हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में दिये जाने की योजना है। पिछली बार यहां मन के परावर्ती स्वरूप पर एक संक्षिप्त दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया था। इस बार मन और मस्तिष्क पर थोड़ी और चर्चा करेंगे। पहले यहां इसी संदर्भ में कुछ चर्चाएं की जा चुकी हैं जिनके लिंक यथोचित स्थान पर दे दिये गये हैं, जो भी मानवश्रेष्ठ चाहें उनसे भी लाभांवित हो सकते हैं।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मन और मस्तिष्क
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में दिये जाने की योजना है। पिछली बार यहां मन के परावर्ती स्वरूप पर एक संक्षिप्त दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया था। इस बार मन और मस्तिष्क पर थोड़ी और चर्चा करेंगे। पहले यहां इसी संदर्भ में कुछ चर्चाएं की जा चुकी हैं जिनके लिंक यथोचित स्थान पर दे दिये गये हैं, जो भी मानवश्रेष्ठ चाहें उनसे भी लाभांवित हो सकते हैं।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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मन और मस्तिष्क
मन मस्तिष्क का प्रकार्य है। किसी भी अवयवी की मानसिक क्रिया बहुसंख्य विशिष्ट शारीरिक युक्तियों के माध्यम से संपन्न होती है। इनमें से कुछ बाह्य प्रभावों को ग्रहण करने वाली युक्तियों का काम करती हैं, कुछ इन प्रभावों को संकेतों में बदलती, व्यवहार की योजना बनाती तथा उसे क्रियान्वित करती हैं, कुछ का काम व्यवहार को आवश्यक ऊर्जा तथा आवेग प्रदान करना होता है और कुछ पेशियों, आदि को सक्रिय बनाती हैं। अवयवी का यह सारा जटिल कार्य, उसे अपने को परिस्थिति के अनुकूल ढ़ालने और जीवनीय समस्याएं हल करने की संभावनाएं देता है।
जीवजगत के, अमीबा से लेकर मनुष्य तक दीर्घ उदविकास के दौरान व्यवहार के शरीरक्रियात्मक तंत्र उत्तरोत्तर ज़्यादा पेचीदे, विभेदीकृत, लचीले और पर्यावरण के अनुकूल बनते गये हैं। अंगों के विशिष्टीकरण और जीवन के लिए उनके बीच निरंतर संपर्क और गतियों के समन्वय की जरूरत के चलते, मुख्य नियंत्रण पटल अर्थात केंद्रीय तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क का विकास हुआ। केंद्रीय तंत्रिका-तंत्र के सभी भागों की संरचना अत्यंत जटिल है और शरीररचनाविज्ञान और ऊतकविज्ञान उनका अध्ययन करते हैं। यहां हम उनके विस्तार में नहीं जाएंगे, परंतु यदि कुछ जिज्ञासू चाहें तो पूर्व की प्रविष्टियों : "जीवन का क्रम-विकास और तंत्रिका तंत्र की उत्पत्ति", "सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन", तथा "मानसिक क्रियाकलाप के भौतिक अंगरूप में मस्तिष्क" को पढ़ कर कुछ इशारे पा सकते हैं, जिज्ञासा को थोड़ा तुष्ट कर सकते हैं।
आधुनिक विज्ञान मेरू-रज्जु तथा प्रमस्तिष्कीय स्कंध को मुख्य रूप से परावर्ती क्रिया के सहज रूपों ( अननुकूलित प्रतिवर्तों ) के अधिष्ठान मानता है, जबकि प्रमस्तिष्कीय गोलार्धों की प्रांतस्था व्यवहार के मन द्वारा नियंत्रित तथा जन्मोपरांत उपार्जित रूपों का अंग है। यह जानना दिलचस्प रहेगा कि, मनुष्य के प्रमस्तिष्कीय गोलार्धों की प्रातंस्था के काफ़ी बड़े भाग में हाथों और विशेषतः अंगु्ठों की, जो मनुष्यों में अन्य सभी उंगलियों के आमने-सामने आने की क्षमता रखते हैं, क्रिया से जुड़ी हुई कोशिकाएं और वाक् के अंगों - होठों तथा जिह्वा - की पेशियों के कार्य से जुड़ी हुई कोशिकाएं होती हैं। इस प्रकार मनुष्य के प्रमस्तिष्कीय गोलार्ध मुख्य रूप से उन प्रेरक अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी श्रम तथा संप्रेषण में मुख्य भूमिका होती है।
