हे मानवश्रेष्ठों,
इस बार भी, एक मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, कर्म और कर्मफल के संदर्भों में एक संवाद स्थापित हुआ था, उसे दिया जा रहा है। यहां से आप कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में जद्दोज़हद पैदा कर सकते हैं, और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं।
कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर और मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण करने का उद्देश्य सामने है ही। यह बताना शायद ठीक रहे कि उनकी पूर्वानुमति इस हेतु प्राप्त कर ली ही गई थी।
००००००००००००००००००००००००
उनका प्रश्न/संवाद कुछ इस प्रकार था:
नमस्ते जी
आपका ब्लॉग पढा आज ..कुछ समझ आया और कुछ नहीं ..कारण आज कल मूड कुछ ठीक नहीं है ..आपसे एक प्रश्न है कि आप कर्म की क्या परिभाषा देते हैं ? और जो भी कर्म हम करते हैं उसका हम पर हमारे आस पास यानी हमारे साथ रहने वालों पर क्या प्रभाव पड़ता है ? और यदि आपके साथ रहने वाला कोई बुरे कर्म करता है किसी को दुःख देता है तो उसकी सजा सिर्फ उसको मिलती है या उसके साथ रहने वाले बाकी सदस्यों को भी ? यदि यह सही है तो इसका अंत कहाँ है ..? ऐसे बहुत से प्रश्न हैं ..मुझे आशा है कि आपसे मुझे इनका जवाब जरुर मिलेगा आसान भाषा में :)
धन्यवाद
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इस प्रश्न पर समय द्वारा किये गए इशारों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। व्यक्तिगत संदर्भ हटा दिये गये हैं, थोड़ा संपादन भी किया गया है। आप भी देखिए, कि आप यहां से क्या पा सकते हैं।
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आदरणीय,
आजकल आपका मूड़ ठीक नहीं है। पता नहीं क्यूं मुझे ऐसा लगता है आप अक्सर इस अवस्था में आते रहते हैं। अपने आप से लड़ते हैं, नये सिरे से परिस्थितियों का विश्लेषण करते हैं, नये सिरे से अपने आपको तैयार करते हैं, संघर्ष करते हैं, और सब कुछ झटक कर फिर से अपने कामों में जुट जाते हैं। फिर कोई ऐसी बात होती है, संबंधों के बीच, मान्यताओं के बीच, मूल्यों की व्यवहारिकता के बीच कि यह सब फिर से शुरु होता है, फिर से खत्म होता है। चक्र चलता रहता है।
यह सब समय की बकवास भी हो सकती है, और इसके अस्वीकरण का अधिकार आपके पास सुरक्षित है ही। आखिर यह सब, समय आपकी कुंड़ली या हाथ की रेखाएं देखकर तो बता नहीं रहा कि सच मानने की विवशता हो।
चलिए थोड़ा सा आपके प्रश्न पर बात करते हैं:
दरअसल, आपके पास ‘कर्म’ नामक संकल्पना के पारंपरिक आशय हैं और हमारी धार्मिक परंपराओं से प्राप्त इसके गूढ़ार्थ हैं। थोड़ी क्लिष्ट भाषा है, पर जानबूझ कर इसका प्रयोग किया है, हो सकता है इस शब्दावली से आपको, आज ही पढ़ी मेरी पोस्ट संकल्पनाएं और प्रवर्ग का कुछ हिस्सा याद आजाए और आप उस पोस्ट और उक्त वाक्य के बीच के अंतर्संबंधों ( co-relation ) को देख सकें।
‘कर्म’ शब्द के आसान रूप ‘काम’ से हम भलीभांति परिचित होते हैं, बचपन से ही हम अच्छी तरह जानते हैं कि ज़िंदगी जीने के लिए मनुष्य को काम करना ही पडता है, काम कर कर ही वह वाकई में मनुष्य बनता है, कामों में दक्षता प्राप्त करता है, बिना काम किए कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता, काम अच्छा होता है तो मनुष्य को ख़ुद भी सुक़ून मिलता है शाबासी मिलती है, काम खराब होता है तो ख़ुद भी मनुष्य संतुष्ट नहीं होता, ग्लानि में रहता है और जाहिरा तौर पर लताड़ और प्रताड़ना मिलती है, अपने काम के जरिए ही मनुष्य अपनी पहचान बनाता है, इसी पहचान के जरिए अपने संबंधों को विकसित करता है, अच्छे काम हमें और हमारे से संबंधित परिवेश को खुश रखते हैं, सुकून देते हैं, वहीं बुरे कार्य हमें और हमारे संबंधों को ग्लानि में भरते हैं, अशांति का कारण बनते हैं। यह काम की वह समझ है जो जीवन हमें खुद समझा देता है।
