हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में मनुष्य की भावनाओं और आवश्यकताओं के अंतर्संबंधों पर विचार किया था, इस बार हम भावनाओं के शरीरक्रियात्मक आधारों पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में मनुष्य की भावनाओं और आवश्यकताओं के अंतर्संबंधों पर विचार किया था, इस बार हम भावनाओं के शरीरक्रियात्मक आधारों पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
सभी मानसिक प्रक्रियाओं की भांति संवेगात्मक अवस्थाएं ( भावनाएं ) मस्तिष्क की सक्रियता का उत्पाद ( product of brain activity ) होती हैं। संवेगों की उत्पत्ति का कारण परिवेश में होने वाले परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन शरीर की जीवन-सक्रियता को बढ़ाते या घटाते हैं, पुरानी आवश्यकताओं की जगह पर नई आवश्यकताओं को जन्म देते हैं और स्वयं शरीर के भीतर भी परिवर्तन लाते हैं।
संवेगों ( भावनाओं ) के लिए लाक्षणिक शरीरक्रियात्मक प्रक्रियाएं जटिल अननुकूलित ( unconditioned ) और अनुकूलित प्रतिवर्तों ( conditioned reflexes ) से जुड़ी होती हैं। मालूम है कि अनुकूलित प्रतिवर्तों के परिपथ आपस में मिलकर प्रमस्तिष्कीय प्रांतस्था ( cerebral cortex ) में समेकित होते हैं, जबकि अननुकूलित प्रतिवर्त अधःप्रांतस्था गुच्छिकाओं, मध्यमस्तिष्क के पश्चभाग के निकट स्थित ऊर्ध्व वप्रों ( दृष्टि केंद्रों ) और जो अन्य केंद्र तंत्रिका-उत्तेजनों को मस्तिष्क के उच्चतर प्रखंड़ों से वर्धी तंत्रिका-तंत्रों को अंतरित करते हैं, उनके ज़रिए संपन्न होते हैं। भावना को अनुभव करना प्रांतस्था और अधःप्रांतस्था केंद्रों की संयुक्त सक्रियता का परिणाम होता है।
मनुष्य के लिए जितने महत्त्वपूर्ण उसके शरीर तथा परिवेश के परिवर्तन होंगे, उतनी ही गहन उसकी भावनाएं होंगी। यह उत्तेजन ( stimulation ) की ऐसी प्रक्रियाएं शुरु करता है कि जो प्रांतस्था पर फैलकर सभी अधःप्रांतस्था केंद्रों को अपने घेरे में ले लेती हैं। प्रांतस्था के नीचे स्थित मस्तिष्क के प्रखंडों में शरीर की श्वसन, ह्रद्वाहिका, पाचन, स्राव, आदि क्रियाओं से संबंधित बहुत से केंद्र होते हैं। इस कारण अधःप्रांतस्था केंद्रों का उत्तेजन कई सारे आंतरिक अंगों में व्यापक सक्रियता पैदा करता है।
नतीजे के तौर पर संवेगों के साथ श्वास और नाड़ी की गति में परिवर्तन आते हैं ( उदाहरण के लिए, उत्तेजना के मारे आदमी हांफ सकता है, उसकी सांस रुक सकती है, उसका दिल बैठ सकता है ), शरीर के विभिन्न भागों में रक्त का संचार घट-बढ़ जाता है ( मुंह का शर्म से लाल हो जाना या डर से पीला पड़ जाना ), अंतःस्रावी ग्रंथियों की क्रिया प्रभावित होती है ( दुख के मारे आंसू निकलना, उत्तेजना के मारे गला सूखना, डर के मारे पसीना छूटना )। आंतरिक अंगों की इन सभी प्रक्रियाओं को मनुष्य ख़ुद आसानी से देख सकता है, महसूस कर सकता है और दर्ज कर सकता है। इसीलिए बहुत समय तक उन्हें ही संवेगों का कारण माना जाता था। हम आज भी ‘पत्थरदिल’. ‘दिल जलाना’, ‘दिल जीतना’, ‘दिल देना’, आदि मुहावरे इस्तेमाल करते हैं। आधुनिक शरीरक्रियाविज्ञान और मनोविज्ञान के उजाले में ऐसी धारणाओं का बचकानापन बिल्कुल स्पष्ट है। जिसे कारण माना जाता था, वह वास्तव में मनुष्य के मस्तिष्क में घटनेवाली प्रक्रियाओं के प्रभाव के अलावा और कुछ नहीं है।
