हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में अभ्यास और आदतों पर चर्चा की थी इस बार हम आदतों की अन्योन्यक्रियाओं के सिद्धांतों को समझने की कोशिश करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने क्रियाशीलता और सक्रियता को समझने की कोशिशों की कड़ी में अभ्यास और आदतों पर चर्चा की थी इस बार हम आदतों की अन्योन्यक्रियाओं के सिद्धांतों को समझने की कोशिश करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
आदतों की अन्योन्यक्रिया
हर आदत पहले से विद्यमान आदतों की पद्धति के अंतर्गत बनती और कार्य करती है। उनमें से कुछ नई आदत को जड़ें जमाने तथा सक्रिय बनने में मदद करती हैं, तो कुछ उसे पनपने नहीं देतीं और कुछ बदलाव लाने का प्रयत्न करती हैं। मनोविज्ञान में इस परिघटना को आदतों की अन्योन्यक्रिया कहा जाता है। इस अन्योन्यक्रिया का स्वरूप क्या है? कोई भी क्रिया उसके उद्देश्य, विषय और परिस्थितियों से निर्धारित होती है, किंतु वह साकार, गतिशील निष्पादन, संवेदी नियंत्रण और केंन्द्रीय नियमन की प्रणालियों की एक पद्धति के रूप में होती है। क्रिया की सफलता, यानि आदत की कारगरता इसपर निर्भर होती है कि ये प्रणालियां लक्ष्य, विषयों और परिस्थितियों के किस हद तक अनुरूप हैं।
कोई नया कार्यभार पैदा होने पर मनुष्य पहले उसे उन विधियों से हल करने की कोशिश करता है, जिनमें उसे दक्षता प्राप्त है, और यह आदत-निर्माण की प्रक्रिया की एक आम विशेषता है। नये लक्ष्य से निदेशित होते हुए वह उसकी प्राप्ति के लिए वे प्रणालियां इस्तेमाल करता है, जिनसे उसने पहले कभी वैसे ही कार्यभार हल किये थे। अतः सक्रियता की ज्ञात प्रणालियों के अंतरण में सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि व्यक्ति कार्यभारों का उनके समाधान की दृष्टि से कैसे मूल्यांकन करता है। वास्तव में आदत-निर्माण की प्रक्रिया चरम स्थितियों का प्रतिनिधित्व करने वाली दो दिशाओं में से कोई एक दिशा ग्रहण करती है।
स्थिति एक : व्यक्ति द्वारा दो क्रियाओं के लक्ष्यों, अथवा विषयों, अथवा परिस्थितियों को एक जैसा माना जाता है, जबकि क्रियाओं के बीच वास्तव में उनके निष्पादन की प्रणाली, अथवा नियंत्रण प्रक्रियाओं, अथवा केंद्रीय नियमन की प्रणालियों के अनुसार भेद होता है। यह स्थिति प्रणालियों की अल्प-कारगरता के रूप में पैदा होती है। चूंकि इस अपूर्णता का उजागर होना, उसके परिणामों से छुटकारा पाना और नयी कारगर प्रणालियां खोजना होता है, तो स्पष्टतः समय ज़्यादा लगता है और बार-बार प्रयत्न करने पड़ते हैं। आदत का निर्माण कठिनतर और धीमा हो जाता है। मनोविज्ञान में इस परिघटना को आदतों का नकारात्मक अंतरण अथवा आदतों का व्यतिकरण कहते हैं।
स्थिति दो : कार्यभारों के लक्ष्य, विषय और परिस्थितियां बाहरी तौर पर भिन्न हैं, किंतु उनकी पूर्ति के लिए आवश्यक क्रियाएं निष्पादन, नियंत्रण और केंद्रीय नियमन की प्रणालियों की दृष्टि से एक जैसी हैं। उदाहरण के लिए, लोहा काटने की आरी से काम करना सीख रहे प्रशिक्षार्थी के लिए रेती से काम करने की अच्छी आदतें प्रायः बड़ी सहायक होती हैं। इसका कारण यह है कि क्रियाओं के विषयों और लक्ष्यों में भेद के बावजूद उनके निष्पादन और संवेदी नियंत्रण की प्रणालियां मिलती-जुलती होती हैं। दोनों ही स्थितियों में काम के दौरान औजार को क्षैतिज अवस्थाओं में रखने के लिए दो हाथों के बीच बल का वितरण और बाद की गतियां एक जैसी ही हैं। इस स्थिति में क्रियाएं शुरू से ही सही होती हैं, जिससे आवश्यक आदतों का निर्माण आसान हो जाता है। इसे सकारात्मक अंतरण अथवा आदतों का प्रेरण कहा जाता है।