समस्या तब पैदा होती है जब हम इसी काम की क्लिष्ट संकल्पना ‘कर्म’ से परिचित होते हैं, खासकर हमारे धर्मग्रंथों और उनकी बताई गई व्याख्याओं के जरिए जो कि सहज रूप से हमें हमारे आस-पास उपलब्ध होते हैं। जैसे कि आप कर्म की गीता आधारित अवधारणाओं के बीच उलझे हुए हैं। गीता कहती है कि कर्म मनुष्य का धर्म है उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना कर्म करते जाना चाहिए, बिना इसके परिणामों और फल की चिंता किए बगैर। मनुष्य के हाथ में सिर्फ़ कर्म है और बाकी चीज़ें विधाता के हाथ में हैं। जब उसके हाथ में कर्मों के परिणाम है ही नहीं, इसीलिए जाहिरा तौर मनुष्य को इनकी चिंता नहीं करनी चाहिए। बाकि का सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए, वह ही तय करेगा कि इन कर्मों का क्या परिणाम या फल देना है किसको देना है। आगे गीता यहां तक कहती है कि यहां असल में कुछ नहीं हो रहा, सब कुछ वही कर रहा है, सब कुछ पहले से नियत है और मनुष्य तो निमित्त मात्र है।
ज़िंदगी द्वारा दी गई व्यवहारिक समझ और धार्मिक सैद्धांतिक आदर्शों के बीच का यही विरोधाभास, थोड़ा पढ़े-लिखे समझदार से लोगों को थोड़ा बहुत परेशान करता रहता हैं। अधिकतर लोग तो ज़िंदगी की तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार कर्म करते रहते हैं, मूल्य और सिद्धांत उन्हें फ़ालतू की आदर्श की बाते लगती हैं जो संतों के ही वश की होती हैं और उनके लिए सिर्फ़ बात करने या दूसरों को उपदेश देने की चीज़ मात्र होती हैं। मंदिर या शमशान जैसी जगहों के लिए ही मनुष्य दार्शनिकता और धार्मिकता का सा लबादा ओढ़े रखता है। अपनी सामान्य ज़िंदगी वह इन मूल्यों और आदर्शों से दूर, प्रचलित व्यवहारिक ढ़ग से ही जीता है। वह अपनी समझ में इनके अलग-अलग खाने बना लेता है, जिनके बीच कोई संवाद, कोई अंतर्संबंध बनाना ना वह आवश्यक समझता है ना ही संभव और फिर इसी ढोंग और दोगलेपन के साथ अपनी ज़िंदगी गुजारता चला जाता है।
हमें इस पर सोचना चाहिए कि जब मनुष्य निमित्त मात्र है, उसके हाथ में कुछ है ही नहीं, जब सब कुछ पहले से नियत है, जब कर्म और परिणाम उसके वश से परे है तो जाहिर है नैतिक-अनैतिक, गलत-सही, प्रभाव और परिणामों की चिंता आदि का भला मतलब भी क्या रह जाता है? आपको इस बारे में कभी और, विस्तार से बताना शायद संभव हो पाए कि गीता और उसके द्वारा प्रवर्तित नये धार्मिक सिद्धांतो की ऐतिहासिक और वास्तविक पृष्ठभूमि का सच क्या है? यह किन सामाजिक जरूरतों के चलते विकसित और पल्लवित हुए?
वापस लौटते हैं।
आप अपने इस बाद के अनुकूलित धार्मिक व्यामोह से निकलिए और कर्म की ज़िंदगी द्वारा सिखाई परिभाषा पर ध्यान दीजिए। अपने व्यक्तिगत और दूसरों के सार्विक अनुभवों पर गौर कीजिए। देखें कि असल जीवन हमें इस बारे में क्या सिखा रहा है, क्योंकि यह समस्याएं हमारे वास्तविक जीवन में पैदा होती हैं अतएव इनसे निपटने के तरीके भी वास्तविकताओं को समझने से ही निकलेंगे। तभी आप अपने इन प्रश्नों से सही मायनों में जूझ पाएंगे, और कोई इच्छित परिणाम देने वाली राह चुन पाएंगे। आपकी मेधा को अभिप्रेत करने के लिए समय यहां कुछ इशारे कर रहा है। ये कोई निश्चित प्रकार के सिद्धांत नहीं है, सिर्फ़ आपकी समझ को शुरूआती आवेग प्रदान करना ही यहां इनका प्राथमिक उद्देश्य है। यह ऐच्छिक तात्कालिक वर्गीकरण है।
प्रत्येक जीव सबसे पहले अपनी जिजीविषा हेतु आवश्यक क्रियाकलापों हेतु प्रवृत्त होता है। उसकी सारी क्रियाविधियां इसी हेतु प्रेरित होती हैं, दूसरे से अंतर्संबंधित गतिविधियां उतना ही आकार ले पाती हैं जितना कि उसकी व्यक्तिगत जिजीविषा हेतु सहायक होती हैं। ये किसी भी जीव के लिए प्राथमिक और सबसे महत्वपूर्ण ‘कर्म’ होता हैं। मनुष्य भी एक जीव होने के नाते प्राथमिक रूप से, अवचेतन निर्देशों के जरिए इन्हीं कर्मों के लिए प्राकृतिक स्वाभाविक प्रवृत्ति रखता है। और इसको ध्यान में रखना बहुत ही महत्वपूर्ण है।
परंतु मनुष्य एक चेतना संपन्न, सामाजिक प्राणी है। अपनी सीमित क्षमताओं के कारण वह प्रकृति से सामूहिक रूप से, सामाजिक रूप से ही संघर्ष करना सीखकर आज की अवस्थाओं तक पहुंचा है। उसकी ऐतिहासिक समझ यह अच्छी तरह से जानती है कि सामाजिकता के बगैर उसका अस्तित्व संभव ही नहीं है। वह अकेला पहले तो ‘कर्म’ करने लायक ही नहीं हो सकता, दूसरा उसके जीवनयापन के लिए लिए जाने सारे कर्म आपस में एक दूसरे मनुष्यों के साथ बहुत ही गहराई से अंतर्गुंथित हैं।
जीवनयापन हेतु आवश्यक सामग्री और संसाधनों का उत्पादन और निर्माण उसके अकेले के कर्म के जरिए संभव ही नहीं हैं। इस तरह वह अपने हिस्से के कर्म, और उसके परिणामों के जरिए पारिवारिक और सामाजिक संबंधों का तान-बाना बुनता है। एक समाज में सभी इसी ‘कर्म’ के बंटवारे के जरिए आपस में जुडे रहते हैं, चाहे वे इसे समझ पाते हो या नहीं, एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, एक दूसरे के संबंधों को प्रेरित और विकसित करते हैं। इसी की वज़ह से एक दूसरे के बीच नकारात्मकता भी पैदा होती है, संबंध टूटते, नये संबंध बनते हैं। यह कर्म का सामाजिक पक्ष है, और द्वितीयक रूप है।
