शनिवार, 1 मई 2010

चेतना श्रृंखला का समाहार और दर्शन का संश्लेषक कार्य

हे मानवश्रेष्ठों,

पिछली बार हमने चिंतन और चेतना को कंप्यूटर के संदर्भ में देखने की कोशिश की थी, और विचार किया था कि क्या कंप्यूटर सोच-विचार कर सकता है?  इस बार यहां चेतना पर शुरू हुई इस श्रृंखला का समाहार प्रस्तुत किया जा रहा है तथा दर्शन के संश्लेषक कार्य पर चर्चा की जा रही है। इस समाहार में अभी तक की पोस्टों के सभी लिंक हैं।

चलिए शुरू करते हैं। यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित हैं।
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चेतना श्रृंखला का समाहार : दर्शन का संश्लेषक कार्य

हमारी यह श्रृंखला चेतना की बातचीत से शुरू हुई थी, जिसे दर्शन के परिप्रेक्ष्य में ही बेहतर जाना जा सकता है। दर्शन के समेकन के जरिए हम विश्व को एक समष्टि के रूप में समझना सीखते हैं और अपना एक नज़रिया एक दृष्टिकोण विकसित करते हैं। दर्शन का बुनियादी सवाल हमारे सामने यह चुनौती रखता है कि चेतना और भूतद्रव्य में प्राथमिक और निर्धारक कौन हैं। इसके जवाब के अनुसार ही दर्शन की दो मूल प्रवृतियों भौतिकवाद और प्रत्ययवाद से हमारा सामना होता है। हम दर्शन की अध्ययनविधियों द्वंदवाद और अधिभूतवाद से परिचित हुए, और हमने संकल्पनाओं और प्रवर्गों के बारे में जाना। फिर हम भूतद्रव्य और चेतना के अंतर्संबंधों को समझने के लिए भूतद्रव्य की संकल्पना से विस्तार से गुजरे। इससे संबंधित दृष्टिकोणों और उनके विकास की प्रक्रिया को समझते हुए, हमने इसके एक मूलभूत गुण परावर्तन को जाना समझा।

अजैव जगत में परावर्तन को समझते हुए हमने उसके जटिलतर होते जाने की विकास प्रक्रिया को जानने की कोशिश की, और जैव जगत में संक्रमण के दौरान परावर्तन के रूपों से परिचित हुए। फिर जीवन के क्रमविकास के दौरान परावर्तन की प्रक्रिया के साधनों के रूप में तंत्रिकातंत्र की उत्पत्ति तक की यात्रा हमने तय की। यह यात्रा आगे बढ़ी और हमने परावर्तन के सक्रिय और निष्क्रिय रूपों को समझने की कोशिश की। फिर हमने परावर्तन के उच्चतम जटिल रूप में मानसिक क्रियाकलापों और इसी की संदर्भ में मन, चिंतन और चेतना के बीच बारीक फ़र्कों को समझने की कोशिश की।

यह सफ़र आगे बढा और हमने मानसिक क्रियाकलापों के भौतिक अंग के रूप में मस्तिष्क पर एक संक्षिप्त नज़र ड़ाली, तथा जैव जगत में पशुओं और मनुष्य के मानस में मुख्य भेदों को जाना। अंतत्वोगत्वा हम मनुष्य की चेतना के मुख्य आधारों के रूप में श्रम की चर्चा तक पहुंचे तथा भाषा और चिंतन के अंतर्संबंधों को कुछ विस्तार से जाना। इस तरह हमने भूतद्रव्य के क्रमिक विकास के परिणाम स्वरूप चेतना की उत्पत्ति को अद्यतन स्तर पर समझने की कोशिश की और भूतद्रव्य और चेतना के बीच की प्रतिपक्षता और सापेक्षता को ह्र्दयंगम किया। इसी कड़ी में हमने मशीनों और उनके चेतना संपन्न हो सकने की संभावनाओं पर भी गौर किया और जाना कि चेतना किस तरह से सिर्फ़ मनुष्य का लाक्षणिक गुण हो सकती है।

