हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां मानस की परिवेश और अंग-संरचना पर निर्भरता पर चर्चा की थी, इस बार जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताओं पर एक नज़र ड़ालेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताएं
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां मानस की परिवेश और अंग-संरचना पर निर्भरता पर चर्चा की थी, इस बार जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताओं पर एक नज़र ड़ालेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताएं
पिछली बार, मानस की परिवेश और अंग संरचना पर निर्भरता पर संक्षिप्त विवेचना में हमने जाना था कि मानस का उदविकास ग्राहियों और संकेतन-सक्रियता के रूपों तथा कार्यों के उत्तरोत्तर जटिलीकरण में प्रकट होता है। इस तरह मानस के उदविकास की प्रक्रिया से गुजरते हुए हम देखते हैं कि सर्वोच्च प्राणियों के मानस और मनुष्य के मानस में बहुत बड़ा अंतर है। मनुष्य और पशुओं के मानस में भेदों पर हम यहां पहले एक बार चर्चा कर चुके हैं। जिज्ञासु व्यक्तियों को मनोविज्ञान के संदर्भ में इस पायदान पर एक बार उस प्रविष्टि ‘मनुष्य और पशुओं के मानस में भेद’ से जरूर गुजर लेना चाहिए।
इसके साथ ही, सामाजिक संबंधों के विकास की पूर्वापेक्षा और परिणाम के रूप में श्रम-सक्रियता को समझने के लिए, उपरोक्त के बाद की प्रविष्टि ‘चेतना के आधार के रूप में श्रम’ से भी इसी पायदान पर गुजरना भी श्रेष्ठ रहेगा। यह दोनों प्रविष्टियां मनोविज्ञान के व्यापक परिप्रेक्ष्य में अभी चल रहे हमारे विषय मन और चेतना की उत्पत्ति तथा उदविकास को समझने में हमारी मदद करेंगी। मन को वस्तुगत रूप से समझ लेना, मानसिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए एक महत्त्वपूर्ण आधार का काम करेगा।
अब हम आगे बढ़ते हैं और जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की ओर कदम बढ़ाते हैं।
इसके साथ ही, सामाजिक संबंधों के विकास की पूर्वापेक्षा और परिणाम के रूप में श्रम-सक्रियता को समझने के लिए, उपरोक्त के बाद की प्रविष्टि ‘चेतना के आधार के रूप में श्रम’ से भी इसी पायदान पर गुजरना भी श्रेष्ठ रहेगा। यह दोनों प्रविष्टियां मनोविज्ञान के व्यापक परिप्रेक्ष्य में अभी चल रहे हमारे विषय मन और चेतना की उत्पत्ति तथा उदविकास को समझने में हमारी मदद करेंगी। मन को वस्तुगत रूप से समझ लेना, मानसिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए एक महत्त्वपूर्ण आधार का काम करेगा।
अब हम आगे बढ़ते हैं और जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की ओर कदम बढ़ाते हैं।
जीवधारियों की एक सार्विक विशेषता उनकी क्रियाशीलता है, जिसके जरिए वे परिवेशी विश्व से अपने जीवनीय संबंध बनाए रखते हैं। क्रियाशीलता जीवधारियों में अंतर्निहित स्वतंत्र प्रतिक्रिया की क्षमता है। क्रियाशीलता का स्रोत जीवधारियों की आवश्यकताएं हैं, जो उसे किसी निश्चित ढ़ंग से कार्य करने को प्रेरित करती हैं। आवश्यकता अवयवी की वह अवस्था है, जो उसकी उसके अस्तित्व की ठोस परिस्थितियों पर निर्भरता को व्यक्त करती है और उसे इन परिस्थितियों के संबंध में क्रियाशील बनाती है।
मनुष्य की क्रियाशीलता अपने को आवश्यकताओं की तुष्टि की प्रक्रिया में प्रकट करती है और यह प्रक्रिया स्पष्टतः दिखाती है कि मनुष्य की क्रियाशीलता तथा पशुओं के व्यवहार में क्या अंतर है। पशु अपने व्यवहार में क्रियाशीलता इसलिए दिखाता है कि उसकी प्राकृतिक संरचना ( शरीर तथा अंगों की रचना तथा सहजवृत्तियां ) जैसे कि पहले ही निर्धारित कर देती हैं कि कौन-कौन सी वस्तुएं उसकी आवश्यकताओं का विषय बन सकती हैं, और इस तरह उसमें उन वस्तुओं को पाने की सक्रिय इच्छा पैदा करती है। जीव-जंतुओं का अपने को परिवेश के अनुकूल बनाना वास्तव में इसपर निर्भर होता है कि वे अपनी आवश्यकताओं को किस हद तक तुष्ट कर सकते हैं। किसी भी पशु की क्रियाशीलता को वह प्राकृतिक वस्तु उत्प्रेरित करती है, जो उसकी आवश्यकताओं का प्रत्यक्ष अंग है।