जीवनयापन हेतु जरूरी क्रियाकलापों से बचे समय में मनुष्य को आनंद भी चाहिए होता है, अपने सांस्कृतिक और सामाजिक उत्थान की आवश्यकता भी महसूस होती है। वह अपने अस्तित्व के जरिए सामाजिक श्रेष्ठता पाने की, व्यक्तिगत तौर पर अपने होने को महसूस करने और सामाजिक रूप से अपने जीवन की आवश्यकता साबित कर पाने की आकांक्षाओं से भी ओत-प्रोत होता है। अपने आपको सामाजिक उपयोगिता का आवश्यक अंग बनाने की, सामाजिक श्रेष्ठता पाने की, व्यक्तिगत अहं की तुष्टि की इन जुंबिशों के चलते किए जाने वाले कर्मों को तृतीयक सामाजिक-सांस्कृतिक रूप की श्रेणी मॆं रखा जा सकता है।
वह जैविक जरूरतों के आधार पर बने प्राथमिक और द्वितीयक कर्म संबंधों के अनुसार स्थापित व्यक्तिगत संबंधों में भावनात्मक आधार भी ढूंढ़ता है, भावनात्मक और व्यक्तिगत अपेक्षाएं पालता है, और इनके सुचारू व्यवस्थापन के लिए जिजीविषा से इतर कई तरह के क्रियाकलाप करने की प्रेरणा पाता है। इन्हें कर्म का चतुर्थ और सामाजिकता से ओत-प्रोत व्यक्तिक भावनात्मक रूप कहा जा सकता है।
जाहिर है अब अलग से यह कहने की आवश्यकता नहीं रह गई है कि हम कर्मों के जरिए ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। अपने कर्म और उस कर्म के पीछे के वास्तविक कारण के अनुसार ही हमारे साथ रहने वालों को प्रभावित करते हैं। साथ रहने वाले सब, जब आपस में अंतर्संबंधित हैं, तो एक दूसरे के कर्मों से सभी आपस में एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। जब तक ये कर्म एक दूसरे के व्यक्तिगत हितों से नहीं टकराते हैं, सामूहिक हितों से जुड़े रहते हैं, तब तक कोई समस्या नहीं महसूस नहीं होती। परंतु जब साथ रहने वालों के कुछ कर्म आपसी हितों और मान्यताओं से टकराने लगते हैं, जब ये सुपरिभाषित और सामूहिकता के साथ व्यवस्थित रूप से प्रचालित नहीं होते हैं, तो ये आपसी कड़वाहटों का, मनमुटावों का कारण बनते हैं और जीवन में, व्यक्तिगत चेतनाओं में अशांति का कारण बनते हैं।
जब एक साथ रहने वाला समूह आपस में इस तरह से अंतर्गुंथित है तो उनके कर्मों का असर भी व्यक्तिगत नहीं रह जाता, उसके परिणाम सभी को तद्अनुरूप प्रभावित करते हैं, अब इसे कभी सज़ा के तौर पर भी लिया जा सकता है और कभी इनाम के तौर पर भी। कुछ के तात्कालिक असर भी दिख जाते हैं, और कुछ के असर बहुत देर के बाद सामने आते हैं। समय का इस तरह से यहां कंप्यूटर पर बैठ कर टाईप करते रहना समय के परिवार के सामूहिक हितों के अनुरूप नहीं है, यह समय का तृतीयक रूप का कर्म है। जाहिरा तौर पर यह परिवार में टकराव का विषय बन सकता है। अब यह समय की समझ और प्रयासों पर निर्भर है कि समय किस तरह अपनी व्यक्तिगत और पारिवारिक जरूरतों के बीच सामंजस्य बिठाता है और इसे व्यक्तिगत अहं और श्रेष्ठताओं का विषय नहीं बनने देता है। यह आप आसानी से समझ सकते हैं।
यही अंत हो सकता है। चीज़ों को उनकी वास्तविकताओं के अनुसार समझना, वास्तविक और व्यवहारिक रूप से आपस में सामंजस्य बैठाना, पहले ख़ुद अपने आप से पारदर्शी होना, फिर अपने व्यक्तित्व को दूसरों के सामने पारदर्शी बनाना, अपने आप से और दूसरों के साथ ईमानदारी से पेश आना। अपनी व्यक्तिगतता को सामूहिक हितों के सापेक्ष सीमित करना, सामूहिक हितों में ही अपनी व्यक्तिगतता की अभिव्यक्ति को पैबस्त करना सीखना। और इस सबको प्रभावी रूप से कर पाने के लिए, अपनी ज्ञान और समझ को निरंतर बढ़ाने और परिष्कृत करने के लिए, मानवजाति के वास्तविक, यथार्थ और वैज्ञानिक अद्यतन ज्ञान का अध्ययन और व्यवहारीकरण।
शायद यही अंत होना चाहिए। अगर हो सके।
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उन मानवश्रेष्ठ का संपादित जवाब:
सादर नमस्ते समय जी ..मैं नहीं जानता आपका नाम क्या है ? पर मेरे लिए आप समय ही हो जो मेरे प्रश्नों के उत्तर देते हैं और मेरे अन्दर चलने वाले द्वंद को एक दिशा दिखाते हैं ..आप के हाथ में मेरी कोई कुंडली नहीं.. कोई हाथ की रेखा नहीं है ..पर आपने जो इस पोस्ट के आरम्भ में कहा वह एक दम से सच है ....( . )....कर्म समझने की परिभाषा यहीं से शुरू हुई सही मायने में ...गीता तो पढ़ी मैंने कई बार पर आज आपके बताये अर्थ से लगता है उसको समझने में कहीं चुक गया ...गीता हर बार नए अर्थ देती है ..यह तो लगता था पर फिर भी सामान्य इंसान हूँ न ....जब झूठ साथ वाला बोल रहा हो या वह ज़िन्दगी वह जी रहा हो तो उसका असर बाकी सदस्यों पर पड़ना लाजमी है यह आज आपकी पोस्ट से जाना ..( . ).. आपने जो मुझे मेल किया है वह मेरे जैसे कई लोगो के लिए एक अच्छा मार्गदर्शक साबित हो सकता है ..मेरा अनुरोध हैं आपसे कि आप इसको पोस्ट के रूप में अपने ब्लॉग पर पोस्ट करें ..( . )...आगे भी आपका स्नेह मुझे यूँ ही मिलता रहेगा तहे दिल से धन्यवाद
०००००००००००००००००००००
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
इस बार भी, एक मानवश्रेष्ठ से मेल के जरिए, कर्म और कर्मफल के संदर्भों में एक संवाद स्थापित हुआ था, उसे दिया जा रहा है। यहां से आप कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में जद्दोज़हद पैदा कर सकते हैं, और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं।
कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर और मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण करने का उद्देश्य सामने है ही। यह बताना शायद ठीक रहे कि उनकी पूर्वानुमति इस हेतु प्राप्त कर ली ही गई थी।
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उनका प्रश्न/संवाद कुछ इस प्रकार था:
नमस्ते जी
आपका ब्लॉग पढा आज ..कुछ समझ आया और कुछ नहीं ..कारण आज कल मूड कुछ ठीक नहीं है ..आपसे एक प्रश्न है कि आप कर्म की क्या परिभाषा देते हैं ? और जो भी कर्म हम करते हैं उसका हम पर हमारे आस पास यानी हमारे साथ रहने वालों पर क्या प्रभाव पड़ता है ? और यदि आपके साथ रहने वाला कोई बुरे कर्म करता है किसी को दुःख देता है तो उसकी सजा सिर्फ उसको मिलती है या उसके साथ रहने वाले बाकी सदस्यों को भी ? यदि यह सही है तो इसका अंत कहाँ है ..? ऐसे बहुत से प्रश्न हैं ..मुझे आशा है कि आपसे मुझे इनका जवाब जरुर मिलेगा आसान भाषा में :)
धन्यवाद
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इस प्रश्न पर समय द्वारा किये गए इशारों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। व्यक्तिगत संदर्भ हटा दिये गये हैं, थोड़ा संपादन भी किया गया है। आप भी देखिए, कि आप यहां से क्या पा सकते हैं।
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आदरणीय,
आजकल आपका मूड़ ठीक नहीं है। पता नहीं क्यूं मुझे ऐसा लगता है आप अक्सर इस अवस्था में आते रहते हैं। अपने आप से लड़ते हैं, नये सिरे से परिस्थितियों का विश्लेषण करते हैं, नये सिरे से अपने आपको तैयार करते हैं, संघर्ष करते हैं, और सब कुछ झटक कर फिर से अपने कामों में जुट जाते हैं। फिर कोई ऐसी बात होती है, संबंधों के बीच, मान्यताओं के बीच, मूल्यों की व्यवहारिकता के बीच कि यह सब फिर से शुरु होता है, फिर से खत्म होता है। चक्र चलता रहता है।
यह सब समय की बकवास भी हो सकती है, और इसके अस्वीकरण का अधिकार आपके पास सुरक्षित है ही। आखिर यह सब, समय आपकी कुंड़ली या हाथ की रेखाएं देखकर तो बता नहीं रहा कि सच मानने की विवशता हो।
चलिए थोड़ा सा आपके प्रश्न पर बात करते हैं:
दरअसल, आपके पास ‘कर्म’ नामक संकल्पना के पारंपरिक आशय हैं और हमारी धार्मिक परंपराओं से प्राप्त इसके गूढ़ार्थ हैं। थोड़ी क्लिष्ट भाषा है, पर जानबूझ कर इसका प्रयोग किया है, हो सकता है इस शब्दावली से आपको, आज ही पढ़ी मेरी पोस्ट संकल्पनाएं और प्रवर्ग का कुछ हिस्सा याद आजाए और आप उस पोस्ट और उक्त वाक्य के बीच के अंतर्संबंधों ( co-relation ) को देख सकें।
‘कर्म’ शब्द के आसान रूप ‘काम’ से हम भलीभांति परिचित होते हैं, बचपन से ही हम अच्छी तरह जानते हैं कि ज़िंदगी जीने के लिए मनुष्य को काम करना ही पडता है, काम कर कर ही वह वाकई में मनुष्य बनता है, कामों में दक्षता प्राप्त करता है, बिना काम किए कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता, काम अच्छा होता है तो मनुष्य को ख़ुद भी सुक़ून मिलता है शाबासी मिलती है, काम खराब होता है तो ख़ुद भी मनुष्य संतुष्ट नहीं होता, ग्लानि में रहता है और जाहिरा तौर पर लताड़ और प्रताड़ना मिलती है, अपने काम के जरिए ही मनुष्य अपनी पहचान बनाता है, इसी पहचान के जरिए अपने संबंधों को विकसित करता है, अच्छे काम हमें और हमारे से संबंधित परिवेश को खुश रखते हैं, सुकून देते हैं, वहीं बुरे कार्य हमें और हमारे संबंधों को ग्लानि में भरते हैं, अशांति का कारण बनते हैं। यह काम की वह समझ है जो जीवन हमें खुद समझा देता है।
