हे मानवश्रेष्ठों,
फिलहाल भारी-भरकम स्थगित। चलिए कुछ हल्का-फुल्का कुछ किया जाए, पर इसका क्या किया जा सकता है कि यहां से भी आप काफ़ी गंभीर इशारे पा सकते हैं। अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में जद्दोज़हद पैदा कर सकते हैं, और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं।
बहुत पहले सपनों के मनोविज्ञान पर दो आलेख प्रस्तुत किये थे, ‘आखिर क्या है सपनों का मनोविज्ञान’ और ‘कुछ सपने आखिर सच होते क्यों प्रतीत होते हैं’। प्रसंग पुराना है पर आप जानते ही हैं बात कभी पुरानी नहीं होती। विचार हमेशा पहली बार मुख़ातिब हो रहे और आत्मसात नहीं कर पाये मानवश्रेष्ठों के लिए नया ही रहता है। तो फिलहाल मुद्दा यह है कि उसी आलेख के बाद एक मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, उन्हीं संदर्भों में एक संवाद स्थापित हुआ था। यहां उसे व्यक्तिगत संदर्भों के बिना सार्वजनिक किया जाना इसलिए जरूरी लग रहा है कि कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर और मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण किया जा सके। यह बताना शायद ठीक रहे कि उनकी पूर्वानुमति इस हेतु प्राप्त कर ली ही गई थी।
०००००००००००००००००००००
उनका प्रश्न/संवाद कुछ इस प्रकार था:
सपने इस तरह का सच क्यों बता जाते हैं ?
नमस्ते जी ,आपके ब्लाग पर ...आप लिखते ही हैं कि मेल पर भी आपसे चर्चा की जा सकती है ..मैंने आपके ब्लाग पर दोनों लेख भी पढ़े हैं ...कमेंट्स पढ़े है ...कुछ समझ में आया कुछ नहीं ..पर मेरा अनुभव यह है कि जब जब बुरा सपना देखा है वह सच हुआ है ...
( इसके बाद उन मानवश्रेष्ठ ने अपने कुछ सपनों का जिक्र किया, जिनके सच हो जाने के कारण वे अचंभित और प्रश्नाकुल थे। वे व्यक्तिगतता का आधार रखते थे, अतएव उन्हें यहां प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है )
क्या यह सच होता है ..? मैंने इसको कभी सीरियस क्यों नही लिया ? नही जानता ..पर क्या सच में कोई मुझे संकेत कर जाता है इन बुरे सपनों से ..हम अकसर इन्हे नज़रंदाज़ क्यों कर देते हैं ? बहुत से सवाल है दिल में .और अब भी कोई सपना बुरा आए तो डर जाता हूँ ..अब यह मानता हूँ कि कोई शक्ति हमारे अन्दर की ही हमे सूचना जरुर देती है पर शायद हम उस को पहचान नही पाते ....पर यह सपने आते हैं .इस मेल में सिर्फ अपने आने वाले सपनो का जिक्र किया है ..आगे भी कुछ प्रश्न है जो अगली मेल में जारी रहेंगे....
