रविवार, 21 जनवरी 2018

सामाजिक क्रांति की संरचना

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के सिद्धांत के अंतर्गत सामाजिक क्रांति पर चर्चा की थी, इस बार हम सामाजिक क्रांति की संरचना को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



सामाजिक क्रांति की संरचना
(structure of a social revolution)

जिस सामाजिक क्रांति से एक नयी सामाजिक-आर्थिक विरचना (socio-economic formation) बनती है, वह सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करती है और उसकी संरचना जटिल होती है।

पुरानी उत्पादन पद्धति का विनाश और नयी के उद्‍भव को आर्थिक क्रांति (economic revolution) कहते हैं। इसका मुख्य काम पुराने उत्पादन संबंधों (relations of production) को ऐसे नये संबंधों से प्रतिस्थापित करना है, जो उत्पादक शक्तियों (productive forces) के स्वभाव तथा विकास के स्तर के अनुरूप हों।

पुरानी विरचना के अंगों की रचना करनेवाले पुराने क़ानूनी तथा राजनीतिक संगठनों से बनी न्यायिक तथा राजनीतिक अधिरचना (superstructure) का, नयी विरचना के आधार के अनुरूप नयी न्यायिक तथा राजनीतिक अधिरचना के द्वारा प्रतिस्थापन को राजनीतिक क्रांति (political revolution) कहते हैं। 

चूंकि राज्य सत्ता, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपकरण होती है, इसलिए उसके लिए संघर्ष, राज्य सत्ता को हथियाना, पुराने राज्यतंत्र को तोड़ना और एक नये राज्य का निर्माण प्रत्येक सामाजिक क्रांति का सार है। मामले का यही एक पहलू है, जिसे क्रांतिकारी परिवर्तनों के विरोधी नज़रअंदाज़ करने की कोशिश करते रहे हैं। वे इसे इस तरह से पेश करने का प्रयत्न करते हैं, मानो सामाजिक क्रांति की, विशेषतः समाजवादी क्रांति की सबसे महत्वपूर्ण समस्या को पुराने राज्य को ख़त्म किये बिना, उसे केवल सुधार कर तथा दोषहीन बनाकर हल किया जा सकता है। वे राज्य की वर्गीय प्रकृति (class nature) को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

पूंजीवादी राज्य, जो मेहनतकश वर्ग का राजनीतिक दमन करने का उपकरण है, अपनी प्रकृति से ही प्रतिरोधी अंतर्विरोधों (antagonist contradictions) का उन्मूलन नहीं कर सकता, उत्पादन के साधनों ( means of production) पर निजी स्वामित्व (private ownership) को ख़त्म नहीं कर सकता और वर्गहीन समाज (classless society) के निर्माण को बढ़ावा नहीं दे सकता। इसलिए पूंजीवादी राज्यतंत्र का, मेहनतकशों के राज्य ( जिसमें मज़दूर वर्ग की प्रमुख भूमिका हो ) से प्रतिस्थापन समाजवादी क्रांति (socialist revolution) का, उस क्रांति का अनिवार्य ऐतिहासिक पूर्वाधार है, जो सारी सामाजिक क्रांतियों की शृंखला में गहनतम क्रांति है।

एक विरचना से दूसरी में संक्रमण के दौरान सामाजिक चेतना और समाज की संपूर्ण आत्मिक संस्कृति में भी गहरे गुणात्मक परिवर्तन (qualitative changes) होते हैं, जिनमें वैचारिकी में परिवर्तन भी शामिल है। न्याय, नैतिकता, कला, दर्शन, आदि में एक नयी सामाजिक और वैचारिक अंतर्वस्तु (content) भर जाती है, जो नये सामाजिक सत्व (social being) को परावर्तित करती है और उसके विकास को सक्रियता से आगे बढ़ाती है। समाज की सांस्कृतिक छवि बदल जाती है। इस प्रक्रिया को सांस्कृतिक क्रांति (cultural revolution) कहते हैं

पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण (transition) की अवधि में समाज की बौद्धिक, सांस्कृतिक छवि में विशेष गहन परिवर्तन होते हैं। परंतु यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि सांस्कृतिक क्रांति का मतलब पूर्ववर्ती सांस्कृतिक परंपराओं से पूरी तरह से नाता तोड़ना तथा उन्हें ठुकरा देना है। एक वास्तविक सांस्कृतिक क्रांति को पूर्ववर्ती संस्कृतियों द्वारा रचित हर मूल्यवान चीज़ को संचित करना तथा विश्व व राष्ट्रीय संस्कृति की सर्वोच्च उपलब्धियों को सारे सामाजिक समूहों और सर्व-साधारण के विस्तृत अंचलों के लिए सुलभ बनाना चाहिए।

आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्रांतियां, सामाजिक क्रांति के सबसे महत्वपूर्ण पहलू (aspects) तथा तत्व (element) हैं और अपने कार्यान्वयन (realisation) में घनिष्ठता से अंतर्संबंधित (interconnected) हैं। कभी-कभी उनके समय एक दूसरे को प्रतिच्छेदित (intersect) करते हैं, कभी-कभी वे एक साथ होती हैं और कभी-कभी विशिष्ट ऐतिहासिक स्थिति के अनुसार आगे-पीछे हो सकती हैं और, कमोबेश, दीर्घकालिक हो सकती हैं। किंतु सभी परिस्थितियों में सामाजिक क्रांति केवल तभी पूर्ण होती है, जब अर्थव्यवस्था, सामाजिक व राजनीतिक जीवन और संस्कृति में सामाजिक विकास द्वारा प्रस्तुत कार्यों को निष्पादित कर दिया गया हो। इन कार्यों का निष्पादन करने का अर्थ, नयी सामाजिक-आर्थिक विरचना का निर्माण करना भी है।

सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के आनुक्रमिक परिवर्तन (consecutive change) तथा दूरगामी सामाजिक क्रांतियों के ज़रिये समाज का विकास, इतिहास का एक वस्तुगत नियम है। सामाजिक क्रांतियां, कुछ निश्चित परिस्थितियों में ही इतिहासानुसार अनिवार्य होती हैं। जब ये परिस्थितियां लुप्त हो जाती हैं, तो एक विरचना से दूसरी में संक्रमण की शक्ल में क्रांति की वस्तुगत अनिवार्यता (objective necessity) भी लुप्त हो जाती है। विरचनाओं की कार्यात्मकता (functioning) तथा अनुक्रमण (succession) के वस्तुगत नियमों की संक्रिया को समझने के वास्ते हमारे लिए ज़रूरी है कि हम मानव समाज के जन्म से लेकर मौजूदा समय तक के मानव इतिहास के विकास की बुनियादी अवस्थाओं की जांच-परख करें।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

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