रविवार, 22 जुलाई 2012

खुश/उदास होने की प्रक्रिया पर संवाद

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, उनके प्रश्न पर एक संवाद स्थापित हुआ था। यह संवाद खुश/उदास होने की प्रक्रिया को समझने के लिए इस बार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रश्नकर्ता के स्तरानुसार ही यह थोड़ा सहज भी है।

वह कथन फिर से रख देते हैं कि आप भी इससे कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



खुश/उदास होने की प्रक्रिया पर संवाद

मैं जल्दी जल्दी खुश/उदास काहे हो जाता हूं....

आपके इस प्रश्न में खुश/उदास होने को फिर भी सामान्य प्रक्रिया मान कर, आपकी जिज्ञासा इतनी है कि ‘जल्दी-जल्दी’ काहे। यही आपकी जिज्ञासा का सामान्य उत्तर भी है कि आप जल्दी-जल्दी में रहते हैं, इसीलिए खुश/उदास भी जल्दी-जल्दी होते हैं, इसको समझने में समस्या क्या है?

देखिए, खुश या उदास होना मनोविज्ञान की भाषा में भावनात्मक संवेगों का मामला है। हमारी आवश्यकताओं की तुष्टि, इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति, अनुकूल परिस्थितियां हमारे मस्तिष्क में सकारात्मक संवेगों के पैदा होने का कारण बनते हैं और हम खुश महसू्स करते हैं, अपनी बारी में इन्हीं का अभाव उदासी और दुख का कारण बनता है। इसे आप समझ ही सकते हैं।

हमारी खुशी या उदासी की तीव्रता, इनकी आवृत्ति, इनके पैदा होने की बारंबारता, हमारे व्यक्तित्व और उसके विकास के साथ जुडी हुई है। हमारे ज्ञान और समझ की अवस्थाएं क्या है, हमारी चीज़ों को विश्लेषित करने की क्षमताएं कितनी सटीक हैं, हमारी आत्म-मूल्यांकन की पद्धतियां और निरपेक्षता का स्तर कैसा है, हमारी महत्त्वाकांक्षाओं का स्तर क्या है, और हमने अपनी आवश्यकताओं और लक्ष्यों के साथ अपने को भावनात्मक रूप से कितना जोड कर रखा हुआ है। ये सब चीज़ें मिलकर इसका निर्धारण करते हैं, कि हमारे भावनात्मक संवेगों का स्तर ( तीव्रता, इनकी आवृत्ति, इनके पैदा होने की बारंबारता, आदि ) क्या होगा।

अगर हम अपने व्यक्तित्व का विकास कर रहे हैं, ज्ञान और समझ को, विश्लेषण क्षमताओं को बढ़ा रहे हैं, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित करना और अपनी आवश्यकताओं और लक्ष्यों के साथ भावनात्मक जुड़ाव को कम करते जा रहे हैं तो निश्चित ही, हम अपने संवेगों के नियंत्रण और नियमन में सक्षम बनते जाते हैं। और इसके विपरीत होने पर हम अपने संवेगों के दास होते जाते हैं।

और समझने की कोशिश करते हैं।

साधारणतः मनुष्य अपने दैनन्दिनी जीवन में रोज कई तरह की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से दो चार होता है। उसकी कई आवश्यकताएं वह महसूस करता है, कई इच्छाएं पैदा करता है और उनकी पूरी होने की आकांक्षाएं करता है। वह कई क्रियाएं करता है, और उनके लक्ष्य निश्चित करता है। इन सब के लिए वह यथाशक्ति अपनी परिस्थितियों का विश्लेषण करता है, अपने लक्ष्यों के अनुकूल परिस्थितियां पैदा करने की कोशिश करता है, जिन परिस्थितियां का नियंत्रण उसके हाथ में नहीं होता, वहां वह उनके सांयोगिक रूप से अपने पक्ष में होने की कल्पनाएं करता है, और क्रियाएं करता हुआ या सिर्फ़ संयोगों ( प्रचलित भाषा में कहें तो भाग्य ) के सहारे लक्ष्यों की प्राप्ति का इंतज़ार करता है। लक्ष्य प्राप्त होते हैं तो खुश होता है, लक्ष्य प्राप्त होने की संभावनाएं कम होती जाती हैं तो उदासी महसूसता है, और जब प्राप्त नहीं होते तो दुखी भी होता है।