शुक्रिया
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इस प्रश्न पर समय द्वारा किये गए इशारों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। व्यक्तिगत संदर्भ हटा दिये गये हैं, अतएव कहीं-कहीं लय टूटती सी नज़र आ सकती है। आप भी देखिए, कि आप यहां से क्या पा सकते हैं। सपनों के मनोविज्ञान संबंधी दिलचस्पी हो ( जिसका कि जिक्र यहां स्पष्ट नहीं है) के लिए आप शुरूआत में दिये गये आलेख-लिंक पर जा सकते हैं।
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आदरणीय,
आप इस पर बेहद गंभीर हैं, और अपनी गुत्थियों पर असमंजस में।
यह इस लंबे खत से पता चलता है। समय अभी तय नहीं कर पा रहा है, कि वह किस हद तक आपसे संवादरत हो सकता है, और कितना अनौपचारिक। चलिए कुछ कोशिश तो की ही जा सकती है।
सपनों की उलझनों ने समय को भी काफ़ी परेशान किया था, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह से आप अपने बचपन में और अभी भी इनसे बावस्ता हैं। ज़िंदगी से जुडे और भी कई पहलू थे जिनपर प्रचलित दृष्टिकोण समय को नाकाफ़ी लगता था जाहिर है समय ने काफ़ी जिज्ञासाएं की है और दर्शन और विज्ञान का एक सर्वकालिक छात्र है, बहुतेरे विषयों पर दुनिया भर के अनेक लेखकों की सैकड़ों पुस्तकों से समय का गुजरना हुआ है जिनमें मनोविज्ञान विषय भी शामिल रहा है। यह अपने मुंह मियां-मिट्ठू बनना इसलिए हो रहा है ताकि समय आपको यह बता सके कि समय का दृष्टिकोण वहां और यहां भी पूरी गंभीरता लिए हुए है, ताकि आपको यह लग सके कि चलताऊ ढंग से यूं ही कुछ भी नहीं लिख दिया गया है, ताकि आपसे भी यह उम्मीद कर सकूं कि आप समझें कि गुत्थियों को सुलझाने के लिए सतही प्रयास हमेशा नाकाफ़ी होते हैं।
साथ ही इसलिए भी कि, वस्तुगत और वैज्ञानिक दृष्टिकोणों वाली पुस्तकों में भी ऐसी गुत्थियों पर कोई सीधी-सीधी बात नहीं होती, या यूं कह लीजिए कि जरूरी नहीं कि आपकी समस्या उसी समरूपता में वहां उपलब्ध हो। वहां इनके ऊपर, मनोजगत के व्यापारों पर पूरा सटीक विश्लेषण उपलब्ध है परंतु इनकी रौशनाई में अपनी उलझनों से प्राप्त इशारों से खु़द ही जूझना पडता है। अब मानवजाति के अद्यानूतन ज्ञान ने मानसिक प्रक्रियाओं की कार्यप्रणालियों की काफ़ी सुसंगत समझ विकसित कर ली है जिसके जरिए अधिकतर गुत्थियों को सुलझाया जा सकता है। वहां भी एक समझ है, एक दृष्टिकोण है, एक पद्धति है और कुछ इशारे हैं जिनके आधार पर मनुष्य अपने एकांतिक विशेष मानसिक व्यापारों को समझने की कोशिश कर सकता है। जाहिर है पर यह कोशिश तो स्वयं को ही करनी होगी, क्योंकि हमारी पसंद का पका-पकाया हलुवा कहीं भी उपलब्ध नहीं है।
अब होता यह है कि यह एक लंबा रास्ता है, पहले तो एक असली वैज्ञानिक वस्तुगत दृष्टिकोण पैदा करना वह भी अपने भाववादी संस्कारों से लडाई के साथ, फिर उसके हिसाब से दुनिया की हर चीज़ से पुनः माथापच्ची करना और उस पर टांग खीचता परिवेश। और समय भी तो चाहिए ही। साधारणतया मानसिक प्रवृति हमेशा एक लघुप्रतिरोध की राह खोजना चाहती है, ताकि तात्कालिक रूप से, शीघ्रता से एक आत्मसंतुष्टि मिले, दिमागी़ तनाव कम हो और दैनन्दिनी क्रियाकलापों में आसानी से जुट जाया जा सके। इसलिए अधिकतर हम बिना किसी गंभीर अध्ययन के अपनी सीमित समझ के मुताबिक अटकलबाज़ी करते हैं, और तुरत किसी कामचलाऊ निष्कर्ष पर पहुंच कर दिमाग़ को अपनी दूसरी, सापेक्षतः जरूरी, इच्छित सरगोशियों में लगा देते हैं।
यही कारण है कि ईश्वर, भाग्य, नियति, अलौकिकता, अध्यात्म आदि-आदि के तुरंत तसल्ली देने वाले क्रिया-व्यापार समाज में हमेशा जोरों पर रहते हैं। यहां हर गुत्थी के सरल, स्थापित से, पूर्व तैयार, एक साधारण सी तार्किकता की श्रृंखला में व्यवस्थित से हल हमेशा तैयार हैं। इसके साथ ही ये हमारे संस्कारों में होते हैं, पूर्वपरिचित होते हैं, अधिकतर परिवेश की सहमति भी साथ होती है अतएव इनके साथ तादात्मय बैठा लेना हमारे लिए ज्यादा सहज होता है।
