हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में सक्रियता की संरचना के अंतर्गत क्रियाएं, गतियां और उनके नियंत्रण को समझने की कोशिश की थी इस बार हम सक्रियता के आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में सक्रियता की संरचना के अंतर्गत क्रियाएं, गतियां और उनके नियंत्रण को समझने की कोशिश की थी इस बार हम सक्रियता के आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
सक्रियता का आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण
मस्तिष्क भविष्य का पूर्वानुमान कैसे कर लेता है? जो क्रियाएं अभी की ही नहीं गई हैं, मस्तिष्क उनके परिणामों को कैसे प्रतिबिंबित कर पाता है?
पूर्वानुमान की संभावना परिवेशी विश्व की एक बुनियादी विशेषता, यानि इसके नियमशासित स्वरूप से पैदा होती है। इसका यह अर्थ है कि विश्व की विभिन्न परिघटनाएं आपस में कुछ निश्चित स्थायी संबंधों व संपर्कों से जुड़ी हुई हैं, कि विश्व की सभी वस्तुओं के कुछ निश्चित स्थायी गुणधर्म तथा संरचनाएं हैं, जो अपने को कुछ खास परिस्थितियों में प्रकट करते हैं ( आग सदा जलती है; रात के बाद दिन आता है; कोई भी पिंड उतनी ही तेज़ी से गति करेगा, जितना अधिक उसपर बल लगाया जाएगा: जोड़ी जानेवाली राशियों को ऊपर-नीचे, आगे-पीछे करने से योगफल नहीं बदलता: वग़ैरह )।
वस्तुओं के बीच, परिघटनाओं के बीच मौज़ूद ऐसे स्थायी ( अपरिवर्तनीय ) संबंधों को वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्म और परिघटनाओं की नियमसंगतियां कहा जाता है। इन्हीं की बदौलत ही निश्चित परिस्थितियों में वस्तुओं तथा परिघटनाओं के ‘व्यवहार-संरूपों’ का पूर्वानुमान किया जाता है, अर्थात् किन्हीं निश्चित प्रभावों के अंतर्गत उनके परिवर्तनों की भविष्यवाणी करना और निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप उन्हें नियमित करना संभव बनता है। बाह्य, वस्तुसापेक्ष क्रिया से पहले जैसे कि एक आंतरिक, प्रत्ययात्मक क्रिया का निष्पादन होता है। वस्तुओं से जुड़ी क्रियाओं का स्थान वस्तुओं के बुनियादी गुणों की प्रत्ययात्मक ( मानसिक ) जोड़-तोड़ ले लेती है। दूसरे शब्दों में, वस्तुओं की भौतिक जोड़-तोड़ की जगह उनके अर्थों की मानसिक जोड़-तोड़ को दे दी जाती है।
बाह्य, वास्तविक क्रिया से आंतरिक, प्रत्ययात्मक क्रिया में संक्रमण की इस प्रक्रिया को आभ्यंतरीकरण ( Internalization ) कहा जाता है। इसकी बदौलत मानव मन उन वस्तुओं के बिंबों के साथ भी क्रियाएं कर सकता है, जो दत्त क्षण में उसके दृष्टि-क्षेत्र के भीतर नहीं है। मनुष्य जीवित वर्तमान की सीमाएं लांघ जाता है और कल्पना के बल पर विगत तथा भविष्य, दिक् तथा काल में स्वच्छंद विचरण करने लगता है। वह बाह्य स्थिति के, जो जीव-जंतुओं के सारे व्यवहार का निर्धारण और नियमन करती है, बंधनों को तोड़ डालता है।
यह अकाट्यतः सिद्ध किया जा चुका है कि इस संक्रमण का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण शब्द हैं, कि यह संक्रमण वाक्, यानि वाचिक सक्रियता के जरिए संपन्न होता है। शब्द वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्मों को और मानवजाति के व्यावहारिक जीवन में विकसित सूचना के उपयोग की प्रणालियों को अलग तथा अपने में समेकित कर लेता है। अतः शब्दों का सही प्रयोग सीखना और वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्मों व सूचना-उपयोग की विधियों को जानना, ये दोनों कार्य साथ-साथ होते हैं। शब्द के ज़रिए मनुष्य सारी मानवजाति के अनुभव, यानि सैकड़ों पूर्ववर्ती पीढ़ियों और अपने से हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित लोगों और समूहों के अनुभव को आत्मसात् करता है।
