हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां समाज की अधिरचना की प्रणाली में सामाजिक संगठनों पर चर्चा की थी, इस बार हम सामाजिक सत्व और सामाजिक चेतना की संकल्पनाओं पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
सामाजिक अस्तित्व और सामाजिक चेतना
( social being and social consciousness )
सामाजिक अधिरचना
( social superstructure ) के मुख्य तत्वों, यानी राज्य, पार्टियों तथा
सामाजिक संगठनों के क्रियाकलाप में दो पक्षों, यानी आत्मिक ( spiritual )
और भौतिक ( material ), की अंतर्क्रिया ( interaction ) होती है। इस
अंतर्क्रिया का नियमन ( regulation ) करनेवाली, सर्वाधिक सामान्य नियमितता
( pattern ) को निरूपित करने के लिए, ऐतिहासिक भौतिकवाद के इन दोनों
प्रवर्गों ( categories ), यानी सामाजिक अस्तित्व या सत्ता ( social being ) और सामाजिक चेतना ( social consciousness ) को समझना जरूरी है।
सामाजिक अस्तित्व
में, उत्पादन के संबंधों के आधार पर उत्पन्न होनेवाले वस्तुगत ( objective
) सामाजिक और व्यावहारिक संबंधों की समग्रता ( totality ) तथा उत्पादक
शक्तियों के भौतिक तत्व ( material elements ) शामिल होते हैं।
सामाजिक चेतना
में, समाज के सदस्यों के उन सारे मतों, सिद्धांतों, दृष्टिकोणों, ज्ञान
तथा अनुभवों की समग्रता शामिल होती है, जो सामाजिक अस्तित्व के परावर्तन (
reflection ) के ज़रिये उत्पन्न होते हैं। सामाजिक चेतना काल विशेष में
समाज विशेष में रहनेवाले लोगों के मानसों ( minds ) का योग मात्र नहीं
होती है। यह वह सामान्य ( general ), या वह सर्वनिष्ठ ( common ) है, जो
किसी एक प्रदत्त ऐतिहासिक युग में समाज, वर्गों तथा सामाजिक समूहों के
सदस्यों की चेतना में निहित होता है।
ये प्रवर्ग, ऐतिहासिक
भौतिकवाद ( historical materialism ) के लिए केंद्रीय महत्व के हैं।
सामाजिक चेतना, सामाजिक अस्तित्व को परावर्तित ( reflect ) करती है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद के विरोधियों ने अनेक बार कहा है कि वह सामाजिक चेतना
को सीधे-सीधे अर्थव्यवस्थाओं से व्युत्पन्न करता है तथा सामाजिक जीवन के
सारे पक्षों को महज़ आर्थिक उत्पादन कार्यों तक सीमित करता है। ऐतिहासिक
भौतिकवाद इस तरह की एकांगी और अधिभूतवादी ( metaphysical ) व्याख्याएं
प्रस्तुत नहीं करता है, वास्तव में, ये स्वयं पूंजीवादी अध्येता ही हैं,
जो ऐसे आदिम ‘आर्थिक भौतिकवाद’ के दोषी हैं। मसलन, अमरीकी समाजशास्त्री व
अर्थशास्त्री वाल्ट रोस्टो ने बुद्धि की अवस्थाओं का सिद्धांत पेश किया,
जिसमें यह दावा किया गया कि समाज का सारा विकास उद्योग के विकास द्वारा
निर्धारित होता है, कि सारे सामाजिक अंतर्विरोधों ( वर्गों के बीच
अंतर्विरोधों सहित ) को आर्थिक क्रियाकलाप में सुधार भर करके तथा भौतिक
संपदा की प्रचुरता से सुलझाया जा सकता है। हालांकि यह दृष्टिकोण जीवन के
