हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताओं पर चर्चा की थी, इस बार आवश्यकताओं की क़िस्मों पर एक मनोवैज्ञानिक नज़रिया देखते हैं।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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आवश्यकताओं की क़िस्में
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में क्रियाशीलता के स्रोत के रूप में आवश्यकताओं पर चर्चा की थी, इस बार आवश्यकताओं की क़िस्मों पर एक मनोवैज्ञानिक नज़रिया देखते हैं।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
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आवश्यकताओं की क़िस्में
मनुष्य की आवश्यकताओं का सामाजिक स्वरूप भी होता है और व्यक्तिगत स्वरूप भी। वास्तव में अपनी देखने में संकीर्ण व्यक्तिगत आवश्यकताओं ( उदाहरणार्थ, जैसे भोजन की आवश्यकता ) की तुष्टि के लिए भी मनुष्य सामाजिक श्रम-विभाजन के फलों को इस्तेमाल करता है ( उदाहरण के लिए, रोटी किसानों, कृषिविज्ञानियों, विभिन्न कृषि यंत्र चालकों, अनाज-गोदाम कर्मियों, बेचने वालों, चक्कीवालों, आदि के संयुक्त श्रम-प्रयासों का वास्तवीकृत परिणाम है )। इसके अतिरिक्त, मनुष्य दत्त सामाजिक परिवेश में ऐतिहासिकतः विकसित उपभोग के साधन तथा तरीक़े इस्तेमाल करता है और कुछ निश्चित शर्तों की पूर्ति चाहता है ( उदाहरण के लिए, खाना खाने से पहले खाने वाले के लिए उसे स्वीकार्य तरीक़े से पकाना जरूरी है। फिर खाना खाने के साधनों की भी जरूरत होगी और कुछ समय तथा स्वच्छता संबंधी शर्तें भी पूरी करनी होंगी )।
अतः बहुत सारी मानवीय आवश्यकताएं व्यक्ति की संकीर्ण आवश्यकताएं कम और उस समाज, उस समूह की आवश्यकताएं ज़्यादा होती हैं, जिसका वह व्यक्ति सदस्य है और जिसमें वह कार्य करता है। यहां समूह की आवश्यकताएं व्यक्ति की अपनी आवश्यकताओं का रूप ग्रहण कर लेती हैं। इसे स्पष्ट करने के लिए एक ऐसे विद्यार्थी की मिसाल लेते हैं जिसे अपने ग्रुप या कक्षा की सभा में किसी कार्य-विशेष के संदर्भ में एक रिपोर्ट पेश करने का काम सौंपा गया है। वह विद्यार्थी बड़े ध्यान और मनोयोग से रिपोर्ट तैयार करता है, किंतु इसलिए नहीं कि रिपोर्ट तैयार करने का काम उसके लिए किसी रोचक पुस्तक को पढ़ने या पसंद का खेल खेलने से ज़्यादा आकर्षक है, बल्कि सिर्फ़ इसलिए कि वह अपने समूह या कक्षा के अनुरोध को पूरा करने की, उस समूह का अंग होने के नाते अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह की आवश्यकता महसूस करता है।
आवश्यकताओं में उनके मूल और विषय के अनुसार भेद किया जा सकता है। अपने मूल की दृष्टि से आवश्यकताएं नैसर्गिक और सांस्कृतिक, इन दो प्रकार की होती है।
