शनिवार, 18 जनवरी 2014

द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - ३

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हम ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास पर आगे चर्चा की थी, इस बार हम उसी चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - ३
( a brief history on the concept of dialectics - 3 )


द्वंदवाद के इतिहास की चर्चा करते समय हम हेगेल  की, द्वंद्ववाद के सांमजस्यपूर्ण सिद्धांत के रचयिता की अवहेलना नहीं कर सकते हैं। हेगेल की मान्यता थी कि विश्व विरोधी शक्तियों की अंतर्क्रिया ( interaction ) के फलस्वरूप विकसित होता है, लेकिन उन्होंने इस विकास को किसी एक निरपेक्ष प्रत्यय ( absolute idea ) के, ‘विश्वात्मा’ या ‘विश्व बुद्धि’ से जोड़ दिया। उनके द्वंद्वात्मक मत में विश्व सिर के बल खड़ा प्रतीत होता है, वे प्रकृति तथा मानव इतिहास में विकासमान सभी कुछ को अंततः किसी ‘विश्व बुद्धि’ पर आरोपित कर देते हैं, फलतः उनका द्वंद्ववाद प्रत्ययवादी ( idealistic ) हो जाता है। हेगेल ने वास्तविक विश्व की द्वंद्वात्मकता का अनुमान प्रत्ययों के जगत में ( चिंतन में ) लगाया। उन्होंने कहा कि विश्व इतिहास ‘विश्वात्मा’ का क्रमविकास है। हर चीज़, प्रत्येक वस्तु तथा घटना में अंतर्निहित अंतर्विरोधों ( inherent contradictions ) के कारण विकसित होती है, इसलिए हर चीज़ का अपना ही इतिहास होता है। हेगेल के दर्शन में विद्यमान सही तर्कबुद्धिमूलक ( reasoning intelligence rooted ) सार, विकास के बारे में उनका सिद्धांत है, जिसमें विकास के प्रेरक बल को वे वस्तुओं और घटनाओं में निहित विरोधियों की अंतर्क्रिया पर आरोपित करते हैं। भौतिकवादी द्वंद्ववाद ( materialistic dialectics ) इस सार को ग्रहण करता है, और इसे प्रत्ययवादी घटाघोप से मुक्त कर इसे और आगे विकसित करता है।

लोगों को अपने क्रियाकलापों के दौरान विश्व में होने वाली घटनाओं के बीच विद्यमान कड़ियों की बहुत समय से जानकारी रही है। चीजों के परस्पर संबंधों के बारे में, कारणों की श्रृंखला, आदि के बारे में इन विचारों को पहले-पहल अभिव्यक्ति मिलने के बाद कई सहस्त्राब्दियां बीत गईं। पृथक-पृथक घटनाओं के सह-अस्तित्व ( co-existence ) के अवबोध से प्रांरभ होकर, इन विचारों की व्याख्या तथा विकास विभिन्न संकल्पनाओं ( concepts ) की रचना तथा वस्तुओं व घटनाओं की सार्विक अंतर्निर्भरता ( universal interdependence ) के बारे में एक विचार तक पहुंचा। देमोक्रितस  ने अंतर्संबंध ( interrelation ) के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रूप, कार्य-कारण संबंध के विचार का सैद्धांतिक दलीलों में उपयोग करके मानवजाति के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की। उन्होंने कहा कि हर चीज़ के पीछे उसका अपना कारण ( reason ) होता है, कि बिना कारण के कुछ नहीं हो सकता। देमोक्रितस के अनुसार कार्य-कारण संबंध एक प्राकृतिक आवश्यकता है, इसलिए कारणाभाव प्रदत्त घटना के असली कारणों के बारे में अज्ञान की आत्मगत ( subjective ) अभिव्यक्ति है।

प्राकृतिक घटनाओं की अंतर्निर्भरता के एकमात्र रूप की हैसियत से कार्य-कारण संबंध दर्शन और प्राकृतिक विज्ञान, दोनों में ही सुस्थापित हो गया है। निर्भरता के अन्य रूपों का, खासकर संयोग ( coincidence ), संभावना तथा प्रसंभावना ( possibility and probability ) का, मूल्यांकन मानसिक संवेदों ( mental senses ) के रूप में, आत्मगत धारणाओं ( notions ) के रूप में किया जाता था। मिसाल के लिए, फ्रांसिस बेकन  ने लिखा, "सच्चा ज्ञान वही है, जिसे कारणों से निगमित किया जाता है।"

