हां तो हे मानव श्रेष्ठों,
समय फिर आपकी सेवा में हाज़िर है।
पिछली बार बात यहां छोडी़ थी कि मनुष्य अपने जीवन में, खासकर जीवन की शुरुआत में मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास को जैसे क्रमबद्ध तरीके से दोहराता है।
चलिए बात आगे बढाते है....
मनुष्य अपने जीवन की शुरुआत में लगभग एक मांस के लोथडे़ की तरह होता है, एक संवेदनशील हरकतशुदा ज़िंदा मांस। वह धीरे-धीरे अपने पैरों और हाथों की क्रियाओं को मस्तिष्क के साथ समन्वित करना सीखता है। दृष्टि, श्रवण, घ्राण, स्वाद और स्पर्श इन्द्रियों का प्रयोग और संबंधित अनुभवों का नियमन सीखता है एवं इनकी संवेदनशीलता को परिष्कृत करता है। शरीर का संतुलन साधता है, खडा़ होता है, चलना सीखता है, भाषा सीखता है, सारे जीवन संबंधी क्रिया-व्यवहार सीखता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि मनुष्य जाति अपने क्रमिक विकास से गुजरी है। मनुष्य के पास चूंकि इन सारी संभावनाओं से युक्त प्राथमिक ढांचा पहले से ही है अतः प्रत्येक कदम उसके विकास में गुणात्मक परिवर्तन लाता है जिससे कि शारीरिक क्रियाओं और उनसे संबंधित तंत्रिका-मस्तिष्क प्रणाली के समन्वय की सामान्य उन्नत अवस्था उसे समय के छोटे अंतराल में ही प्राप्त हो जाती है परन्तु इसमें परिवेशी समाज द्वारा जीवन के सामान्य व्यवहारिक ज्ञान के आधार पर उसकी मदद की भूमिका निर्णायक होती है।
अब बात आती है, मानव जाति द्वारा समेटे गए प्रकृति के बृहद ज्ञान, विशिष्ट ज्ञान एवं क्रियाकलाप, विज्ञान, तकनीक, व दर्शन के संदर्भ में। इस ज्ञान की परास बहुत अधिक है, इसीलिए अब यह संभव नहीं रह गया है कि मनुष्य का परिवेशी समाज, जो खु़द भी संपूर्ण ज्ञान स्रोतों से बावस्ता नहीं होता, उसको ज्ञान का हर पाठ सिखा सके, उसकी जिज्ञासाओं का पूर्णतया समाधान कर सके, जिम्मेदारी से उसकी ज्ञान पिपासा की सही दिशा निर्धारित कर सके। वह उसे सिर्फ़ वहीं तक पहुंचा सकता है जहां तक खु़द परिवेशी समाज के ज्ञानऔर समझ की सीमाएं हैं, सभ्यता और संस्कृति का स्तर है, और खु़द समाज के भीतर इन सीमाओं और स्तरों के अपने-अपने व्यक्तिगत स्तर हैं।
मानव-समाज ने इन सीमाओं को समझा, और परिवेशी समाज से इतर एक शिक्षण-प्रशिक्षण प्रणाली विकसित की, ताकि उपलब्ध ज्ञान का सामान्य सत्व, मानव जाति के नये सदस्यों को क्रमबद्ध तरीके से व्यवस्थित रूप में दिया जा सके और फ़िर उन्हें ज्ञान की शाखा विशेष में विशेषज्ञता भी ताकि वे उसका अतिक्रमण कर मानव जाति को और समृद्ध कर सकें। यानि कि अब मनुष्य और ज्ञान की संभावनाओं के बीच एक सामाजिक व्यवस्था विकसित हो जाती है, और यह संभावना भी कि इस तंत्र का नियमन कर रही राजनैतिक व्यवस्था इन संभावनाओं को अपने हितों के हिसाब से नियंत्रित और निर्धारित कर सकती है।
उफ़ ! फ़िर ज़ियादा हो गया, समय हूं ना, इधर-उधर भटकने और समय खींचने की आदत है।
पर ये बात ही ऐसी है कि नहीं चाहते हुए भी बात बढ़ रही है।
चलिए, फ़िर बात करेंगे।
कोई उलझन हो तो समय को मेल कर सकते हैं।
अभी तक प्राप्त जिग्यासाओं का समाधान कुछ तो साथ-साथ चल रहा है,
और कुछ का बाद में होगा, धेर्य रखें।
समय फिर आपकी सेवा में हाज़िर है।
पिछली बार बात यहां छोडी़ थी कि मनुष्य अपने जीवन में, खासकर जीवन की शुरुआत में मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास को जैसे क्रमबद्ध तरीके से दोहराता है।
चलिए बात आगे बढाते है....
