हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में भावनाओं के शरीरक्रियात्मक आधारों पर विचार किया था, इस बार हम भावनाओं के विभिन्न रूपों पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
भावनाओं के रूप
भावना को किसी भी मानसिक प्रक्रिया ( mental process ) के अप्रिय, प्रिय अथवा मिश्रित अनुषंगी ( fringe, subsidiary ) के रूप में अनुभव किया जाता है। वह मनुष्य की चेतना में स्वयं अपने रूप में नहीं, अपितु वस्तुओं अथवा क्रियाओं के एक गुण के रूप में प्रवेश करती है ( इसी कारण हम कहते हैं : ‘प्रिय आदमी’, ‘अप्रिय स्वाद’, ‘डरावना सांड’, ‘हास्यजनक मुद्रा’, ‘कोमल पत्तियां’, ‘सुखद सैर’, वग़ैरह )। प्रायः यह ऐंद्रिय अनुषंगी ( sensual subsidiary ) और कुछ नहीं, बल्कि विगत संवेगात्मक अनुभवों की एक गूंज है। कभी-कभी यह मनुष्य की किसी वस्तु से तुष्टि की मात्रा ( level or degree of satisfaction ) या उसकी सक्रियता की सामान्य दिशा ( सफलता अथवा विफलता ) का परिचायक भी होता है। उदाहरण के लिए, एक ही ज्यामितीय प्रश्न को हल करते हुए मनुष्य उसमें सफलता या असफलता के अनुसार अलग-अलग तरह की भावनाएं अनुभव कर सकता है।
आवश्यकताओं की तुष्टि अथवा अतुष्टि से पैदा होने वाली विशिष्ट भावनाएं अलग-अलग रूप लेती हैं, जैसे संवेग ( impulse ), भाव ( sentiments ), मनोदशाएं ( moods ), खिंचाव ( stress ) की अवस्थाएं और शब्द के संकीर्ण अर्थ में स्वयं भावनाएं ( अनुभूतियां )( emotions, feelings )।
संवेग ( Impulse )
‘संवेग’ और ‘भावना’ शब्दों को कभी-कभी पर्यायों ( synonymous ) के तौर पर प्रयोग किया जाता है। संकीर्णतर अर्थ में संवेग को किसी अधिक स्थायी भावना की प्रत्यक्ष अल्पकालिक अवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, किसी मनुष्य के एक स्थायी गुण के तौर पर संगीत के प्रति प्रेम की भावना संवेग नहीं है, किंतु वही मनुष्य जब किसी कंसर्ट में अच्छा संगीत सुनते हुए जो आनंद और उल्लास अनुभव करता है, उस आनंद और उल्लास की अवस्था संवेग है। वही भावना, क्षोभ ( indignation ) के नकारात्मक संवेग के रूप में भी अनुभव की जा सकती है, जब अच्छे संगीत को बुरे ढंग से पेश किया जाता है। एक भावना के तौर पर, अर्थात निश्चित वस्तुओं, उनके संयोजनों अथवा महत्त्वपूर्ण स्थितियों के प्रति एक निश्चित, विशिष्ट रवैये ( attitude ) के तौर पर भय को विभिन्न संवेगात्मक प्रक्रियाओं में अनुभव किया जा सकता है : कभी मनुष्य डरावनी चीज़ को देखकर भाग जाता है, कभी वह जहां का तहां जड़ हो जाता है और कभी अन्य कोई उपाय न देखकर सीधे खतरे से जा टकराता है।
कुछ मामलों में, संवेगों में ओजस्विता होती है, वे मनुष्य को कार्य करने, निर्भीक बातें कहने को प्रेरित करती हैं और उसकी शक्ति बढ़ाती हैं। ऐसे संवेगों को सबल संवेग ( strong impulse ) कहा जाता है। अति प्रसन्न आदमी मुश्किल में पड़े मित्र की मदद के लिए ज़मीन आसमान एक करने को तैयार रहता है। सबल संवेग मनुष्य को कार्य करने को प्रेरित करता है। ऐसा मनुष्य निष्क्रिय नहीं बैठ सकता। इनके विपरीत क़िस्म के संवेग, जिन्हें दुर्बल संवेग ( weak impulse ) कहा जाता है, मनुष्य को क्षीण बनाते हैं और उसे उदासीनता, निराशा तथा निष्क्रियता के गर्त में धकेलते हैं। भय से उसके हाथ-पांव जवाब दे सकते हैं। कभी-कभी प्रबल भावना अनुभव करके मनुष्य अपने में सिमट जाता है। ऐसे मामलों में सहानुभूति की भावना अपने में एक अच्छी बात होने पर भी एक व्यर्थ भावना बन जाती है और लज्जा, गुप्त यंत्रणादायी पश्चाताप में बदल जाती है।
भाव ( Sentiments )
