शनिवार, 16 अप्रैल 2016

मनुष्यजाति और प्राकृतिक पर्यावरण - १

हे मानवश्रेष्ठों,

समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाजपर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने पर्यावरण की संरचना पर विचार किया था, इस बार हम मनुष्यजाति और प्राकृतिक पर्यावरण की अंतर्क्रिया के इतिहास पर चर्चा शुरू करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



मनुष्यजाति और प्राकृतिक पर्यावरण - १
( mankind and the natural environment - 1 )

जिस प्राकृतिक पर्यावरण में मनुष्यजाति रही और विकसित हुई, वह बहुत जटिल है। इसमें शामिल हैं : (१) पृथ्वी की सतह तथा उसकी विभिन्न मिट्टियां, पहाड़ियां और पर्वत, नदियां, सागर, रेगिस्तान, आदि ; (२) विभिन्न जलवायवीय क्षेत्र ( climatic zones ) ; (३) जानवरों तथा पौधों के विविध समुच्चय, आदि। इन सबकों मिलाकर आम तौर पर एक नाम दिया जाता है - भौगोलिक पर्यावरण ( geographical environment ) । दसियों और सैकड़ों हज़ारों वर्षों तक मनुष्यजाति, पृथ्वी के आभ्यंतर ( interior ) में प्रविष्ट हुए बिना तथा वायुमंडल ( atmosphere ) में उड़े बिना ( अंतरिक्ष की तो बात ही दूर ) पृथ्वी की सतह पर रही और विकसित हुई।

अतीतकाल के अनेक चिंतकों ने विभिन्न भौगोलिक दशाओं में विभिन्न क़बीलों, जनगणों तथा जातियों को रहते देखकर यह निष्कर्ष निकाला कि मानव जीवन के मुख्य लक्षण और संस्कृति का विकास तथा सामाजिक प्रणाली भौगोलिक पर्यावरण पर निर्भर है। उनमें से कुछ ने सोचा कि कठोर या नरम जलवायु सामाजिक विकास का निर्णायक कारक है ; अन्य ने विकास का मुख्य कारण ज़मीन की उर्वरता में, पौधों व जानवरों की प्रचुरता में देखा ; इनके अलावा, कुछ अन्य ने समाज के विकास को जलमार्गों ( नदियों, सागरों, झीलों, आदि ) पर निर्भर माना।

इन दृष्टिकोणों में किंचित औचित्य है। विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में लोग तथ्यतः उन देशों में अधिक सफलता से विकसित हुए जहां की जलवायु नरम थी तथा वनस्पति और जानवरों की प्रचुरता थी, जबकि कठोर जलवायु तथा अनुर्वर ज़मीनें बिना बसी रही। परंतु मनुष्यजाति के क्रमविकास ( evolution ) को केवल भौगोलिक पर्यावरण के प्रभाव से स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। कई हज़ार वर्षों की, और सैकड़ों की भी अवधि में एक ही भौगोलिक दशाओं के अंतर्गत विभिन्न सामाजिक विरचनाएं अनुक्रमिक रूप से बनीं। पिछली कई सदियों में, कई देशों के भौगोलिक पर्यावरण में कोई तीव्र परिवर्तन नहीं हुए हैं, फिर भी इन सदियों में इन देशों की सामाजिक विरचनाओं में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं।

यदि सब कुछ भौगोलिक दशाओं पर निर्भर होता, तो इस बात का क्या स्पष्टीकरण दिया जा सकता है कि वनस्पति व जानवरों की प्रचुरता तथा गर्म जलवायुवाले लैटिन अमरीकी तथा मध्य अफ़्रीकी देशों की अर्थव्यवस्था पिछड़ी हुई है और संस्कृति का स्तर सापेक्षतः नीचा है, जबकि कई अन्य देशों में कठोर जलवायु, मिट्टी तथा अन्य प्रतिकूल दशाओं के बावजूद उन्नत औद्योगिक अर्थव्यवस्था तथा विकसित संस्कृति का अस्तित्व है ? ये प्रश्न इस विचार को प्रेरित करते हैं कि भौगोलिक पर्यावरण से संबंध तथा उस पर निर्भरता सीधी-सरल बात नहीं है। यही नहीं, समाज के विकसित होने के साथ मानवजाति पृथ्वी के आभ्यंतर में अधिक गहराइयों में पैठी और वायुमंडल की सीमा के बाहर जा पहुंची और भौगोलिक पर्यावरण की संकल्पना बहुत संकीर्ण साबित हो गयी। यह मानवजाति के प्राकृतिक पर्यावरण का मात्र एक भाग है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

3 टिप्पणियां:

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी ....

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " गुज़रा ज़माना बचपन का - ब्लॉग-बुलेटिन के बहाने " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Asha Joglekar ने कहा…

भौगोलिक पर्यावरण से संबंध तथा उस पर निर्भरता सीधी-सरल बात नहीं है।
सही कहा।

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