शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

चारित्रिक गुणों का प्रबलन

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी के रूप में ‘चरित्र’ की संरचना के अंतर्गत ‘मनुष्य के आचरण-व्यवहार के कार्यक्रम’ के रूप में चरित्र को समझने की कोशिश  की थी, इस बार हम चारित्रिक गुणों के प्रबलन पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



चारित्रिक गुणों का प्रबलन

चारित्रिक गुणों की, जिनका मनुष्य के अनुभव ने पता लगाया है तथा भाषा में दर्ज किया है, संख्या बहुत बड़ी है। अतः उन सबको गिनाने और उनका वर्णन करने से कोई लाभ नहीं है, इसकी और बड़ी वज़ह यह भी है कि मनोविज्ञान में उनका कोई सटीक वर्गीकरण ( उन्हें छोड़कर, जिन्हें वह व्यक्ति के दृष्टिकोंणों के साथ जोड़ देता है ) नहीं है। चारित्रिक गुणों को की बहुविविधता ( multi-diversity ) उनकी गुणगत विविधता तथा मौलिकता ( originality ) में ही नहीं, अपितु संख्यागत मात्रा में भी प्रकट होती है। दरअसल लोग कम या अधिक संदेहशील, कम या अधिक उदार, कम या अधिक स्पष्टवादी हो सकते हैं। जब इस या उस चारित्रिक गुण की संख्यागत मात्रा चरम सीमा पर पहुंच जाती है और मानक ( standard ) के छोर (end ) को स्पर्श कर लेती है, तब हम चरित्र प्रबलन ( character reinforcement ) की बात करते हैं।

चरित्र प्रबलन, व्यक्तित्व के कतिपय गुणों की अतिरंजना ( exaggeration ) के फल के रूप में मानक के चरम रूपांतर ( extreme transmutation of standard ) होते हैं। तब व्यक्ति में एक प्रकार के खिंचाव-कारक ( stretch factor ) के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि प्रकट होती है, जब कि अन्य प्रकार के ऐसे कारकों के मामले में उसमें भावनात्मक स्थिरता दिखायी देती है। मनुष्य के चरित्र में कमज़ोर कड़ी अक्सर केवल कठिन परिस्थितियों में प्रकट होती है, जो अनिवार्य रूप से अपेक्षा करती हैं। शेष सारी अन्य कठिनाइयां, जो संबद्ध व्यक्ति के चरित्र के संवेदनशील बिंदु को स्पर्श नहीं करतीं, उसके द्वारा बिना तनाव और क्रम-भंग के झेली जा सकती हैं और वे उसके लिए और उसके आस-पास के लोगों के लिए किसी तरह की मुसीबत पैदा नहीं करतीं। घोर प्रतिकूल परिस्थितियों में चरित्र प्रबलन, विकृतिजन्य रोगों, व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तनों को, यानि मनोविकृति को ( चारित्रिक विकृति व्यक्तित्व के सामाजिक अनुकूलन को अवरुद्ध कर देती है और व्यवहारतः उसे अपरिवर्त्य ( immutable ) बना देती है, हालांकि सही ढंग से उपचार किए जाने पर उसे कुछ हद तक दुरस्त किया जा सकता है ) जन्म देता है, परंतु उसे मानसिक रोग मानना ठीक नहीं है।

चरित्र प्रबलन का वर्गीकरण बहुत जटिल कार्य है तथा भिन्न-भिन्न अनुसंधानकर्मियों ने उसके भेदों को भिन्न-भिन्न नाम दिए हैं। चरित्र प्रबलन के सबसे महत्त्वपूर्ण भेद निम्नलिखित हैं : अंतर्मुखी ( introversive ) चरित्र, जिसकी अभिलाक्षणिकताएं अल्पभाषिता, अन्य लोगों के साथ संप्रेषण में कठिनाई और अपनी ही बंद दुनिया में रहना है ; बहिर्मुखी ( extrovert ) चरित्र, जिसकी अभिलाक्षणिकताएं हैं भावावेशपूर्ण उत्तेजना, संप्रेषण तथा सक्रियता की कामना ( बहुधा उसकी आवश्यकता तथा महत्त्व की ओर ध्यान दिए बिना भी ), अभिरुचियों की अस्थिरता, कभी-कभी डींगबाज़ी, सतहीपन, नैष्ठिक आचरण ( loyal conduct ) ; अनियंत्रणीय ( uncontrollable ) चरित्र, उसकी अभिलाक्षणिकताएं हैं आवेगशीलता ( impulsiveness ), टकराव की प्रकृति, आपत्तियों के प्रति असहिष्णुता ( intolerance ) और कभी-कभी संदेहशीलता।

किशोरों के चरित्र के तंत्रिकातापी प्रबलन की मुख्य विशेषताएं हैं ख़राब मिज़ाज, चिड़चिड़ापन, बेहद थकावट, रोगभ्रम। अपने परिवेश से चिड़चिड़ाहट और अपने पर तरस खाने के कारण थोड़ी देर के लिए क्रोध का उफान आ जाता है, परंतु तंत्रिका-तंत्र के जल्द थक जाने से क्रोध शीघ्र ठंड़ा पड जाता है और उसका स्थान मेल-मिलाप और पश्चाताप की भावना तथा अश्रुधारा ले लेती है।