१७वीं - १९वीं सदियों की यांत्रिक भौतिकी में कार्य-कारण संबंध की व्याख्या एक अपरिवर्तनीय ( irreversible ), प्रत्यक्ष तथा कठोर आवश्यकता के रूप में की गई थी। मिसाल के लिए, एक गेंद जिस रफ़्तार से बिलियर्ड की मेज़ पर चलती है, उसका निर्धारण गेंद पर पड़े आघात ( stroke ) तथा उसके द्रव्यमान ( mass ) से होता है। आघात के बल तथा गेंद के द्रव्यमान की गणना जितनी सूक्ष्मता से की जाएगी, उतनी ही सटीकता से गतिमान गेंद की रफ़्तार तथा प्रत्येक विशिष्ट क्षण पर उसकी स्थिति का अनुमान लगाया जा सकेगा।

इस दृष्टिकोण से सारा वस्तुगत विश्व अंतर्संबंधों की एक श्रृंखला द्वारा मज़बूती से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। हम ब्रह्मांड के सारे पिंडों के द्रव्यमान तथा वेग का बिल्कुल सही मूल्य निर्धारित करके भविष्य के किसी भी क्षण में उनकी स्थिति का निर्धारण कर सकते हैं। इससे ऐसा भी प्रतीत होता है कि विश्व में सब कुछ पूर्वनिर्धारित ( predetermined, predestined ) है। लेकिन ऐसा प्रतीत होना ही नियतिवादी दृष्टिकोण ( determinist approach ) है, यानि भाग्य या प्रारब्ध ( destiny ) पर विश्वास है।

कार्य-कारण संबंध को सामान्य ( सार्विक ) कड़ी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रूप माननेवाली, संगत भौतिकवादी व्याख्या उसकी वस्तुगत प्रकृति ( objective nature ) को उद्‍घाटित कर देती है। भौतिकवादी द्वंद्ववाद दृष्टिकोण संपूर्ण विश्व को, गतिमान और बदलती हुई वस्तुओं को एक समग्र संबंध ( a composite bonding ) के रूप में देखता है। इस सार्विक विश्व संबंधों के ढांचे के बाहर न तो किसी अलग-थलग घटना को समझा जा सकता है, न प्रक्रिया को और न ही गति को। इसीलिए, द्वंद्ववाद प्रत्येक विषय या वस्तु की वैज्ञानिक और वस्तुगत जांच को, उसके अधिकाधिक नये पक्षों, रिश्तों और संपर्क-सूत्रों को प्रकाश में लाने की एक असीम प्रक्रिया के रूप में देखता है। आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान, ब्रह्मांड में होनेवाली घटनाओं के व्यापक परिसर - आकाशगंगाओं के उद्‍भव से लेकर प्राथमिक कणों में जारी सूक्ष्मतम प्रक्रियाओं तक - अंतर्संबंधों की नियमसंगतियों की एक ठोस अभिव्यक्ति देता है। हमें गति के सारे प्रकारों - यांत्रिक स्थान परिवर्तनों, विभिन्न भौतिक, रासायनिक व जैविक प्रक्रियाओं और सामाजिक परिघटनाओं ( phenomena ) - में सार्विक अंतर्संबंध दिखाई देता है।

