हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में सक्रियता के आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण पर चर्चा की थी इस बार हम सक्रियता के आत्मसात्करण यानि आदतों पर विचार करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने जीवधारियों की क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में सक्रियता के आभ्यंतरीकरण और बाह्यीकरण पर चर्चा की थी इस बार हम सक्रियता के आत्मसात्करण यानि आदतों पर विचार करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
आदतें - सक्रियता का आत्मसात्करण
हर कार्य मनुष्य द्वारा सचेतन और अचेतन, दोनों ढ़ंग से किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, शब्दों का उच्चारण करने के लिए कंठ द्वारा की जानेवाली गतियां मनुष्य द्वारा हमेशा अचेतन ढ़ंग से संपन्न्न की जाती हैं। इसके विपरीत व्यक्ति जो वाक्य बोलने जा रहा है, उसके व्याकरणिक रूप और विषयवस्तु हमेशा उसकी चेतना की उपज होते हैं। व्यक्ति आम तौर पर पेशियों के उन जटिल संकुचनों और फैलावों से अनजान होता हैं, जो गति करने के लिए अपेक्षित हैं। ऐसी गतियां स्पष्टतः शुद्ध शरीरक्रियात्मक आधार पर, अचेतन रूप से की जाती हैं। फिर भी मनुष्य को सामान्यतः अपनी क्रियाओं के अंतिम लक्ष्य की, उनके सामान्य स्वरूप की चेतना रहती है। उदाहरण के लिए, वह पूर्ण अचेतनता की अवस्था में साइकिल नहीं चला सकता, उसे अपने गंतव्य, मार्ग, रफ़्तार, आदि की चेतना होनी चाहिए। यही बात श्रम, खेलकूद या किसी अन्य कार्य पर भी लागू होती है। कुछ गतियां सचेतन नियमन और अचेतन नियमन, दोनों के स्तर पर की जाती हैं। चलना एक ऐसी सक्रियता की ठेठ मिसाल है, जिसमें अधिकांश गतियां अचेतन रूप से की जाती हैं। किंतु रस्सी पर चलने में वे ही गतियां, संवेदी नियंत्रण और केंद्रीय नियमन अत्यधिक तनावभरी चेतना का विषय बन जाते हैं, विशेषतः यदि रस्सी पर चलनेवाला अनाड़ी है।
ऐसा भी हो सकता है कि सक्रियता के कुछ पहलुओं के लिए पहले विस्तृत सचेतन की जरूरत पड़े, जो फिर शनैः शनैः बढ़ती हुई स्वचलताओं के कारण अनावश्यक होता जाता है। सोद्देश्य गतियों के निष्पादन तथा नियमन की यह आंशिक स्वचलता ही आदत कहलाती है।
इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि अचेतन या स्वतःनियमन की बात केवल गतियों के संबंध में की जा रही है, कि गतियों का नियमन और क्रियाओं का नियमन एक ही चीज़ नहीं है। गतियों की स्वचलता का बढ़ना और ये गतियां जिन क्रियाओं का अंग हैं, उनके सचेत नियमन का विस्तार, ये दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चल सकती हैं। जैसे कि, साइकिलचालक गतियों की जिस स्वचलता की बदौलत संतुलन बनाए रखता है, वह उसे अपने इर्द-गिर्द के वाहनों, सड़क की हालत, आदि का ध्यान रखने की संभावना देती हैं और इस तरह वह अपनी क्रियाओं का बेहतर सचेत नियंत्रण करता है।
‘शुद्ध आदत’ की बात स्पष्टतः केवल जीव-जंतुओं के संदर्भ में की जा सकती है, क्योंकि विकारग्रस्त लोगों के अलावा अन्य सभी मनुष्यों की सक्रियता चेतना द्वारा नियंत्रित होती है। क्रिया के किन्हीं घटकों की स्वचलता केवल सचेतन नियंत्रण के विषय को बदल देती है और चेतना में क्रिया के सामान्य लक्ष्यों, उसके निष्पादन की अवस्थाओं और उसके परिणामों के नियंत्रण व आकलन को आगे ले जाती है।
आदतों की संरचना
आंशिक स्वचलता के कारण क्रिया की संरचना में आनेवाले परिवर्तन गतियों के ढ़ांचों, क्रिया के संवेदी नियंत्रण की प्रणालियों और केंद्रीय नियमन की प्रणालियों को प्रभावित करते हैं।
