शनिवार, 3 मार्च 2012

योग्यता की मात्रा

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्ति के वैयक्तिक-मानसिक अभिलक्षणों की कड़ी के रूप में ‘योग्यता’ के अंतर्गत योग्यता की गुणात्मक अभिलाक्षणिकताओं को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम योग्यता की परिमाणात्मक अभिलाक्षणिकताओं पर चर्चा करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



योग्यता की परिमाणात्मक अभिलाक्षणिकताएं
( quantitative characteristics of ability )

योग्यता के परिमाणात्मक माप ( quantitative measurement ) की समस्या पर मनोवैज्ञानिक कई दशकों से काम करते आए हैं। १९वीं शताब्दी के अंत तथा २०वीं शताब्दी के आरंभ में ही बहुत-से पश्चिमी मनोवैज्ञानिकों ने बड़े पैमाने के व्यवसायों के लिए उम्मीदवारों के चयन की आवश्यकता को अनुभव करते हुए प्रशिक्षार्थियों की योग्यताओं का पता लगाने का सुझाव रखा। उन्होंने साथ ही एक या अन्य श्रम-सक्रियता के लिए, विश्वविद्यालयों या कालेजों में अध्ययन के वास्ते, उत्पादन-क्षेत्र, सेना और सामाजिक जीवन में संचालनकारी पदों पर नियुक्ति के लिए उम्मीदवार के व्यक्तित्व तथा उपयुक्तता की कोटि निर्धारित करने का भी प्रस्ताव रखा।

परंतु पूंजीवादी उत्पादन की सामाजिक परिस्थितियों के अंतर्गत योग्यता की परिमाणात्मक अभिलाक्षणिकताओं की समस्या ने अपने जन्म के समय से ही दुहरा स्वरूप ग्रहण कर लिया।  एक ओर उसका उद्देश्य यह था कि मेहनतकश मनुष्य की वास्तविक और ठोस श्रम-सक्रियता के लिए उसके वास्तविक सामर्थ्य का पता लगाया जाए, जिसके बिना उसके लिए उपयुक्त काम की तलाश करना ( व्यवसायगत दिशा-निर्धारण ) तथा किसी संबद्ध काम के लिए उपयुक्त मनुष्य का चयन ( व्यवसायगत चयन ) करना सचमुच कठिन होता है। यह मनुष्य की योग्यता के परिमाणात्मक माप के विचार का प्रगतिशील पहलू तथा पूर्ववर्ती रुख़ की तुलना में प्रगति है, जब श्रम-सक्रियता में मानवरूपी कारक ( यानि वास्तविक मनुष्य तथा उसकी योग्यता ) को ध्यान में नहीं रखा जाता था। दूसरी ओर, पूंजीवादी उत्पादन की व्यवस्था में जन्म ले चुकने पर इस विचार का, इसी व्यवस्था के हितार्थ सत्तासंरक्षण और समर्थन प्राप्त मनोवैज्ञानिकों ने सत्ताधारी वर्गों के प्रतिनिधियों की विशेषाधिकारप्राप्त स्थिति ( privileged position ) का मनोवैज्ञानिक औचित्य ठहराने के लिए उपयोग किया, जिनके बीच विशेष विधियों की सहायता से योग्यता का अधिक उच्च स्तर "उजागर हुआ"। इसमें ही योग्यता के परिमाणात्मक माप, जो वर्तमान समाज की अवस्थाओं के अंतर्गत सामाजिक उत्पीड़न तथा भेदभाव का साधन बन गया, के सिद्धांत को ठोस ढंग से अमली रूप देने का वास्तविक प्रतिक्रियावादी स्वरूप निहित था।

योग्यता-माप की विधि ने तब बुद्धि-परीक्षा ( intelligence test ) का रूप ग्रहण कर लिया, जो २०वीं शताब्दी के आरंभ में चालू हुई थी। स्कूलों के छात्रों की उनकी योग्यता के अनुसार श्रेणी निर्धारित करने, सशस्त्र सेना में अफ़सरों तथा उद्योग में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थानों में संचालकों के पदों पर नियुक्ति करने के लिए इन विधियों का कई पश्चिमी देशों ( अमरीका, ब्रिटेन, आदि ) में उपयोग किया जाता है, जो अब उनके प्रभावों वाले अन्य देशों में भी फैलती जा रही हैं। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में बुद्धि-परीक्षाओं के परिणामस्वरूप छात्रों को तथाकथित ग्रामर स्कूलों में भर्ती किया जाता है, जो उन्हें विश्वविद्यालय में प्रवेश करने का अधिकार देते हैं।