इस श्रृंखला के अंतर्गत हमने जिन संकल्पनाओं (concepts) और प्रवर्गों (categories) को समझने की कोशिश की है, उनका विधितंत्रीय (methodological) महत्व बहुत अधिक है। वे दर्शाते हैं कि हमारे संज्ञानात्मक (cognitive) क्रियाकलाप की सामान्य दिशा क्या है। किसी भी गंभीर अध्येता और सक्रिय सचेत व्यक्तित्व के लिए, बाह्य विश्व का अध्ययन करते समय यह जरूरी है कि वह विश्व को संयोगिक घटनाओं के बेतरतीब ढ़ेर की तरह नहीं, बल्कि एक ऐसी अविभक्त और अंतर्संबंधित भौतिक प्रक्रिया के रूप में जांचे-परखे, जो वस्तुगत रूप से विद्यमान है और अपने ही नियमों के अनुसार विकसित होता है।

यह विश्व, ना केवल साकल्य के रूप में (as a whole) एक विराट भौतिक प्रणाली है, बल्कि इसके अलग-अलग हिस्से भी विशेष प्रणालियां हैं, जिनमें आवश्यक, अंतर्निहित, स्थायी संयोजन (connections) होते हैं और जिनकी अपनी ही संरचनाएं और तत्व होते हैं। इसीलिए विश्व को प्रत्ययवादी ( भाववादी, Idealistic) दृष्टिकोण से जाना और समझा नहीं जा सकता है, क्योंकि वह हमारे परिवेश की घटनाओं के वस्तुगत (Objective) स्वभाव से इंकार करता है, क्योंकि वह परिवर्तन और विकास के सार्विक स्वभाव से इंकार करता है, क्योंकि वह इस बात को समझे बिना कि चिंतन और चेतना स्वयं भौतिक विश्व के जटिल विकास का उत्पाद हैं, वह सारी परिवेशी घटनाओं में चेतना की अभिव्यक्ति और नियमितताओं को देखता है।

प्रत्ययवाद हमारी तर्कबुद्धि को गति और विकास के वस्तुगत नियमों के अध्ययन की ओर नहीं ले जा सकता है जो कि आधुनिक विज्ञान का एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। जो लोग परिवर्तन, गति तथा विकास के सार्विक, सामान्य स्वभाव को नहीं देख पाते, वे व्यावहारिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के अपने विश्लेषण और निर्णयों में गलती करेंगे। तेज़ी से बदलती हुई आधुनिक दुनिया में सामाजिक प्रणालियों और संरचनाओं के वस्तुगत नियमों का ज्ञान, समुचित तथा सफ़ल क्रियाकलापों और हस्तक्षेपों की अनिवार्य शर्त है।

इस श्रृंखला में प्रस्तुत द्वंदात्मक भौतिकवाद के प्रवर्ग और संकल्पनाएं, मनुष्य का एक विश्वदृष्टिकोण विकसित करने और विश्व को समझने के विधितंत्रीय कार्यों के अलावा एक और महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। इनके द्वारा सर्वाधिक विविधतापूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान को विश्व के एकल चित्र में संश्लेषित तथा संयुक्तिकृत किया जाता है, जिससे भूतद्रव्य ( matter ) की गति के सारे रूपों ( सरलतम व यांत्रिक गति से लेकर जटिलतम तक ) को एक ही साकल्य की शक्ल में जांचा जा सकता है। अजैव वस्तुएं तथा जीवित प्राणी, परावर्तन के निम्नतम रूप तथा उसका उच्चतम रूप चेतना, जीवन की उत्पत्ति की प्रक्रिया, सामाजिक क्रियाकलाप के रूप में श्रम, चिंतन के भौतिक वाहक के रूप में भाषा - ये सभी एक एकल विश्वदृष्टिकोण में एकीकृत तथा संश्लेषित, एक ही तस्वीर में अंकित सिद्ध होते हैं।