हर आदत पहले से विद्यमान आदतों की पद्धति के अंतर्गत बनती और कार्य करती है। उनमें से कुछ नई आदत को जड़ें जमाने तथा सक्रिय बनने में मदद करती हैं, तो कुछ उसे पनपने नहीं देतीं और कुछ बदलाव लाने का प्रयत्न करती हैं। मनोविज्ञान में इस परिघटना को आदतों की अन्योन्यक्रिया कहा जाता है। इस अन्योन्यक्रिया का स्वरूप क्या है? कोई भी क्रिया उसके उद्देश्य, विषय और परिस्थितियों से निर्धारित होती है, किंतु वह साकार, गतिशील निष्पादन, संवेदी नियंत्रण और केंन्द्रीय नियमन की प्रणालियों की एक पद्धति के रूप में होती है। क्रिया की सफलता, यानि आदत की कारगरता इसपर निर्भर होती है कि ये प्रणालियां लक्ष्य, विषयों और परिस्थितियों के किस हद तक अनुरूप हैं।
कोई नया कार्यभार पैदा होने पर मनुष्य पहले उसे उन विधियों से हल करने की कोशिश करता है, जिनमें उसे दक्षता प्राप्त है, और यह आदत-निर्माण की प्रक्रिया की एक आम विशेषता है। नये लक्ष्य से निदेशित होते हुए वह उसकी प्राप्ति के लिए वे प्रणालियां इस्तेमाल करता है, जिनसे उसने पहले कभी वैसे ही कार्यभार हल किये थे। अतः सक्रियता की ज्ञात प्रणालियों के अंतरण में सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि व्यक्ति कार्यभारों का उनके समाधान की दृष्टि से कैसे मूल्यांकन करता है। वास्तव में आदत-निर्माण की प्रक्रिया चरम स्थितियों का प्रतिनिधित्व करने वाली दो दिशाओं में से कोई एक दिशा ग्रहण करती है।
स्थिति एक : व्यक्ति द्वारा दो क्रियाओं के लक्ष्यों, अथवा विषयों, अथवा परिस्थितियों को एक जैसा माना जाता है, जबकि क्रियाओं के बीच वास्तव में उनके निष्पादन की प्रणाली, अथवा नियंत्रण प्रक्रियाओं, अथवा केंद्रीय नियमन की प्रणालियों के अनुसार भेद होता है। यह स्थिति प्रणालियों की अल्प-कारगरता के रूप में पैदा होती है। चूंकि इस अपूर्णता का उजागर होना, उसके परिणामों से छुटकारा पाना और नयी कारगर प्रणालियां खोजना होता है, तो स्पष्टतः समय ज़्यादा लगता है और बार-बार प्रयत्न करने पड़ते हैं। आदत का निर्माण कठिनतर और धीमा हो जाता है। मनोविज्ञान में इस परिघटना को आदतों का नकारात्मक अंतरण अथवा आदतों का व्यतिकरण कहते हैं।
स्थिति दो : कार्यभारों के लक्ष्य, विषय और परिस्थितियां बाहरी तौर पर भिन्न हैं, किंतु उनकी पूर्ति के लिए आवश्यक क्रियाएं निष्पादन, नियंत्रण और केंद्रीय नियमन की प्रणालियों की दृष्टि से एक जैसी हैं। उदाहरण के लिए, लोहा काटने की आरी से काम करना सीख रहे प्रशिक्षार्थी के लिए रेती से काम करने की अच्छी आदतें प्रायः बड़ी सहायक होती हैं। इसका कारण यह है कि क्रियाओं के विषयों और लक्ष्यों में भेद के बावजूद उनके निष्पादन और संवेदी नियंत्रण की प्रणालियां मिलती-जुलती होती हैं। दोनों ही स्थितियों में काम के दौरान औजार को क्षैतिज अवस्थाओं में रखने के लिए दो हाथों के बीच बल का वितरण और बाद की गतियां एक जैसी ही हैं। इस स्थिति में क्रियाएं शुरू से ही सही होती हैं, जिससे आवश्यक आदतों का निर्माण आसान हो जाता है। इसे सकारात्मक अंतरण अथवा आदतों का प्रेरण कहा जाता है।