भाव तीव्र और अपेक्षाकृत लघु संवेगात्मक प्रक्रियाओं को कहते हैं। उनकी विशेषताएं हैं चेतना ( consciousness ) में काफ़ी अधिक परिवर्तन, अपने कार्यों पर अत्यल्प नियंत्रण, आत्मनियंत्रण का अभाव, और शरीर की सारी जीवन-सक्रियता का बदलना। भाव अल्पजीवी ( short-lived ) होते हैं, क्योंकि उनमें बड़ी मात्रा में ऊर्जा का सहसा मोचन ( sudden release ) और संवेगों का विस्फोट होता है।
आवश्यकताओं की तुष्टि अथवा अतुष्टि से पैदा होने वाली विशिष्ट भावनाएं अलग-अलग रूप लेती हैं, जैसे संवेग ( impulse ), भाव ( sentiments ), मनोदशाएं ( moods ), खिंचाव ( stress ) की अवस्थाएं और शब्द के संकीर्ण अर्थ में स्वयं भावनाएं ( अनुभूतियां )( emotions, feelings )।
संवेग ( Impulse )
‘संवेग’ और ‘भावना’ शब्दों को कभी-कभी पर्यायों ( synonymous ) के तौर पर प्रयोग किया जाता है। संकीर्णतर अर्थ में संवेग को किसी अधिक स्थायी भावना की प्रत्यक्ष अल्पकालिक अवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, किसी मनुष्य के एक स्थायी गुण के तौर पर संगीत के प्रति प्रेम की भावना संवेग नहीं है, किंतु वही मनुष्य जब किसी कंसर्ट में अच्छा संगीत सुनते हुए जो आनंद और उल्लास अनुभव करता है, उस आनंद और उल्लास की अवस्था संवेग है। वही भावना, क्षोभ ( indignation ) के नकारात्मक संवेग के रूप में भी अनुभव की जा सकती है, जब अच्छे संगीत को बुरे ढंग से पेश किया जाता है। एक भावना के तौर पर, अर्थात निश्चित वस्तुओं, उनके संयोजनों अथवा महत्त्वपूर्ण स्थितियों के प्रति एक निश्चित, विशिष्ट रवैये ( attitude ) के तौर पर भय को विभिन्न संवेगात्मक प्रक्रियाओं में अनुभव किया जा सकता है : कभी मनुष्य डरावनी चीज़ को देखकर भाग जाता है, कभी वह जहां का तहां जड़ हो जाता है और कभी अन्य कोई उपाय न देखकर सीधे खतरे से जा टकराता है।
कुछ मामलों में, संवेगों में ओजस्विता होती है, वे मनुष्य को कार्य करने, निर्भीक बातें कहने को प्रेरित करती हैं और उसकी शक्ति बढ़ाती हैं। ऐसे संवेगों को सबल संवेग ( strong impulse ) कहा जाता है। अति प्रसन्न आदमी मुश्किल में पड़े मित्र की मदद के लिए ज़मीन आसमान एक करने को तैयार रहता है। सबल संवेग मनुष्य को कार्य करने को प्रेरित करता है। ऐसा मनुष्य निष्क्रिय नहीं बैठ सकता। इनके विपरीत क़िस्म के संवेग, जिन्हें दुर्बल संवेग ( weak impulse ) कहा जाता है, मनुष्य को क्षीण बनाते हैं और उसे उदासीनता, निराशा तथा निष्क्रियता के गर्त में धकेलते हैं। भय से उसके हाथ-पांव जवाब दे सकते हैं। कभी-कभी प्रबल भावना अनुभव करके मनुष्य अपने में सिमट जाता है। ऐसे मामलों में सहानुभूति की भावना अपने में एक अच्छी बात होने पर भी एक व्यर्थ भावना बन जाती है और लज्जा, गुप्त यंत्रणादायी पश्चाताप में बदल जाती है।
भाव ( Sentiments )
भाव तीव्र और अपेक्षाकृत लघु संवेगात्मक प्रक्रियाओं को कहते हैं। उनकी विशेषताएं हैं चेतना ( consciousness ) में काफ़ी अधिक परिवर्तन, अपने कार्यों पर अत्यल्प नियंत्रण, आत्मनियंत्रण का अभाव, और शरीर की सारी जीवन-सक्रियता का बदलना। भाव अल्पजीवी ( short-lived ) होते हैं, क्योंकि उनमें बड़ी मात्रा में ऊर्जा का सहसा मोचन ( sudden release ) और संवेगों का विस्फोट होता है।
अपने विकास में भाव कई क्रमिक चरणों से गुजरता है। सहसा अतिशय क्रोध, संत्रास, संभ्रम, अनियंत्रित उल्लास अथवा निराशा से ग्रस्त आदमी अलग-अलग क्षणों पर अलग-अलग ढंग से विश्व का परावर्तन तथा संवेगों की अभिव्यक्ति करता है। उसके आत्म-नियंत्रण और बाह्य क्रियाओं के नियमन ( regulation ) में कई सारे परिवर्तन आते हैं।