संवेदनशील ( sensitive ) चरित्र की विशेषताएं हैं भीरूता, मन की बात मन में रखना, शर्मीलापन। संवेदनशील किशोर अधिक, खास तौर पर नये संगी-साथियों से कतराते हैं, हमउम्रों की शरारतों के ऐसे साहसिक कार्यों में भाग नहीं लेते, जिनमें जोखिम उठाना पड़ता है, वे छोटे बच्चों के साथ खेलना पसंद करते हैं। वे परीक्षाओं से डरते हैं, बहुधा कक्षा में उत्तर देने से इसलिए डरते हैं कि कहीं उनसे ग़लती न हो जाए अथवा अपने उत्तर बहुत बढ़िया होने से वे अपने सहपाठियों की ईर्ष्या का पात्र न बन जाएं। किशोरों में अपनी त्रुटियों पर काबू पाने की सशक्त कामना का विशेष कारण होता है। वे उन क्षेत्रों में नहीं, जिनमें वे अपनी योग्यता प्रदर्शित कर सकते हैं, अपितु उन क्षेत्रों में अपने व्यक्तित्व की प्रतिष्ठापना करने का प्रयास करते हैं, जिनमें वे अपनी दुर्बलता अनुभव करते हैं। लड़कियां यह दिखाने का प्रयास करती हैं कि वे प्रफुल्लचित्त हैं। भीरू और शर्मीले बालक हेकड़ी और अकड़ की मुद्रा अपनाते हैं तथा अपनी स्फूर्ति और इच्छा-शक्ति का प्रदर्शन करने का प्रयत्न करते हैं। परंतु जब स्थिति उनसे साहसपूर्ण संकल्प की अपेक्षा करती है, तो उनका तुरंत दम सूख जाता है। अगर कोई उनका विश्वास पाने में सफल हो जाए और वे यह अनुभव करने लगें कि मिलनेवाले की उनसे सहानुभूति है और वह उनका समर्थन कर रहा है, तो वे ‘मैं किसी की परवाह नहीं करता’ का मुखौटा उतार फैकते हैं और उनका कोमल तथा संवेदनशील चित्त, अपने से हद से ज़्यादा कठोर अपेक्षाएं करने की उनकी भावना, आत्म-भर्त्सना तथा आत्म-ताड़ना से परिपूर्ण उनका जीवन, सब कुछ प्रकट हो जाता है। अप्रत्याशित रुचि तथा सद्‍भावना हेकड़ी और अक्खड़पन को सहसा अविरल अश्रुधारा में बदल सकती है।

निदर्शनात्मक ( exemplary ) चरित्र की अभिलाक्षणिकताएं हैं आत्म-केंद्रिकता, दूसरे लोगों का ध्यान निरंतर अपनी ओर खींचने, अपने को प्रशंसा तथा सहानुभूति का पात्र बनाने की उभरी हुई प्रवृत्ति। झूठ बोलना, दिखावा करने और इतराने की प्रवृत्ति, नाटकबाज़ी ( ठीक आत्म-हत्या की हद तक जाने का स्वांग भरना ) - ये सब किसी भी तरह के साधन से अपने को हमउम्रों से भिन्न रूप में दिखाने की इच्छा से निर्धारित होते हैं। उदाहरण के लिए, एक ऊंची कक्षा की छात्रा को गुमनाम चिट्ठियां मिलने लगीं, जिनमें उसे धमकियां दी जाती थीं, उस पर आक्षेप किए जाते थे। वह आंखों में आंसू लिए हुए ये चिट्ठियां अध्यापकों तथा सहेलियों को दिखाती, उनसे सहायता तथा रक्षा की याचना करती। परंतु जांच-पड़ताल से जल्द पता चल गया कि वह पूरे स्कूल का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए अपने नाम ये चिट्ठियां ख़ुद लिखती थी। इस तरह उसने चरित्र के निदर्शनात्मक गुण प्रकट किए।

सही ढंग की शिक्षा-दीक्षा से चरित्र प्रबलनों की प्रवृत्तियों को रोकना संभव है। अध्यापकों तथा मां-बाप को, जिन्हें पता होता है कि बच्चे में ‘सबसे कम प्रतिरोध का पहलू’ कौन सा है, उसे मनोजन्य खिंचावों के प्रतिकूल प्रभावों से बचाना चाहिए। संवेदनशील किशोर-किशोरियां अपने प्रति बुरे कामों के लिए संदेह किए जाने, आक्षेप लगाए जाने को सहन नहीं कर पाते, जो उनके अतिरंजित नहीं, अपितु वास्तविक आत्म-मूल्यांकन के विपरीत होते हैं। इसके साथ ही शिक्षा-दीक्षा के वे प्रभाव बहुत सहायक होते हैं, जो संवेदनशील किशोरों की भीरूता की प्रतिपूर्ति करते हैं : उन्हें कक्षा के सक्रिय सहपाठियों के समूह की सामाजिक गतिविधियों में शामिल किया जा सकता है, जहां उनके लिए अपनी तुनकमिज़ाजी और शर्मीलेपन पर काबू पाना आसान होता है।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

4 टिप्पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

महत्वपूर्ण कड़ी।

ZEAL ने कहा…

Thanks for this beautiful post.

लोकेन्द्र सिंह ने कहा…

महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण

संदीप ने कहा…

बंधु अगर आप हर लेख-श्रृंखला के विभिन्‍न स्रोतों का उल्‍लेख करें तो पाठकों के लिए लाभप्रद होगा। जैसे चरित्र संबंधी पूरी श्रृंखला, योग्‍यता संबंधी श्रृंखला आदि के संदर्भ

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