नयी आदतों के निर्माण पर अनुभव और पुरानी आदतों का प्रभाव क्रियाओं तथा उनके विषयों के स्वरूप पर ही नहीं, इन क्रियाओं तथा विषयों के प्रति व्यक्ति के रवैये पर भी निर्भर होता है। अधिगम और पुनरधिगम की प्रक्रिया में बाधक नकारात्मक अंतरण का प्रतिकूल प्रभाव काफ़ी घट सकता है, बशर्ते कि छात्र को उनके बुनियादी अंतरों के बारे में बता दिया जाए। दूसरी ओर, आदत के अंतरण का सकारात्मक प्रभाव कहीं अधिक बढ़ सकता है और अधिगम का काल घट सकता है, बशर्ते कि शिक्षक छात्रों के सामने देखने में भिन्न लगनेवाले कार्यभारों की बुनियादी समानता विशेष रूप से दिखा दे।
नये विषयों की ओर पुनरभिविन्यास और इसके साथ क्रिया का जिन परिस्थितियों में वह बनी है, उनसे संबंध-विच्छेद अथवा पृथक्करण एक ऐसी महत्त्वपूर्ण घटना है, जिसके दूरगामी परिणाम निकलते हैं। कई मामलों में ऐसे अंतरण की बदौलत ही व्यक्ति बिना प्रयत्नों और त्रुटियों के नये प्रकार के कार्यभार संपन्न कर लेता है, यानि व्यवहार के एक मौलिकतः नये प्ररूप - बौद्धिक व्यवहार - का मार्ग प्रशस्त कर देता है। अपने मूल परिवेश से कटी हुई ऐसी ‘पुनरारोपित’ क्रिया के महत्त्व के कारण ही उसे ‘संक्रिया’ के विशेष नाम से पुकारा जाता है।
क्रिया का संक्रिया में रूपांतरण केवल एक निश्चित मानसिक सक्रियता - समानता का अवबोधन, सामान्यीकरण, आदि - के आधार पर हो सकता है। ऐसे रूपांतरणों की संभावना के दायरे में क्रिया के केंद्रीय नियमन से संबद्ध प्रक्रियाएं, अर्थात मानसिक क्रियाओं का संक्रियाओं में रूपांतरण भी आ जाता है।
केंद्रीय नियमन की संरचनाओं में साम्य के कारण, एक जैसी व्याकरण पद्धतियों और शब्दावलियों वाली भाषाओं को सीखना परस्पर असमान भाषाओं को सीखने की तुलना में कम कठिन होता है। अंतरण का यह प्ररूप ही सीखी हुई परिकलन को अत्यंत संख्याओं पर लागू करने, विभिन्न समस्याओं के समाधानार्थ साझे सूत्रों का उपयोग करने, आदि की संभावना देता है। सूचनाओं के आत्मसात्करण तथा संसाधन के दौरान मनुष्य द्वारा तार्किक निर्मितियों के स्वतःअनुप्रयोग के मूल में यह अंतरण का सिद्धांत ही होता है।
यह संयोग नहीं है कि आदत के अंतरण के प्रश्न को शिक्षा मनोविज्ञान का एक सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न माना जाता है। आदतमूलक क्रियाओं का नये कार्यभारों की ओर सही और सफल पुनरभिविन्यास करके व्यक्ति थोड़े ही समय के भीतर और कम से कम गलतियां करके नये प्रकार की सक्रियताओं में दक्षता प्राप्त कर लेता है। आदतमूलक क्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्राप्य लक्ष्य जितनें ही विविध होंगे, उतना ही व्यापक उन कार्यभारों का दायरा होगा, जिन्हें मनुष्य अपनी आदतों के बल पर पूरा कर सकता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो अर्जित सचेतन स्वचलताओं का अंतरण जितना व्यापक और जितना परिशुद्ध होगा, उसके अध्ययनों के परिणाम उतने ही फलप्रद और उसकी सक्रियता में उतने ही ज़्यादा सहायक सिद्ध होंगे।