भावावस्था के आरंभ में मनुष्य की सभी मानसिक शक्तियां उसके संवेगों की वस्तु पर केंद्रित होती हैं और वह अन्य सब कुछ, यहां तक कि अपने लिए व्यावहारिक महत्त्व की चीज़ें भी भूल जाता है। उसके अभिव्यंजक हाव-भाव ( expressive gesture ) अधिकाधिक अनियंत्रणीय ( uncontrollable ) बनते जाते हैं। बढ़ते हुए भाव की पहचान आंसू, सिसकियां, ठहाके, विस्मयबोधक उद्गार, ठेठ ( typical ) हाव-भाव, तेज़ अथवा अनियमित सांस, आदि हैं। अतिशय तनाव ( excessive stress ) के कारण मनुष्य का चेहरा बिगड़ जाता है और हरकतों पर नियंत्रण नहीं रहता। प्रांतस्था पर आगमनिक प्रावरोध ( adventitious inhibit ) छा जाता है, जिससे चिंतन की प्रक्रियाओं में बाधा पड़ती है। अधःप्रांतस्था गुच्छिकाओं में उत्तेजन बढ़ जाता है। मनुष्य अपने को ग्रस्त करनेवाले संवेग ( भय, क्रोध, हताशा, आदि - के सामने आत्मसमर्पण करने की इच्छा अनुभव करता है। किंतु इस चरण में भी सामान्य मनुष्य अपने पर नियंत्रण बनाए रख सकता है, यानि संवेगों के तूफ़ान को उठने से रोक सकता है। मुख्य बात है भावावेश की अवस्था न आने देना, उनका विकास रोकना। आत्म-नियंत्रण बनाए रखने का एक सामान्य और परखा हुआ उपाय यह है कि मन ही मन में कम से कम दस तक गिने।
यदि भाव फिर भी हावी हो जाता है, तो मनुष्य आत्म-नियंत्रण खो देता है और ऐसी बेहूदी हरकतें कर बैठता हैं कि जिन्हें बाद में याद करके उसे अपने पर शर्म आएगी या हो सकता है कि उनकी उसे धुंधली-सी ही याद रहे। प्रावरोध प्रांतस्था पर छा जाता है और मनुष्य के अनुभवों तथा उसके सांस्कृतिक व नैतिक उसूलों का प्रतिनिधित्व करनेवाली कालिक संबंधों की विद्यमान पद्धतियों को निष्क्रिय बना देता है। भावात्मक दौरे के बाद मनुष्य को घोर थकान, निराशा, उदासीनता, जड़ता और प्रायः उनींदापन आ घेरते हैं।
यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कुछ मामलों में कोई भी भावना भावात्मक रूप में अनुभव की जा सकती है। स्टेडियमों में या कंसर्ट हालों में दर्शकों अथवा श्रोताओं द्वारा भावात्मक उत्साह के प्रदर्शन की बहुत सारी मिसालें ज्ञात हैं। ऐसी स्थितियों में भावावस्थाओं के कभी-कभी अत्यंत अवांछित परिणाम निकलते हैं ( हिस्टीरिया जैसे दौरे, मार-पीट, इत्यादी )। मनोविज्ञान में ‘दीवाना’ प्रेम की भावात्मक अवस्थाओं का अच्छा अध्ययन किया गया है और साहित्य में तो इनके बहुत ही उत्कृष्ट वर्णन मिलते हैं। पाया गया है कि वर्षों लंबे कठिन परिश्रम के बाद वैज्ञानिक अविष्कार या खोज के रूप में प्राप्त सफलता वैज्ञानिक को हर्षोंल्लास से पागल कर देती है। अतः भाव की प्रकृति और उसका प्रभाव मनुष्य द्वारा अनुभूत भावना पर और इस पर निर्भर करते हैं कि वह अपने व्यवहार का किस हद तक नियंत्रण करता है।
यदि भाव फिर भी हावी हो जाता है, तो मनुष्य आत्म-नियंत्रण खो देता है और ऐसी बेहूदी हरकतें कर बैठता हैं कि जिन्हें बाद में याद करके उसे अपने पर शर्म आएगी या हो सकता है कि उनकी उसे धुंधली-सी ही याद रहे। प्रावरोध प्रांतस्था पर छा जाता है और मनुष्य के अनुभवों तथा उसके सांस्कृतिक व नैतिक उसूलों का प्रतिनिधित्व करनेवाली कालिक संबंधों की विद्यमान पद्धतियों को निष्क्रिय बना देता है। भावात्मक दौरे के बाद मनुष्य को घोर थकान, निराशा, उदासीनता, जड़ता और प्रायः उनींदापन आ घेरते हैं।
यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कुछ मामलों में कोई भी भावना भावात्मक रूप में अनुभव की जा सकती है। स्टेडियमों में या कंसर्ट हालों में दर्शकों अथवा श्रोताओं द्वारा भावात्मक उत्साह के प्रदर्शन की बहुत सारी मिसालें ज्ञात हैं। ऐसी स्थितियों में भावावस्थाओं के कभी-कभी अत्यंत अवांछित परिणाम निकलते हैं ( हिस्टीरिया जैसे दौरे, मार-पीट, इत्यादी )। मनोविज्ञान में ‘दीवाना’ प्रेम की भावात्मक अवस्थाओं का अच्छा अध्ययन किया गया है और साहित्य में तो इनके बहुत ही उत्कृष्ट वर्णन मिलते हैं। पाया गया है कि वर्षों लंबे कठिन परिश्रम के बाद वैज्ञानिक अविष्कार या खोज के रूप में प्राप्त सफलता वैज्ञानिक को हर्षोंल्लास से पागल कर देती है। अतः भाव की प्रकृति और उसका प्रभाव मनुष्य द्वारा अनुभूत भावना पर और इस पर निर्भर करते हैं कि वह अपने व्यवहार का किस हद तक नियंत्रण करता है।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
