हे मानवश्रेष्ठों,
भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग - ४
( necessity and chance ) - 4
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’
के प्रवर्गों पर चर्चा को आगे विस्तार दिया था, इस बार हम इन प्रवर्गों पर
द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण को कुछ और समझते हुए इस चर्चा का समापन करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग - ४
( necessity and chance ) - 4
प्रकृति और समाज में अनेकानेक अनिवार्यताएं
एक दूसरे को प्रतिच्छेदित ( intersects ) तथा परस्पर अंतर्क्रियाएं (
mutual interaction ) करती रहती हैं। ऐसे प्रतिच्छेदनों व अंतर्क्रियाओं
के फलस्वरूप ही संयोग का जन्म होता है। संयोग भी उतना ही वस्तुगत ( objective ) है, जितनी की अनिवार्यता और उसी की तरह यह भी मनुष्य की चेतना के बाहर विद्यमान हैं। उनके बीच एक गहन और आंतरिक संयोजन
( connection ) है ; भूतद्रव्य ( matter ) के विकास और गति के दौरान वे एक
दूसरे में रूपांतरित ( transform ) हो सकते हैं, वस्तुतः स्थान परिवर्तन
कर सकते हैं। जो चीज़ एक मामले में तथा एक प्रणाली ( system ) में संयोग है वह दूसरे संबंध तथा दूसरी प्रणाली में अनिवार्यता बन सकती है और इसी भांति, अनिवार्यता संयोग बन सकती है।
इस तरह, अनिवार्यता हमेशा संयोग से होकर अपने लिए रास्ता बनाती है और उसी
के ज़रिये अपने को उद्घाटित करती है, जबकि प्रत्येक सांयोगिक वृत्त में
अनिवार्यता का एक निश्चित अंश होता है।
द्वंद्वात्मक विधि
( dialectical method ) आधुनिक विज्ञान के अनुरूप इन दोनों के बीच
संयोजनों की जांच करने की ज़रूरत पर बल देती है। प्रकृति और समाज का सही
ढंग से संज्ञान ( cognition ) प्राप्त करना केवल ऐसे ही उपागम ( approach
) से संभव है। इसलिए यह सोचना ग़लत है कि विज्ञान ‘संयोग’ का शत्रु है। जो
वैज्ञानिक प्रत्येक सांयोगिक घटना का ध्यान से अध्ययन करता है, केवल वही
सांयोगिक घटनाओं के पीछे निहित गहन, स्थायी, अनिवार्य संयोजन की खोज कर
सकता है।
संयोग सापेक्ष (
relative ) होता है। ऐसी कोई घटनाएं नहीं हैं, जो हर मामले में और हर तरह
से संयोगात्मक हों और अनिवार्यता से जुड़ी हुई न हों। कोई एक सांयोगिक घटना
किसी निश्चित नियमबद्ध संयोजन के संबंध में ही संयोगात्मक होती है, जबकि
किसी अन्य संयोजन के मामले में वही घटना अनिवार्य भी हो सकती है। मसलन,
वैज्ञानिक विकास के संपूर्ण क्रम की दृष्टि से यह महज़ एक संयोग है कि किसी
वैज्ञानिक ने कोई खोज की, लेकिन ख़ुद वह खोज उत्पादक शक्तियों ( productive
forces ) द्वारा हासिल विशेष विकास-स्तर का, स्वयं विज्ञान की प्रगति का
आवश्यक परिणाम है।
संयोग अक्सर दो या अधिक अनिवार्य संपर्कों के
प्रतिच्छेद-बिंदु पर होता है। मिसाल के लिए, तूफ़ान में गिरे एक पेड़ को ले
लीजिये। उस पेड़ के जीवन में वह तेज़ हवा एक संयोग थी, क्योंकि वह उस पेड़ के
जीवन व वृद्धि के सार से अनिवार्यतः उत्पन्न नहीं हुई। लेकिन मौसमी कारकों
के संबंध में वह तूफ़ान एक अनिवार्य घटना था, क्योंकि उसकी उत्पत्ति उन
कारकों की संक्रिया ( operation ) के कुछ निश्चित नियमों का फल थी। संयोग
उस बिंदु पर हुआ, जहां दो अनिवार्य प्रक्रियाएं - एक पेड़ का जीवन और तूफ़ान
का उठना - एक दूसरी को काटती हैं। इस उदाहरण में केवल हवा ही पेड़ के लिए
संयोग नहीं, बल्कि वह पेड़ भी हवा के लिए वैसा ही संयोग था, जो उसके रास्ते
