शनिवार, 26 मार्च 2016

प्रकृति और समाज पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद - १

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाजपर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने प्रकृति और समाज के अंतर्संबंधो के बारे में प्राचीन मतों पर संक्षेप में चर्चा की थी, इस बार हम इसी विषय पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का मत प्रस्तुत करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्रकृति और समाज पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद - १
( dialectical materialism on nature and society - 1 )

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, समाज को प्रकृति के क्रमविकास ( evolution ) का एक परिणाम मानता है। परंतु साथ ही प्रकृति और समाज के बीच एक गहरा अंतर भी है। प्रकृति में केवल अंधी, अचेतन शक्तियां ही एक दूसरे पर क्रिया करती हैं और उनकी अंतर्क्रिया में सामान्य नियम अभिव्यक्त होते हैं। इसके विपरीत, समाज के इतिहास में चेतना से संपन्न लोग निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संक्रिया करते हैं। परंतु यह अंतर कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, इससे यह तथ्य नहीं बदलता है कि इतिहास का क्रमविकास, आंतरिक सामान्य नियमों से संचालित होता है

श्रम के दौरान लोग मात्र भौतिक मूल्यों की रचना ही नहीं करते, बल्कि सचेत, चिंतनशील प्राणियों के रूप में स्वयं को भी ढालते हैं। प्रकृति, भौतिक उत्पादन क्रिया के विषय ( object ) तथा उसकी मूल वस्तु के रूप में कार्य करती है। परंतु मनुष्य, अपनी चेतना में प्रकृति को परावर्तित करते तथा अपने लिए कुछ व्यक्तिगत व सामाजिक लक्ष्य निश्चित करते हुए, इस क्रिया का विषयी ( subject ) होता है। उसकी उत्पादन क्रिया प्राकृतिक पदार्थ पर नियंत्रण क़ायम करने और उसे संसाधित ( processed ) करने में एक ख़ास ढंग से मदद करती है।

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के संस्थापकों ने अपने आपको यह ध्यान दिलाने तक ही सीमित नहीं रखा कि प्रकृति के साथ मनुष्य के रिश्ते का मुख्य क्रियातंत्र श्रम प्रक्रिया है और कि वह श्रम के ज़रिये अपने को प्रकृति से विलगाता तथा स्वयं को उसके मुक़ाबले में खड़ा करता है। उन्होंने स्वामित्व के मुख्य रूपों तथा उसके द्वारा संनियमित ( governed ) समाज के संगठन पर, प्रकृति और मनुष्य की अंतर्क्रिया की निर्भरता ( dependence ) पर भी लगातार ज़ोर दिया।

प्रकृति के प्रति मनुष्य का रुख़ अंतर्विरोधी ( contradictory ) है। एक ओर, वह स्वयं प्रकृति का उत्पाद है, उसकी जीवन क्रिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पूर्वाधार प्रकृति है। प्राकृतिक संपदा, ऊर्जा संसाधन, उर्वर मिट्टी, पानी, वायु, जलवायु, आदि का अस्तित्व एक निश्चित ढंग से समाज के विकास को प्रभावित करता है। दूसरी ओर, मनुष्य श्रम प्रक्रिया के दौरान प्रकृति को बदलता है। अपने लिए ठोस लक्ष्य निश्चित करते तथा उन्हें हासिल करने के लिए काम करते हुए लोग, प्रकृति को इस तरह से बदल देते हैं कि उनके क्रियाकलाप का अंतिम परिणाम अक्सर उसके मूल लक्ष्यों तथा इरादों के विपरीत हो जाता है।

मालूम है कि जानवर भी अपने प्राकृतिक पर्यावरण को प्रभावित करते हैं और उसमें कमोबेश सुस्पष्ट परिवर्तन कर देते हैं। किंतु मनुष्य का प्रभाव सैकड़ों नहीं, बल्कि हज़ारों गुना अधिक प्रबल होता है। इस प्रभाव के विनाशक परिणामों की रोकथाम करने के लिए, इसके प्रति मात्र जागरुक होने से कहीं अधिक की ज़रूरत है। यह जागरुकता, स्वयं सामाजिक सत्व ( social being ) से निर्धारित होती है और उस पर निर्भर करती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

1 टिप्पणियां:

Preeti 'Agyaat' ने कहा…

बहुत बढ़िया ब्लॉग
काफी सीखने को मिलेगा यहाँ :)

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