शब्दों और वस्तुओं के आपसी संबंधों के परिचायक अन्य प्रतीकों के उपयोग से, मनुष्य वस्तुओं के अभाव में भी चर्चागत संबंधों से ताल्लुक़ रखनेवाली सूचना के उपयोग तथा अनुभव, ज्ञान तथा आदर्शों और अपेक्षाओं के जरिए अपनी सक्रियता तथा व्यवहार का नियमन करना संभव बनाता है। मनुष्य की सक्रियता एक बड़ी पेचीदी और अदभुत प्रक्रिया है, वह मनुष्य की आवश्यकताओं की साधारण तुष्टि तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि काफ़ी हद तक समाज के लक्ष्यों तथा मांगों से भी निर्धारित होती है। लक्ष्य की चेतना और उसकी प्राप्ति के लिए सामाजिक अनुभवों पर निर्भरता उसकी एक ख़ास विशेषता है।
मनुष्य की सक्रियता का एक लक्षण यह है कि उसके बाह्य ( भौतिक ) और आंतरिक ( मानसिक ) पहलुओं के बीच अटूट संबंध है। बाह्य पहलू या गतियां, जिनके द्वारा मनुष्य बाह्य विश्व को प्रभावित करता है, आंतरिक ( मानसिक ) सक्रियता द्वारा, अभिप्रेरणा, संज्ञान तथा विनिमयन से संबद्ध प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित और नियमित होती हैं। दूसरी ओर, आंतरिक ( मानसिक ) सक्रियता का निदेशन व नियंत्रण बाह्य सक्रियता करती है, जो वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं के गुणधर्मों को प्रकाश में लाती है, उनका लक्ष्योद्दिष्ट रूपांतरण करती है और बताती है कि मानसिक मॉडल कहां तक पूर्ण हैं और क्रियाएं व उनके परिणाम उनके प्रत्ययात्मक बिंबों से कहां तक मेल खाते हैं।
जैसा की हम ऊपर देख चुके हैं, आंतरिक, मानसिक सक्रियता को बाह्य, वस्तुसापेक्ष सक्रियता के आभ्यंतरीकरण का परिणाम माना जा सकता है। इसी प्रकार बाह्य, वस्तुसापेक्ष सक्रियता को भी आंतरिक, मानसिक सक्रियता का बाह्यीकरण समझा जा सकता है।
वस्तुओं के बीच, परिघटनाओं के बीच मौज़ूद ऐसे स्थायी ( अपरिवर्तनीय ) संबंधों को वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्म और परिघटनाओं की नियमसंगतियां कहा जाता है। इन्हीं की बदौलत ही निश्चित परिस्थितियों में वस्तुओं तथा परिघटनाओं के ‘व्यवहार-संरूपों’ का पूर्वानुमान किया जाता है, अर्थात् किन्हीं निश्चित प्रभावों के अंतर्गत उनके परिवर्तनों की भविष्यवाणी करना और निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप उन्हें नियमित करना संभव बनता है। बाह्य, वस्तुसापेक्ष क्रिया से पहले जैसे कि एक आंतरिक, प्रत्ययात्मक क्रिया का निष्पादन होता है। वस्तुओं से जुड़ी क्रियाओं का स्थान वस्तुओं के बुनियादी गुणों की प्रत्ययात्मक ( मानसिक ) जोड़-तोड़ ले लेती है। दूसरे शब्दों में, वस्तुओं की भौतिक जोड़-तोड़ की जगह उनके अर्थों की मानसिक जोड़-तोड़ को दे दी जाती है।
बाह्य, वास्तविक क्रिया से आंतरिक, प्रत्ययात्मक क्रिया में संक्रमण की इस प्रक्रिया को आभ्यंतरीकरण (
यह अकाट्यतः सिद्ध किया जा चुका है कि इस संक्रमण का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण शब्द हैं, कि यह संक्रमण वाक्, यानि वाचिक सक्रियता के जरिए संपन्न होता है। शब्द वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्मों को और मानवजाति के व्यावहारिक जीवन में विकसित सूचना के उपयोग की प्रणालियों को अलग तथा अपने में समेकित कर लेता है। अतः शब्दों का सही प्रयोग सीखना और वस्तुओं के बुनियादी गुणधर्मों व सूचना-उपयोग की विधियों को जानना, ये दोनों कार्य साथ-साथ होते हैं। शब्द के ज़रिए मनुष्य सारी मानवजाति के अनुभव, यानि सैकड़ों पूर्ववर्ती पीढ़ियों और अपने से हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित लोगों और समूहों के अनुभव को आत्मसात् करता है।