समस्या तब पैदा होती है जब हम इसी काम की क्लिष्ट संकल्पना ‘कर्म’ से परिचित होते हैं, खासकर हमारे धर्मग्रंथों और उनकी बताई गई व्याख्याओं के जरिए जो कि सहज रूप से हमें हमारे आस-पास उपलब्ध होते हैं। जैसे कि आप कर्म की गीता आधारित अवधारणाओं के बीच उलझे हुए हैं। गीता कहती है कि कर्म मनुष्य का धर्म है उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना कर्म करते जाना चाहिए, बिना इसके परिणामों और फल की चिंता किए बगैर। मनुष्य के हाथ में सिर्फ़ कर्म है और बाकी चीज़ें विधाता के हाथ में हैं। जब उसके हाथ में कर्मों के परिणाम है ही नहीं, इसीलिए जाहिरा तौर मनुष्य को इनकी चिंता नहीं करनी चाहिए। बाकि का सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए, वह ही तय करेगा कि इन कर्मों का क्या परिणाम या फल देना है किसको देना है। आगे गीता यहां तक कहती है कि यहां असल में कुछ नहीं हो रहा, सब कुछ वही कर रहा है, सब कुछ पहले से नियत है और मनुष्य तो निमित्त मात्र है।
ज़िंदगी द्वारा दी गई व्यवहारिक समझ और धार्मिक सैद्धांतिक आदर्शों के बीच का यही विरोधाभास, थोड़ा पढ़े-लिखे समझदार से लोगों को थोड़ा बहुत परेशान करता रहता हैं। अधिकतर लोग तो ज़िंदगी की तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार कर्म करते रहते हैं, मूल्य और सिद्धांत उन्हें फ़ालतू की आदर्श की बाते लगती हैं जो संतों के ही वश की होती हैं और उनके लिए सिर्फ़ बात करने या दूसरों को उपदेश देने की चीज़ मात्र होती हैं। मंदिर या शमशान जैसी जगहों के लिए ही मनुष्य दार्शनिकता और धार्मिकता का सा लबादा ओढ़े रखता है। अपनी सामान्य ज़िंदगी वह इन मूल्यों और आदर्शों से दूर, प्रचलित व्यवहारिक ढ़ग से ही जीता है। वह अपनी समझ में इनके अलग-अलग खाने बना लेता है, जिनके बीच कोई संवाद, कोई अंतर्संबंध बनाना ना वह आवश्यक समझता है ना ही संभव और फिर इसी ढोंग और दोगलेपन के साथ अपनी ज़िंदगी गुजारता चला जाता है।
हमें इस पर सोचना चाहिए कि जब मनुष्य निमित्त मात्र है, उसके हाथ में कुछ है ही नहीं, जब सब कुछ पहले से नियत है, जब कर्म और परिणाम उसके वश से परे है तो जाहिर है नैतिक-अनैतिक, गलत-सही, प्रभाव और परिणामों की चिंता आदि का भला मतलब भी क्या रह जाता है? आपको इस बारे में कभी और, विस्तार से बताना शायद संभव हो पाए कि गीता और उसके द्वारा प्रवर्तित नये धार्मिक सिद्धांतो की ऐतिहासिक और वास्तविक पृष्ठभूमि का सच क्या है? यह किन सामाजिक जरूरतों के चलते विकसित और पल्लवित हुए?
वापस लौटते हैं।
आप अपने इस बाद के अनुकूलित धार्मिक व्यामोह से निकलिए और कर्म की ज़िंदगी द्वारा सिखाई परिभाषा पर ध्यान दीजिए। अपने व्यक्तिगत और दूसरों के सार्विक अनुभवों पर गौर कीजिए। देखें कि असल जीवन हमें इस बारे में क्या सिखा रहा है, क्योंकि यह समस्याएं हमारे वास्तविक जीवन में पैदा होती हैं अतएव इनसे निपटने के तरीके भी वास्तविकताओं को समझने से ही निकलेंगे। तभी आप अपने इन प्रश्नों से सही मायनों में जूझ पाएंगे, और कोई इच्छित परिणाम देने वाली राह चुन पाएंगे। आपकी मेधा को अभिप्रेत करने के लिए समय यहां कुछ इशारे कर रहा है। ये कोई निश्चित प्रकार के सिद्धांत नहीं है, सिर्फ़ आपकी समझ को शुरूआती आवेग प्रदान करना ही यहां इनका प्राथमिक उद्देश्य है। यह ऐच्छिक तात्कालिक वर्गीकरण है।
प्रत्येक जीव सबसे पहले अपनी जिजीविषा हेतु आवश्यक क्रियाकलापों हेतु प्रवृत्त होता है। उसकी सारी क्रियाविधियां इसी हेतु प्रेरित होती हैं, दूसरे से अंतर्संबंधित गतिविधियां उतना ही आकार ले पाती हैं जितना कि उसकी व्यक्तिगत जिजीविषा हेतु सहायक होती हैं। ये किसी भी जीव के लिए प्राथमिक और सबसे महत्वपूर्ण ‘कर्म’ होता हैं। मनुष्य भी एक जीव होने के नाते प्राथमिक रूप से, अवचेतन निर्देशों के जरिए इन्हीं कर्मों के लिए प्राकृतिक स्वाभाविक प्रवृत्ति रखता है। और इसको ध्यान में रखना बहुत ही महत्वपूर्ण है।