नये विषयों की ओर पुनरभिविन्यास और इसके साथ क्रिया का जिन परिस्थितियों में वह बनी है, उनसे संबंध-विच्छेद अथवा पृथक्करण एक ऐसी महत्त्वपूर्ण घटना है, जिसके दूरगामी परिणाम निकलते हैं। कई मामलों में ऐसे अंतरण की बदौलत ही व्यक्ति बिना प्रयत्नों और त्रुटियों के नये प्रकार के कार्यभार संपन्न कर लेता है, यानि व्यवहार के एक मौलिकतः नये प्ररूप - बौद्धिक व्यवहार - का मार्ग प्रशस्त कर देता है। अपने मूल परिवेश से कटी हुई ऐसी ‘पुनरारोपित’ क्रिया के महत्त्व के कारण ही उसे ‘संक्रिया’ के विशेष नाम से पुकारा जाता है।
क्रिया का संक्रिया में रूपांतरण केवल एक निश्चित मानसिक सक्रियता - समानता का अवबोधन, सामान्यीकरण, आदि - के आधार पर हो सकता है। ऐसे रूपांतरणों की संभावना के दायरे में क्रिया के केंद्रीय नियमन से संबद्ध प्रक्रियाएं, अर्थात मानसिक क्रियाओं का संक्रियाओं में रूपांतरण भी आ जाता है।
केंद्रीय नियमन की संरचनाओं में साम्य के कारण, एक जैसी व्याकरण पद्धतियों और शब्दावलियों वाली भाषाओं को सीखना परस्पर असमान भाषाओं को सीखने की तुलना में कम कठिन होता है। अंतरण का यह प्ररूप ही सीखी हुई परिकलन को अत्यंत संख्याओं पर लागू करने, विभिन्न समस्याओं के समाधानार्थ साझे सूत्रों का उपयोग करने, आदि की संभावना देता है। सूचनाओं के आत्मसात्करण तथा संसाधन के दौरान मनुष्य द्वारा तार्किक निर्मितियों के स्वतःअनुप्रयोग के मूल में यह अंतरण का सिद्धांत ही होता है।
यह संयोग नहीं है कि आदत के अंतरण के प्रश्न को शिक्षा मनोविज्ञान का एक सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न माना जाता है। आदतमूलक क्रियाओं का नये कार्यभारों की ओर सही और सफल पुनरभिविन्यास करके व्यक्ति थोड़े ही समय के भीतर और कम से कम गलतियां करके नये प्रकार की सक्रियताओं में दक्षता प्राप्त कर लेता है। आदतमूलक क्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्राप्य लक्ष्य जितनें ही विविध होंगे, उतना ही व्यापक उन कार्यभारों का दायरा होगा, जिन्हें मनुष्य अपनी आदतों के बल पर पूरा कर सकता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो अर्जित सचेतन स्वचलताओं का अंतरण जितना व्यापक और जितना परिशुद्ध होगा, उसके अध्ययनों के परिणाम उतने ही फलप्रद और उसकी सक्रियता में उतने ही ज़्यादा सहायक सिद्ध होंगे।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
4 टिप्पणियां:
'अर्जित सचेतन स्वचलताओं का अंतरण जितना व्यापक और जितना परिशुद्ध होगा, उसके अध्ययनों के परिणाम उतने ही फलप्रद और उसकी सक्रियता में उतने ही ज़्यादा सहायक सिद्ध होंगे।' इसे थोड़ा और स्पष्ट करें…स्वचलताओं शब्द कुछ कन्फ़्यूजन पैदा कर रहा है।
आदरणीय,
आप शायद पहले की एक पोस्ट जिसमें आदत की परिभाषा सुस्थापित थी, से नहीं गुजर पाये हैं।
आदतें - सक्रियता का आत्मसात्करण
http://main-samay-hoon.blogspot.com/2010/12/blog-post.html
एक बार देखेंगे तो पता चल जाएगा कि यहां पर ‘आदतों’ शब्द को ‘अर्जित सचेतन स्वचलताओं’ से प्रतिस्थापित भर किया गया है।
शुक्रिया।
अभी एक बार पढा है बुकमार्क कर लिया दोबारा पढने वाला आलेख है। धन्यवाद।
मनोविज्ञानिक विषयो के बारे में,धीरे,धीरे अग्रसर होता ज्ञान,अच्छा लग रहा है,आपके आने वाले लेखों की सदा प्रतिक्षा रहती है ।
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