अंतर्वस्तु ( content ) की दृष्टि से बुद्धि-परीक्षा में छात्रों को कई प्रश्न या काम दिए जाते हैं, जिनके समाधानों की सफलता ( उत्तर देने में लगनेवाले समय को ध्यान में रखते हुए ) का मूल्यांकन कुल नंबरों से किया जाता है। ब्रिटिश स्कूल में ग्यारहवर्षीय छात्रों की प्रतिभा का पता लगाने के लिए परीक्षा का एक उदाहरण यहां दिया जा रहा है : "अगर पीटर का क़द जेम्स से ऊंचा है और एडवर्ड का क़द पीटर से छोटा है, तो सबसे ऊंचा क़द किसका है?" और उससे इन चारों उत्तरों में से एक चुनने के लिए कहा जाता है : ( १ ) पीटर, ( २ ) एडवर्ड, ( ३ ) जेम्स, ( ४ ) बता नहीं सकता। एक अन्य परीक्षा में परीक्षार्थी से पांच शब्दों में से एक चुनने के लिए कहा जाता है जो बाक़ी दूसरे शब्दों से कतई नहीं मिलता। ये शब्द हैं : "लाल, हरा, नीला, गीला, पीला" ; "अथवा, परंतु, यदि, इस समय, यद्यपि", आदि। आम तौर पर ये परीक्षाएं एक श्रृंखला में होती हैं और क्रम के अनुसार अधिकाधिक कठिन होती जाती हैं। परीक्षाओं में केवल मौखिक परीक्षाएं ही नहीं, अपितु सब तरह की "भूलभुलैयाएं", "पहेलियां", आदि शामिल हो सकती हैं।

सभी परीक्षाओं की श्रृंखला से गुज़र चुकने के बाद परिणामों का एक मानक विधि से यानि हरेक द्वारा प्राप्त अंकों की संख्या की गिनती के ज़रिए मूल्यांकन किया जाता है। इससे कथित "बुद्धि-लब्धि" ( आईक्यू ) निर्धारित करने की संभावना मिलती है। उदाहरण के लिए, यह माना जाता है कि साढ़े ग्यारह वर्ष की उम्र के बच्चों के लिए अंकों का औसत योग १२० होना चाहिए। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो भी बच्चा १२० अंक प्राप्त कर लेता है, उसकी मानसिक आयु साढ़े ग्यारह वर्ष है। बुद्धि-लब्धि का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाता है :
   बुद्धि-लब्धि ( IQ ) = ( मानसिक आयु ) * 100 / ( बच्चे की वास्तविक आयु )
यदि, उदाहरण के लिए, एक साढ़े दस साल की उम्र का और दूसरा चौदह साल का लड़का एक ही अंक ( 120 ) पाते हैं और फलस्वरूप पता चलता है कि दोनों की मानसिक आयु एक ही, साढ़े ग्यारह वर्ष की है, तो उनकी बुद्धि-लब्धि निम्नलिखित होगी :
पहले लड़के की बुद्धि-लब्धि = 11.5* 100 / 10.5 =109.5
दूसरे लड़के की बुद्धि-लब्धि = 11.5* 100 / 14 = 82.1
वहां के कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, बुद्धि-लब्धि योग्यताओं की, अथवा अधिक सटीक शब्दों में, अपरिवर्त्य ( immutable, inconvertible ) चहुंमुखी मानसिक प्रतिभा की परिमाणात्मक सूचक है, सामान्य बुद्धि है।

परंतु विज्ञानसम्मत विश्लेषण बताता है कि बुद्धि-लब्धि एक कपोल-कल्पना है। वस्तुतः, उपरोक्त क्रियाविधियां मनुष्य की बुद्धि को उजागर नहीं कर सकती, वे तो इस अथवा उस क्षेत्र में, यानि किसी क्षेत्र विशेष में केवल उसके ज्ञान के भंड़ार तथा प्रवीणता ( कौशल तथा आदतों ) को ही प्रकट करती हैं, जिन्हें जैसा कि हम पहले यहां पढ़ चुके है, योग्यताओं के साथ गड्डमड्ड नहीं किया जा सकता। परीक्षाएं, ज्ञान तथा आदतों के आत्मसात्करण के गत्यात्मक पहलुओं को, यानि योग्यताओं के सार की ओर ज़रा भी ध्यान नहीं देती। इसके अलावा, यह बात सर्वथा स्पष्ट है कि उन छात्रों के परीक्षा-फल सर्वोत्तम होते हैं, जो अध्यापकों अथवा मां-बाप द्वारा विशेष रूप से प्रशिक्षित किए जाते हैं, यानि जो साधन-संपन्न या अमीर घरानों के होते हैं। अतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आधारहीन बुद्धि-परीक्षाएं पूंजीवादी समाज के सत्ताधारी वर्गों के हाथों में सामाजिक भेदभाव का साधन बन जाती हैं ( उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश ग्रामर स्कूलों के अधिकांश छात्र आबादी की समृद्ध श्रेणियों से आते हैं )।