मनुष्य अपने जीवन की शुरुआत में लगभग एक मांस के लोथडे़ की तरह होता है, एक संवेदनशील हरकतशुदा ज़िंदा मांस। वह धीरे-धीरे अपने पैरों और हाथों की क्रियाओं को मस्तिष्क के साथ समन्वित करना सीखता है। दृष्टि, श्रवण, घ्राण, स्वाद और स्पर्श इन्द्रियों का प्रयोग और संबंधित अनुभवों का नियमन सीखता है एवं इनकी संवेदनशीलता को परिष्कृत करता है। शरीर का संतुलन साधता है, खडा़ होता है, चलना सीखता है, भाषा सीखता है, सारे जीवन संबंधी क्रिया-व्यवहार सीखता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि मनुष्य जाति अपने क्रमिक विकास से गुजरी है। मनुष्य के पास चूंकि इन सारी संभावनाओं से युक्त प्राथमिक ढांचा पहले से ही है अतः प्रत्येक कदम उसके विकास में गुणात्मक परिवर्तन लाता है जिससे कि शारीरिक क्रियाओं और उनसे संबंधित तंत्रिका-मस्तिष्क प्रणाली के समन्वय की सामान्य उन्नत अवस्था उसे समय के छोटे अंतराल में ही प्राप्त हो जाती है परन्तु इसमें परिवेशी समाज द्वारा जीवन के सामान्य व्यवहारिक ज्ञान के आधार पर उसकी मदद की भूमिका निर्णायक होती है।
अब बात आती है, मानव जाति द्वारा समेटे गए प्रकृति के बृहद ज्ञान, विशिष्ट ज्ञान एवं क्रियाकलाप, विज्ञान, तकनीक, व दर्शन के संदर्भ में। इस ज्ञान की परास बहुत अधिक है, इसीलिए अब यह संभव नहीं रह गया है कि मनुष्य का परिवेशी समाज, जो खु़द भी संपूर्ण ज्ञान स्रोतों से बावस्ता नहीं होता, उसको ज्ञान का हर पाठ सिखा सके, उसकी जिज्ञासाओं का पूर्णतया समाधान कर सके, जिम्मेदारी से उसकी ज्ञान पिपासा की सही दिशा निर्धारित कर सके। वह उसे सिर्फ़ वहीं तक पहुंचा सकता है जहां तक खु़द परिवेशी समाज के ज्ञानऔर समझ की सीमाएं हैं, सभ्यता और संस्कृति का स्तर है, और खु़द समाज के भीतर इन सीमाओं और स्तरों के अपने-अपने व्यक्तिगत स्तर हैं।
मानव-समाज ने इन सीमाओं को समझा, और परिवेशी समाज से इतर एक शिक्षण-प्रशिक्षण प्रणाली विकसित की, ताकि उपलब्ध ज्ञान का सामान्य सत्व, मानव जाति के नये सदस्यों को क्रमबद्ध तरीके से व्यवस्थित रूप में दिया जा सके और फ़िर उन्हें ज्ञान की शाखा विशेष में विशेषज्ञता भी ताकि वे उसका अतिक्रमण कर मानव जाति को और समृद्ध कर सकें। यानि कि अब मनुष्य और ज्ञान की संभावनाओं के बीच एक सामाजिक व्यवस्था विकसित हो जाती है, और यह संभावना भी कि इस तंत्र का नियमन कर रही राजनैतिक व्यवस्था इन संभावनाओं को अपने हितों के हिसाब से नियंत्रित और निर्धारित कर सकती है।
उफ़ ! फ़िर ज़ियादा हो गया, समय हूं ना, इधर-उधर भटकने और समय खींचने की आदत है।
पर ये बात ही ऐसी है कि नहीं चाहते हुए भी बात बढ़ रही है।
चलिए, फ़िर बात करेंगे।
कोई उलझन हो तो समय को मेल कर सकते हैं।
अभी तक प्राप्त जिग्यासाओं का समाधान कुछ तो साथ-साथ चल रहा है,
और कुछ का बाद में होगा, धेर्य रखें।
3 टिप्पणियां:
दिमाग को कभी दिल के रूबरू करके देखिये.. फिर कहिए..
आप समझ रहे हैं कि अधिक हो गया है। ऐसा नहीं है। जितना लिखा गया है उस से दुगना तक चल सकता है।
kriyatmak hai. bahut bhadiya.brahmand mein samay anant hai....main bhi vahin hoon bilkul samay ke pashva mein ...koutuhal jo thahra...
- kumar koutuhal/amritpathak
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