7 टिप्पणियां:
हे समय!
तुम इतने तटस्थ कैसे हो सकते हो?
पिछले 13 दिनों में देश में एक मथनी चल रही थी। देखो उस में से मक्खन जैसा कुछ निकलता दिखाई देता है। लोग भावाभिभूत हो उठे हैं। पिछले दिनों जो लोग दुनिया के सब से बड़े जनतंत्र की संसदीय तानाशाही देख कर चुप थे। वे अब फिर से उस में गुणों के संचार का बखान करने लगे हैं।
ऐसे में तुम मनोविज्ञान ही बाँच रहे हो। जरा मंथन के परिणामों की चर्चा भी तो करो। कि मंथन के बाद जनता को क्या मिला और संसदीय वीरों ने क्या पाया। यह भी तो बताओ कि जिस के हिस्से में आया उसे कैसे दूसरे दूसरों ने चुराया? जरा अपनी यह तटस्थता कुछ तो भंग करो।
@ :-)
Why do Minor Chords Sound Sad?
The Theory of Musical Equilibration states that in contrast to previous hypotheses, music does not directly describe emotions: instead, it evokes processes of will which the listener identifies with.
A major chord is something we generally identify with the message, “I want to!” The experience of listening to a minor chord can be compared to the message conveyed when someone says, "No more." If someone were to say the words "no more" slowly and quietly, they would create the impression of being sad, whereas if they were to scream it quickly and loudly, they would be come across as furious. This distinction also applies for the emotional character of a minor chord: if a minor harmony is repeated faster and at greater volume, its sad nature appears to have suddenly turned into fury.
The Theory of Musical Equilibration applies this principle as it constructs a system which outlines and explains the emotional nature of musical harmonies. For more information you can google Theory of Musical Equilibration.
Bernd Willimek
Why do Minor Chords Sound Sad?
The Theory of Musical Equilibration states that in contrast to previous hypotheses, music does not directly describe emotions: instead, it evokes processes of will which the listener identifies with.
A major chord is something we generally identify with the message, “I want to!” The experience of listening to a minor chord can be compared to the message conveyed when someone says, "No more." If someone were to say the words "no more" slowly and quietly, they would create the impression of being sad, whereas if they were to scream it quickly and loudly, they would be come across as furious. This distinction also applies for the emotional character of a minor chord: if a minor harmony is repeated faster and at greater volume, its sad nature appears to have suddenly turned into fury.
The Theory of Musical Equilibration applies this principle as it constructs a system which outlines and explains the emotional nature of musical harmonies. For more information you can google Theory of Musical Equilibration.
Bernd Willimek
I would like to share my knowledge and discuss it if someone wants to participate in it. Bernd Willimek
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