ऐसा ही आपके साथ हो रहा है। सांयोगिक संवृत्तियां आपको इस तरह सोचने पर विवश कर रहीं है, और साथ ही आपकी जिज्ञासु समझ थोडा-बहुत संदेह भी पैदा कर रही है। आप अंतर्द्वंद में हैं।
पहले एक बात बताता हूं। हमारी दादी जी इस तरह से ही सपनों के सच वाले मामले में और टैलीपैथी जैसे मामलों में गांव में और परिवेश में बहुत लोकप्रिय थीं। वे अक्सर कुछ पुराने संकेतों के जरिए भविष्यवाणियां भी करके चौंकाया करती थी। जैसे आज कोई आयेगा, आज वहां मत जाओ, आज यूं होगा, आदि-आदि। घर में ही साक्षात उदाहरण मौजूद था, इसीलिए हमारे लिए यह अंतर्द्वंद काफ़ी भारी था। उनके आप जैसे ही कई किस्से हम सुना करते थे। दादा जी एक किस्सा तो इतना सटीक सुनाया करते थे कि आश्चर्य से मन मसोस कर रह जाता था, जैसे कि तब होता है कि हम जानते हैं कि जादू दिखाने वाला कोई ट्रिक लगाकर भ्रम पैदा कर रहा है और फिर भी हम उस ट्रिक का अंदाज़ा नहीं लगा पाते और यह सोचते रह जाते हैं कि आखिर यह संभव कैसे हो पाया होगा।
यह जबरदस्त चुनौती होती है और यहीं, हमारे दृष्टिकोण, हमें दो अलग राहों पर ले जाने की संभावनाएं रखते हैं। यदि हम किसी भी तरह की अलौकिकता में, चमत्कारों में, जरा सा भी यकी़न रखते हैं तो हम इस जादू को भी उन्हीं से जोडकर शांति पा सकते हैं, इसे भी उसी अलौकिकता का एक उदाहरण मानकर श्रृद्धानवत हो सकते हैं। दूसरी ओर यदि हम जगत की वस्तुगतता के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हैं तो हम यह यक़ीन तो रखते हैं कि यह भी किसी भ्रमात्मक ट्रिक का ही मामला है पर हमारे पास इसका कोई जबाब नहीं होता और एक संदेह, एक उलझन लेकर वहां से उठते हैं। पहला रास्ता सुरक्षित रास्ता है, जिस पर और भी बहुतेरे राही होते हैं, वहीं दूसरा रास्ता हमें और भी अकेला कर देता है तथा एक अनवरत बैचैनी छोड जाता है।
पहले तो हमें यह सब रहस्यमयी लगता था, धीरे-धीरे इन भविष्यवाणियों के पीछे के प्राचीन संकेतों की भाषा हम भी समझने लगे और फिर सच होने के अवसरों और आवृतियों को जांचने लगे। तब जाकर इनकी सांयोगिकताओं के प्रतिशत हमें समझ में आने लगे। परंतु हमारी माताजी उनमें अभी भी एक अलौकिक शक्ति का आभास पाती हैं और उन पर कोई तर्क काम नहीं करते। आस्थाएं, तर्क से संतुष्ट नहीं होती।
तो आदरणीय, यह आप पर है कि इन सांयोगिकताओं में किसी नियति की संभावनाएं टटोलते हैं और इनके पीछे किसी अलौकिक शक्ति के भावी इशारे ढूढ़ते हैं या फिर सपनों की वैज्ञानिक वस्तुगतता को समझ कर इनके सच के रूप में घट जाने को एक संयोग के रूप में देखते हैं। यह आप ही भली भांति जानते हैं कि इन सांयोगिकताओं के कितने रूप आपके सामने सच के हिस्से में आये, कितनों का आपने नोटिस लिया, और जो सच नहीं होते उनका नोटिस आप लेते हैं या नहीं।
समय ने अपने लेख में कई बातों को काफ़ी विस्तार से समझाने की कोशिश की थी। टिप्पणियों के जबाब में की गयी टिप्पणियों में और भी कई इशारे किये थे। कुछ फ़र्जी सपनों का जिक्र भी किया था जो कि हमेशा सच होने ही होते हैं।
यह आपने लिखा ही है कि कुछ सपने तो हूबहू घटते देखें हैं आपने, और कुछ हूबहू नहीं थे। दोनों ही मामलों में सारी व्याख्याएं घटनाएं घट जाने के बाद की हैं और उनके आपसी अंतर्संबंध भी आपने बाद में ही खोजे हैं। इसके अलावा यह भी ध्यान देने की बात है, इन सब सपनों को आप उम्र और समझ के इस दौर में पुनः नये सिरे से व्याख्यायित कर रहे हैं, ऐसे में हमारे पूर्वाग्रह अनुकूल परिस्थितियां ही चुनते हैं, कई नई अनुकूल बातें भी गढ़ ली जाती हैं। इस पर भी सोचा जाना चाहिए कि यह अधिकतर हमारे बुरे सपनों के साथ ही क्यों होता है?
