हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में इच्छाशक्ति की व्यक्तिपरक विशिष्टताओं को समझने की कोशिश की थी, इस बार से हम व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों को समझने की कोशिश करेंगे और स्वभाव की संकल्पना से चर्चा शुरू करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में इच्छाशक्ति की व्यक्तिपरक विशिष्टताओं को समझने की कोशिश की थी, इस बार से हम व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों को समझने की कोशिश करेंगे और स्वभाव की संकल्पना से चर्चा शुरू करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षण
स्वभाव की संकल्पना ( concept of human nature )
स्वभाव की संकल्पना ( concept of human nature )
वैयक्तिक-मानसिक भेदों में तथाकथित गतिशील अभिलक्षण
( dynamic characteristics ) भी शामिल किए जाते हैं, जो मनुष्य की मनोरचना
में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गतिशील अभिलक्षणों से आशय मुख्य रूप
से मानसिक प्रक्रियाओं की सघनता ( denseness ) और गति से होता है।
सर्वविदित है कि सक्रियता तथा व्यवहार के अभिप्रेरक और परिवेशी प्रभाव
बहुत कुछ एक जैसे होने पर भी लोगों में संवेदनशीलता ( sensitivity ), आवेगशीलता ( impulsiveness ) और ऊर्जा
( energy ) के लिहाज़ से आपस में बड़ा अंतर होता है। उदाहरण के लिए, एक
मनुष्य मंद और ढीला-ढाला होता है, तो दूसरा तेज़ और जल्दबाज़ ; एक की
भावनाएं बड़ी आसानी से भड़क जाती हैं, तो दूसरा धैर्य और शांति बनाए रखता है
; एक के बोलते समय अगर उसकी हाथ की मुद्राएं तथा चेहरे के भाव भी भी बोलते
हैं, तो दूसरा अपने अंगों की गतियों को नियंत्रण में रखता है और चेहरे पर
लगभग कोई भाव नहीं आने देता। अन्य स्थितियां समान होने पर गतिशील भेद
मनुष्य की सामान्य क्रियाशीलता, उसकी गतिशीलता तथा संवेगात्मकता में भी
दिखाई देते हैं।
निस्संदेह मनुष्य के गातिशील अभिलक्षण काफ़ी हद तक उसके द्वारा सीखी गई आदतों ( habits ), रवैयों ( attitudes ) और स्थिति के तकाज़ों पर निर्भर होते हैं। फिर भी इस बारे में दो रायें नहीं है कि विचाराधीन व्यक्तिगत भेदों का एक जन्मजात आधार भी है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि वे अपने को आरंभिक बाल्यावस्था में ही प्रकट कर देते हैं और स्थिर होते हैं, और व्यवहार के विभिन्न रूपों तथा सक्रियता के अत्यंत विविध क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं।
मनुष्य के जन्मजात गतिशील गुण परस्पर-संबद्ध होते हैं और मिलकर स्वभाव ( nature ) के नाम से पुकारे जाते हैं। स्वभाव मनुष्य की प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति ( reactionary tendency ) के प्राकृतिकतः अनुकूलित अभिलक्षणों ( naturally conditioned characteristics ) की समष्टि है।
प्राचीन काल में भी वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने वैयक्तिक मानसिक भेदों की प्रकृति पर ध्यान दिया था। प्रसिद्ध आयुर्विज्ञानी हिप्पोक्रेटीज़ ( पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व ) का विश्वास था कि शरीर की अवस्थाएं मुख्य रूप से ‘रसों’ या शरीर के तरल पदार्थों - रक्त ( blood ), लसीका ( lymph ), पित्त ( bile ) - के परिणामात्मक अनुपात पर निर्भर होती हैं। शनैः शनैः यह माना जाने लगा कि मनुष्य की मानसिक विशेषताएं शरीर में जीवनदायी रसों के इस अनुपात पर निर्भर होती हैं। दूसरी शताब्दी ईसापूर्व के रोमन शरीररचनाविज्ञानी गालेन ने पहली बार स्वभावों का विशद वर्गीकरण किया और उनके १३ भेद बताए। बाद में उनकी संख्या घटाकर केवल ४ कर दी गई। उनमें से प्रत्येक में शरीर के चार द्रवों - रक्त, लसीका, पीत पित्त और कृष्ण पित्त - में से किसी एक द्रव की प्रधानता होती है। ये चार प्रकार के स्वभाव इस प्रकार थे : रक्तप्रकृति ( प्रफुल्लस्वभाव, उत्साही ), श्लैष्मिक प्रकृति ( शीतस्वभाव ), पित्तप्रकृति ( कोपशील ) और वातप्रकृति ( विषादी )।