नैसर्गिक आवश्यकताएं मनुष्य की सक्रियता की उसके तथा उसकी संतान के जीवन की रक्षा तथा निर्वाह के लिए आवश्यक परिस्थितियों पर निर्भरता की परिचायक हैं। खाना, पीना, मैथुन, निद्रा, शीत तथा अतिशय गर्मी से रक्षा, आदि नैसर्गिक आवश्यकताएं हैं और ये सभी लोगों की होती हैं। यदि कोई नैसर्गिक आवश्यकता लंबे समय तक पूरी नहीं हो पाती है, तो मनुष्य या तो मर जाएगा, या वह अपने पीछे अपनी संतान नहीं छोड़ सकेगा।
यद्यपि आज के लोगों की भी वही नैसर्गिक आवश्यकताएं, जो हमारे पशु पूर्वजों और आदिम लोगों की थीं, फिर भी उनका मनोवैज्ञानिक सारतत्व बिल्कुल भिन्न है। उनकी तुष्टि के उपाय और तरीक़े ही नहीं बदल गये हैं, बल्कि इससे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि स्वयं आवश्यकताओं में तात्विक परिवर्तन आ गया है और आज का आदमी उन्हें उस रूप में महसूस नहीं करता, जिस रूप में उसके प्रागैतिहासिक पुरखे किया करते थे। मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकताओं का सामाजिक-ऐतिहासिक स्वरूप होता है।
सांस्कृतिक आवश्यकताएं मनुष्य की सक्रियता की मानव संस्कृति के उत्पादों पर निर्भरता की परिचायक है। उनकी जड़े पूर्णतः मानव इतिहास में होती हैं। सांस्कृतिक आवश्यकताओं का विषय वे वस्तुएं हैं, जो किसी स्थापित संस्कृति के दायरे में किसी नैसर्गिक आवश्यकता की पूर्ति करती हैं ( जैसे पश्चिमी छुरी-कांटा, चीनी खाने की डंडियां, आदि )। सांस्कृतिक आवश्यकताओं का विषय वे वस्तुएं भी हैं, जिनकी श्रम, अन्य लोगों से सांस्कृतिक संपर्क और जटिल तथा विविध सामाजिक जीवन में जरूरत पड़ती है। विभिन्न आर्थिक और राजनीतिक पद्धतियों में व्यक्ति अपनी शिक्षा और समाज में स्वीकृत प्रथाओं तथा व्यवहार-संरूपों के आत्मसातीकरण की मात्रा के अनुसार अपनी विभिन्न सांस्कृतिक आवश्यकताएं बनाता है। सांस्कृतिक आवश्यकताओं की तुष्टि ना होने से मनुष्य की मृत्यु तो नहीं होती ( जैसा कि नैसर्गिक आवश्यकताओं के सिलसिले में होता है ), पर उसका मानवत्व अवश्य बुरी तरह प्रभावित होगा।
सांस्कृतिक आवश्यकताएं एक दूसरी से सारतः अपने स्तर के अनुसार, अर्थात वे व्यक्ति से समाज की जिन अपेक्षाओं को प्रतिबिंबित करती हैं, उनके अनुसार भिन्न होती हैं। आख़िर एक युवा आदमी का मार्गदर्शन करने वाली रोचक और शिक्षाप्रद पुस्तकों की आवश्यकता और दूसरे युवक की फ़ैशनेबुल रंगों की टाई की आवश्यकता को एक ही स्तर पर तो नहीं रखा जा सकता। इन दोनों आवश्यकताओं और वे जिन सक्रियताओं का आधार बनती हैं, उनका अलग-अलग मूल्यांकन किया ही जाना चाहिए। नैतिक दृष्टि से उचित आवश्यकता वह है, जो व्यक्ति जिस समाज में रहता है, उस समाज की अपेक्षाएं पूरी करती हैं और जो इस समाज में सामान्यतः मानव रुचियों, मूल्यांकनों तथा सार्विक दृष्टिकोण से मेल खाती हों।
अपने विषयों की प्रकृति के अनुसार आवश्यकताओं को भौतिक और आत्मिक में बांटा जा सकता है।