मनुष्य की मानसिक प्रक्रियाओं के मस्तिष्कीय तंत्रों और पशुओं के मानस के तंत्रों में काफ़ी समानताएं हैं। सभी स्तनपायी प्राणियों में तंत्रिका तंत्र की संरचना तथा संक्रिया के सामान्य सिद्धांत एक जैसे हैं। इसलिए शरीरक्रियाविज्ञान और मनोविज्ञान, दोनों के लिए पशुओं के मस्तिष्क का अध्ययन बहुत ही महत्वपूर्ण है। किंतु हमें मनुष्य की मानसिक प्रक्रिया और पशुओं की मानसिक ल्रिया के बीच जो बुनियादी भेद हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए। ये भेद परिमाणात्मक ही नहीं, बल्कि गुणात्मक भी हैं। वे श्रम की प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से आगे बढ़े और श्रम एक ऐसा सशक्त भौतिक कारण था कि जिसने मस्तिष्क समेत मनुष्य के शरीर के सभी अंगों की संरचना और कार्यों को बदल डाला। मनुष्य और पशुओं के मानस में भेदों पर एक चर्चा हम यहां पहले ही कर चुके हैं, और बाद में भी इसे विस्तार से देखने की कोशिश करेंगे।
जीवजगत के, अमीबा से लेकर मनुष्य तक दीर्घ उदविकास के दौरान व्यवहार के शरीरक्रियात्मक तंत्र उत्तरोत्तर ज़्यादा पेचीदे, विभेदीकृत, लचीले और पर्यावरण के अनुकूल बनते गये हैं। अंगों के विशिष्टीकरण और जीवन के लिए उनके बीच निरंतर संपर्क और गतियों के समन्वय की जरूरत के चलते, मुख्य नियंत्रण पटल अर्थात केंद्रीय तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क का विकास हुआ। केंद्रीय तंत्रिका-तंत्र के सभी भागों की संरचना अत्यंत जटिल है और शरीररचनाविज्ञान और ऊतकविज्ञान उनका अध्ययन करते हैं। यहां हम उनके विस्तार में नहीं जाएंगे, परंतु यदि कुछ जिज्ञासू चाहें तो पूर्व की प्रविष्टियों : "जीवन का क्रम-विकास और तंत्रिका तंत्र की उत्पत्ति", "सक्रिय और निष्क्रिय परावर्तन", तथा "मानसिक क्रियाकलाप के भौतिक अंगरूप में मस्तिष्क" को पढ़ कर कुछ इशारे पा सकते हैं, जिज्ञासा को थोड़ा तुष्ट कर सकते हैं।
आधुनिक विज्ञान मेरू-रज्जु तथा प्रमस्तिष्कीय स्कंध को मुख्य रूप से परावर्ती क्रिया के सहज रूपों ( अननुकूलित प्रतिवर्तों ) के अधिष्ठान मानता है, जबकि प्रमस्तिष्कीय गोलार्धों की प्रांतस्था व्यवहार के मन द्वारा नियंत्रित तथा जन्मोपरांत उपार्जित रूपों का अंग है। यह जानना दिलचस्प रहेगा कि, मनुष्य के प्रमस्तिष्कीय गोलार्धों की प्रातंस्था के काफ़ी बड़े भाग में हाथों और विशेषतः अंगु्ठों की, जो मनुष्यों में अन्य सभी उंगलियों के आमने-सामने आने की क्षमता रखते हैं, क्रिया से जुड़ी हुई कोशिकाएं और वाक् के अंगों - होठों तथा जिह्वा - की पेशियों के कार्य से जुड़ी हुई कोशिकाएं होती हैं। इस प्रकार मनुष्य के प्रमस्तिष्कीय गोलार्ध मुख्य रूप से उन प्रेरक अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी श्रम तथा संप्रेषण में मुख्य भूमिका होती है।
