हे मानवश्रेष्ठों,
मनुष्य व उसके क्रियाकलाप
( man and activity )
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां विषय-प्रवेश करते हुए भाववादी दृष्टिकोणों की कुछ मूल प्रस्थापनाओं और उनकी सीमाओं को प्रस्तुत किया था, इस बार हम इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना के पूर्वाधारों के रूप में मनुष्य व उसके क्रियाकलाप पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
मनुष्य व उसके क्रियाकलाप
( man and activity )
इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना के पूर्वाधार
( preconditions for the materialist conception of history )
ऐतिहासिक भौतिकवाद के प्रमुख उसूल ( principles ) क्या हैं? समाज व उसके इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना का क्या आशय है?
उपरोक्त
प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें उस प्रस्थान-बिंदु या आधारिका को
निर्धारित व परिभाषित करना होगा, जहां से हम अपने विचार-विमर्श की शुरुआत
कर सकते हैं। मानव क्रियाकलाप के विशिष्ट लक्षण क्या हैं?
प्रकृति में सारे परिवर्तन वस्तुगत
( objective ) होते हैं। वे चिंतन ( thought ) या किसी भी प्रकार की चेतना
( consciousness ) से जुड़े हुए नहीं होते हैं। इसके विपरीत, मनुष्य के क्रियाकलाप का मुख्य विशिष्ट लक्षण यह है कि उसकी प्रत्येक क्रिया में दो अंतर्संबंधित पक्ष ( interconnected aspects ) होते हैं : भौतिक ( material ) और प्रत्ययिक ( ideal ), जिसमें चिंतन भी शामिल है।
नींद या रुग्ण, अचेतावस्था में किये गये कृत्यों को छोड़कर, एक स्वस्थ,
सामान्य व्यक्ति की कोई भी क्रिया चेतना के किसी कृत्य के साथ जुड़ी होती
है। कार्य कर सकने से पहले एक व्यक्ति अपने लिए कोई लक्ष्य निर्धारित करता
है। यह लक्ष्य किसी ऐसी चीज़ के बारे में एक बिंब, संकल्पना या धारणा होता
है, जिसका अस्तित्व नहीं है, किंतु जिसके लिए उसे प्रयास करना ही है।
व्यक्ति का लक्ष्य कुछ वस्तुएं हासिल करना, एक मकान बनाना, आदि हो सकता
है। एक श्रम समष्टि का लक्ष्य किसी उत्पादन प्रक्रिया को सुधारना, एक नया
औद्योगिक समुच्चय बनाना, आदि हो सकता है। एक समाज का लक्ष्य जीवन की भौतिक
दशाओं को बदलना और एक नयी समाज व्यवस्था बनाना हो सकता है।
संक्षेप में, संपूर्ण क्रियाकलाप और क्रियाकलाप का प्रत्येक घटक, दो पक्षों, भौतिक और प्रत्ययिक पक्षों का एक एकत्व ( unity ) होता है।
एक व्यक्ति की कोई भी भौतिक क्रिया ( चलना-फिरना, लकड़ी चीरना, खराद पर काम
करना, आदि ) यह मांग करती है कि किये गये कार्यों का आशय समझा जाये,
क्रियाकलाप के क़ायदों की जानकारी हो, कुछ कुशलता प्राप्त हो तथा कार्य
करनेवाले को अपने लक्ष्य की जानकारी हो। इन बातों के बिना मनुष्य के
क्रियाकलाप असंभव हैं। इसके विपरीत, भौतिक दैहिक क्रियाकलाप के बिना,
भौतिक साधनों और औज़ारों के उपयोग के बिना, व्यक्ति का एक भी विचार, एक भी
लक्ष्य कार्यान्वित नहीं हो सकता है। एक व्यक्ति के स्वयं विचार भी, किसी
अन्य की समझ के लिए केवल भाषाई क्रियाकलाप से ही सुलभ हो सकते हैं, जो कि
एक नितांत भौतिक क्रिया है। इस प्रकार मनुष्य के क्रियाकलाप में भौतिक और
प्रत्ययिक पक्ष घनिष्ठता से जुड़े और अविभाज्य हैं। यह एक द्वंद्वात्मक
एकता ( dialectical unity ) है, जिसमें प्रतिपक्षी ( opposites ) एक दूसरे
को संपूरित ( supplement ) करते हैं और अंतर्गुथित ( intertwine ) होते
हैं।
परंतु प्रश्न उठता है कि मानव क्रियाकलाप के भौतिक और प्रत्ययिक पक्षों के संबंध में प्राथमिक और निर्धारक ( determinant ) कौन है?
जहां तक इस प्रश्न का संबंध है, अंग्रेज इतिहासकार तथा दार्शनिक कॉलिंगवुड
( १८८९-१९४३ ) ने दावा किया कि मनुष्य के क्रियाकलाप में मुख्य चीज़ उसका
‘आंतरिक पक्ष’, यानी विचार, भावनाएं, प्रेरणाएं, इरादे, लक्ष्य तथा सचेत
निर्णय हैं। ‘बाह्य पक्ष’, यानी संवेद द्वारा प्रत्यक्षीकृत (
sense-perceived ) भौतिक कर्मों व क्रियाओं पर केवल उसी सीमा तक विचार
करने की ज़रूरत है, जिस सीमा तक वे मानव चेतना की गहराई में पैठने में
सहायता करती हैं। उनके दृष्टिकोण से, इतिहास को समझने का अर्थ लोगों के
प्रयोजनों, इरादों तथा लक्ष्यों को समझना है। यह इतिहास की लाक्षणिक भाववादी संकल्पना
( idealist conception ) है। इसके आधार पर यह स्पष्ट करना असंभव है कि
मिलती-जुलती ऐतिहासिक दशाओं में लोगों के बीच मिलते-जुलते लक्ष्य,
आकांक्षाएं और इरादे कैसे विकसित हो जाते हैं ; ये लक्ष्य, आकांक्षाएं और
इरादे भिन्न-भिन्न सामाजिक समूहों और वर्गों के सदस्यों के बीच
भिन्न-भिन्न क्यों होते हैं ; और अंतिम, कुछ निश्चित दशाओं में लोगों के
कुछ लक्ष्य तथा इरादे कार्यान्वित किये जा सकते हैं और कुछ अन्य
कार्यान्वित नहीं होते और अनेपक्षित परिणामों पर और यहां तक कि उल्टे
परिणामों पर क्यों पहुंचा देते हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य
अपने को, अपनी जीवन क्रिया की भौतिक दशाओं से, केवल कल्पना में ही अलग कर
सकता है।
समाज के जीवन के विशिष्ट स्वभाव तथा इतिहास को समझने के लिए, मानव क्रियाकलाप को भौतिक और प्रत्ययिक, दोनों पक्षों
को एक एकत्व के रूप में, एक को दूसरे से पृथक किये बिना तथा उन्हें एक
दूसरे के मुक़ाबले में रखे बग़ैर, उनके अंतर्संयोजन ( interconnections )
में देखना अनिवार्य है। इसके
वास्ते इस प्रश्न का जवाब देना जरूरी है कि इस क्रियाकलाप का कौन सा पक्ष
प्राथमिक और निर्धारक है और कौनसा पक्ष द्वितीयक और निर्धारित है।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
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