बुधवार, 26 जनवरी 2011

वाक् का विकास, संप्रेषण और सामाजिक प्रतिमान

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने शाब्दिक और अशाब्दिक संप्रेषण पर विचार किया था, इस बार हम वाक् का विकास, संप्रेषण और सामाजिक प्रतिमान पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



वाक् का विकास, संप्रेषण और सामाजिक प्रतिमान
( development of speech, communication and social patterns )

मनुष्य की आवश्यकताओं की तुष्टि अन्य लोगों से संपर्क बनाकर तथा उनके साथ मिलकर कार्य करने से ही हो सकती है। यह बुनियादी शर्त व्यक्ति के लिए यह जरूरत पैदा करती है कि वह अपने साथियों को वह चीज़ बताये, जो उनके लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण है और अर्थ रखती है।

बच्चे में उच्चारित वाक् के प्रथमांकुर पहले वर्ष के अंत में प्रकट होते हैं। वह कुछ सहजता से बोली जा सकने वाली ध्वनियों का उच्चारण करने लगता हैं, बड़े इन ध्वनियों को निश्चित व्यक्तियो तथा वस्तुओं से जोड़ते हैं और इस तरह बच्चे के मस्तिष्क में इनमें से हर ध्वनि की उसके प्रत्यक्ष परिवेश के किसी निश्चित व्यक्ति या वस्तु से संबद्धता जड़े जमा लेती हैं। आगे चलकर इनमें से हर ध्वनि बच्चे के लिए एक शब्द का रूप ले लेती है, जिसे वह वयस्कों से अपनी अन्योन्यक्रिया के गठन ( formation ) के लिए इस्तेमाल करता है। शब्द उसकी आवश्यकताओं की तुष्टि का जरिया, संप्रेषण का साधन बन जाते हैं। बाद में बच्चे का शब्द भंडार बड़ी तेज़ी से बढ़ता है, और वह दूसरे वर्ष के अंत तक व्याकरणिक रूपों के सही प्रयोग की क्षमता भी दिखाने लगता है, उसके वाक्य धीरे-धीरे लंबे और जटिलतर बनते जाते हैं।

वाक् का विकास और अशाब्दिक संप्रेषण के साधनों जैसे कि भाव-भंगिमाएं ( expression-gestures ), लहजा ( tone ) आदि का विकास साथ-साथ होता है। इस काल में बच्चा संभाषी के भावों को पढ़ना, उनके लहजे में छिपे अनुमोदन ( approval ) अथवा निंदा को पहचानना, अंग-संचालनों के अर्थ को समझना सीखते हुए संप्रेषण की प्रक्रिया में प्रतिपुष्टि ( feedback ) के संबंध विकसित करता है। इस सबसे उसे अपनी क्रियाओं में सुधार करने तथा लोगों के साथ परस्पर समझ बढ़ाने में मदद मिलती है।

भाषा के प्रति, जो संप्रेषण का साधन है और वाक् के प्रति, जो संप्रेषण की प्रक्रिया है, बच्चे का सचेतन ( conscious ) रवैया ( attitude ) स्कूल में बनता है। पहले पढ़ना और लिखना सीखने के पाठों में और फिर भाषा तथा साहित्य के पाठों में। इस तरह भाषा, छात्रों के सामने संकेतों की एक ऐसी जटिल पद्धति के रूप में प्रकट होती है, जिसके अपने सामाजिकतः निर्धारित नियम हैं और जिसके इन नियमों के आत्मसात्करण से वे न केवल सही पढ़, लिख व बोल सकेंगे, बल्कि मानवजाति द्वारा उनसे पहले सृजित ( created ) समस्त आत्मिक संपदा का उपयोग भी कर सकेंगे।