मनुष्य की मानसिक प्रक्रियाओं के मस्तिष्कीय तंत्रों और पशुओं के मानस के तंत्रों में काफ़ी समानताएं हैं। सभी स्तनपायी प्राणियों में तंत्रिका तंत्र की संरचना तथा संक्रिया के सामान्य सिद्धांत एक जैसे हैं। इसलिए शरीरक्रियाविज्ञान और मनोविज्ञान, दोनों के लिए पशुओं के मस्तिष्क का अध्ययन बहुत ही महत्वपूर्ण है। किंतु हमें मनुष्य की मानसिक प्रक्रिया और पशुओं की मानसिक ल्रिया के बीच जो बुनियादी भेद हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए। ये भेद परिमाणात्मक ही नहीं, बल्कि गुणात्मक भी हैं। वे श्रम की प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से आगे बढ़े और श्रम एक ऐसा सशक्त भौतिक कारण था कि जिसने मस्तिष्क समेत मनुष्य के शरीर के सभी अंगों की संरचना और कार्यों को बदल डाला। मनुष्य और पशुओं के मानस में भेदों पर एक चर्चा हम यहां पहले ही कर चुके हैं, और बाद में भी इसे विस्तार से देखने की कोशिश करेंगे।
मनुष्य के मनोजीवन में ललाट खंडों की भूमिका विशेषतः महत्वपूर्ण है। प्रांतस्था की तीस प्रतिशत सतह पर ये ही खंड स्थित हैं। बीमारी या चोट आदि के कारण उन्हें पहुंची क्षति से व्यवहार के सामान्य ही नहीं, अपितु उच्चतर रूप भी प्रभावित होते हैं। उदाहरणार्थ, जिन रोगियों के ललाट खंड क्षतिग्रस्त हैं, उनकी देखने, बोलने तथा लिखने की क्षमता तो बनी रहती है, किंतु यदि उनसे गणित का कोई सवाल हल करने को कहा जाए तो वे उसकी शर्तों का विश्लेषण करने का प्रयत्न भी नहीं करते। हल की योजना बनाते हुए वे अंतिम प्रश्न तक को भूल जाते हैं और अपनी त्रुटियों पर ध्यान नहीं देते हैं। बहुत से नैदानिक तथ्य दिखाते हैं कि मस्तिष्क के ललाट खंडों को क्षति पहुंचने से बौद्धिक योग्यताओं के घटने के साथ-साथ कई तरह की व्यक्तित्व तथा स्वभाव संबंधी गड़बड़ियां पैदा हो जाती हैं। इस तरह जो पहले शिष्ट तथा संयतस्वभाव माने जाते थे, वे अब असंयत, अशिष्ट और सहसा तैश में आ जानेवाले बन जाते हैं।
यह पाया गया है कि प्रमस्तिष्क के दायें तथा बायें गोलार्धों के मानसिक प्रकार्य कुछ हद तक बँटे हुए हैं। बिंबों और शब्दों के रूप में सूचना का ग्रहण तथा संसाधन दोनों गोलार्धों द्वारा किया जाता है, फिर भी वे जो कार्य करते हैं उनमें काफ़ी स्पष्ट अंतर है। इस तरह कहा जा सकता है कि मस्तिष्क में क्रियात्मक असममिति होती है। बायां गोलार्ध पढ़ने, गिनने और सामान्यतः संकेतों ( शब्दों, प्रतीकों, आकृतियों, आदि ) से काम लेने से संबंध रखता है। उसकी बदौलत तार्किक निर्मितियां बनायी जाती हैं, जिनके बिना विश्लेषणात्मक चिंतन असंभव है। बायें गोलार्ध की क्रिया में गड़बड़ी से वाग्दोष ( भाषणघात ) पैदा होते हैं, सामान्य संप्रेषण कठिन हो जाता है और यदि तंत्रिका ऊतक को व्यापक क्षति पहुंची है, तो सोचने की क्षमता में भारी कमी आ जाती है। दायां गोलार्ध बिंबात्मक सूचना से काम लेता है, दिगविन्यास तथा संगीत की रसानुभूति में मदद करता है और जानी तथा समझी जा रही वस्तुओं के प्रति मनुष्य के भावात्मक रवैये का निर्धारण करता है। दोनों गोलार्धों के बीच क्रियात्मक अंतर्संबंध होते हैं। किंतु क्रियात्मक असममिति केवल मनुष्य में पाई जाती है।
प्रमस्तिष्क बहुत सारे अंगों की एक जटिल प्रणाली है, जिनकी क्रिया उच्चतर प्राणियों और मनुष्यों के मन अथवा मानस का सारतत्व है। मन की अंतर्वस्तु बाह्य विश्व से निर्धारित होती है, जिससे जीवधारी अन्योन्यक्रिया करता है। मानव-मस्तिष्क के लिए बाह्य विश्व मात्र जैव परिवेश ही नहीं है ( जैसा कि यह पशुओं के मस्तिष्क के लिए भी है ), बल्कि अपने सामाजिक इतिहास के दौरान लोगों द्वारा बनायी गई वस्तुओं एवं परिघटनाओं का विश्व भी है। मनुष्य जब जीवन में पहले डग भरता है, तभी से उसके मानसिक विकास की जड़े मानव संस्कृति के इतिहास की गहराईयों में होती हैं।
