हे मानवश्रेष्ठों,
यहां
पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की
जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी
के रूप में ‘चरित्र’ की संरचना के अंतर्गत चरित्र का स्वरूप तथा अभिव्यंजनाओं पर चर्चा की थी, इस बार से हम ‘योग्यता’ पर चर्चा शुरू करेंगे और योग्यता की संकल्पना को समझने की कोशिश करेंगे ।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
योग्यता की संकल्पना
( concept of ability )
कक्षा
में दो छात्रों के उत्तर लगभग एक ही होते हैं, फिर भी उनके प्रति अध्यापक
का रुख़ भिन्न-भिन्न होता है : वह एक छात्र की प्रशंसा करता है और दूसरे से
असंतुष्ट रहता है। ‘उनकी योग्यताएं ( abilities ) भिन्न-भिन्न है’, वह
समझाता है, ‘दूसरा छात्र कहीं बेहतर उत्तर दे सकता था।’। दो छात्र संस्थान
में प्रवेश लेते हैं, उनमें से एक उत्तीर्ण हो जाता है, जबकि दूसरा
अनुत्तीर्ण रह जाता है। क्या यह पहले छात्र की अधिक योग्यता का प्रमाण है?
इस प्रश्न का उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता, जब तक हम यह नहीं पता लगा
लेते कि उनमें से प्रत्येक की तैयारी पर कितना समय लगा है। ज्ञान की
प्राप्ति में सफलता ( success ) योग्यताओं का एकमात्र चिह्न नहीं है।
योग्यता मनुष्य की वह मानसिक विशेषता है, जिसपर ज्ञान ( knowledge ), कौशल ( skills ), आदतों ( habits ) की प्राप्ति निर्भर करती है, परंतु जिसे ऐसे ज्ञान, कौशल तथा आदतों तक सीमित नहीं किया जा सकता।
यदि ऐसा न होता, तो परीक्षा में मिले नंबरों, ब्लैकबोर्ड पर उत्तरों अथवा
टेस्ट में सफलताओं या असफलताओं के आधार पर परीक्षक के लिए व्यक्ति की
योग्यता के विषय में अंतिम निर्णय देना संभव हो जाता। दरअसल मनोवैज्ञानिक
अनुसंधान तथा शिक्षाशास्त्रीय अनुभव बताता है कभी-कभी कोई मनुष्य, जिसे
आरंभ में कोई काम करना ठीक से नहीं आता और इसलिए दूसरों से पिछड़ जाता है,
प्रशिक्षण के फलस्वरूप बहुत जल्दी संबंधित हुनरों तथा आदतों में पारंगत
होने लगता है और शीघ्र अपने बाक़ी सब साथियों से आगे निकल जाता है। वह
दूसरों की तुलना में अधिक योग्यता
प्रदर्शित करता है। ज्ञान, कौशल और आदतें आत्मसात करते हुए योग्यता साथ ही
ज्ञान तथा कौशल तक संकुचित होकर नहीं रह जाती। योग्यता तथा ज्ञान, योग्यता
तथा कौशल, योग्यता तथा आदत एक-दूसरे के समरूप नहीं है।
ठीक जिस
प्रकार बीज, अनाज की बाली के मामले में एक संभावना है, जो उसमें से केवल
इस शर्त पर उग सकता है कि मिट्टी की बनावट, गठन तथा नमी, मौसम, आदि अनुकूल
हों, उसी तरह मनुष्य की योग्यता भी आदतों, कौशल और ज्ञान के मामले में संभावना
( possibility, potential ) होती है। इस ज्ञान तथा कौशल का वास्तविक
आत्मसात्करण तथा संभावना का यथार्थ में रूपांतरण बहुत सारी अवस्थाओं पर
निर्भर करते हैं। उनमें से कुछ अवस्थाएं हैं : इस ज्ञान तथा कौशल में
मनुष्य के पारंगत बनने में इर्द-गिर्द के लोगों ( परिवार, स्कूल, व्यवसाय
समूह आदि ) की दिलचस्पी. अध्यापन की प्रक्रिया की कारगरता, श्रम-सक्रियता