भौतिकी, रसायन, जैविकी, खगोलविद्या, इतिहास, साइबरनेटिकी तथा अन्य विज्ञान अपनी समस्याओं को अपनी ही विधि से हल करते हैं और अध्ययनाधीन वस्तुओं के बारे में अपनी ही विशेष व्यापक संकल्पनाओं और धारणाओं का विकास करते हैं। किंतु इनमें से एक भी, इन सभी विज्ञानों के परिणामों को विश्व की एकल तस्वीर के अंदर संश्लेषित और एकीकृत करने का कार्य नहीं करता है। दर्शन इन सभी अलग-अलग विज्ञानों के प्रमुख बुनियादी निष्कर्षों को संश्लेषित करता है और उनके आधारों पर विश्व को एक साकल्य के रूप में समझने की राह प्रशस्त करता है। यह हमें बदलती हुई दुनियां में अलग-अलग विज्ञानों के स्थान तथा उनके अंतर्संबंधों को तथा आगे के विकास को सही ढ़ंग से समझने में समर्थ बनाता है। इस तरह, दर्शन ज्ञान के संश्लेषण का कार्य भी निष्पादित ( perform ) करता है

मानवश्रेष्ठों, चेतना की संकल्पना और इसके भूतद्रव्य के साथ अंतर्संबंधों को जाने बगैर तथा भूतद्रव्य के जटिल विकास के फलस्वरूप चेतना की उत्पत्ति को समझे बगैर, हम अपने परिवेश की अंतर्गुथित परिघटनाओं और जटिल सामाजिक अंतर्संबंधों के सटीक विश्लेषण की योग्यता हासिल नहीं कर सकते। हमारा प्रत्ययवादी ( भाववादी, Idealistic) मानसिक अनुकूलन और अध्ययन की अधिभूतवादी ( metaphysical ) विधि के कारण हमें घटनाओं में किसी अलौकिक चेतना की उपस्थिति और रहस्यमयता नज़र आती है। और ऐसे में जबकि आज वैज्ञानिक से लगते उपागमों और शब्दावलियों के सहारे प्रत्ययवादी दर्शन की सिद्धी तथा पुष्टि के अनगिनत, संगठित और बहुप्रचारित प्रयासों का जो अंबार लगाया जा रहा है, मनुष्य जाति के भावी सामूहिक विकास के लिए दर्शन की सुसंगत समझ तथा एक समुचित वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना और भी जरूरी हो गया है।

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इस बार इतना ही।
आगे दिमाग़ को कष्ट देने के लिए हम कोई और राह ढूंढ निकालेंगे। दर्शन और मनोविज्ञान की और कई संकल्पनाओं और प्रवर्गों पर यथासंभव चर्चा करते रहेंगे। देखते हैं समय के हाथ क्या लगता है।

विषयगत आलोचनात्मक संवाद और जिज्ञासाओं का स्वागत है।

समय

3 टिप्पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सुंदर समाहार। इस श्रंखला की भाषा कुछ कठिन नहीं हो गई। समय के हिसाब से। समय के हिसाब से इसे कुछ आसान नहीं किया जा सकता?

अनुनाद सिंह ने कहा…

हिन्दी में दर्शन पर इतना सब कुछ ! अति सुन्दर ; अति उपयोगी!

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

पूरी श्रृंखला पढ़ गया। बार बार पढ़ने की चीज हैं और बार बार सोचने की जब तक चिंतन में एक नया द्वार नहीं खुल जाता। बहुत धन्यवाद इसके लिए। मैं यह तो नहीं कह सकता कि सब समझ गया पर कोशिश की और कई बार और बिना पढ़े काम नहीं चलने वाला।

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