रभावित होते दिखाए गए हैं. लेकिन उतने नहीं जितना ये उन्हें प्रभावित करते हैं. कुल मिलाकर इनकी भूमिका प्रधान है जो कि सही है. लेकिन हमारे पाठकों को प्रधान भूमिका तो सहज समझ आ जाती है जबकि गौण नज़र नहीं आती. हमें कोशिश करनी चाहिए कि द्वंदात्मक भौतिकवादी तरीके से, इस गौण पहलू को भी साथ-साथ उदाहरण समेत प्रकट करते जाएँ.

आपके मुकाबले इस विषय पर मेरी पकड़, निसंदेह, नाममात्र है. अगर विषय-वस्तु को मैं ठीक से पकड़ नहीं पा रहा हूँ तो बेहिचक, लिखियेगा और प्रकाशित भी करियेगा. इसी में सबका भला निहित है.

JAGSEER ने कहा…
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