यदि व्यक्ति परिस्थितियों का सही विश्लेषण कर, अपनी क्षमताओं का उनके सापेक्ष सही मूल्यांकन कर, सांयोगिक परिस्थितियों का पहले से परिकल्पन कर उनके हिसाब से अपनी योजना में तदअनुकूल सुनिश्चित परिवर्तनों की संभावना का सवावेश कर, लक्ष्य निश्चित करता और उसके अनुसार ही योजना बना कर सक्रिय होता है तो उसके लक्ष्य प्राप्ति की संभावनाएं बढ़ जाती है, फलतः आनंद की भी। इसके विपरीत यदि वह अपना अतिमूल्यांकन करता है, परिस्थितियों का सही विश्लेशण नहीं कर पाता, असंभाव्य लक्ष्य चुन लेता है, सही योजनाएं नहीं बना पाता, संयोगों या भाग्य के भरोसे रहता है, तो जाहिर है वह अपने लिए उदासी और दुखों को ही बुन रहा होता है।

यदि वह अपने इन लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रति भावनात्मक रूप से ज़्यादा जुड जाता है, इनकी प्राप्ति को अपने दूसरी चीज़ों जैसे कि प्रतिष्ठा, सम्मान, अस्तित्व आदि के साथ और जोड लेता है तो जाहिरा तौर पर खुश, उदासी और दुख की तीव्रता को और बढ़ा लेता है। वह ज़्यादा ही खुश होता है, ज़्यादा ही उदास हो सकता है, ज़्यादा ही दुख और अवसाद में घिर सकता है।

यदि वह, दैनंदिनी, अपने रोजमर्रा की छोटी-छोटी चीज़ों, गैरमहत्त्वपूर्ण चीज़ों के साथ भी ऐसे ही बंधनों में बंध जाता है तो जाहिरा तौर पर ऐसे खुशी या अवसाद के क्षणो की अवस्थाएं ज़्यादा सामान्य और नियमित सी हो जाती हैं। छोटी-छोटी चीज़ों के मामलों में ना केवल ये बार-बार होने लगता है, बल्कि क्योंकि उनके परिणाम प्राप्त होने का समय का अंतराल भी कम होता है, यह जल्दी-जल्दी भी होने लगता है। जल्दी-जल्दी खुश होना, या जल्दी-जल्दी उदास और दुखी होते रहना।

जल्दी-जल्दी होने का एक और मतलब यह भी है कि हम चीज़ों को वस्तुगत ( objective ) रूप से कम, तथा आत्मपरक ( subjective ) रूप से देखने के ज़्यादा आदी हैं। मतलब हम चीज़ों को  अपने हितों के सापेक्ष तौलने लगते हैं, हितानुकूल आकांक्षाएं पालने लगते हैं। हम चीज़ों से भावनात्मक रूप से ज़्यादा जुड जाते हैं, और उनके प्रति निस्पृह रहने की बजाए उन्हें खुश या दुखी होते रहने का जरिया सा बना लेते हैं।

जैसे जल्दी से बिना महनत किये अमीर बनने का लक्ष्य चुनकर हम लॉटरी का टिकट खरीद लेते हैं, निकल जाने पर खुशी से पागल से हो सकते हैं, और नहीं निकलने पर बेहद उदास हो सकते हैं। यहां लक्ष्य ही पहली बात गलत चुना गया है, बिना महनत किये अमीर बन जाने का, इसके साथ हम पैसे के ज़रिए मिलने वाली प्रतिष्ठा, सम्मान की आकांक्षा को भी जोड़े रखते हैं, दूसरी बात परिणाम की आकांक्षा में सांयोगिक अवसरों या भाग्य का सहारा लेते हैं। सही तरीके से देखा जाए तो इस परिणाम प्रप्त होने के बहुत ही कम अवसर हैं कई लाखों में एक, जाहिर है हम अपने लिए नकारात्मक संवेगों का जखीरा ही खड़ा कर रहे हैं।