हमारी चिंताएं वास्तविक परिस्थितियों के कारण ही उपजती है। जैसे की बच्चा जब झूले पर बैठा हो तो हमें उसके डूब कर मर जाने की चिंता सता ही नहीं सकती, हमें इस वक्त उसके गिर जाने की चिंता ही हो सकती हैं। यानि कि हर घटना के साथ हमारी स्मृति में उससे संबंधित चिंताओं के भावों की स्मृति भी बनती है और बाद में उस घटना का स्मरण उन चिंताओं से भी हमें पुनः रूबरू कराता है। यही सपनों में भी होता है, छवियों के साथ जुडी हुई चिंताएं भी हमें सालती हैं और यदि हमारी प्रवृति इन पर पहले से ही कोई पूर्वाग्रह पाले हुए होती है तो चिंतन में भी और सपनों में भी हम उसी के अनुसार मानसिक प्रक्रियाएं करते हैं।
काफ़ी कुछ इशारे किए हैं समय ने।
आप यदि गंभीर है सत्य के अन्वेषण हेतु तो आपको अपने मन की गहराइयों को टटोलना चाहिए, अपनी मानसिकताओं औए मान्यताओं की वास्तविक पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश करनी चाहिए, इसी से आपकों अपनी मानसिक प्रक्रियाओं और सपनों के रहस्यों की परतें खोलने में मदद मिल सकती है। जहां आपकी समझ, गुत्थियों के विश्लेषण और यथार्थ तथा वस्तुगत हल प्राप्त करने में अपनी सीमाएं महसूस करे, तो इसे उस विषय संबंधी अधिकृत तथा सिद्ध स्रोतों से और अधिक अध्ययन-मनन करने का इशारा समझना चाहिए। जब तक आप संतुष्ट नहीं महसूस करते, उस पर अपनी अंतिम मान्यताओं और निष्कर्षों को स्थगित रखना चाहिए।
यदि आप अपनी मानसिकताओं औए मान्यताओं के साथ संतुष्ट है, और अलौकिक शक्तियों के इशारों पर वास्तव में यक़ीन करते हैं तो फिर काहे इस समझ-वमझ के पचडे में पडते हैं? इसका आनंद लीजिए और ऐसे लोग जाहिर है कम ही होते हैं तो इसका जिक्र करके अपने अंदर भी अलौकिक शक्ति होने का भ्रम पालिए, लोगों के बीच चमत्कारी समझे जाने का मज़ा लीजिए और खुद भी अलौकिक होने के अहसास का गर्व महसूसिए। मिल रहा है, तो ज़िंदगी का मज़ा लूटिए।
यदि समय से कुछ और मदद चाहिए तो संवाद बनाए रखें। समय हमेशा हाज़िर है।
कुछ अनुचित और कठोर कह दिया गया हो तो मुआफ़ी की गुंजाईश बनाए रखें। मुझे मेरी सीमाएं बता दें।
००००००००००००००००००००००००००
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
फिलहाल भारी-भरकम स्थगित। चलिए कुछ हल्का-फुल्का कुछ किया जाए, पर इसका क्या किया जा सकता है कि यहां से भी आप काफ़ी गंभीर इशारे पा सकते हैं। अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में जद्दोज़हद पैदा कर सकते हैं, और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं।
बहुत पहले सपनों के मनोविज्ञान पर दो आलेख प्रस्तुत किये थे, ‘आखिर क्या है सपनों का मनोविज्ञान’ और ‘कुछ सपने आखिर सच होते क्यों प्रतीत होते हैं’। प्रसंग पुराना है पर आप जानते ही हैं बात कभी पुरानी नहीं होती। विचार हमेशा पहली बार मुख़ातिब हो रहे और आत्मसात नहीं कर पाये मानवश्रेष्ठों के लिए नया ही रहता है। तो फिलहाल मुद्दा यह है कि उसी आलेख के बाद एक मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, उन्हीं संदर्भों में एक संवाद स्थापित हुआ था। यहां उसे व्यक्तिगत संदर्भों के बिना सार्वजनिक किया जाना इसलिए जरूरी लग रहा है कि कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर और मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण किया जा सके। यह बताना शायद ठीक रहे कि उनकी पूर्वानुमति इस हेतु प्राप्त कर ली ही गई थी।
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उनका प्रश्न/संवाद कुछ इस प्रकार था:
सपने इस तरह का सच क्यों बता जाते हैं ?