१. गतियों के ढ़ाचें - बहुत सी व्यष्टिक गतियां, जो अब तक अलग-अलग की जाती थीं, एक ही क्रिया में, अलग-अलग घटकों ( साधारण गतियों ) के बीच विराम या अंतराल से रहित एक समेकित गति में विलयित हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, प्रशिक्षार्थी द्वारा क्रमिक क्रिया के तौर पर की जानेवाली गियर बदलने की प्रक्रिया अनुभवी ड्राइवर द्वारा हाथ की एक ही तथा झटकारहित गति के रूप में संपन्न की जाती है। सभी अनावश्यक गतियां छोड़ जाती हैं। बच्चा जब लिखना सीखता है, तो बहुत सारी फालतू गतियां करता है, जैसे मुंह से जीभ निकालना, कुर्सी में हिचकोले खाना, सिर झुकाना, आदि। ज्यों-ज्यों दक्षता बढ़ती है, सारी अनावश्यक गतियां लोप होती जाती हैं। इस तरह रफ़्तार बढ़ती जाती है, आदत के पक्की होने के साथ-साथ क्रिया की स्वतः गतिशीलता हर लिहाज़ से ज़्यादा प्रभावी बन जाती है, गतियों का ढ़ांचा ज़्यादा सरल हो जाता है और व्यष्टिक गतियां एक अनवरत, साथ-साथ तथा तेज़ रफ़्तार से संपन्न की जा रही प्रक्रिया में विलयित हो जाती हैं।
२. क्रिया के संवेदी नियंत्रण की प्रणालियां - गतियों के चाक्षुष नियंत्रण का स्थान काफ़ी हद तक पेशीय नियंत्रण ले लेता है। यह परिवर्तन एक ऐसे कुशल टाइपिस्ट की मिसाल से देखा जा सकता है, जो अपने काम को की-बोर्ड़ पर देखे बिना करता है। अभ्यास और समय के साथ विकसित विशेष संवेदी संश्लेषण मनुष्य को गतियों के स्वरूप का निर्धारण करनेवाले विभिन्न चरों के सहसंबंध को आंकने में समर्थ बना देते हैं। ऐसे संश्लेषणों की मिसालें ड्राइवर की तेज़ निगाह और गति का बोध, बढ़ई की लकड़ी की पहचान, ख़रादी का पुरजे के आकार का अहसास और विमान चालक का ऊंचाई का बोध है। मनुष्य अपनी क्रियाओं के परिणामों का नियंत्रण करने के लिए महत्त्वपूर्ण संदर्भ-बिंदुओं को तुरंत पहचानना और अलग करना सीख लेता है।
३. क्रिया के केंद्रीय नियमन की प्रणालियां - मनुष्य का ध्यान अब क्रियाओं की प्रणालियों के अवबोधन से हटकर, मुख्य रूप से स्थिति और क्रिया के परिणामों पर केंद्रित हो जाता है। कुछ परिकलन, समाधान और अन्य बौद्धिक संक्रियाएं जल्दी और एक अनवरत प्रक्रिया में ( सहज ढ़ंग से ) की जाने लगती हैं। इससे तुरंत प्रतिक्रिया करना संभव बन जाता है। जैसे, इंजन की आवाज़ से ही, ड्राइवर तुरंत, बिना सोचे, पता कर लेता है कि उसे किस गियर पर चलाना चाहिए। उपकरणों पर सरसरी निगाह डालकर ही ऑपरेटर मालूम कर लेता है कि कहां क्या गड़बड़ी है। विमान को उतारना शुरू करते समय विमानचालक सभी बंधी-बंधाई आवश्यक क्रियाओं के लिए पहले से ही मानसिकतः तैयार रहता है। इसलिए एक गति से दूसरी गति में संक्रमण बिना किसी पूर्व योजना के कर लिया जाता है। योजना केवल उतराई की प्रणाली की बनाई जाती है। जो प्रणालियां इस्तेमाल की जानी हैं, उनकी पूरी श्रृंखला की ऐसी पहले से विद्यमान चेतना को पूर्वाभास कहते हैं।
ऐसा भी हो सकता है कि सक्रियता के कुछ पहलुओं के लिए पहले विस्तृत सचेतन की जरूरत पड़े, जो फिर शनैः शनैः बढ़ती हुई स्वचलताओं के कारण अनावश्यक होता जाता है। सोद्देश्य गतियों के निष्पादन तथा नियमन की यह आंशिक स्वचलता ही आदत कहलाती है।
इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि अचेतन या स्वतःनियमन की बात केवल गतियों के संबंध में की जा रही है, कि गतियों का नियमन और क्रियाओं का नियमन एक ही चीज़ नहीं है। गतियों की स्वचलता का बढ़ना और ये गतियां जिन क्रियाओं का अंग हैं, उनके सचेत नियमन का विस्तार, ये दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चल सकती हैं। जैसे कि, साइकिलचालक गतियों की जिस स्वचलता की बदौलत संतुलन बनाए रखता है, वह उसे अपने इर्द-गिर्द के वाहनों, सड़क की हालत, आदि का ध्यान रखने की संभावना देती हैं और इस तरह वह अपनी क्रियाओं का बेहतर सचेत नियंत्रण करता है।
‘शुद्ध आदत’ की बात स्पष्टतः केवल जीव-जंतुओं के संदर्भ में की जा सकती है, क्योंकि विकारग्रस्त लोगों के अलावा अन्य सभी मनुष्यों की सक्रियता चेतना द्वारा नियंत्रित होती है। क्रिया के किन्हीं घटकों की स्वचलता केवल सचेतन नियंत्रण के विषय को बदल देती है और चेतना में क्रिया के सामान्य लक्ष्यों, उसके निष्पादन की अवस्थाओं और उसके परिणामों के नियंत्रण व आकलन को आगे ले जाती है।