संप्रेषण करते हुए, यानि किसी से कुछ पूछते, अनुरोध करते, आदेश देते, समझाते या बताते हुए मनुष्य अपरिहार्यतः अपने सामने दूसरे मनुष्य को प्रभावित करने, उससे वांछित उत्तर पाने, उसे अपने कार्य की पूर्ति के लिए प्रेरित करने और जो बात उसकी समझ में नहीं आई है, उसे समझाने का उद्देश्य रखता है। संप्रेषण के उद्देश्य लोगों की संयुक्त सक्रियता की आवश्यकता को प्रतिबिंबित ( reflected ) करते हैं। बेशक इसका मतलब यह नहीं कि लोग निरर्थक बातें, निरुद्देश्य संप्रेषण, संप्रेषण की ख़ातिर संप्रेषण बनाए रखने के लिए संप्रेषण के साधनों का व्यर्थ उपयोग नहीं करते।

यदि संप्रेषण निरुद्देश्य नहीं है, तो इसका दूसरे लोगों के व्यवहार और सक्रियता के परिवर्तन के रूप में अनिवार्यतः कुछ परिणाम निकलता है या निकलना चाहिए। यहां संप्रेषण अंतर्वैयक्तिक अन्योन्यक्रिया ( interpersonal interaction ) का, यानि व्यक्तियों के संयुक्त कार्यकलाप की प्रक्रिया में पैदा होनेवाले संबंधों तथा परस्पर प्रभावों की समष्टि का रूप ग्रहण करता है। अंतर्वैयक्तिक अन्योन्यक्रिया एक दूसरे के कार्यों के बारे में व्यक्तियों की प्रतिक्रियाओं की श्रृंखला है: एक व्यक्ति के द्वारा अपनी क्रिया से दूसरे के व्यवहार को बदलना, दूसरे की प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है, जो अपनी बारी में फिर से पहले वाले के व्यवहार को प्रभावित करती है।

संयुक्त सक्रियता और संप्रेषण सामाजिक प्रतिमानों (social patterns ), यानि व्यक्तियों की अन्योन्यक्रिया तथा परस्पर संबंधों के लिए समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार के मानकों ( standards ) पर आधारित सामाजिक नियंत्रण की परिस्थितियों में संपन्न होते हैं।

यह आशा की जाती है कि समाज ने अनिवार्य प्रतिमानों की एक विशिष्ट पद्धति के रूप में व्यवहार के जो मानक विकसित तथा स्वीकृत किये हैं, उनका हर व्यक्ति पालन करेगा। इन मानकों का उल्लंघन सामाजिक निग्रह ( prohibition, repression ) की यथोचित युक्तियों ( निंदा, दंड ) को सक्रिय बना देता है और इस तरह विपथगामी के व्यवहार को सुधारने का प्रयत्न किया जाता है। व्यवहार के मानकों के अस्तित्व तथा मान्यता का प्रमाण यह है कि शेष सबके व्यवहार से भिन्न व्यवहार करनेवाले के संबंध में आसपास के लोग एक जैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं। सामाजिक प्रतिमानों का दायरा बहुत व्यापक होता है और उसके अंतर्गत श्रम-अनुशासन, सैन्य कर्तव्य तथा देशभक्ति की अपेक्षाएं पूरी करनेवाले व्यवहार के मॉडलों से लेकर शिष्टाचार के नियमों तक, सब कुछ आ जाता है। अपने कार्यस्थल पर ईमानदारी से काम और पहली कक्षा के छात्र द्वारा इस नियम का पालन कि शिक्षक के कक्षा में प्रवेश करने पर उसे खड़ा हो जाना चाहिए, सामाजिक प्रतिमानों के अनुसार व्यवहार की मिसालें हैं।

सामाजिक प्रतिमानों का आदर लोगों को अपने व्यवहार के लिए उत्तरदायी ( responsible ) बनाता है और अपने कार्यों का मूल्यांकन करते हुए, कि वे अपेक्षाओं के अनुरूप हैं या नहीं, उनका नियंत्रण करने की संभावना देता है। प्रतिमानों से निर्देशित होकर व्यक्ति अपने व्यवहार के रूपों का मानकों से मिलान करता है, समाज द्वारा मान्य रूपों को चुनता तथा अमान्य रूपों को ठुकराता है और अन्य लोगों से अपने संबंधों का नियमन ( regulation ) करता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

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