में आ पड़ा।
अतः संयोग प्रदत्त घटना या प्रक्रिया के संबंध में कोई
बाहरी चीज़ है और फलतः उस घटना या प्रक्रिया के लिए संयोग का होना संभव तो
है, परंतु अवश्यंभावी नहीं और वह हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता।
अनिवार्यता
एक स्थायी और पुनरावर्तक चीज़ के रूप में अनेकानेक संयोगों के बीच प्रकट
होती है और उन्हीं से होकर अपनी राह बनाती है। मिसाल के लिए, सामाजिक
विकास विविधतापूर्ण प्रयासों, लक्ष्यों तथा स्वभावोंवाले अनेकों
व्यक्तियों के क्रियाकलाप का कुल जोड़ होता है। ये सारे प्रयास अंतर्गुथित
होते हैं तथा टकराते है और अंततः विकास की एक निश्चित दिशा
में परिणत होते हैं, जो पूर्णतः अनिवार्य प्रकृति की होती है। संयोग हमेशा
अनिवार्यता के साथ होते हैं और उनको परिपूर्ण बनाते हैं और इस तरह इतिहास
में एक निश्चित भूमिका अदा करते हैं। यही कारण है कि सामाजिक विकास के एक
ही नियम विभिन्न देशों व विभिन्न अवधियों में विशेष रूप ग्रहण कर लेते
हैं, अपने खास ढंग से संक्रिया करते हैं।
उस तथ्य से कि अनिवार्यता संयोग के ज़रिये साकार हो सकती है, यह निष्कर्ष निकलता है कि संयोग अनिवार्यता को परिपूर्ण ही नहीं बनाता, बल्कि यह उसकी अभिव्यक्ति का एक रूप भी है
और यह अनिवार्यता तथा संयोग की द्वंद्वात्मकता को समझने के लिए
महत्त्वपूर्ण है। यथा, सामाजिक क्रांतिया तथा नियमानुसार होनेवाली अन्य
सामाजिक घटनाएं अनेक सांयोगिक परिस्थितियों से जुड़ी हैं, जैसे विभिन्न
घटनाओं का स्थान व समय, उनके सहभागी आदि। यह परिस्थितियां ऐतिहासिक विकास
के संबंध में सांयोगिक हैं, लेकिन इन्हीं सांयोगिक परिस्थितियों के ज़रिये
अनिवार्य प्रक्रियाएं होती हैं।
सामाजिक विकास को संतुलित क्रिया बना कर, ऐसी अनुकूल दशाएं बनाई जा सकती हैं, जो अवांछित ( unwanted ) संयोगों के प्रभाव को सीमित
करना संभव बना सकती हैं। जैसे, वैज्ञानिक कृषि कर्म का उपयोग शुरू करने,
भू-सुधार तथा अन्य उपायों से विभिन्न प्रदेशों तथा सारे देश में कृषि
उत्पादन पर मौसमी गड़बड़ियों के दुष्प्रभाव काफ़ी हद तक सीमित किये जा सकते
हैं। इसी तरह सचेत व सोद्देश्य मानवीय क्रियाकलाप सांयोगिक घटनाओं की भूमिका को तेज़ी से घटा सकते हैं। इसलिए हमें सीखना चाहिये कि हम संयोगों की अवहेलना न करें, बल्कि उनका अध्ययन करें ताकि, एक ओर तो, प्रतिकूल ( adverse ) संयोगों का पूर्वानुमान लगाया जा सके, उन्हें रोका या सीमित किया जा सके और, दूसरी ओर, अनुकूल संयोगों का उपयोग किया जा सके।
विश्व में अग्रगामी प्रक्रियाओं
के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना, उनकी नियमानुवर्तिताओं को समझना और
वस्तुगत नियमों के ज्ञान के बल पर प्राकृतिक व सामाजिक प्रक्रियाओं का
नियंत्रण करना महत्त्वपूर्ण है। अनिवार्यता निश्चित वस्तुगत दशाओं में
प्रकट होती है। परंतु ये दशाएं बदलती रहती हैं और उन्हीं के तदनुरूप
अनिवार्यता भी बदलती व विकसित होती है। अनिवार्यता बने-बनाये रूप में कभी
उत्पन्न नहीं होती, बल्कि पहले एक ऐसी संभावना ( possibility ) के रूप में
अस्तित्वमान होती है, जो केवल अनुकूल दशाओं में ही वास्तविकता ( actuality
) में परिणत होती है।
अगली बार हम द्वंद्ववाद के इन्हीं दो प्रवर्गों, संभावना और वास्तविकता पर चर्चा शुरू करेंगे।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
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