आदतों की संरचना
आंशिक स्वचलता के कारण क्रिया की संरचना में आनेवाले परिवर्तन गतियों के ढ़ांचों, क्रिया के संवेदी नियंत्रण की प्रणालियों और केंद्रीय नियमन की प्रणालियों को प्रभावित करते हैं।
१. गतियों के ढ़ाचें - बहुत सी व्यष्टिक गतियां, जो अब तक अलग-अलग की जाती थीं, एक ही क्रिया में, अलग-अलग घटकों ( साधारण गतियों ) के बीच विराम या अंतराल से रहित एक समेकित गति में विलयित हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, प्रशिक्षार्थी द्वारा क्रमिक क्रिया के तौर पर की जानेवाली गियर बदलने की प्रक्रिया अनुभवी ड्राइवर द्वारा हाथ की एक ही तथा झटकारहित गति के रूप में संपन्न की जाती है। सभी अनावश्यक गतियां छोड़ जाती हैं। बच्चा जब लिखना सीखता है, तो बहुत सारी फालतू गतियां करता है, जैसे मुंह से जीभ निकालना, कुर्सी में हिचकोले खाना, सिर झुकाना, आदि। ज्यों-ज्यों दक्षता बढ़ती है, सारी अनावश्यक गतियां लोप होती जाती हैं। इस तरह रफ़्तार बढ़ती जाती है, आदत के पक्की होने के साथ-साथ क्रिया की स्वतः गतिशीलता हर लिहाज़ से ज़्यादा प्रभावी बन जाती है, गतियों का ढ़ांचा ज़्यादा सरल हो जाता है और व्यष्टिक गतियां एक अनवरत, साथ-साथ तथा तेज़ रफ़्तार से संपन्न की जा रही प्रक्रिया में विलयित हो जाती हैं।
२. क्रिया के संवेदी नियंत्रण की प्रणालियां - गतियों के चाक्षुष नियंत्रण का स्थान काफ़ी हद तक पेशीय नियंत्रण ले लेता है। यह परिवर्तन एक ऐसे कुशल टाइपिस्ट की मिसाल से देखा जा सकता है, जो अपने काम को की-बोर्ड़ पर देखे बिना करता है। अभ्यास और समय के साथ विकसित विशेष संवेदी संश्लेषण मनुष्य को गतियों के स्वरूप का निर्धारण करनेवाले विभिन्न चरों के सहसंबंध को आंकने में समर्थ बना देते हैं। ऐसे संश्लेषणों की मिसालें ड्राइवर की तेज़ निगाह और गति का बोध, बढ़ई की लकड़ी की पहचान, ख़रादी का पुरजे के आकार का अहसास और विमान चालक का ऊंचाई का बोध है। मनुष्य अपनी क्रियाओं के परिणामों का नियंत्रण करने के लिए महत्त्वपूर्ण संदर्भ-बिंदुओं को तुरंत पहचानना और अलग करना सीख लेता है।
३. क्रिया के केंद्रीय नियमन की प्रणालियां - मनुष्य का ध्यान अब क्रियाओं की प्रणालियों के अवबोधन से हटकर, मुख्य रूप से स्थिति और क्रिया के परिणामों पर केंद्रित हो जाता है। कुछ परिकलन, समाधान और अन्य बौद्धिक संक्रियाएं जल्दी और एक अनवरत प्रक्रिया में ( सहज ढ़ंग से ) की जाने लगती हैं। इससे तुरंत प्रतिक्रिया करना संभव बन जाता है। जैसे, इंजन की आवाज़ से ही, ड्राइवर तुरंत, बिना सोचे, पता कर लेता है कि उसे किस गियर पर चलाना चाहिए। उपकरणों पर सरसरी निगाह डालकर ही ऑपरेटर मालूम कर लेता है कि कहां क्या गड़बड़ी है। विमान को उतारना शुरू करते समय विमानचालक सभी बंधी-बंधाई आवश्यक क्रियाओं के लिए पहले से ही मानसिकतः तैयार रहता है। इसलिए एक गति से दूसरी गति में संक्रमण बिना किसी पूर्व योजना के कर लिया जाता है। योजना केवल उतराई की प्रणाली की बनाई जाती है। जो प्रणालियां इस्तेमाल की जानी हैं, उनकी पूरी श्रृंखला की ऐसी पहले से विद्यमान चेतना को पूर्वाभास कहते हैं।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
1 टिप्पणियां:
आप इतना गूढ रहस्यात्मक लेखों को सरल भाषा में कैसे लिख लेते हैं। मुझे तो इसे पढने के लिए भी बहुत दिमाग पर जोर लगाना पडता है और कई बार तो कई वाक्यों को कई कई बार पढने के बाद उसका अर्थ समझ में आता है। हालांकि आप जानते ही है कि तारीफ वगैरह से ज्यादा कुछ नहीं होता है लेकिन मेरी ओर से फिर भी आप इसके लिए साधुवाद के पात्र हैं।
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