शब्दों और वस्तुओं के आपसी संबंधों के परिचायक अन्य प्रतीकों के उपयोग से, मनुष्य वस्तुओं के अभाव में भी चर्चागत संबंधों से ताल्लुक़ रखनेवाली सूचना के उपयोग तथा अनुभव, ज्ञान तथा आदर्शों और अपेक्षाओं के जरिए अपनी सक्रियता तथा व्यवहार का नियमन करना संभव बनाता है। मनुष्य की सक्रियता एक बड़ी पेचीदी और अदभुत प्रक्रिया है, वह मनुष्य की आवश्यकताओं की साधारण तुष्टि तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि काफ़ी हद तक समाज के लक्ष्यों तथा मांगों से भी निर्धारित होती है। लक्ष्य की चेतना और उसकी प्राप्ति के लिए सामाजिक अनुभवों पर निर्भरता उसकी एक ख़ास विशेषता है।
मनुष्य की सक्रियता का एक लक्षण यह है कि उसके बाह्य ( भौतिक ) और आंतरिक ( मानसिक ) पहलुओं के बीच अटूट संबंध है। बाह्य पहलू या गतियां, जिनके द्वारा मनुष्य बाह्य विश्व को प्रभावित करता है, आंतरिक ( मानसिक ) सक्रियता द्वारा, अभिप्रेरणा, संज्ञान तथा विनिमयन से संबद्ध प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित और नियमित होती हैं। दूसरी ओर, आंतरिक ( मानसिक ) सक्रियता का निदेशन व नियंत्रण बाह्य सक्रियता करती है, जो वस्तुओं तथा प्रक्रियाओं के गुणधर्मों को प्रकाश में लाती है, उनका लक्ष्योद्दिष्ट रूपांतरण करती है और बताती है कि मानसिक मॉडल कहां तक पूर्ण हैं और क्रियाएं व उनके परिणाम उनके प्रत्ययात्मक बिंबों से कहां तक मेल खाते हैं।
जैसा की हम ऊपर देख चुके हैं, आंतरिक, मानसिक सक्रियता को बाह्य, वस्तुसापेक्ष सक्रियता के आभ्यंतरीकरण का परिणाम माना जा सकता है। इसी प्रकार बाह्य, वस्तुसापेक्ष सक्रियता को भी आंतरिक, मानसिक सक्रियता का बाह्यीकरण समझा जा सकता है।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
3 टिप्पणियां:
aap bahut babiya jankari dete hai. mai aap ki baat se puri tarh se shamat hu. par ye janna chata hu ki choti chijo ka hota hai par kai baar koi marne wala rahta hai aur jis din vo marta hai usi din uska swpan aana kya hai?
प्रिय सुमित दास,
हमारे हिसाब से आपके प्रश्न के दो उत्तर हो सकते हैं.
एक तो वही घिसा-पिटा विश्लेषण की स्वपन उम्र के हिसाब से आते हैं. जैसे एक विद्यार्थी द्वारा परीक्षा में सफल और असफल होने का स्वपन या दुस्वपन. या फिर नौजवान प्रेमी द्वारा अपनी प्रेयसी को अपनी या अपने प्रतिद्वंदी की बाँहों में देखे जाने का फ्रायडियन स्वपन या दुस्वपन.
दूसरा, यह कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग में इतना साहस और सनक नहीं है कि वे सपनों की वस्तुपरकता की सही-सही पड़ताल करने के लिए समाज को वर्गों में विभाजित कर सकें. आप करके तो देखें, आप मजदूरों, पूंजीपतियों, अध्यापकों, डाक्टरों, कलाकारों, बुर्जुआ नेताओं वगैरा-वैगैरा के स्वपनों के अनुभव को सुनेंगे तो ..... एक बात निश्चित रूप से स्थापित होगी.... कि इनके सपनों पर इनकी जीवन परिस्थितियों की ही छाप है.
आदरणीय सुमित जी,
आपका प्रश्न। आप शायद इस पोस्ट में मस्तिष्क द्वारा भविष्य के पूर्वानुमान के जिक्र के चलते, इसे मनुष्य की जीवनीय घटनाओं के पूर्वाभास संबंधी स्वप्नों के संदर्भ में इशारा कर रहे हैं।
कुछ इशारे जगसीर जी भी कर गये हैं।
आपसे निवेदन है कि सपनों पर यहीं प्रस्तुत कुछ प्रविष्टियों को थोड़ा धैर्य से पढ़ जाए। चिंतन करें, और फिर अपने प्रश्न को सही तरीके से पुनः उठाएं।
प्रविष्टि संकेतक की सूची में ‘सपने’ के जरिए आप उन प्रविष्टियों तक पहुंच सकते हैं। आपकी सुविधा के लिए उनके लिंक यहां नीचे भी दिये जा रहे हैं।
आखिर क्या है सपनों का मनोविज्ञान
http://main-samay-hoon.blogspot.com/2009/07/blog-post.html
कुछ सपने आखिर सच होते क्यों प्रतीत होते हैं?
http://main-samay-hoon.blogspot.com/2009/07/blog-post_10.html
सपनों के बहाने कुछ प्रवृत्तियों पर बातचीत
http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/05/blog-post_18.html
शुक्रिया।
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