शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

व्यवहारवाद और मनोविश्लेषण ( फ़्रायडवाद )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार यहां मन और मस्तिष्क पर एक संक्षिप्त चर्चा प्रस्तुत की गयी थी। इस बार समकालीन मनोविज्ञान की दो अन्य महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों व्यवहारवाद तथा मनोविश्लेषण पर संक्षिप्त आलोचनात्मक चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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व्यवहारवाद और मनोविश्लेषण

जैसा कि पहले बताया जा चुका है, मानसिक परिघटनाओं की समझ और मन की समस्या के प्रति नज़रिया और पद्धतियां, अध्येताओं के विश्व-दृष्टिकोण तथा समाज के प्रति उनके रवैये पर निर्भर होती हैं। इसलिए ही समकालीन मनोविज्ञान भी बहुतेरे मनोविज्ञानियों के प्रतिगामी विचारों और प्रगतिशील संकल्पनाओं के बीच संघर्ष का अखाड़ा बना हुआ है। कई विकसित देशों में मनोविज्ञान के क्षेत्र में आज भी मुख्यतः वे प्रवृतियां छायी हुई हैं, जो २०वीं शती के आरंभ में पैदा हुई थीं और गत कई दशकों में अपने ऐतिहासिक विकास के दौरान काफ़ी कुछ बदल गई हैं। इनमें निश्चय ही सबसे अधिक प्रभावशाली व्यवहारवाद तथा मनोविश्लेषण हैं।
एडवर्ड थार्नडाइक
व्यवहारवाद का जन्म संयुक्त राज्य अमरीका में हुआ था और एडवर्ड थार्नडाइक, जेम्स वाटसन, आदि को उसका जनक माना जाता है, जिन्होंने पशुओं के जीवन तथा व्यवहार के बारे में उल्लेखनीय खोजें की थीं। व्यवहा्रवाद चेतना और मन को मनोवैज्ञानिक अध्ययन का विषय नहीं मानता। उसके अनुसार मनोविज्ञान को केवल व्यवहार तथा परिवेश के परस्परसंबंध की नियमसंगतियों से सरोकार रखना चाहिए। व्यवहारवादियों के मत में, मनोवैज्ञानिक अध्ययन का उद्देश्य इंद्रियों को प्रभावित करने वाले उद्दीपनों ( S ) की प्रतिक्रिया ( R ) का पूर्वानुमान करना या इसके विपरीत, यदि प्रतिक्रिया मालूम है, तो उद्दीपन को जानना है। क्लासिकल व्यवहारवाद का फ़ार्मूला S →R है। व्यवहारवादी मनोविज्ञान आद्योपांत यंत्रवादी है और पशुओं की भांति मनुष्य को भी एक निष्क्रिय क्रियातंत्र अथवा एक तरह का यंत्र मानता है जो मन से युक्त हो या न हो, बाह्य प्रभावों पर प्रतिक्रिया अवश्य करेगा।