परंतु मनुष्य एक चेतना संपन्न, सामाजिक प्राणी है। अपनी सीमित क्षमताओं के कारण वह प्रकृति से सामूहिक रूप से, सामाजिक रूप से ही संघर्ष करना सीखकर आज की अवस्थाओं तक पहुंचा है। उसकी ऐतिहासिक समझ यह अच्छी तरह से जानती है कि सामाजिकता के बगैर उसका अस्तित्व संभव ही नहीं है। वह अकेला पहले तो ‘कर्म’ करने लायक ही नहीं हो सकता, दूसरा उसके जीवनयापन के लिए लिए जाने सारे कर्म आपस में एक दूसरे मनुष्यों के साथ बहुत ही गहराई से अंतर्गुंथित हैं।
जीवनयापन हेतु आवश्यक सामग्री और संसाधनों का उत्पादन और निर्माण उसके अकेले के कर्म के जरिए संभव ही नहीं हैं। इस तरह वह अपने हिस्से के कर्म, और उसके परिणामों के जरिए पारिवारिक और सामाजिक संबंधों का तान-बाना बुनता है। एक समाज में सभी इसी ‘कर्म’ के बंटवारे के जरिए आपस में जुडे रहते हैं, चाहे वे इसे समझ पाते हो या नहीं, एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, एक दूसरे के संबंधों को प्रेरित और विकसित करते हैं। इसी की वज़ह से एक दूसरे के बीच नकारात्मकता भी पैदा होती है, संबंध टूटते, नये संबंध बनते हैं। यह कर्म का सामाजिक पक्ष है, और द्वितीयक रूप है।
जीवनयापन हेतु जरूरी क्रियाकलापों से बचे समय में मनुष्य को आनंद भी चाहिए होता है, अपने सांस्कृतिक और सामाजिक उत्थान की आवश्यकता भी महसूस होती है। वह अपने अस्तित्व के जरिए सामाजिक श्रेष्ठता पाने की, व्यक्तिगत तौर पर अपने होने को महसूस करने और सामाजिक रूप से अपने जीवन की आवश्यकता साबित कर पाने की आकांक्षाओं से भी ओत-प्रोत होता है। अपने आपको सामाजिक उपयोगिता का आवश्यक अंग बनाने की, सामाजिक श्रेष्ठता पाने की, व्यक्तिगत अहं की तुष्टि की इन जुंबिशों के चलते किए जाने वाले कर्मों को तृतीयक सामाजिक-सांस्कृतिक रूप की श्रेणी मॆं रखा जा सकता है।
वह जैविक जरूरतों के आधार पर बने प्राथमिक और द्वितीयक कर्म संबंधों के अनुसार स्थापित व्यक्तिगत संबंधों में भावनात्मक आधार भी ढूंढ़ता है, भावनात्मक और व्यक्तिगत अपेक्षाएं पालता है, और इनके सुचारू व्यवस्थापन के लिए जिजीविषा से इतर कई तरह के क्रियाकलाप करने की प्रेरणा पाता है। इन्हें कर्म का चतुर्थ और सामाजिकता से ओत-प्रोत व्यक्तिक भावनात्मक रूप कहा जा सकता है।
जाहिर है अब अलग से यह कहने की आवश्यकता नहीं रह गई है कि हम कर्मों के जरिए ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। अपने कर्म और उस कर्म के पीछे के वास्तविक कारण के अनुसार ही हमारे साथ रहने वालों को प्रभावित करते हैं। साथ रहने वाले सब, जब आपस में अंतर्संबंधित हैं, तो एक दूसरे के कर्मों से सभी आपस में एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। जब तक ये कर्म एक दूसरे के व्यक्तिगत हितों से नहीं टकराते हैं, सामूहिक हितों से जुड़े रहते हैं, तब तक कोई समस्या नहीं महसूस नहीं होती। परंतु जब साथ रहने वालों के कुछ कर्म आपसी हितों और मान्यताओं से टकराने लगते हैं, जब ये सुपरिभाषित और सामूहिकता के साथ व्यवस्थित रूप से प्रचालित नहीं होते हैं, तो ये आपसी कड़वाहटों का, मनमुटावों का कारण बनते हैं और जीवन में, व्यक्तिगत चेतनाओं में अशांति का कारण बनते हैं।
जब एक साथ रहने वाला समूह आपस में इस तरह से अंतर्गुंथित है तो उनके कर्मों का असर भी व्यक्तिगत नहीं रह जाता, उसके परिणाम सभी को तद्अनुरूप प्रभावित करते हैं, अब इसे कभी सज़ा के तौर पर भी लिया जा सकता है और कभी इनाम के तौर पर भी। कुछ के तात्कालिक असर भी दिख जाते हैं, और कुछ के असर बहुत देर के बाद सामने आते हैं। समय का इस तरह से यहां कंप्यूटर पर बैठ कर टाईप करते रहना समय के परिवार के सामूहिक हितों के अनुरूप नहीं है, यह समय का तृतीयक रूप का कर्म है। जाहिरा तौर पर यह परिवार में टकराव का विषय बन सकता है। अब यह समय की समझ और प्रयासों पर निर्भर है कि समय किस तरह अपनी व्यक्तिगत और पारिवारिक जरूरतों के बीच सामंजस्य बिठाता है और इसे व्यक्तिगत अहं और श्रेष्ठताओं का विषय नहीं बनने देता है। यह आप आसानी से समझ सकते हैं।
यही अंत हो सकता है। चीज़ों को उनकी वास्तविकताओं के अनुसार समझना, वास्तविक और व्यवहारिक रूप से आपस में सामंजस्य बैठाना, पहले ख़ुद अपने आप से पारदर्शी होना, फिर अपने व्यक्तित्व को दूसरों के सामने पारदर्शी बनाना, अपने आप से और दूसरों के साथ ईमानदारी से पेश आना। अपनी व्यक्तिगतता को सामूहिक हितों के सापेक्ष सीमित करना, सामूहिक हितों में ही अपनी व्यक्तिगतता की अभिव्यक्ति को पैबस्त करना सीखना। और इस सबको प्रभावी रूप से कर पाने के लिए, अपनी ज्ञान और समझ को निरंतर बढ़ाने और परिष्कृत करने के लिए, मानवजाति के वास्तविक, यथार्थ और वैज्ञानिक अद्यतन ज्ञान का अध्ययन और व्यवहारीकरण।