का संगठन जिसमें इन आदतों और कौशलों की जरूरत पड़ती है तथा वे दृढ़ बनते
हैं, आदि।
योग्यता संभावना है और कौशल का किसी निश्चित क्षेत्र में आवश्यक स्तर, एक वास्तविकता
है। संगीत के प्रति बच्चे का झुकाव इस बात की कदापि गारंटी नहीं है कि वह
संगीतकार बनेगा। इसे संभव बनाने के लिए विशेष प्रशिक्षण, अध्यापक तथा
छात्र की लगन तथा परिश्रमशीलता, सुस्वास्थ्य, वाद्ययंत्रों, संगीत लिपियों
की विद्यमानता तथा बहुत-सी अन्य अवस्थाओं की आवश्यकता पड़ती है, जिनके बिना
उसकी योग्यता भ्रूणावस्था में ही मिट जाएगी।
मनोविज्ञान सक्रियता के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवयवों - ज्ञान, आदतों तथा कौशल - का योग्यता के साथ सादृश्य से इन्कार करते हुए उनकी एकता पर ज़ोर देता है। योग्यता अपने को केवल विशिष्ट कार्यकलाप में उजागर करती है, जो उसके बिना असंभव है।
स्वभावतः, मनुष्य की चित्रकारिता की योग्यता की बात ही नहीं की जा सकती,
अगर उसने इस ललित कला में कोई कौशल विकसित नहीं किया है। केवल चित्रकारिता
की विशेष शिक्षा की प्रक्रिया में ही यह पता चल सकता है कि शिक्षार्थी में
योग्यता है या नहीं। वह योग्यता इस बात में उजागर होती है कि वह कितनी
सहजता तथा शीघ्रतापूर्वक काम की विधि में पारंगत बनता है, रंगों के संयोजन
की अनुभूति प्राप्त करता है और परिवेशी जगत के सौंदर्य को पहचानना सीखता
है।
यदि कोई अध्यापक किसी स्कूली बच्चे में योग्यता के अभाव का
दावा केवल इस आधार पर करता है कि उसमें कौशल और आदतों की आवश्यक प्रणाली,
पुख़्ता ज्ञान, काम करने की विधियों का अभाव है, तो वह यक़ीनन जल्दबाज़ी में
निष्कर्ष निकालता है, गंभीर मनोवैज्ञानिक ग़लती करता है। ऐसे सुविदित
उदाहरण कम नहीं हैं, जिनसे पता चलता है कि कई व्यक्तियों की योग्यताओं को
उनके बचपन में इर्द-गिर्द के लोगों से मान्यता नहीं मिली, परंतु आगे चलकर
उन्होंने विश्व-ख्याति पाई। यहां अल्बर्ट आइन्स्टीन की चर्चा करना काफ़ी
है, जिन्हें माध्यमिक स्कूल में मामूली स्तर का छात्र समझा जाता था।
एक
ओर, योग्यता तथा दूसरी ओर, कौशल, ज्ञान और आदतों की एकता किस में प्रकट
होती है? योग्यता, कहना चाहिए, ज्ञान , कौशलों तथा आदतों में नहीं, अपितु
उनके आत्मसात्करण की गत्यात्मकता
( dynamics of assimilation ) में , अर्थात इस बात में उजागर होती है कि
ज्ञान तथा कौशल को आत्मसात् करने की प्रक्रिया, अन्य अवस्थाओं के एक समान
होने की सूरत में कितनी शीघ्रतापूर्वक, गहनतापूर्वक तथा दृढ़तापूर्वक पूर्ण
होती है, जिसका संबंध कार्यकलाप के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हुआ करता है।
और ठीक यहीं वह अंतर प्रकट होता है, जो हमें योग्यता की बात करने का अधिकार देता है। अतः, योग्यता मनुष्य की वैयक्तिक-मानसिक विशेषता और संबद्ध सक्रियता की सफलतापूर्वक पूर्ति की शर्त है तथा व्यक्ति द्वारा आवश्यक ज्ञान, कौशल और आदत आत्मसात् करने की गत्यात्मकता में अंतर को प्रकट करती है।
यदि वैयक्तिक गुणों की निश्चित समष्टि सक्रियता की अपेक्षाओं से मेल खाती