भौतिक आवश्यकताएं भौतिक संस्कृति की वस्तुओं पर मनुष्य की निर्भरता को दर्शाती हैं ( भोजन, वस्त्र, आवास, घर-गृहस्थी की चीज़ों की आवश्यकताएं ), जबकि आत्मिक आवश्यकताएं सामाजिक चेतना के उत्पादों पर उसकी निर्भरता को प्रकट करती हैं। आत्मिक आवश्यकताएं अपने को आत्मिक संस्कृति के सृजन तथा आत्मसातीकरण में व्यक्त करती हैं। मनुष्य अपने विचारों और भावनाओं में दूसरे लोगों को भागीदार बनाने, पत्र-पत्रिकाएं तथा पुस्तकें पढ़ने, सिनेमा तथा नाटक देखने, संगीत सुनने, आदि की आवश्यकता महसूस करता है।
आत्मिक आवश्यकताएं भौतिक आवश्यकताओं से अभिन्नतः जुड़ी हुई हैं। आत्मिक आवश्यकताओं की तुष्टि भौतिक वस्तुओं ( पुस्तकों. पत्र-पत्रिकाओं, कागज़, रंग, आदि ) के बिना नहीं हो सकती और अपनी बारी में ये सब भौतिक आवश्यकताओं का विषय हैं।
इस तरह अपने मूल की दृष्टि से नैसर्गिक की श्रेणी में आनेवाली आवश्यकता विषय की दृष्टि से भौतिक हो सकती है और मूल की दृष्टि से सांस्कृतिक आवश्यकता विषय की दृष्टि से भौतिक या आत्मिक, कोई भी हो सकती है। इस तरह हम देखते हैं कि यह वर्गीकरण अपने दायरे में अति विविध प्रकार की आवश्यकताओं को शामिल कर लेता है तथा एक ओर, मन के विकास के इतिहास के साथ उनके संबंध को, वहीं दूसरी ओर, वे जिस विषय की ओर लक्षित हैं, उसके साथ संबंध को दर्शाता है।
मनुष्य की क्रियाशीलता को जन्म देने और उसकी दिशा का निर्धारण करने वाली आवश्यकताओं की तुष्टि से संबंधित सक्रियता के प्रणोदकों को अभिप्रेरक या अभिप्रेरणा कहा जाता है। आवश्यकताओं में मनुष्य की परिवेशी परिस्थितियों पर निर्भरता अपने को उसके व्यवहार और सक्रियता की अभिप्रेरणा के रूप में प्रकट करती है। यदि आवश्यकताएं सभी प्रकार की मानव सक्रियता का सारतत्व और प्रेरक शक्ति हैं, तो अभिप्रेरक इस सारतत्व की ठोस, विविध अभिव्यक्तियां हैं। मनोविज्ञान में अभिप्रेरक या अभिप्रेरणा को व्यवहार और सक्रियता की दिशा का निर्धारण करनेवाला कारण माना जाता है।
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इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
अतः बहुत सारी मानवीय आवश्यकताएं व्यक्ति की संकीर्ण आवश्यकताएं कम और उस समाज, उस समूह की आवश्यकताएं ज़्यादा होती हैं, जिसका वह व्यक्ति सदस्य है और जिसमें वह कार्य करता है। यहां समूह की आवश्यकताएं व्यक्ति की अपनी आवश्यकताओं का रूप ग्रहण कर लेती हैं। इसे स्पष्ट करने के लिए एक ऐसे विद्यार्थी की मिसाल लेते हैं जिसे अपने ग्रुप या कक्षा की सभा में किसी कार्य-विशेष के संदर्भ में एक रिपोर्ट पेश करने का काम सौंपा गया है। वह विद्यार्थी बड़े ध्यान और मनोयोग से रिपोर्ट तैयार करता है, किंतु इसलिए नहीं कि रिपोर्ट तैयार करने का काम उसके लिए किसी रोचक पुस्तक को पढ़ने या पसंद का खेल खेलने से ज़्यादा आकर्षक है, बल्कि सिर्फ़ इसलिए कि वह अपने समूह या कक्षा के अनुरोध को पूरा करने की, उस समूह का अंग होने के नाते अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह की आवश्यकता महसूस करता है।
आवश्यकताओं में उनके मूल और विषय के अनुसार भेद किया जा सकता है। अपने मूल की दृष्टि से आवश्यकताएं नैसर्गिक और सांस्कृतिक, इन दो प्रकार की होती है।