बेशक, द्वंद्ववाद के इतिहास में ऐसे दृष्टिकोण भी सामने आए थे, जो गति में परिवर्तनों की भूमिका को अतिरंजित ( exaggerated ) करते और उसे निरपेक्ष बनाते थे। मसलन, प्राचीन यूनानी दार्शनिक और हेराक्लितस के शिष्य क्रातीलस  ने कहा कि एक ही नदी में दो बार प्रवेश करना असंभव है, क्योंकि जब हम उसमें प्रविष्ट होते हैं तो हम और नदी, दोनों ही बदल रहे होते हैं। इससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि ज्ञान अलभ्य ( unachievable ) है, हम किसी भी वस्तु के बारे में कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि हम जिसके बारे में कह रहे होंगे अब वह अस्तित्व में ही नहीं है, बदल गई है। इस दृष्टिकोण में जिसे कई बार सापेक्षवाद कहा जाता है, गत्यात्मकता, परिवर्तनीयता और गति की भूमिका को अतिरंजित कर दिया जाता है और यह माना जाता है कि यदि हर चीज़ गतिमान है, तो वस्तुओं के बारे में कोई भी निश्चयात्मक बात नहीं की जा सकती है। यह दृष्टिकोण द्वंद्ववाद को उसके प्रतिपक्ष - अधिभूतवाद - में परिवर्तित कर देता है, जिस पर हम आगे विचार करने जा रहे हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

5 टिप्पणियां:

Vidrohee ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Vidrohee ने कहा…

excellent post...
However, I didn't get that how you assigned relativism to Heraclitus' view of inexplicability of ever changing world view.
The similar view of nonexistence of essentia of things and existence of the cause-effect law lies in core of the philosophy of Charvaks & Buddha in India and in this sense it is quite objective isn't it ?
any comment would be appreciated, thanks.
PS: apology for not writing in Hindi. However, I can understand almost everything because I studied every subject in Hindi till class 8.

Unknown ने कहा…

आदरणीय विद्रोही जी,

हमें अंग्रेजी में की गई अभिव्यक्ति को आत्मसात करने में किंचित दिक्कत आती है। यहां चल रही इस श्रृंखला में द्वंद्ववादी विचारों के इतिहास और विकास के समेकन का प्रयास मात्र किया जा रहा है। किसी दार्शनिक विशेष या अन्य वाद विशेष के विस्तार में जाने की अभी यहां गुंजाइश नहीं है। वैसे यहां आखिरी अनुच्छेद में सापेक्षवाद के साथ हेराक्लितस के शिष्य क्रातीलस के दृष्टिकोण को जोड़ा गया है, ना कि सीधे हेराक्लितस के चिंतन को। हालांकि यह हमें यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि हर चिंतन की अपनी कालसापेक्ष सीमाएं होती हैं, कि उसे कई सारे घटक तत्कालीन स्तर पर तय कर रहे होते है।

जो कहा गया है उसके आधार पर ही हमें मूल्यांकन करना चाहिए। उस अनुच्छेद में जो क्रातीलस की बात कही गई है उसके आधार पर निश्चित ही उसे सापेक्षवाद के साथ ही जोड़ा जाना चाहिए, यदि जैसा कि आपको लगा कि वह हेराक्लितस द्वारा कही गई है, तब भी। यह कथन साफ़ तौर पर ज्ञान की सापेक्षिकता को स्वीकार करते हुए वस्तुगत संज्ञान से इनकार करता है और यह घोषणा करता है कि हमारा ज्ञान वस्तुजगत को प्रतिबिंबिंत नहीं कर सकता। यही तो सापेक्षवाद की अभिलाक्षणिकता है।

पिछली कड़ियों में यथास्थान पर हेराक्लितस को द्वंद्ववादी विचारों के विकास में यथोचित श्रेय देते हुए यह कहा गया था :

"विश्व में हर चीज़ परिवर्तित, गतिमान और विकसित हो रही है, इस तथ्य को कई प्राचीन दार्शनिक पहले ही जान चुके थे। इस संदर्भ में यूनानी भौतिकवादी हेराक्लितस ने, जिन्हें एक महान द्वंद्ववादी माना जाता है, अत्यंत स्पष्ट विचार प्रस्तुत किए। उनका कहना था कि विश्व एक असीम आदिकारण तथा चिरंतन अग्नि की वज़ह से लगातार परिवर्तन की स्थिति में है। प्रत्येक वस्तु गतिमान है, प्रकृति चिरंतन गति से भरी है। हेराक्लितस के द्वंद्ववाद में विश्व विरोधी तत्वों की अंतर्क्रिया के, उनकी एकता और संघर्ष के रूप में प्रकट होता है। सत्य का ज्ञान विरोधियों के पारस्परिक परिवर्तन की, उनके संघर्ष की समझ से उत्पन्न होता है। इस तरह हेराक्लितस का द्वंद्ववाद एक भिन्न आशय ग्रहण कर चुका था, जो कि विश्व की एक प्रकार की व्याख्या, उसकी गति का, क्रमविकास का अनुचिंतन है।"