उद्दीपन और प्रतिक्रिया के बीच संबंध ( S →R ) को, अर्थात मस्तिष्क के ‘निवेश’ तथा ‘निर्गम’ के बीच संबंध को दर्ज़ करते हुए व्यवहारवाद ने ‘निवेश’ और ‘निर्गम’ के बीच के क्षेत्र को वैज्ञानिक विश्लेषण की पहुंच से बाहर ( ‘ब्लैक बॉक्स’ ) घोषित किया, क्योंकि उसका प्रत्यक्ष प्रेक्षण संभव नहीं है। व्यवहारवादियों ने अपने प्रयोग मुख्यतः जानवरों ( ज़्यादातर सफ़ेद चूहों ) पर किये और उनसे जिन निष्कर्षों पर पहुंचे, उन्हें मनुष्यों पर भी जस का तस लागू किया। ऐसा करते हुए उन्होंने मानव-व्यक्तित्व की क्रियाशीलता को तनिक भी ध्यान में नहीं रखा। इतनी ही यंत्रवादी उनकी शिक्षण की प्रक्रिया की समझ थी। पशुओं की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करते हुए व्यवहारवादी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि समस्या को केवल प्रयत्न-त्रुटि प्रणाली से हल किया जा सकता है। उनके अनुसार इस प्रणाली का सार यह है कि आंख मीचकर चुनी हुई बेतरतीब हरकतें तब तक जारी रखी जाएं, जब तक कोई एक हरकत वांछित फल न दे दे। व्यवहारवादियों ने उपरोक्त निष्कर्ष मनुष्य पर भी लागू किया और पशुओं तथा मनुष्य के व्यवहार में कोई गुणात्मक अंतर नहीं देखा।
सिगमंड फ़्रायड
२०वीं शती के पश्चिमी मनोविज्ञान में दूसरी प्रभावशाली प्रवृति मनोविश्लेषण है, जिसे आस्ट्रियाई मनश्चिकित्सक तथा मनोविज्ञानी सिगमंड फ़्रायड  के नाम से फ़्रायडवाद भी कहा जाता है। फ़्रायड द्वारा प्रतिपादित मत के अनुसार मनुष्य की प्रकृति तथा क्रियाशीलता उसकी अपने पशु पूर्वजों से विरासत में पाई गई सहजवृतिक अंतःप्रेरणाओं, विशेषतः काम-प्रवृत्ति और आत्मरक्षा की प्रवृत्ति से पैदा होती हैं। फिर भी मानव समाज में सहजवृत्तियां सामाजिक प्रतिबंधों तथा वर्जनाओं के कारण अपने को पशुओं जैसे खुलकर प्रकट नहीं कर सकती और मनुष्य उनका दमन करने को विवश होता है। इस प्रकार सहजवृत्तिक आवेग शर्मनाक, अनुचित तथा कलंककारी बनकर मनुष्य के चेतन जीवन से विस्थापित होकर अवचेतन के क्षेत्र में पहुंच जाते हैं। फ़्रायडवाद के दृष्टिकोण से मनुष्य का व्यवहार दो तत्वों से निदेशित होता है: "आनंद का तत्व", जिससे आशय मुख्यतः कामेच्छा की अभिव्यक्ति से है, और "वास्तविकता का तत्व", जो कामवृत्ति को लज्जाजनक तथा वर्जित मानकर दबाने की, समाज की मांगों का परिणाम होता है। आनंद और वास्तविकता के तत्वों के बीच टकराव के फलस्वरूप "अतुष्ट" वृत्तियां अथवा इच्छाएं, अचेतन के क्षेत्र में स्थानांतरित हो जाती हैं, जहां से वे मनुष्य के व्यवहार का नियंत्रण करती हैं। अवचेतन में सहजवृत्तिक अंतःप्रेरणाएं अपने मूल के अनुसार विभिन्न "मनोग्रंथियों" अथवा अचेतन मानसिक संरचनाओं (  विचारों और आवेगों के पुंजों ) में विलयित हो जाती हैं, जिन्हें ही व्यक्ति की क्रियाशीलता का वास्तविक कारण बताया जाता है।

व्यवहारवादियों की भांति ही फ़्रायडवादी भी मन की भूमिका को नगण्य मानकर उसकी अवज्ञा करते हैं। अचेतन मानसिक शक्तियों और मूलतः मानव-द्वेषी सामाजिक परिवेश के बीच लगातार संघर्ष की धारणा को आधारबिंदु बनाकर मनोविश्लेषकों ने दावा किया कि व्यक्ति के भाग्य में आंतरिक द्वंद की अवस्था में रहना लिखा हुआ है। क्योंकि एक ओर समाज उससे सामाजिक वर्जनाओं के रूप में, जिन्हें कि व्यक्ति, अंतरात्मा की आवाज़, लज्जा, भय, आदि की शक्ल में आत्मपरक तौर पर अनुभव करता है ( "चेतना की सेंसरशिप"), असंगत मांगें करता है और दूसरी ओर अचेतन प्रवृत्तियां उस पर अपना दबाव डालती रहती हैं। इस असह्य तनाव को कम करने के लिए मनुष्य मनोवैज्ञानिक रक्षा के क्रियातंत्रों को सक्रिय बनाता है, जो उसकी काम-शक्ति को समाज द्वारा स्वीकार्य दिशाओं में प्रवृत्त कर देते हैं। वयस्क मनुष्य के व्यवहार के अचेतन मार्गदर्शक पूरी तरह आवेगों द्वारा नियंत्रित होते हैं, जो आरंभिक बाल्यावस्था में ही बन गये थे और जीवन भर लगभग अपरिवर्तित रहते हैं, हालांकि चेतना की "सेंसरशिप" के अनुरूप होने की आवश्यकता के कारण वे थोड़ा सा छद्मरूप जरूर धारण कर लेते हैं।