नमस्ते जी ,आपके ब्लाग पर ...आप लिखते ही हैं कि मेल पर भी आपसे चर्चा की जा सकती है ..मैंने आपके ब्लाग पर दोनों लेख भी पढ़े हैं ...कमेंट्स पढ़े है ...कुछ समझ में आया कुछ नहीं ..पर मेरा अनुभव यह है कि जब जब बुरा सपना देखा है वह सच हुआ है ...
( इसके बाद उन मानवश्रेष्ठ ने अपने कुछ सपनों का जिक्र किया, जिनके सच हो जाने के कारण वे अचंभित और प्रश्नाकुल थे। वे व्यक्तिगतता का आधार रखते थे, अतएव उन्हें यहां प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है )
क्या यह सच होता है ..? मैंने इसको कभी सीरियस क्यों नही लिया ? नही जानता ..पर क्या सच में कोई मुझे संकेत कर जाता है इन बुरे सपनों से ..हम अकसर इन्हे नज़रंदाज़ क्यों कर देते हैं ? बहुत से सवाल है दिल में .और अब भी कोई सपना बुरा आए तो डर जाता हूँ ..अब यह मानता हूँ कि कोई शक्ति हमारे अन्दर की ही हमे सूचना जरुर देती है पर शायद हम उस को पहचान नही पाते ....पर यह सपने आते हैं .इस मेल में सिर्फ अपने आने वाले सपनो का जिक्र किया है ..आगे भी कुछ प्रश्न है जो अगली मेल में जारी रहेंगे....
शुक्रिया
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इस प्रश्न पर समय द्वारा किये गए इशारों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। व्यक्तिगत संदर्भ हटा दिये गये हैं, अतएव कहीं-कहीं लय टूटती सी नज़र आ सकती है। आप भी देखिए, कि आप यहां से क्या पा सकते हैं। सपनों के मनोविज्ञान संबंधी दिलचस्पी हो ( जिसका कि जिक्र यहां स्पष्ट नहीं है) के लिए आप शुरूआत में दिये गये आलेख-लिंक पर जा सकते हैं।
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आदरणीय,
आप इस पर बेहद गंभीर हैं, और अपनी गुत्थियों पर असमंजस में।
यह इस लंबे खत से पता चलता है। समय अभी तय नहीं कर पा रहा है, कि वह किस हद तक आपसे संवादरत हो सकता है, और कितना अनौपचारिक। चलिए कुछ कोशिश तो की ही जा सकती है।
सपनों की उलझनों ने समय को भी काफ़ी परेशान किया था, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह से आप अपने बचपन में और अभी भी इनसे बावस्ता हैं। ज़िंदगी से जुडे और भी कई पहलू थे जिनपर प्रचलित दृष्टिकोण समय को नाकाफ़ी लगता था जाहिर है समय ने काफ़ी जिज्ञासाएं की है और दर्शन और विज्ञान का एक सर्वकालिक छात्र है, बहुतेरे विषयों पर दुनिया भर के अनेक लेखकों की सैकड़ों पुस्तकों से समय का गुजरना हुआ है जिनमें मनोविज्ञान विषय भी शामिल रहा है। यह अपने मुंह मियां-मिट्ठू बनना इसलिए हो रहा है ताकि समय आपको यह बता सके कि समय का दृष्टिकोण वहां और यहां भी पूरी गंभीरता लिए हुए है, ताकि आपको यह लग सके कि चलताऊ ढंग से यूं ही कुछ भी नहीं लिख दिया गया है, ताकि आपसे भी यह उम्मीद कर सकूं कि आप समझें कि गुत्थियों को सुलझाने के लिए सतही प्रयास हमेशा नाकाफ़ी होते हैं।