पिछली कडियों के लिंक यहां भी प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - १
http://main-samay-hoon.blogspot.in/2014/01/blog-post.html
द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - २
http://main-samay-hoon.blogspot.in/2014/01/blog-post_12.html

आप गंभीर अध्येता हैं, आपने सही ही हेराक्लितस के बारे में चेताया। अपनी समझने की इस यात्रा को जारी रखें और हमें भी ऐसे ही अवसर प्रदान करते रहें। हम आपकी आमद और हौसलाअफ़जाई के लिए शुक्रगुजार हैं।

शुक्रिया।

Vidrohee ने कहा…

समय जी,
आपके स्पष्टीकरण के लिए धन्यवाद। आपने सही कहा कि हमें दार्शनिक विचारों की सामयिकता को भी ध्यान में रखना चहिये। आपकी यह शृंखला मुझे बहुत पसन्द है। मेरी रुचि दार्शनिक सिद्धन्तों में उपस्थित वैज्ञानिक अवधारनाओं और ज्ञान कि खोज में उनके महत्व को लेकर है। इसलिए मैं वस्तुगत सत्य, अगर उनका अस्तित्व है, और उसके बारे में निश्चित ज्ञान के खोज के तरीकों के बारे में जानना चाहता हुँ। सापेक्षवाद में कहीं छुपे वस्तुगत सत्य को क्या खोजा जा सकता है ? ये मेरा प्रश्न है ।

शायद हम यह कह सकते हैं कि मानव मन में उठे कुछ मूलभूत प्रश्न समय के बन्धनों से परे हैं। यही कारण है कि मैं विभिन्न दार्शनिक सिद्धन्तों की तुलना और उनके एक समान प्रश्नों के बारे में उनके दृष्टिकोण कि तुलना करने में मैं अपने आपको रोक नहीं पाता हुँ । इसके लिए क्षमा चाहुँगा । आशा है आप इसी तरह आगे भी प्रकाशित करते रहेंगें ।

शुक्रिया,
राहुल

Unknown ने कहा…

आदरणीय विद्रोही जी,

आप सापेक्षवाद में किस तरह के वस्तुगत सत्य को खोजना चाहते हैं, या यूं कह लें कि वहां आपको कौनसा वस्तुगत सत्य नज़र आता है, आप यदि इसके विस्तार में जाएं तो हम भी आपके साथ इस संधान में शामिल हो सकते हैं। क्योंकि यूं तो हर विकसित हुआ सिद्धांत और विचार, अपने वस्तुगत आधार रखता ही है भले ही उनकी व्याख्याएं और व्युत्पन्न सिद्धांत वस्तुगत नहीं ही हो।

प्रश्न हमेशा समय के बंधनों से परे होते ही हैं, यह आपने बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात कही है। परंतु यह भी उतना ही सही है कि हर बार उनके जवाब अपने काल को परावर्तित कर रहे होते हैं, यानि जवाब समयसापेक्ष हुआ करते हैं। हर पैदा हुआ मनुष्य अपने जीवन में ऐसे ही कई प्रश्नों से गुजरता है, परंतु हर काल में उनके जवाब अलग-अलग हुआ करते हैं। जैसे-जैसे मानवजाति का ज्ञान बढ़ता जाता है, इनके जवाब भी उतना ही सटीक होते जाते हैं।

आप चाहते हैं, तो अपनी जिज्ञासाओं और संशयों को यहां भी, या अलग से मेल पर भी रख सकते हैं। हम उनसे मिलकर जूझने का प्रयत्न कर सकते हैं। संवाद की प्रक्रिया में चीज़ों को और अधिक बेहतरी से समझने में अपनी सक्षमताएं बढ़ा सकते हैं।

शुक्रिया।

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