परंतु इस सबका अर्थ यह नहीं है कि योग्यताओं का परिमाणात्मक मूल्यांकन तथा माप असंभव है, कि भिन्न-भिन्न नैदानिक विधियों, परीक्षाओं तथा जांच-परख का उपयोग अवांछनीय होता है। योग्यताओं के स्तर की जानकारी प्राप्त करने का कार्यभार सदा की भांति अत्यंत महत्त्वपूर्ण बना हुआ है, जब उन बच्चों का पता लगाना होता है, जिनके लिए मस्तिष्क के विकास में जन्मजात दोषों के कारण सामान्य स्कूलों में पढ़ाई करना संभव नहीं होता, जब किन्हीं विशेष कार्यभारों वाले व्यवसायों या क्रियाकलापों के लिए चयन करना पड़ता है। ऐसे मामलों में न तो संक्षिप्त परीक्षाओं पर न परिमाणात्मक अर्थ में उनके फल व्यक्त करने पर कोई आपत्ति की जा सकती है। परीक्षाएं, जिनकी सहायता से योग्यता मापी जा सकती है, उसी सूरत में मान्यता पाने का अधिकार प्राप्त कर सकती हैं, जब वे विज्ञानसम्मत स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं, जब, सर्वप्रथम, परीक्षक के लिए यह स्पष्ट हो जाता है कि वह ज्ञान, आदतों और कौशल का नहीं, वरन् ठीक योग्यता की जांच-परख कर रहा है।

बुद्धि-परीक्षाओं के अवांछनीय उपयोग की आलोचना करते हुए एक प्रमुख मनोविज्ञानी ने लक्षित किया था कि अपने को सौंपे गए प्रश्नों को हल करने में छात्र की विफलता उसकी योग्यता के स्तर का सूचक कदापि नहीं हुआ करती ; इसका कारण, उदाहरण के लिए यह हो सकता है कि बच्चे में संबंधित ज्ञान तथा कौशल का अभाव हो और इस कारण प्रश्नों का स्वतंत्र रूप से आवश्यक समाधान करने में असमर्थ हो। बच्चे का मानसिक विकास स्वतःस्फूर्त ( spontaneous ) प्रक्रिया नहीं है, वह तो अध्यापन का, यानि वयस्कों के साथ सतत संप्रेषण ( communication ) का परिणाम होता है। अतः जो काम बच्चा स्वयं नहीं कर पाता, उसे वह किसी वयस्क की सहायता से कर सकता है। अतः वह उस काम को कल स्वतंत्र रूप से कर सकता है, जिसे वह आज नहीं कर पाता है। इस विचार को आधार बनाते हुए उन्होंने यह सुझाव रखा कि परीक्षक को एक नहीं, अपितु दो परीक्षाओं को अपने निष्कर्ष का आधार बनाना चाहिए। पहली परीक्षा बताएगी कि बच्चा सौंपे गये प्रश्नों को किस तरह हल करता है और दूसरी परीक्षा बताएगी कि वह उसे वयस्क की सहायता से किस तरह हल करता है। उनकी राय में, बच्चे की योग्यता के मूल्यांकन को परीक्षा में दिए गए प्रश्न के स्वतंत्र समाधान ( independent solution ) पर नहीं, अपितु स्वतंत्र समाधान तथा वयस्क की सहायता से समाधान में अंतर पर आधारित होना चाहिए। बच्चे की योग्यता के स्तर को केवल तभी अपर्याप्त माना जाना चाहिए, जब वह उन प्रश्नों को, जिन्हें उसके हमउम्र हल कर लेते हैं, न तो स्वतंत्र रूप से और न बड़ों की सहायता से हल कर पाता है। योग्यता के मूल्यांकन के इस तरीक़े को उन्होंने विकास के निकटतम क्षेत्र के निर्धारण की प्रणाली ( system to determine the closest area of development ) का नाम दिया था।

योग्यताएं मनुष्य की ठोस सक्रियता के बाहर अस्तित्वमान नहीं होतीं और वे अध्यापन तथा शिक्षा-दीक्षा की प्रक्रिया में विकसित होती हैं। अतः बच्चे की योग्यता निर्धारित करने का सबसे बढ़िया तरीक़ा यह है कि अध्यापन की प्रक्रिया के दौरान उसकी सफलताओं की गतिशीलता का पता लगाया जाए। बच्चे की योग्यता का सही-सही मूल्यांकन वयस्कों के निदेशन में नये ज्ञान तथा कौशल में पारगंत बनने में उसकी प्रगति से ही नहीं, अपितु इस बात से भी किया जा सकता है वह इस सहायता का किस हद तक उपयोग करता है ( कुछ बच्चे सहायता पाते हैं, फिर भी बहुर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं, दूसरे उन्हीं परिस्थितियों में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर लेते हैं )। यदि मनोवैज्ञानिक परीक्षाएं कड़ी विज्ञानसम्मत अपेक्षाओं के अनुसार तैयार की जाएं और मनुष्य के मानसिक विकास की सारभूत अवस्थाओं तथा ज्ञान और कौशल में पारंगत होने की उसकी गत्यात्मकता को ध्यान में रखती हों, तो वे प्रयोगों ( व्यवहार ) में निस्संदेह बहुत सहायक हो सकती हैं। परंतु इस मामले में भी परीक्षाओं को सदा व्यक्तित्व के अनुसंधान की अन्य विधियों के साथ मिलाकर उपयोग में लाया जाना चाहिए।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

1 टिप्पणियां:

jadibutishop ने कहा…

badhiya lekh...
http://jadibutishop.blogspot.in

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