मनुष्य की क्रियाशीलता अपने को आवश्यकताओं की तुष्टि की प्रक्रिया में प्रकट करती है और यह प्रक्रिया स्पष्टतः दिखाती है कि मनुष्य की क्रियाशीलता तथा पशुओं के व्यवहार में क्या अंतर है। पशु अपने व्यवहार में क्रियाशीलता इसलिए दिखाता है कि उसकी प्राकृतिक संरचना ( शरीर तथा अंगों की रचना तथा सहजवृत्तियां ) जैसे कि पहले ही निर्धारित कर देती हैं कि कौन-कौन सी वस्तुएं उसकी आवश्यकताओं का विषय बन सकती हैं, और इस तरह उसमें उन वस्तुओं को पाने की सक्रिय इच्छा पैदा करती है। जीव-जंतुओं का अपने को परिवेश के अनुकूल बनाना वास्तव में इसपर निर्भर होता है कि वे अपनी आवश्यकताओं को किस हद तक तुष्ट कर सकते हैं। किसी भी पशु की क्रियाशीलता को वह प्राकृतिक वस्तु उत्प्रेरित करती है, जो उसकी आवश्यकताओं का प्रत्यक्ष अंग है।
किंतु मनुष्य की क्रियाशीलता का तथा जो आवश्यकताएं उसका स्रोत हैं, उनका स्वरूप इससे भिन्न है। मनुष्य की आवश्यकताएं उसके पालन की प्रक्रिया में बनती हैं, अर्थात वे उसके द्वारा मानव संस्कृति के आत्मसातीकरण का परिणाम होती हैं। इस तरह प्राकृतिक वस्तु मात्र शिकार, आदि द्वारा हासिल की हुई वस्तु, यानि आहार का जैविक अर्थ रखने वाली वस्तु ही नहीं रह जाती है। श्रम के औजारों के माध्यम से मनुष्य इस वस्तु को बदल और ऐतिहासिक विकास की लंबी प्रक्रिया के फलस्वरूप बनी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ढ़ाल सकता है। अतः मनुष्य द्वारा अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि वास्तव में एक सक्रिय सोद्देश्य प्रक्रिया है, जिसके जरिए मनुष्य सामाजिक विकास द्वारा निर्धारित सक्रियता के किसी निश्चित रूप को सीखता है।
मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि करने के साथ-साथ उसका विकास और रूपांतरण भी करता है। आज के मनुष्य की आवश्यकताएं उसके पूर्वजों की आवश्यकताओं से भिन्न हैं। इसी तरह उसके वंशजों की आवश्यकताएं भी उसकी आवश्यकताओं से भिन्न होंगी।
जैसा कि कहा जाता है एक आदर्श व्यवस्था वह होगी जहां हर मनुष्य अपनी योग्यतानुसार काम करेगा और अपनी आवश्यकतानुसार प्रतिदान पाएगा, तो क्या इससे हम यह निष्कर्ष निकालें कि जो अपनी सभी आवश्यकताओं की सहज पूर्ति का अवसर पाता है, वह स्वतः अपने में व्यक्ति के उच्च गुण विकसित कर लेगा और उसकी क्रियाशीलता स्वतः उच्च आदर्शों की ओर लक्षित होगी? ऐसा निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा। आवश्यकताओं की तुष्टि मनुष्य के सर्वतोमुखी विकास की शर्त तो है, पर यही एकमात्र शर्त नहीं है। इसके अलावा व्यक्तित्व-निर्माण की अन्य शर्तों, विशेषतः श्रम, के अभाव में आवश्यकताओं की सहज तुष्टि की संभावना बहुधा व्यक्ति को पतन की ओर ही ले जाती हैं।
पराश्रयी आवश्यकताएं, जिनपर श्रम का अंकुश नहीं होता, समाजविरोधी और आपराधिक व्यवहार का स्रोत बन सकती हैं और बनती भी हैं। अतएव एक बेहतर समाज की पूर्वापेक्षा यह है कि श्रम की आवश्यकता को प्रोत्साहित करना मनुष्य की शिक्षा का अनिवार्य अंग हो।
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इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि करने के साथ-साथ उसका विकास और रूपांतरण भी करता है। आज के मनुष्य की आवश्यकताएं उसके पूर्वजों की आवश्यकताओं से भिन्न हैं। इसी तरह उसके वंशजों की आवश्यकताएं भी उसकी आवश्यकताओं से भिन्न होंगी।
जैसा कि कहा जाता है एक आदर्श व्यवस्था वह होगी जहां हर मनुष्य अपनी योग्यतानुसार काम करेगा और अपनी आवश्यकतानुसार प्रतिदान पाएगा, तो क्या इससे हम यह निष्कर्ष निकालें कि जो अपनी सभी आवश्यकताओं की सहज पूर्ति का अवसर पाता है, वह स्वतः अपने में व्यक्ति के उच्च गुण विकसित कर लेगा और उसकी क्रियाशीलता स्वतः उच्च आदर्शों की ओर लक्षित होगी? ऐसा निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा। आवश्यकताओं की तुष्टि मनुष्य के सर्वतोमुखी विकास की शर्त तो है, पर यही एकमात्र शर्त नहीं है। इसके अलावा व्यक्तित्व-निर्माण की अन्य शर्तों, विशेषतः श्रम, के अभाव में आवश्यकताओं की सहज तुष्टि की संभावना बहुधा व्यक्ति को पतन की ओर ही ले जाती हैं।
पराश्रयी आवश्यकताएं, जिनपर श्रम का अंकुश नहीं होता, समाजविरोधी और आपराधिक व्यवहार का स्रोत बन सकती हैं और बनती भी हैं। अतएव एक बेहतर समाज की पूर्वापेक्षा यह है कि श्रम की आवश्यकता को प्रोत्साहित करना मनुष्य की शिक्षा का अनिवार्य अंग हो।
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इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
2 टिप्पणियां:
पढ़ रहा हूँ। सीख रहा हूँ।
प्रेरक और सार्थक विचारणीय आलेख ....आभार
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