प्राचीन यूनानी-रोमन विज्ञान द्वारा प्रतिपादित स्वभाव के शारीरिक आधार के सिद्धांत में अब केवल ऐतिहासिक रूचि ली जा सकती है। फिर भी यह कहना ही होगा कि प्राचीन मनीषियों के इस विचार की विज्ञान के उत्तरकालीन विकास से पूर्ण पुष्टि हो गई है कि वैयक्तिक प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्तियों ( मानस की गत्यात्मक अभिव्यक्तियों ) के सभी रूपों को चार आधारभूत रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
निस्संदेह मनुष्य के गातिशील अभिलक्षण काफ़ी हद तक उसके द्वारा सीखी गई आदतों ( habits ), रवैयों ( attitudes ) और स्थिति के तकाज़ों पर निर्भर होते हैं। फिर भी इस बारे में दो रायें नहीं है कि विचाराधीन व्यक्तिगत भेदों का एक जन्मजात आधार भी है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि वे अपने को आरंभिक बाल्यावस्था में ही प्रकट कर देते हैं और स्थिर होते हैं, और व्यवहार के विभिन्न रूपों तथा सक्रियता के अत्यंत विविध क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं।
मनुष्य के जन्मजात गतिशील गुण परस्पर-संबद्ध होते हैं और मिलकर स्वभाव ( nature ) के नाम से पुकारे जाते हैं। स्वभाव मनुष्य की प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति ( reactionary tendency ) के प्राकृतिकतः अनुकूलित अभिलक्षणों ( naturally conditioned characteristics ) की समष्टि है।
प्राचीन काल में भी वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने वैयक्तिक मानसिक भेदों की प्रकृति पर ध्यान दिया था। प्रसिद्ध आयुर्विज्ञानी हिप्पोक्रेटीज़ ( पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व ) का विश्वास था कि शरीर की अवस्थाएं मुख्य रूप से ‘रसों’ या शरीर के तरल पदार्थों - रक्त ( blood ), लसीका ( lymph ), पित्त ( bile ) - के परिणामात्मक अनुपात पर निर्भर होती हैं। शनैः शनैः यह माना जाने लगा कि मनुष्य की मानसिक विशेषताएं शरीर में जीवनदायी रसों के इस अनुपात पर निर्भर होती हैं। दूसरी शताब्दी ईसापूर्व के रोमन शरीररचनाविज्ञानी गालेन ने पहली बार स्वभावों का विशद वर्गीकरण किया और उनके १३ भेद बताए। बाद में उनकी संख्या घटाकर केवल ४ कर दी गई। उनमें से प्रत्येक में शरीर के चार द्रवों - रक्त, लसीका, पीत पित्त और कृष्ण पित्त - में से किसी एक द्रव की प्रधानता होती है। ये चार प्रकार के स्वभाव इस प्रकार थे : रक्तप्रकृति ( प्रफुल्लस्वभाव, उत्साही ), श्लैष्मिक प्रकृति ( शीतस्वभाव ), पित्तप्रकृति ( कोपशील ) और वातप्रकृति ( विषादी )।
प्राचीन यूनानी-रोमन विज्ञान द्वारा प्रतिपादित स्वभाव के शारीरिक आधार के सिद्धांत में अब केवल ऐतिहासिक रूचि ली जा सकती है। फिर भी यह कहना ही होगा कि प्राचीन मनीषियों के इस विचार की विज्ञान के उत्तरकालीन विकास से पूर्ण पुष्टि हो गई है कि वैयक्तिक प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्तियों ( मानस की गत्यात्मक अभिव्यक्तियों ) के सभी रूपों को चार आधारभूत रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
बाद के युगों में स्वभावों के बीच भेदों
का कारण बताने के लिए बहुत-सी प्राक्कल्पनाएं ( hypothesis ) प्रस्तुत की
गईं। वैज्ञानिक चिंतन पर प्राचीन आयुर्विज्ञानियों के प्रभाव की पुष्टि
देहद्रवी तंत्रों को दिये गए महत्व से होती है। जर्मन दार्शनिक इम्मानुएल कांट