साथ ही इसलिए भी कि, वस्तुगत और वैज्ञानिक दृष्टिकोणों वाली पुस्तकों में भी ऐसी गुत्थियों पर कोई सीधी-सीधी बात नहीं होती, या यूं कह लीजिए कि जरूरी नहीं कि आपकी समस्या उसी समरूपता में वहां उपलब्ध हो। वहां इनके ऊपर, मनोजगत के व्यापारों पर पूरा सटीक विश्लेषण उपलब्ध है परंतु इनकी रौशनाई में अपनी उलझनों से प्राप्त इशारों से खु़द ही जूझना पडता है। अब मानवजाति के अद्यानूतन ज्ञान ने मानसिक प्रक्रियाओं की कार्यप्रणालियों की काफ़ी सुसंगत समझ विकसित कर ली है जिसके जरिए अधिकतर गुत्थियों को सुलझाया जा सकता है। वहां भी एक समझ है, एक दृष्टिकोण है, एक पद्धति है और कुछ इशारे हैं जिनके आधार पर मनुष्य अपने एकांतिक विशेष मानसिक व्यापारों को समझने की कोशिश कर सकता है। जाहिर है पर यह कोशिश तो स्वयं को ही करनी होगी, क्योंकि हमारी पसंद का पका-पकाया हलुवा कहीं भी उपलब्ध नहीं है।
अब होता यह है कि यह एक लंबा रास्ता है, पहले तो एक असली वैज्ञानिक वस्तुगत दृष्टिकोण पैदा करना वह भी अपने भाववादी संस्कारों से लडाई के साथ, फिर उसके हिसाब से दुनिया की हर चीज़ से पुनः माथापच्ची करना और उस पर टांग खीचता परिवेश। और समय भी तो चाहिए ही। साधारणतया मानसिक प्रवृति हमेशा एक लघुप्रतिरोध की राह खोजना चाहती है, ताकि तात्कालिक रूप से, शीघ्रता से एक आत्मसंतुष्टि मिले, दिमागी़ तनाव कम हो और दैनन्दिनी क्रियाकलापों में आसानी से जुट जाया जा सके। इसलिए अधिकतर हम बिना किसी गंभीर अध्ययन के अपनी सीमित समझ के मुताबिक अटकलबाज़ी करते हैं, और तुरत किसी कामचलाऊ निष्कर्ष पर पहुंच कर दिमाग़ को अपनी दूसरी, सापेक्षतः जरूरी, इच्छित सरगोशियों में लगा देते हैं।
यही कारण है कि ईश्वर, भाग्य, नियति, अलौकिकता, अध्यात्म आदि-आदि के तुरंत तसल्ली देने वाले क्रिया-व्यापार समाज में हमेशा जोरों पर रहते हैं। यहां हर गुत्थी के सरल, स्थापित से, पूर्व तैयार, एक साधारण सी तार्किकता की श्रृंखला में व्यवस्थित से हल हमेशा तैयार हैं। इसके साथ ही ये हमारे संस्कारों में होते हैं, पूर्वपरिचित होते हैं, अधिकतर परिवेश की सहमति भी साथ होती है अतएव इनके साथ तादात्मय बैठा लेना हमारे लिए ज्यादा सहज होता है।
ऐसा ही आपके साथ हो रहा है। सांयोगिक संवृत्तियां आपको इस तरह सोचने पर विवश कर रहीं है, और साथ ही आपकी जिज्ञासु समझ थोडा-बहुत संदेह भी पैदा कर रही है। आप अंतर्द्वंद में हैं।
पहले एक बात बताता हूं। हमारी दादी जी इस तरह से ही सपनों के सच वाले मामले में और टैलीपैथी जैसे मामलों में गांव में और परिवेश में बहुत लोकप्रिय थीं। वे अक्सर कुछ पुराने संकेतों के जरिए भविष्यवाणियां भी करके चौंकाया करती थी। जैसे आज कोई आयेगा, आज वहां मत जाओ, आज यूं होगा, आदि-आदि। घर में ही साक्षात उदाहरण मौजूद था, इसीलिए हमारे लिए यह अंतर्द्वंद काफ़ी भारी था। उनके आप जैसे ही कई किस्से हम सुना करते थे। दादा जी एक किस्सा तो इतना सटीक सुनाया करते थे कि आश्चर्य से मन मसोस कर रह जाता था, जैसे कि तब होता है कि हम जानते हैं कि जादू दिखाने वाला कोई ट्रिक लगाकर भ्रम पैदा कर रहा है और फिर भी हम उस ट्रिक का अंदाज़ा नहीं लगा पाते और यह सोचते रह जाते हैं कि आखिर यह संभव कैसे हो पाया होगा।