है, जिसमें मनुष्य शिक्षाशास्त्रीय कसौटी के आधार पर परिभाषित पर्याप्त
अवधि के दौरान पारंगत बन जाता है, तो हमें यह निष्कर्ष निकालने का आधार
मिल जाता है कि उसके पास इस कार्यकलाप के लिए योग्यता है। इसके विपरीत
अन्य अवस्थाओं के समान होते हुए यदि मनुष्य इस सक्रियता की पूर्ति नहीं कर
पाता, तो यह मानने का आधार है कि उसमें तदनुरूप मानसिक गुणों का, यानि
आवश्यक योग्यता का अभाव है।
परंतु इसका अर्थ, स्वभावतः, यह नहीं है
कि हर मनुष्य आवश्यक कौशलों तथा ज्ञान में सामान्यतया पारंगत नहीं बन
सकता, इसका अर्थ केवल यह है कि पारंगत बनने की प्रक्रिया लंबी होगी,
अध्यापक को अधिक मेहनत करनी पड़ेगी और अधिक समय लगाना पड़ेगा, अपेक्षाकृत कम
उल्लेखनीय परिणाम पाने पर बहुत शक्ति लगानी पड़ेगी। इस बात की संभावना भी
वर्जित नहीं होती कि मनुष्य की योग्यता अंततः विकसित हो सकती है।
मनुष्य
की वैयक्तिक-मानसिक विशेषताओं के रूप में योग्यता को, व्यक्तित्व के अन्य
गुणों तथा विशेषताओं के, अर्थात व्यक्ति की बुद्धि ( intelligence ),
स्मरण-शक्ति ( memory ) के गुणों, उसके चरित्र के गुणों तथा भावनात्मक
विशेषताओं, आदि के साथ मुक़ाबले में नहीं रखना चाहिए, अपितु उन सबके साथ एक ही क़तार
में रखना चाहिए। इन गुणों में से यदि एक या कई, सक्रियता की किसी संबद्ध
क़िस्म की अपेक्षाओं से मेल खाते हों या इनके प्रभाव में गठित होते हों, तो
यह हमें संबद्ध वैयक्तिक-मानसिक गुण को योग्यता मानने का आधार प्रदान करता है।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं
के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता
है।
शुक्रिया।
समय
5 टिप्पणियां:
बचपन में कई बार सुना है - "करत-करत अभ्यास के जड़ मति होत सुजान"
.....और इसके साथ ही अभ्यास करने की नसीहत दी जाती थी. निश्चित ही अभ्यास का अपना महत्व है...इससे दक्षता विकसित होती है. किन्तु मुझे लगता है कि यदि कुशलता की गत्यात्मकता न हो तो प्राप्त दक्षता यांत्रिक हो जाती है. अभ्यासी व्यक्ति केवल उसी विषय या उतने ही कार्य में निपुणता प्राप्त कर लेता है.....वह उसमें कोई नवीनता ला सकने में असमर्थ रहता है. कुशलता की गत्यात्मकता हमें नवीनता और शोध की दिशा में प्रवृत्त करती है.
विस्तृत और सहज तरीके से बताया गुरु... धन्यवाद
इस विषय पर बढिया और जानकारी बढाने वाला लेख!
हमें ऐसा कई बार लगा है कि दसवीं तक के सामान्य या निम्न माने जाने वाले छात्र आगे जाकर बढिया करते हैं, इसकी संभावना अधिक हो जाती है... ऐसा शायद इस वजह से होता हो कि आगे उन छात्रों को थोड़ी बेहतर मानसिकता में पढने जानने को मिल जाता होगा... ... दसवीं तक के छात्रों में बस अंकों के आधार पर सफलता का माना जाना हमारे यहाँ कुछ ज्यादा ही है... यही हाल सारी प्रतियोगिता परीक्षाओं का है... ...
'संगीत के प्रति बच्चे का झुकाव इस बात की कदापि गारंटी नहीं है कि वह संगीतकार बनेगा। '
... ... ... यह वाक्य ज्यादा पसंद आया।
तार्किक विश्लेषणात्मक आलेख.
महाशिवरात्रि की मंगलकामनाएँ.
Beautiful .
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