( १८वीं शताब्दी ) का विश्वास था कि स्वभाव का निर्धारण रक्त के गुणधर्मों
से होता है। इससे ही मिलता जुलता मत रूसी शरीररचनाविज्ञानी प्योत्र लेसगाफ़्त
ने व्यक्त किया, जिन्होंने लिखा ( १९वीं शताब्दी के अंत में ) कि स्वभाव
रक्त के संचार, विशेषतः रक्त वाहिकाओं की भित्तियों की मोटाई तथा
प्रत्यास्थता, उनके आंतरिक व्यास, ह्र्दय के आकार, आदि की क्रिया है। इस
सिद्धांत के अनुसार शरीर की उत्तेज्यता के व्यक्तिपरक अभिलक्षण और विभिन्न
उद्दीपनों के संबंध में शरीर की प्रतिक्रिया की अवधि रक्त के प्रवाह की
गति और दाब पर निर्भर होते हैं। जर्मन मनश्चिकित्सक एन्सर्ट क्रेट्श्मेर
ने यह विचार प्रतिपादित किया ( १९२० के दशक और बाद में ) कि मनुष्य की
मनोरचना उसके शरीर की रचना तथा डील-डौल के अनुरूप होती है। यहां डील-डौल
और कतिपय मानसिक विशेषताओं के बीच संबंध इसलिए है कि उनका एक ही आधार है :
रक्त की रासायनिक संरचना और अंतःस्रावी तंत्र की ग्रंथियों द्वारा
निस्सारित हार्मोन। १९४० के दशक में अमरीकी वैज्ञानिक वाल्टर शेल्डन
ने भी यही मत प्रकट किया कि मनुष्य की वैयक्तिक मानसिक विशेषताएं हार्मोनी
तंत्र द्वारा नियंत्रित शारीरिक ढांचे से, यानी शरीर के विभिन्न ऊतकों के
परस्परसंबंध से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होती है।
यह नहीं कहा जा सकता कि ये मत सर्वथा निराधार हैं। किंतु वे समस्या के एक ही पहलू की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं और वह भी मुख्य पहलू नहीं है। सभी मानसिक परिघटनाएं सीधे मानस के आधारभूत अंग, मस्तिष्क के गुणधर्मों की उपज होती हैं और यही मुख्य बात है। यद्यपि शरीर के तरलों अथवा रसों के महत्त्व का प्राचीन विचार हार्मोनी कारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका से संबद्ध बाद के विचारों से मेल खाता है, फिर भी स्वभाव के प्राकृतिक आधार के बारे में आजकल किए जा रहे अनुसंधान इस बुनियादी तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते कि व्यवहार की गतिकी ( dynamics ) को प्रभावित करनेवाले सभी आंतरिक ( और बाह्य ) कारक अपना कार्य अनिवार्यतः मस्तिष्क के माध्यम से करते हैं। आधुनिक विज्ञान स्वभाव के व्यक्तिपरक भेदों का कारण मस्तिष्क ( प्रमस्तिष्कीय प्रांतस्था और अवप्रांतस्था केंद्रों ) की प्रकार्यात्मक ( functional ) विशेषताओं में, उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के गुणधर्मों में देखता है।
यह नहीं कहा जा सकता कि ये मत सर्वथा निराधार हैं। किंतु वे समस्या के एक ही पहलू की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं और वह भी मुख्य पहलू नहीं है। सभी मानसिक परिघटनाएं सीधे मानस के आधारभूत अंग, मस्तिष्क के गुणधर्मों की उपज होती हैं और यही मुख्य बात है। यद्यपि शरीर के तरलों अथवा रसों के महत्त्व का प्राचीन विचार हार्मोनी कारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका से संबद्ध बाद के विचारों से मेल खाता है, फिर भी स्वभाव के प्राकृतिक आधार के बारे में आजकल किए जा रहे अनुसंधान इस बुनियादी तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते कि व्यवहार की गतिकी ( dynamics ) को प्रभावित करनेवाले सभी आंतरिक ( और बाह्य ) कारक अपना कार्य अनिवार्यतः मस्तिष्क के माध्यम से करते हैं। आधुनिक विज्ञान स्वभाव के व्यक्तिपरक भेदों का कारण मस्तिष्क ( प्रमस्तिष्कीय प्रांतस्था और अवप्रांतस्था केंद्रों ) की प्रकार्यात्मक ( functional ) विशेषताओं में, उच्चतर तंत्रिका-तंत्र के गुणधर्मों में देखता है।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
1 टिप्पणियां:
shubhkamnayen
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