अनुभव से असत्य साबित हो गया है, क्योंकि पूंजीवादी देशों में सर्जित
विराट संपदा मेहनतकशों ( working people ) की पहुंच से बिल्कुल बाहर है।
फिर भी यह सिद्धांत अब भी बहुत प्रचलन में है।
विश्व में कई देशों
की परिस्थितियों के विश्लेषण हमें बताते हैं कि, कई देशों में क्रांतियों
और गृहयुद्धों के बाद वहां की उत्पादक शक्तियां ( productive forces )
तबाह हो गयी थीं, अधिकांश कारखाने और मिलें काम नहीं कर रही थीं, कृषि की
उत्पादकता नीचे गिर गयी थी। यानी अर्थव्यवस्था संकटापन्न थी। परंतु इस
सबके बावजूद उन देशों में सर्वसाधारण की चेतना क्रांतिकारी थी, वह
ऐतिहासिक आशावाद ( optimism ), नयी राजनैतिक व्यवस्था की संभावना पर
विश्वास और नये समाज के निर्माण की चाह से ओतप्रोत थी। साथ ही ऐसे कई
देशों में, जहां कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं बेहतर स्थिति में थीं, उनकी
उत्पादक शक्तियों का स्तर सापेक्षतः ऊंचा था, लेकिन उनकी सामाजिक चेतना आम
निराशावादी स्वभाव की थी और सारी आत्मिक संस्कृति संकट में थी। यदि
सामाजिक चेतना की अवस्था तथा अंतर्वस्तु केवल उत्पादक शक्तियों तथा
अर्थव्यवस्था की हालत से ही निर्धारित होती, तो वस्तुस्थिति बिल्कुल उल्टी
होनी चाहिये थी।
वर्तमान हालात में ऐसा प्रतीत हो सकता है कि
पूंजीवादी औद्योगिक देशों में संकट की घटनाओं पर क़ाबू पाने, मुद्रास्फीति
की दरों में अंशतः घटती होने, बेरोजगारी की बढ़ती बंद होने तथा किंचित
आर्थिक उत्थान की उपलब्धि के बाद सार्वजनिक समझ तथा सार्वजनिक मनोदशा
सार्विक, प्रशांत ( serene ) आशावाद के अनुरूप हो जाती होगी। लेकिन
वस्तुस्थिति ऐसी कदापि नहीं होती। गहन वैज्ञानिक-तकनीकि क्रांति और समाज
में सूचना प्रणाली का द्रुत विकास, जनता के कुछ संस्तरों और व्यावसायिक
समूहों के बीच काफ़ी अधिक अस्थायित्व ( instability ) और भविष्य पर
अविश्वास को जन्म दे रहे हैं। उद्योगों के स्वचालन ( automation ),
रोबोटीकरण तथा कंप्यूटरीकरण के सिलसिले में कई कर्मचारियों के सिर पर
बेरोज़गारी का खतरा लगातार मंडराता रहता है। नयी तकनीकों से अतिरिक्त धंधों
के निकलने का तथ्य भी इस बात की गारंटी नहीं है कि अनेक लोग काम से निकाले
नहीं जायेंगे, बेरोजगार नहीं होंगे और सामाजिक संरचना में ‘फालतू’ नहीं हो
जायेंगे। इसलिए देशों की ऐसी परिस्थितियों की सामाजिक चेतना में
निराशावादी स्वर हावी होता जाता है।
उपरोक्त विवेचन से यह निष्कर्ष
निकलता है कि सारे सामाजिक दृष्टिकोणों, सारे मतों, आदर्शों और राजनीतिक
सिद्धांतों को प्रत्यक्षतः आधार से, यानी उत्पादन संबंधों से निगमनित (
deduce ) नहीं किया जा सकता है। ये संबंध तथा उनके अनुरूप भौतिक,
व्यावहारिक क्रियाकलाप, वास्तव में अन्य सारे संबंधों व क्रियाकलाप के
रूपों और सामाजिक प्रक्रियाओं की बुनियाद में निहित होते हैं। किंतु इसका