मनुष्य के मस्तिष्क में यथार्थ के प्रतिबिंब के तौर पर मन के कई स्तर होते हैं, जिन पर हम पूर्व में भी चर्चा कर चुके हैं। इसके लिए चेतना की संकल्पना नामक प्रविष्टि को देखा जा सकता है। आप मन, चिंतन और चेतना शीर्षक प्रविष्टि पर भी नज़र डाल सकते हैं।
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इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
यह पाया गया है कि प्रमस्तिष्क के दायें तथा बायें गोलार्धों के मानसिक प्रकार्य कुछ हद तक बँटे हुए हैं। बिंबों और शब्दों के रूप में सूचना का ग्रहण तथा संसाधन दोनों गोलार्धों द्वारा किया जाता है, फिर भी वे जो कार्य करते हैं उनमें काफ़ी स्पष्ट अंतर है। इस तरह कहा जा सकता है कि मस्तिष्क में क्रियात्मक असममिति होती है। बायां गोलार्ध पढ़ने, गिनने और सामान्यतः संकेतों ( शब्दों, प्रतीकों, आकृतियों, आदि ) से काम लेने से संबंध रखता है। उसकी बदौलत तार्किक निर्मितियां बनायी जाती हैं, जिनके बिना विश्लेषणात्मक चिंतन असंभव है। बायें गोलार्ध की क्रिया में गड़बड़ी से वाग्दोष ( भाषणघात ) पैदा होते हैं, सामान्य संप्रेषण कठिन हो जाता है और यदि तंत्रिका ऊतक को व्यापक क्षति पहुंची है, तो सोचने की क्षमता में भारी कमी आ जाती है। दायां गोलार्ध बिंबात्मक सूचना से काम लेता है, दिगविन्यास तथा संगीत की रसानुभूति में मदद करता है और जानी तथा समझी जा रही वस्तुओं के प्रति मनुष्य के भावात्मक रवैये का निर्धारण करता है। दोनों गोलार्धों के बीच क्रियात्मक अंतर्संबंध होते हैं। किंतु क्रियात्मक असममिति केवल मनुष्य में पाई जाती है।
प्रमस्तिष्क बहुत सारे अंगों की एक जटिल प्रणाली है, जिनकी क्रिया उच्चतर प्राणियों और मनुष्यों के मन अथवा मानस का सारतत्व है। मन की अंतर्वस्तु बाह्य विश्व से निर्धारित होती है, जिससे जीवधारी अन्योन्यक्रिया करता है। मानव-मस्तिष्क के लिए बाह्य विश्व मात्र जैव परिवेश ही नहीं है ( जैसा कि यह पशुओं के मस्तिष्क के लिए भी है ), बल्कि अपने सामाजिक इतिहास के दौरान लोगों द्वारा बनायी गई वस्तुओं एवं परिघटनाओं का विश्व भी है। मनुष्य जब जीवन में पहले डग भरता है, तभी से उसके मानसिक विकास की जड़े मानव संस्कृति के इतिहास की गहराईयों में होती हैं।
मनुष्य के मस्तिष्क में यथार्थ के प्रतिबिंब के तौर पर मन के कई स्तर होते हैं, जिन पर हम पूर्व में भी चर्चा कर चुके हैं। इसके लिए चेतना की संकल्पना नामक प्रविष्टि को देखा जा सकता है। आप मन, चिंतन और चेतना शीर्षक प्रविष्टि पर भी नज़र डाल सकते हैं।
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इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
5 टिप्पणियां:
समय की कमी के कारण अभी कोई टिप्पणी नही .... पढ़ कर टिप्पणी करुँगी ..
श्रंखला का आरंभ बहुत सुंदर और रुचिकर है, मुझे विश्वास है कि इस से हमको बहुत कुछ नया जानने और सीखने को मिलेगा।
Mann aur dil me kya antar hai...........?
बहुत अच्छा प्रयास है....सराहनीय
बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख।
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।