जैसे कि किसी संवेगवश, हम अपने काम या नौकरी से घर आते वक़्त पत्नी के साथ कुछ एकांतिक पलों की कल्पना कर उसके साथ इन्हें गुजारने की आकांक्षाएं लिए हो सकते हैं। हम कल्पना करते हुए आ सकते हैं कि पत्नी घर में अकेली ही हो, बच्चे कहीं बाहर खेलने गये हों, कोई घर ना आया हुआ हो, आदि-आदि, और फिर हम घर पर पहुंच कर देखते है कि किसी कारण से यह संभव नहीं हो पाया क्योंकि आपकी चाही हुई कुछ परिस्थितियां विपरीत निकली, या कुछ नई परिस्थितियां पैदा हो गईं। अब चूंकि हमने इसके परिणाम के साथ अपने को बेहद आत्मपरक कर रखा था, हम उदास हो जाते हैं, चिड़चिडे हो जाते हैं। जबकि मामला हमने ख़ुद ही सांयोगिक बनाया हुआ था, हम पहले से कुछ परिस्थितियों के लिए तैयार नहीं थे, हमने पहले से ही यह तय नहीं किया हुआ था कि परिस्थितियों को देख कर ही यह पूर्वनिश्चित कदम उठाएं जाएंगे। किन्हीं और संयोगों के पैदा होने की संभावनाएं ज़िंदगी में हमेशा रहती ही हैं, इसलिए आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने को इसके साथ इतना भावनात्मक रूप से ना जोड़ा जाए। हो जाए तो ठीक, नहीं तो ठीक, आदि।

आपकी समस्या भी ऐसी ही कुछ हो सकती है। यहां कुछ इशारे लिये गये हैं, इनके बरअक्स आपको अपनी मानसिकताओं और वास्तविकताओं को टटोलना चाहिए। अपना मूल्यांकन करना चाहिए और तदानुकूल व्यवहार में परिवर्तन करने चाहिए।

हमको अपने व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए। अध्ययन करना चाहिए, अपने ज्ञान औए समझ को बढ़ाना चाहिए, अपनी विश्लेषण क्षमताओं को सटीक बनाना चाहिए, ज़िंदगी को उसकी वास्तविकताओं के साथ समझना सीखना चाहिए, तभी हम अपने संवेगों के नियमन और नियंत्रण के लक्ष्यों को बेहतर कर सकते हैं।

शायद यह सब आपके किसी काम का निकले। आगे के आपके संवाद से चीज़ें और साफ़ होंगी।
शुक्रिया।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

6 टिप्पणियां:

Satish Chandra Satyarthi ने कहा…

हम तो जल्दी खुश या उदास हो लेते हैं और देर तक खुश या उदास रहते हैं... इतनी गहराई से कभी सोचा नहीं इस प्रक्रिया पर :)

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बेहतरीन वस्तुपरक विश्लेषण।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बेहतरीन है
हमने भी पढ़ दिया
जो लिखा है
मानवश्रेष्ठों के लिये!

Arshia Ali ने कहा…

हमेशा की तरह ज्ञान-रस से परिपूर्ण।

............
International Bloggers Conference!

Unknown ने कहा…

वर्डप्रेस पर हितेन्द्र अनंत की टिप्पणी:

hsonline
जुला 25, 2012 @ 14:04:43

धन्यवाद। सुंदर विवेचन।

मेरे साथ उल्टी समस्या है। किसी भी क्रिया के विपरीत मेरी प्रतिक्रिया अपक्षाकृत देर से आती है एवं धीमी होती है। नुकसान होने पर (उदाहरण के लिए बटुआ गुम हो जाने पर) मुझे उतनी झल्लाहट नहीं होती जितनी मेरे परिचितों को होती है। वे कहते हैं कि मैं स्वभाव से ही आलसी हूँ इसलिए ऐसा है। एक और उदाहरण, खरीदा गया सामान यदि खराब निकल जाए तो दुकानदार से उसे बदलवा लेने की तीव्रता मुझमें वैसी नहीं जैसी मैंने अपने आस-पास के लोगों में देखी है? यह क्या मेरे उदासीन होने का कारण है?

Unknown ने कहा…

वर्डप्रेस पर ही समय की प्रतिटिप्पणी:

समय
जुला 27, 2012 @ 22:39:09

सम्माननीय हितेन्द्र जी,

क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया का आधार तंत्रिका-तंत्र का प्रकार हुआ करता है। पर यह आधार, आधारभूत सहजवृत्तिक प्रतिक्रियाओं के मामले में ही अधिक प्रभावी रहता है। इन मामलों में भी अभ्यास द्वारा अपनी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित किया जा सकता है। जैसे, दर्द के प्रति, परिवेशगत भौतिक प्रभावों के प्रति, गुदगुदी आदि के प्रति, कुछ मनुष्य अपनी शारीरिक सक्रिय प्रतिक्रिया को अक्सर नियंत्रित कर लिया करते हैं।