शायद यही अंत होना चाहिए। अगर हो सके।
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उन मानवश्रेष्ठ का संपादित जवाब:
सादर नमस्ते समय जी ..मैं नहीं जानता आपका नाम क्या है ? पर मेरे लिए आप समय ही हो जो मेरे प्रश्नों के उत्तर देते हैं और मेरे अन्दर चलने वाले द्वंद को एक दिशा दिखाते हैं ..आप के हाथ में मेरी कोई कुंडली नहीं.. कोई हाथ की रेखा नहीं है ..पर आपने जो इस पोस्ट के आरम्भ में कहा वह एक दम से सच है ....( . )....कर्म समझने की परिभाषा यहीं से शुरू हुई सही मायने में ...गीता तो पढ़ी मैंने कई बार पर आज आपके बताये अर्थ से लगता है उसको समझने में कहीं चुक गया ...गीता हर बार नए अर्थ देती है ..यह तो लगता था पर फिर भी सामान्य इंसान हूँ न ....जब झूठ साथ वाला बोल रहा हो या वह ज़िन्दगी वह जी रहा हो तो उसका असर बाकी सदस्यों पर पड़ना लाजमी है यह आज आपकी पोस्ट से जाना ..( . ).. आपने जो मुझे मेल किया है वह मेरे जैसे कई लोगो के लिए एक अच्छा मार्गदर्शक साबित हो सकता है ..मेरा अनुरोध हैं आपसे कि आप इसको पोस्ट के रूप में अपने ब्लॉग पर पोस्ट करें ..( . )...आगे भी आपका स्नेह मुझे यूँ ही मिलता रहेगा तहे दिल से धन्यवाद
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इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है।
समय
9 टिप्पणियां:
अच्छा लिखा है -यह पूरा विवेचन प्रारब्ध ,कर्मवाद और भाग्यवाद जैसी संकल्पनाओं के इर्द गिर्द घूमता है -कर्म वही तो हैं जो हम करते हैं और वह हम करते नहीं हमसे करा लिया जाता है -कर्म से विमुख तो कुछ भी नहीं है .,...मगर यह भाग्यवाद की डोर से भी जुड़ा है -होईहैं वही जो राम रची राखा ! आशय यही कि हम जो कर रहे हैं करते जाएँ!
सुंदर विश्लेषण और जवाब।
व्यक्तिगत जीवन का अनुभव यह है कि निष्काम कर्म की जोरों से व्याख्या और प्रचार करने वाले अधिकांश लोगों का कोई कर्म निष्काम नहीं होता।
आदरणीय,आपकी इस पोस्ट से कुछ सवाल खड़े होते हैं.१.क्या मानव आत्यंतिक रूप से किसी कर्म के चुनाव के लिए स्वतन्त्र है?(अ.जैविक रूप से अर्थात biologically rather genetically) २.क्या "नैतिकी" अपनी जाति के नष्ट हो जाने के भय से उबरने के लिए ,संगठित रहने के लिए एक थोपी हुई व्यवस्था नहीं है?आप ने स्वयं कहा है कि अकेला आदमी क्या कर्म करेगा उसे समाज की और समाज को उसकी ज़रुरत है.लेकिन हर इकाई का लक्ष्य अपना "होना" महसूस करना है.समान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष तो अवश्यम्भावी है फिर "चाहिए" "संतुलित व्यवहार" जैसे शब्दों का क्या अर्थ रह जाता है.३.मेरे लिए यह आश्चर्य जनक नहीं है कि "गीता" के कर्म सिद्धांत को निकट भविष्य में Genetics science से पूरी तरह मान्यता मिलने वाली है.मेरे ख़याल से किसी जीव के genome और उसकी ज्योतिषीय कुंडली में कोई फर्क नहीं है.कुंडली पढने वाले बहुत कम है.
आदरणीय पिनाकपानी जी,
आपकी बात पूरी तरह ज्ञेय नहीं हुई।
विकल्प होने की अवस्थाओं में ही, चुनाव की सम्भावनाएं पैदा होती हैं। यह अलग बात है कि ऐसा लग सकता है कि किसी प्रदत्त क्षण में मानव परिस्थितियों के चुनाव के लिए स्वतंत्र है या कि अभिशप्त। अगर अभी मानव इस हेतु अभिशप्त नज़र आता है, तो जाहिर है कि कुछ ठीक नहीं है, और दुनिया को और बेहतर बनाए जाने की जरूरत है।
जब हम व्यक्ति को समाज के विरोधाभास में देखते हैं, जब हम ऐसे समझते हैं कि व्यक्ति के अपनी संपूर्णता में अस्तित्व में आने के बाद, उसने किन्हीं भय और मजबूरियों के तहत संगठित रहना स्वीकार किया तो जाहिर है यह हमें थोपा हुआ अस्वाभाविक प्रक्रम लगेगा ही।
परंतु यह पूरी सच्चाई नहीं है। मानव की उत्पत्ति और विकास इसी सामूहिकता के जज़्बे से हुआ है। ‘मैं’ की चेतना ‘हम’ की चेतना के बाद की चीज़ है। सामाजिकता के बीच से ही व्यक्तिगतता का विकास हुआ है। और यह व्यक्तिगतताएं निर्बाध रूप से पल्लवित हो सकें, इसीलिए सामाजिक ‘नैतिकी’ का निर्माण इन्हीं व्यक्तिगतताओं ने स्वाभाविक रूप से किय़ा है।