यह जबरदस्त चुनौती होती है और यहीं, हमारे दृष्टिकोण, हमें दो अलग राहों पर ले जाने की संभावनाएं रखते हैं। यदि हम किसी भी तरह की अलौकिकता में, चमत्कारों में, जरा सा भी यकी़न रखते हैं तो हम इस जादू को भी उन्हीं से जोडकर शांति पा सकते हैं, इसे भी उसी अलौकिकता का एक उदाहरण मानकर श्रृद्धानवत हो सकते हैं। दूसरी ओर यदि हम जगत की वस्तुगतता के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हैं तो हम यह यक़ीन तो रखते हैं कि यह भी किसी भ्रमात्मक ट्रिक का ही मामला है पर हमारे पास इसका कोई जबाब नहीं होता और एक संदेह, एक उलझन लेकर वहां से उठते हैं। पहला रास्ता सुरक्षित रास्ता है, जिस पर और भी बहुतेरे राही होते हैं, वहीं दूसरा रास्ता हमें और भी अकेला कर देता है तथा एक अनवरत बैचैनी छोड जाता है।
पहले तो हमें यह सब रहस्यमयी लगता था, धीरे-धीरे इन भविष्यवाणियों के पीछे के प्राचीन संकेतों की भाषा हम भी समझने लगे और फिर सच होने के अवसरों और आवृतियों को जांचने लगे। तब जाकर इनकी सांयोगिकताओं के प्रतिशत हमें समझ में आने लगे। परंतु हमारी माताजी उनमें अभी भी एक अलौकिक शक्ति का आभास पाती हैं और उन पर कोई तर्क काम नहीं करते। आस्थाएं, तर्क से संतुष्ट नहीं होती।
तो आदरणीय, यह आप पर है कि इन सांयोगिकताओं में किसी नियति की संभावनाएं टटोलते हैं और इनके पीछे किसी अलौकिक शक्ति के भावी इशारे ढूढ़ते हैं या फिर सपनों की वैज्ञानिक वस्तुगतता को समझ कर इनके सच के रूप में घट जाने को एक संयोग के रूप में देखते हैं। यह आप ही भली भांति जानते हैं कि इन सांयोगिकताओं के कितने रूप आपके सामने सच के हिस्से में आये, कितनों का आपने नोटिस लिया, और जो सच नहीं होते उनका नोटिस आप लेते हैं या नहीं।
समय ने अपने लेख में कई बातों को काफ़ी विस्तार से समझाने की कोशिश की थी। टिप्पणियों के जबाब में की गयी टिप्पणियों में और भी कई इशारे किये थे। कुछ फ़र्जी सपनों का जिक्र भी किया था जो कि हमेशा सच होने ही होते हैं।
यह आपने लिखा ही है कि कुछ सपने तो हूबहू घटते देखें हैं आपने, और कुछ हूबहू नहीं थे। दोनों ही मामलों में सारी व्याख्याएं घटनाएं घट जाने के बाद की हैं और उनके आपसी अंतर्संबंध भी आपने बाद में ही खोजे हैं। इसके अलावा यह भी ध्यान देने की बात है, इन सब सपनों को आप उम्र और समझ के इस दौर में पुनः नये सिरे से व्याख्यायित कर रहे हैं, ऐसे में हमारे पूर्वाग्रह अनुकूल परिस्थितियां ही चुनते हैं, कई नई अनुकूल बातें भी गढ़ ली जाती हैं। इस पर भी सोचा जाना चाहिए कि यह अधिकतर हमारे बुरे सपनों के साथ ही क्यों होता है?