नैसर्गिक आवश्यकताएं मनुष्य की सक्रियता की उसके तथा उसकी संतान के जीवन की रक्षा तथा निर्वाह के लिए आवश्यक परिस्थितियों पर निर्भरता की परिचायक हैं। खाना, पीना, मैथुन, निद्रा, शीत तथा अतिशय गर्मी से रक्षा, आदि नैसर्गिक आवश्यकताएं हैं और ये सभी लोगों की होती हैं। यदि कोई नैसर्गिक आवश्यकता लंबे समय तक पूरी नहीं हो पाती है, तो मनुष्य या तो मर जाएगा, या वह अपने पीछे अपनी संतान नहीं छोड़ सकेगा।
यद्यपि आज के लोगों की भी वही नैसर्गिक आवश्यकताएं, जो हमारे पशु पूर्वजों और आदिम लोगों की थीं, फिर भी उनका मनोवैज्ञानिक सारतत्व बिल्कुल भिन्न है। उनकी तुष्टि के उपाय और तरीक़े ही नहीं बदल गये हैं, बल्कि इससे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि स्वयं आवश्यकताओं में तात्विक परिवर्तन आ गया है और आज का आदमी उन्हें उस रूप में महसूस नहीं करता, जिस रूप में उसके प्रागैतिहासिक पुरखे किया करते थे। मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकताओं का सामाजिक-ऐतिहासिक स्वरूप होता है।
सांस्कृतिक आवश्यकताएं मनुष्य की सक्रियता की मानव संस्कृति के उत्पादों पर निर्भरता की परिचायक है। उनकी जड़े पूर्णतः मानव इतिहास में होती हैं। सांस्कृतिक आवश्यकताओं का विषय वे वस्तुएं हैं, जो किसी स्थापित संस्कृति के दायरे में किसी नैसर्गिक आवश्यकता की पूर्ति करती हैं ( जैसे पश्चिमी छुरी-कांटा, चीनी खाने की डंडियां, आदि )। सांस्कृतिक आवश्यकताओं का विषय वे वस्तुएं भी हैं, जिनकी श्रम, अन्य लोगों से सांस्कृतिक संपर्क और जटिल तथा विविध सामाजिक जीवन में जरूरत पड़ती है। विभिन्न आर्थिक और राजनीतिक पद्धतियों में व्यक्ति अपनी शिक्षा और समाज में स्वीकृत प्रथाओं तथा व्यवहार-संरूपों के आत्मसातीकरण की मात्रा के अनुसार अपनी विभिन्न सांस्कृतिक आवश्यकताएं बनाता है। सांस्कृतिक आवश्यकताओं की तुष्टि ना होने से मनुष्य की मृत्यु तो नहीं होती ( जैसा कि नैसर्गिक आवश्यकताओं के सिलसिले में होता है ), पर उसका मानवत्व अवश्य बुरी तरह प्रभावित होगा।
सांस्कृतिक आवश्यकताएं एक दूसरी से सारतः अपने स्तर के अनुसार, अर्थात वे व्यक्ति से समाज की जिन अपेक्षाओं को प्रतिबिंबित करती हैं, उनके अनुसार भिन्न होती हैं। आख़िर एक युवा आदमी का मार्गदर्शन करने वाली रोचक और शिक्षाप्रद पुस्तकों की आवश्यकता और दूसरे युवक की फ़ैशनेबुल रंगों की टाई की आवश्यकता को एक ही स्तर पर तो नहीं रखा जा सकता। इन दोनों आवश्यकताओं और वे जिन सक्रियताओं का आधार बनती हैं, उनका अलग-अलग मूल्यांकन किया ही जाना चाहिए। नैतिक दृष्टि से उचित आवश्यकता वह है, जो व्यक्ति जिस समाज में रहता है, उस समाज की अपेक्षाएं पूरी करती हैं और जो इस समाज में सामान्यतः मानव रुचियों, मूल्यांकनों तथा सार्विक दृष्टिकोण से मेल खाती हों।
अपने विषयों की प्रकृति के अनुसार आवश्यकताओं को भौतिक और आत्मिक में बांटा जा सकता है।