सामान्य परिस्थितियों में प्रमस्तिष्कीय प्रांतस्था अधःप्रांतस्था केंद्रों पर प्रावरोधक ( inhibitor ) प्रभाव डालती है और इस तरह से संवेगों की बाह्य अभिव्यक्ति को नियंत्रित करती है। किंतु जब अत्यंत प्रबल उद्दीपकों के प्रभाव से या अतिशय थकान अथवा नशे से प्रांतस्था अति-उत्तेजित हो जाती है, तो किरणन प्रभाव ( irradiation effects ) के कारण अति-उत्तेजन अधःप्रांतस्था केंद्रों पर अधिक प्रबलित रूप से फैलता है और मनुष्य अपना सामान्य आत्म-नियंत्रण खो बैठता है। दूसरी ओर, अधःप्रांतस्था केंद्र और आंतर अग्रमस्तिष्क, नकारात्मक प्रेरण के प्रभाव से प्रावरोध ( inhibit ) की व्यापक प्रक्रिया में शामिल हो सकते हैं, जो अपने को अवसाद, शिथिल अथवा अवरुद्ध पेशीय गतियों, नाड़ी तथा श्वास की मंद गति, आदि में व्यक्त करती है। अतः संवेग मनुष्य की जीवन-सक्रियता को तीव्र भी कर सकते हैं और मंद भी।
आंतर अग्रमस्तिष्क के निश्चित भागों में इलेक्ट्रोड लगाकर पशुओं पर में किये गए शरीरक्रियात्मक प्रयोगों ने दिखाया है कि मस्तिष्क के कतिपय अत्यंत विशेषीकृत अंग संवेगात्मक अवस्थाओं के उद्दीपन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
कुछ क्षेत्रों का उद्दीपन स्पष्टतः सुखद संवेगों को जन्म देता था और प्रयोगाधीन उन्हें फिर अनुभव करना चाहते थे। ऐसे क्षेत्रों को ‘आनंद के केंद्र’ कहा गया। यह पाया गया कि मस्तिष्क के अन्य अंगों का विद्युत द्वारा उद्दीपन पशु में नकारात्मक संवेग पैदा करता था और वह उसे हर तरह से कतराने की कोशिश करता था। इन क्षेत्रों को ‘कष्ट के केंद्र’ कहा गया। यह स्थापित किया गया है कि मस्तिष्क के विभिन्न भागों में स्थित नकारात्मक संवेगों के लिए उत्तरदायी क्षेत्र एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक अविभाज्य तंत्र का निर्माण करते हैं। अतः नकारात्मक संवेग अपेक्षाकृत एक ही जैसे ढंग से अनुभव किये जाते हैं और वे शरीर की सामान्यतः असंतोषजनक अवस्था का संकेत देते हैं। इसके विपरीत ‘आनंद के केंद्रों’ में कम एकता पाई जाती है, जिसके कारण सकारात्मक संवेगों में बड़ी विविधता तथा भेद मिलती है।
निस्संदेह, मानव-मस्तिष्क की विशिष्ट क्रियाओं की पशुओं की संवेगात्मक अवस्थाओं के शरीरक्रियात्मक पहलुओं से तुलना करना ठीक नहीं होगा, फिर भी उपरोक्त तथ्य इस प्राक्कल्पना के प्रतिपादन के लिए पर्याप्त सैद्धांतिक आधार प्रदान करते हैं कि मानव-संवेगों की भी कुछ शरीरक्रियात्मक पूर्वापेक्षाएं होनी चाहिए।
संवेगों के शरीरक्रियात्मक आधार से संबंधित सभी अनुसंधान स्पष्टतः उनके द्विध्रुवीय स्वरूप को इंगित करते हैं: संतोष-असंतोष, आनंद-कष्ट, इत्यादि। संवेगात्मक अवस्थाओं की इस ध्रुवीयता का कारण मस्तिष्क के अंगों का विशेषीकरण है। यह ध्रुवीयता शरीरक्रियात्मक प्रक्रियाओं की नियमसंगतियों को प्रतिबिंबिंत करती है।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
1 टिप्पणियां:
आपने बहुत अच्छी जानकारी दी ख़ासकर ऐसे समय में जबकि ज़्यादातर ब्लॉग पर अन्ना से संबंधित पोस्ट ही नज़र आ रही हैं। ऐसे में एक आप हैं और बस एक हम हैं कि ...
अन्ना हजारे के आंदोलन के पीछे विदेशी हाथ बताना ‘क्रिएट ए विलेन‘ तकनीक का उदाहरण है। इसका पूरा विवरण इस लिंक पर मिलेगा-
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