आपने जिन दोनों उदाहरणों का जिक्र किया है, वहां यह आधारभूत प्रतिक्रिया के मामले नहीं है। ये सचेतन प्रतिक्रिया का मामले हैं, जहां मनुष्य की मान्यताएं, सिद्धांत, मूल्य आदि अपनी भूमिका निर्णायक रूप से निभाया करते हैं। ये आलसी होने की, या सामान्यता उदासीन रहने की आदत मात्र का परिणाम नहीं है, हालांकि ये भी अपना यथोचित योगदान कर रहे होते हैं।

यहां मुख्य और निर्णायक भूमिका इन चीज़ों या घटनाऒं के प्रति आपका रवैया, जिसमें कि आपकी वैचारिक बुनावट भी शामिल होती है, निभा रहा होता है। दोनों मामलों में वस्तुओं, धन के प्रति आपके उदासीन रवैये के कारण आप तीव्र प्रतिक्रिया और सक्रियता नहीं दिखा पाते। यह उदासीन रवैया इसलिए पैदा हुआ हो सकता है कि आपके विकसित विचारों और अनुभवों ने आपको इस मान्यता पर पहुंचाया हो कि वस्तुओं, धन को अधिक महत्त्वपूर्णता देना ठीक नहीं, उन्हें इंसानी संबंधों पर प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए।

बटुआ गुम हो जाना, आपको लगता होगा कि यह आपकी स्वयं की लापरवाही और उदासीनता का मसला है और इसके लिए आप अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। साथ ही यह भी कि इसका गुमना सिर्फ़ इसी से जोड़ा जाना चाहिए, धन कोई बड़ा मसला ही नहीं है। इसलिए इस पर शांत प्रतिक्रिया आती है जो स्वयं अपने परिष्कार की मानसिक आवश्यकता के मद्देनज़र, स्वआलोचना और चिंतन की अपेक्षाकृत शांत प्रतिक्रिया की ओर ले जाती है, ना कि धन हाथ से चले जाने की फालतू सी झल्लाहट की ओर।

इसी तरह खराब सामान निकल जाने पर बदलवाने के मामले में भी आप इसे अपनी आलोचना और परिष्कार के मसले से जोड़ते हो सकते हैं, जहां आपको लगता हो सकता है कि आप स्वयं यह सामान वहां से खरीद कर लाये थे, आपके पास इसे जांचने-परखने का पूरा अवसर था, फिर भी यदि आप लाए और यह खराब निकलता है तो आप इसे अपनी कमजोरियों के बरअक्स रखना पसंद करते हैं, बजाए इसके कि इसे धन की तुरंत हानि से जोड़ते हुए, दुकानदार से इसे बदलने की माथाफोड़ी करने के। यह भी होता है ऐसे कई मामलों में कि हमारी झिझक, संकोच भी ऐसा करने से रोका करता है और हम धन के फालतू पचड़े में पड़ने के बजाए दूसरा सामान या दोबारा वही सामान ( और हो सकता है उसी दुकानदार के यहां से भी ) पुनः खरीदकर अपनी ग़लती सुधारने में ही अपना भला समझते हैं।

आपकी जैसी यह उदासीनता, सामान्यतः विरल है। अगर कारण ऐसे ही कुछ है जैसा कि ऊपर लिखा गया है तो यह एक बेहतर इंसान होने के लक्षण हैं और इन्हें बनाए रखना और परिष्कृत किए जाना व्यक्तित्व-विकास की एक महती आवश्यकता है। हां इसके साथ यह भी ध्यान रखा जा सकता है ( खासकर दुकानदारों के मामले में ) कि यदि कोई जानबूझकर, अधिक मुनाफ़ा बनाने की मानसिकता से ऐसा बार-बार कर रहा है, अक्सर करता है तो उसको भी यथेष्ट सबक सिखाया जाना जरूरी है, प्रतिरोध किया जाना जरूरी है। कम से कम यह तो किया ही जा सकता है कि उसे यह पता चले कि हम उसकी इन चालाकियों को समझते हैं और उसका यह असामाजिक कार्य उसके सामाजिक बहिष्कार का कारण बनाया जा सकता है, उसकी वाज़िब कमाई को भी खतरे में डाल सकता है।

शुक्रिया।

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