भौतिक आवश्यकताएं भौतिक संस्कृति की वस्तुओं पर मनुष्य की निर्भरता को दर्शाती हैं ( भोजन, वस्त्र, आवास, घर-गृहस्थी की चीज़ों की आवश्यकताएं ), जबकि आत्मिक आवश्यकताएं सामाजिक चेतना के उत्पादों पर उसकी निर्भरता को प्रकट करती हैं। आत्मिक आवश्यकताएं अपने को आत्मिक संस्कृति के सृजन तथा आत्मसातीकरण में व्यक्त करती हैं। मनुष्य अपने विचारों और भावनाओं में दूसरे लोगों को भागीदार बनाने, पत्र-पत्रिकाएं तथा पुस्तकें पढ़ने, सिनेमा तथा नाटक देखने, संगीत सुनने, आदि की आवश्यकता महसूस करता है।
आत्मिक आवश्यकताएं भौतिक आवश्यकताओं से अभिन्नतः जुड़ी हुई हैं। आत्मिक आवश्यकताओं की तुष्टि भौतिक वस्तुओं ( पुस्तकों. पत्र-पत्रिकाओं, कागज़, रंग, आदि ) के बिना नहीं हो सकती और अपनी बारी में ये सब भौतिक आवश्यकताओं का विषय हैं।
इस तरह अपने मूल की दृष्टि से नैसर्गिक की श्रेणी में आनेवाली आवश्यकता विषय की दृष्टि से भौतिक हो सकती है और मूल की दृष्टि से सांस्कृतिक आवश्यकता विषय की दृष्टि से भौतिक या आत्मिक, कोई भी हो सकती है। इस तरह हम देखते हैं कि यह वर्गीकरण अपने दायरे में अति विविध प्रकार की आवश्यकताओं को शामिल कर लेता है तथा एक ओर, मन के विकास के इतिहास के साथ उनके संबंध को, वहीं दूसरी ओर, वे जिस विषय की ओर लक्षित हैं, उसके साथ संबंध को दर्शाता है।
मनुष्य की क्रियाशीलता को जन्म देने और उसकी दिशा का निर्धारण करने वाली आवश्यकताओं की तुष्टि से संबंधित सक्रियता के प्रणोदकों को अभिप्रेरक या अभिप्रेरणा कहा जाता है। आवश्यकताओं में मनुष्य की परिवेशी परिस्थितियों पर निर्भरता अपने को उसके व्यवहार और सक्रियता की अभिप्रेरणा के रूप में प्रकट करती है। यदि आवश्यकताएं सभी प्रकार की मानव सक्रियता का सारतत्व और प्रेरक शक्ति हैं, तो अभिप्रेरक इस सारतत्व की ठोस, विविध अभिव्यक्तियां हैं। मनोविज्ञान में अभिप्रेरक या अभिप्रेरणा को व्यवहार और सक्रियता की दिशा का निर्धारण करनेवाला कारण माना जाता है।
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इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
3 टिप्पणियां:
हम्म!'ऐतिहासकत:' प्रयोग पहली बार देखा।
इस पर विचार कर रहा हूँ:
"आत्मिक आवश्यकताएं भौतिक आवश्यकताओं से अभिन्नतः जुड़ी हुई हैं। आत्मिक आवश्यकताओं की तुष्टि भौतिक वस्तुओं ( पुस्तकों. पत्र-पत्रिकाओं, कागज़, रंग, आदि ) के बिना नहीं हो सकती और अपनी बारी में ये सब भौतिक आवश्यकताओं का विषय हैं।"
badiya likha hai...
इस ज्योति पर्व का उजास
जगमगाता रहे आप में जीवन भर
दीपमालिका की अनगिन पांती
आलोकित करे पथ आपका पल पल
मंगलमय कल्याणकारी हो आगामी वर्ष
सुख समृद्धि शांति उल्लास की
आशीष वृष्टि करे आप पर, आपके प्रियजनों पर
आपको सपरिवार दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाएं.
सादर
डोरोथी.
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