मतलब यह है कि सामाजिक चेतना में केवल
उत्पादन संबंध तथा उत्पादन के क्रियाकलाप ही परावर्तित नहीं होते, बल्कि
अन्य वस्तुगत सामाजिक संबंध, क्रियाकलाप के रूप ( और उनसे जुड़ी हुई
सामाजिक घटनाएं तथा प्रक्रियाएं, यानी सामाजिक अस्तित्व ) भी परावर्तित
होते हैं। इस तरह, प्रवर्ग ‘आधार’ और ‘अधिरचना’ यह समझने के लिए
अभी भी पर्याप्त नहीं है कि सामाजिक चेतना क्या और कैसे परावर्तित करती है
और लोगों के सामाजिक क्रियाकलाप को कैसे प्रभावित करती है।
प्रवर्ग
‘सामाजिक अस्तित्व’, ‘आधार’ ( basis ) से अधिक विस्तृत है, क्योंकि वह
केवल उत्पादन संबंधों को ही नहीं, बल्कि उत्पादक शक्तियों के भौतिक तत्वों
तथा अन्य सामाजिक संबंधों व संस्थानों और विविध प्रकार के क्रियाकलाप को
भी अपने में समेट लेता है। इसके विपरीत प्रवर्ग ‘सामाजिक चेतना’,
‘अधिरचना’ से संकीर्णतर है क्योंकि अधिरचना में सामाजिक चेतना के अतिरिक्त
राज्य, पार्टियां तथा वे अन्य संस्थान तथा संगठन भी शामिल हैं, जो सामाजिक
चेतना के ‘उत्पादन’ तथा विभिन्न सिद्धांतों, विचारों तथा मतों के सर्जन
में लगे हैं और उन्हें कार्यान्वित करने और जीवनीशक्ति प्रदान करने के लिए
संघर्ष करते हैं। किंतु ये संस्थान और संगठन स्वयं चेतना से परे वस्तुगत
रूप से विद्यमान हैं और उनके भौतिक तत्व सामाजिक चेतना द्वारा परावर्तित
होते हैं। इस तरह, सामाजिक चेतना और सामाजिक अस्तित्व का रिश्ता सीधा-सादा
नहीं है, यह विभिन्न सामाजिक समूहों, वर्गों तथा सामाजिक संस्थानों के
क्रियाकलाप के द्वारा व्यवहित ( mediated ) है।
सामाजिक चेतना, सामाजिक अस्तित्व को सिर्फ़ परावर्तित ही नहीं करती, बल्कि प्रतिपुष्टिकर ( feedback ) प्रभाव भी डालती है।
मसलन, पूंजीवादी अवधि की सामाजिक चेतना की प्रणाली में और दृष्टिकोणों तथा
मतों के साकल्य ( aggregate ) में पूंजीवाद के आंतरिक संकट को परावर्तित
करनेवाले क्रांतिकारी विचार उत्पन्न हो सकते हैं। जब ये विचार सर्वसाधारण
में घर कर लेते हैं, तो वे क्रांतिकारी क्रियाकलाप में मूर्त हो सकते हैं
और स्वयं अपने अस्तित्व या सत्ता को ही परिवर्तित कर सकते हैं। इसके
फलस्वरूप पूंजीवादी अस्तित्व या सत्ता के स्थान पर एक नया अस्तित्व या
सत्ता - समाजवादी समाज - उत्पन्न हो सकता है। सामाजिक चेतना, सामाजिक
अस्तित्व को जितनी सटीकता से परावर्तित करती है, उतनी ही अधिक प्रबलता से
सामाजिक अस्तित्व को प्रभावित करती है।
ऊपर कही गयी सारी बातों का
समाहार करते हुए अब हम ऐतिहासिक भौतिकवाद के बुनियादी उसूलों ( basic
principles ) को निरूपित कर सकते हैं।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
समय अविराम
1 टिप्पणियां:
शुरुआत में ही झटका लगता है जब पढ़ना शुरु किया जाता है हे मानवश्रेष्ठो
थोड़ा कठिन है :)
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