हे मानवश्रेष्ठों,
समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने मनुष्यजाति और प्राकृतिक पर्यावरण की अंतर्क्रिया के इतिहास पर चर्चा की थी, इस बार हम मनुष्य में जैविक तथा सामाजिक आधारों पर चर्चा शुरू करेंगे ।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिशों के लिए यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने मनुष्यजाति और प्राकृतिक पर्यावरण की अंतर्क्रिया के इतिहास पर चर्चा की थी, इस बार हम मनुष्य में जैविक तथा सामाजिक आधारों पर चर्चा शुरू करेंगे ।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
मनुष्य में जैविक तथा सामाजिक - १
( the biological and social in Man -1 )
प्राकृतिक निवास स्थल ( natural habitat ) में जीवन के विविध रूप शामिल हैं। मनुष्य स्वयं एक अत्यंत विकसित तर्कबुद्धिसंपन्न जानवर है जो श्रम की बदौलत प्रकृति से अलग हो गया। एक ओर, वह एक जीवित प्राणी ( living creature ) है और सजीव प्रकृति या जैवमंडल के विकास के सामान्य नियमों से संचालित होता है। दूसरी ओर, वह एक सामाजिक प्राणी ( social creature ) है जो निश्चित प्रकार के औज़ार और अपनी जरूरत की चीज़ें बनाता है और उनकी सहायता से खाद्य पदार्थ हासिल करता है तथा विशेष कृत्रिम निवास स्थल का निर्माण करता है। जैवमंडल जैविक विकास के नियमों द्वारा संचालित है। मनुष्य सामाजिक विकास के नियमों के अनुसार रहता है। इस तरह, स्वयं मनुष्य में दो स्रोत एकीकृत हैं, अर्थात प्राकृतिक ( जैविक ) और सामाजिक।
जब बुर्जुआ दार्शनिक समाज के विकास तथा प्रकृति के साथ उसकी अंतर्क्रिया का अध्ययन करते हैं, तो वे अक्सर यह दावा करते हैं कि मनुष्य मुख्य रूप से जीवन क्रिया के जैविक नियमों से संचालित है। बेशक, वे यह समझते हैं कि लोग ऐसे सचेत, चिंतनशील प्राणी हैं, जो अपने लिए बुद्धिमत्तापूर्ण लक्ष्य निश्चित करते हैं। परंतु इसके बावजूद, उनकी राय में, मनुष्य मुख्यतः जानवरों की भांति कार्य करते हैं। आस्ट्रियाई मनोचिकित्सक फ़्रायड ( १८५६-१९३९ ) का दावा है कि नैतिकता और संस्कृति, मनुष्य की पाशविक सहजवृत्तियों ( animal instincts ) के ख़िलाफ़ प्रतिरक्षा के रूप में समाज द्वारा सर्जित निरोधक ( restraining ), नियंत्रक क्रियातंत्र ( controlling mechanism ) हैं। अधिकांश मामलों में ये सहजवृत्तियां, जिन्हें फ़्रायड ने ‘अवचेतन’ ( subconscious ) की संज्ञा दी, व्यक्ति और सारे समाज के व्यवहार में निर्णायक भूमिका अदा करती हैं। फ़्रायड के अनुयायियों की दृष्टि से, लोगों का व्यवहार अंततः मनुष्य के पुरखों से विरासत में प्राप्त सहजवृत्तियों से निर्धारित होता है और इनमें लैंगिक सहजवृत्ति ( sex instincts ) निर्धारक होती है। लोगों के व्यवहार में आक्रामकता, प्रतिद्वंद्विता या सहयोग जैसे रूप पशुओं के क्रियाकलाप का सिलसिला मात्र हैं।
पिछले दशकों में अमरीकी आनुवंशिकीविद ( geneticist ) विल्सन का सामाजिक जैविकी का एक सिद्धांत बहुत प्रचलित हुआ है। उनका दावा है कि संस्कृति स्वयं आनुवंशिकी के जैविक नियमों ( biological laws of inheritance ) से संचालित होती है और कि सांस्कृतिक आनुवंशिकी ( cultural genetics ) की रचना करना जरूरी है जो जैविकी ( biology ) के दृष्टिकोण से मानव संस्कृति के विकास का अध्ययन करेगी। किंतु वे और उनके समर्थक, वैज्ञानिक तथ्यों के कारण यह स्वीकार करने को बाध्य हो गये कि वस्तुतः मानव व्यवहार के केवल १५ प्रतिशत कृत्यों में शुद्ध जैविक स्वभाव अंतर्निहित होता है। परंतु प्रश्न यह नहीं है कि यह प्रतिशत सही है या नहीं अथवा सत्यापन की मांग करता है, बल्कि यह है कि ऐसे दृष्टिकोणों का अर्थ क्या है और वे किन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं।
मनोविश्लेषण और सांस्कृतिक आनुवंशिकी के प्रतिपादक, आक्रामक युद्धों और विभिन्न सामाजिक झगड़ों की जिम्मेदारी मनुष्य की पाशविक सहजवृत्ति तथा आनुवंशिकता पर डाल देते हैं। इसी तरह से सामाजिक बुराइयों के विविध रूपों, युद्धों की अनिवार्यता, आदि के लिए ‘वैज्ञानिक’ प्रमाण जुटाने की कोशिश की जाती है। १९वीं सदी में डार्विन के सिद्धांत के प्रकाशित होने के बाद पूंजीवादी समाज में सामाजिक डार्विनवाद का बहुत प्रचलन हुआ ; इसने डार्विन द्वारा अन्वेषित जीवन के लिए जैविक संघर्ष के नियमों को समाज पर लागू करने का प्रयत्न किया। उस दृष्टिकोण से डार्विन द्वारा अन्वेषित अंतरा-प्रजाति संघर्ष ( जिसने जैविक प्रजातियों के परिष्करण तथा विकास को बढ़ावा दिया ), वर्ग संघर्ष ( class struggle ) में भी व्यक्त होता है। इसके अनुसार जब तक मानवजाति है, तब तक वर्ग संघर्ष भी रहेगा। इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि ऐसे विचारों के प्रतिपादक कथित जैविक उत्पत्ति के हवाले से पूंजीवाद तथा वर्ग संघर्ष को चिरस्थायी बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
1 टिप्पणियां:
वर्गसंघर्ष से श्रापित है मनुष्य समाज । हम इसे कम कर सकते हैं किंतु पूर्णतः समाप्त नहीं कर सकेंगे ।
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