समस्या यह है कि जब व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं, सिर्फ़ अपनी निर्बाध हितपूर्ति के लिए सामाजिक संसाधनों को हस्तगत करने के अपने सामाजिक ‘अनैतिक’ लक्ष्य की हितसाधना में रमती है, तभी आपके उल्लिखित संघर्ष, लूट-खसौट, युद्ध आदि अस्तित्व में आते हैं। जाहिर है असल संघर्ष तो इसी सामाजिक ‘अनैतिकता’ के विरुद्ध होना चाहिए, ताकि ‘हर’ इकाई को अपना होना होना वास्तव में महसूस करने लायक परिस्थितियां पैदा की जा सकें।
आखिरी बात, वास्तविकता से उपजे और इसी के निकट के ही अनुमानों को, विज्ञान की किसी भी शाखा द्वारा अभिपुष्ट किया जा सकता है। विशुद्ध काल्पनिक अनुमान, छद्म विज्ञान के लिए तो महत्वपूर्ण हो सकते हैं, असल वस्तुगत विज्ञान के लिए नहीं।
गीता में ही प्रसिद्ध कर्म-सिद्धांत की विस्तृत विवेचना के बाद भी जब अर्जुन, वास्तविक परिस्थितियों द्वारा निगमित, कर्म के लिए प्रवृत्त नहीं हुआ तो याद करिए कृष्ण ने क्या कहा था।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चयः ॥
( अगर मारा जाएगा तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी, अगर जीत जाएगा तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा अतः उठो हे कुंतिनंदन! और युद्ध के लिए निश्चय कर खड़े जाओ )
अब यह आपको सोचना है कि जो निष्काम कर्म का सिद्धांत वहीं नहीं ठहर पाया, उसे विज्ञान द्वारा मान्यता दिलवाने की हमारी सदइच्छाएं कितनी जायज़ हैं।
आपने संवाद हेतु प्रस्तुत हो मान बढ़ाया, शुक्रगुजार हूं।
शुक्रिया।
बहुत सही लिखा है समय साहेब ने । हम तो मानवश्रेष्ठ शब्द पढकर ही पुलकित हो जाते हैं ।
इंसान की पराबलम ये है कि चित्त भी अपनी और पट्ट भी अपनी चाहता है । इधर डॉक्टर की दवाई भी चल रही है उधर झाड फूंक भी चल रही है । ठीक होने से मतलब है । कुछ भी असर करें । ये बात अलग कि हो सकता कि ऐसे में कुछ भी असर न करे । दोनों तरफ के असर एकदूसरे के भरोसे बैठे रह जाऍं ।
एक तरफ " होइहैं उहै जो राम रचि राखा " और दूसरी तरफ "सकल पदारथ हैं जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं " ऐसी विकट परिस्थिति में, भला आदमी कनफुजिआए नहीं तो क्या करे ... हर आदमी तो हमारी तरह खुद को और अगले को थियरी ऑफ नानसेन्स पकडा नहीं सकता ।
हमारी तुच्छ समझ यह है कि मनुष्य के पास एक कॉमन सेन्स नाम की चीज होती है । यह हमें जीवन के विकास और परिवेश से मिलती है । यह हर समस्या का हल अपने पास रखती है । हकीकत भी यही है कि व्यवहार में हर मनुष्य इसी के सहारे जिंदगी चलाता है । लेकिन यदि कोई अपने इस सहज विवेक का दामन छोडकर इसलिए दुखी होगा कि उसकी सोच तीन क्विंटल वजन उठाकर चलने वाले की सोच से मेल क्यों नहीं खाती तो जाहिरा तौर पर या तो समय जी को यह पोस्ट लिखनी पडेगी या फिर उसे यह तय करना होगा कि बडे बडे सिद्धांतों से आतंकित होना ज्यादा उत्तेजक है या यह जान लेना कि हम क्या चाहते हैं और क्या कर सकते हैं यह भांप लेना अधिक सार्थक है ।
तो फिर ऐसी स्थिति में मुझे वह कुत्ता प्यारा क्यों न लगे जो इतनी गर्मी में और इतने बडे भवन में वह छोटा सा कोना ढूँढ ही लेता है जो उसकी पहुँच के स्थानों में सार्वाधिक ठंडा है ।
शुक्रिया ।
इन्सान के अन्दर आत्म विश्वास है गुरु मंत्र का जाप चलते फिरते काम धंधा करते हुए भी ले सकते हैं dailymajlis.blogspot.in/2013/01/soulpower.html
एक प्रश्न का उत्तर दीजिये कि जब सब कुछ पूर्व जन्मो के कर्मफल के हिसाब से ही घटित होता है तो बुरा कर्म करने वाला दोषी कैसे हो गया ॥? जैसे किसी ने हमारे साथ पूर्वजन्म मे कुछ बुरा किया हो तो इस जन्म मे हमने उसका बदला चुका दिया ,तो क्या फिर भी दोष लगेगा ॥कृपया इस प्रश्न का उत्तर बताइए
एक प्रश्न का उत्तर दीजिये कि जब सब कुछ पूर्व जन्मो के कर्मफल के हिसाब से ही घटित होता है तो बुरा कर्म करने वाला दोषी कैसे हो गया ॥? जैसे किसी ने हमारे साथ पूर्वजन्म मे कुछ बुरा किया हो तो इस जन्म मे हमने उसका बदला चुका दिया ,तो क्या फिर भी दोष लगेगा ॥कृपया इस प्रश्न का उत्तर बताइए
एक प्रश्न का उत्तर दीजिये कि जब सब कुछ पूर्व जन्मो के कर्मफल के हिसाब से ही घटित होता है तो बुरा कर्म करने वाला दोषी कैसे हो गया ॥? जैसे किसी ने हमारे साथ पूर्वजन्म मे कुछ बुरा किया हो तो इस जन्म मे हमने उसका बदला चुका दिया ,तो क्या फिर भी दोष लगेगा ॥कृपया इस प्रश्न का उत्तर बताइए
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