हमारी चिंताएं वास्तविक परिस्थितियों के कारण ही उपजती है। जैसे की बच्चा जब झूले पर बैठा हो तो हमें उसके डूब कर मर जाने की चिंता सता ही नहीं सकती, हमें इस वक्त उसके गिर जाने की चिंता ही हो सकती हैं। यानि कि हर घटना के साथ हमारी स्मृति में उससे संबंधित चिंताओं के भावों की स्मृति भी बनती है और बाद में उस घटना का स्मरण उन चिंताओं से भी हमें पुनः रूबरू कराता है। यही सपनों में भी होता है, छवियों के साथ जुडी हुई चिंताएं भी हमें सालती हैं और यदि हमारी प्रवृति इन पर पहले से ही कोई पूर्वाग्रह पाले हुए होती है तो चिंतन में भी और सपनों में भी हम उसी के अनुसार मानसिक प्रक्रियाएं करते हैं।
काफ़ी कुछ इशारे किए हैं समय ने।
आप यदि गंभीर है सत्य के अन्वेषण हेतु तो आपको अपने मन की गहराइयों को टटोलना चाहिए, अपनी मानसिकताओं औए मान्यताओं की वास्तविक पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश करनी चाहिए, इसी से आपकों अपनी मानसिक प्रक्रियाओं और सपनों के रहस्यों की परतें खोलने में मदद मिल सकती है। जहां आपकी समझ, गुत्थियों के विश्लेषण और यथार्थ तथा वस्तुगत हल प्राप्त करने में अपनी सीमाएं महसूस करे, तो इसे उस विषय संबंधी अधिकृत तथा सिद्ध स्रोतों से और अधिक अध्ययन-मनन करने का इशारा समझना चाहिए। जब तक आप संतुष्ट नहीं महसूस करते, उस पर अपनी अंतिम मान्यताओं और निष्कर्षों को स्थगित रखना चाहिए।
यदि आप अपनी मानसिकताओं औए मान्यताओं के साथ संतुष्ट है, और अलौकिक शक्तियों के इशारों पर वास्तव में यक़ीन करते हैं तो फिर काहे इस समझ-वमझ के पचडे में पडते हैं? इसका आनंद लीजिए और ऐसे लोग जाहिर है कम ही होते हैं तो इसका जिक्र करके अपने अंदर भी अलौकिक शक्ति होने का भ्रम पालिए, लोगों के बीच चमत्कारी समझे जाने का मज़ा लीजिए और खुद भी अलौकिक होने के अहसास का गर्व महसूसिए। मिल रहा है, तो ज़िंदगी का मज़ा लूटिए।
यदि समय से कुछ और मदद चाहिए तो संवाद बनाए रखें। समय हमेशा हाज़िर है।
कुछ अनुचित और कठोर कह दिया गया हो तो मुआफ़ी की गुंजाईश बनाए रखें। मुझे मेरी सीमाएं बता दें।
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
4 टिप्पणियां:
बहुत सही विश्लेषण।
ज्ञान का सागर है आपके अन्दर ...सही कहा आपने .
प्रभावी लेख हमेशा की तरह
बहुत सही विश्लेषण
और हमेशा की ही तरह सार्थक चिंतन.
आप बस लिखते रहिये और .....थोडा सा छोटा रहेगा तो और मज़ा आएगा. :-)
इस बार बात सपने पर कम ईश्वर और अलौकिकता पर अधिक हो गई है। आवश्यक भी थी। लेकिन अन्त में हास्य है!
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।