फ़्रायडपंथियों ने व्यक्तित्व के आगे के भी सारे विकास की कल्पना अवचेतन में विस्थापित विभिन्न मनोग्रंथियों के बीच टकराव के रूप में की। फ़्रायड और उसके अनुयायियों के अनुसार मनोविज्ञान का एक मुख्य उद्देश्य अवचेतन मनोग्रंथियों को उघाड़ना तथा मनोविश्लेषण के जरिए उन्हें रोगी की चेतना में लाना तथा इस प्रकार व्यक्तित्व के आंतरिक द्वंदों की संभावना को ख़त्म करना है ( मनोविश्लेषण की प्रणाली )।

फ़्रायड ने अचेतन अभिप्रेरण, मनोवैज्ञानिक रक्षा, वयस्क के व्यवहार पर बाल्यावस्था के चोट पहुंचानेवाले अनुभवों के प्रभाव, आदि समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया, किंतु उन्होंने चेतना की तुलना में अचेतन तत्व को प्राथमिकता दी थी और मनुष्य के व्यवहार को कामेच्छाओं से निदेशित माना। फ़्रायड व्यक्ति की क्रियाशीलता की पशुओं की सहजवृत्तियों से समानता देखते हैं और उसे बुनियादी तौर पर एक अचेतन परिघटना मानते हैं। सामाजिक परिवेश का काम प्राकृतिक आवेगों पर प्रतिबंध या "सेंसरशिप" लगाने तक सीमित कर दिया गया। मनुष्य को सामाजिक नहीं, बल्कि जैविक प्राणी समझने की यह संकल्पना इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि मनुष्य और समाज सारतः एक दूसरे के लिए पराए हैं तथा समाज मनुष्य को सदा दबाता रहता है और अचेतन में आक्रामकता, विक्षिप्ति, आदि के रूप में विद्रोह का शाश्वत ख़तरा हमेशा मंडराता रहता है। इस तरह उन्होंने व्यक्ति के मनोविज्ञान को को जैव धारणाओं की दृष्टि से देखा और उसे मूलतः समाज-उदासीन तक घोषित कर डाला। फ़्रायड ने अपने मनोवैज्ञानिक सिद्धांत को मनुष्य, समाज तथा संस्कृति के सामान्य सिद्धांत में परिवर्तित किया और इस तरह विश्व में बड़ा नाम और प्रभाव कमाया।

आज व्यवहारवाद और फ़्रायडवाद के आरंभिक "क्लासिकल" रूप का स्थान बहुत-सी नई प्रवृत्तियों यथा नवव्यवहारवाद, नवफ़्रायडवाद, आदि ने ले लिया है, जिनमें मूल सिद्धांतों के विभेदक लक्षणों को कुछ गौण, अस्पष्ट बना दिया गया है। उनमें यंत्रवाद और प्रत्ययवाद की छाया को चतुराई से छिपा दिया गया है, किंतु इस सतही परिवर्तन के बावज़ूद इन प्रवृत्तियों की मुख्य वैचारिक दिशा ज्यों की त्यों रही है।

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इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

5 टिप्पणियां:

L.Goswami ने कहा…

मनोविज्ञान के सम्प्रदायों की स्थापना के पीछे कुछ पूर्ववर्ती कारक होते हैं ...जिनसे उनकी उत्पति हुई समझी जाती है. व्यवहारवाद के पीछे कई पूर्ववर्ती कारक थे जिनमे प्रारंभिक दर्शनशास्त्रीय प्रवृति जिसमे वस्तुनिष्ठा पर बल डाला गया है, पशु मनोविज्ञान में पैवलोवियन के अनुबंधित प्रतिवर्तों वाले प्रयोग और प्रकार्यवाद का योगदान रहा है...परन्तु मनोविश्लेषणवाद के साथ ऐसी बात नही थी इसका विकास नैदानिक चिकित्सा के क्रम में हुआ है. यह मुख्यतः असामान्य मनोविज्ञान से प्रभावित माना जाता रहा है.

अच्छी पोस्ट ....

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

अब याद रखेंगे यह पाठ। कभी कोई सवाल पूछ ले तो फेल न हों।

Arvind Mishra ने कहा…

आपके विवेचन से अवगत हुआ -शुक्रिया !

पंकज मिश्रा ने कहा…

bahoot shaandaar, ek acchi post, shukriya.

Teacher ने कहा…

very nice article , thanks

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