हे मानवश्रेष्ठों,
कुछ समय पहले एक मानवश्रेष्ठ से उनकी कुछ समस्याओं पर एक संवाद स्थापित हुआ था। कुछ बिंदुओं पर अन्य मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण करने के उद्देश्य से, पिछली बार संवाद के कुछ अंश प्रस्तुत किए गए थे। इस बार भी उसी संवाद से कुछ और सामान्य अंश यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
कुछ समय पहले एक मानवश्रेष्ठ से उनकी कुछ समस्याओं पर एक संवाद स्थापित हुआ था। कुछ बिंदुओं पर अन्य मानवश्रेष्ठों का भी ध्यानाकर्षण करने के उद्देश्य से, पिछली बार संवाद के कुछ अंश प्रस्तुत किए गए थे। इस बार भी उसी संवाद से कुछ और सामान्य अंश यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
( संवाद में उन मानवश्रेष्ठ की बातों
को एकाध जगह अलग रंग में सिर्फ़ संक्षिप्त रूप में दिया जा रहा है, ताकि
बात का सिरा थोड़ा पकड़ में आ सके। बाकी जगह सिर्फ़ समय के कथनों के अंश है। कुछ जगह संपादन भी किया गया है अतः लय टूट सकती है। )
आजकल मैं कोई काम नहीं कर रहा हूं सिवाय आराम के.....सब कुछ रुका पड़ा है....बिलकुल भी कुछ नहीं कर रहा हूं.....
अभी कोई निष्कर्ष निकालने की अवस्था नहीं है। परंतु यह कहा जाना ही चाहिए कि जब अंतर्विरोध इतने हावी हो जाते हैं, कि कुछ राह नहीं सूझती, या यूं कहे, सूझी हुई राह या तय की गई सक्रियताएं भी जब बेमानी सी लगने लगती हैं, तो सिर्फ़ दो ही राह होती हैं : या तो व्यक्ति इन बेमानी सी क्रियाओं को यंत्रवत करता जाए या फिर कुछ ना करे। सामान्यतयः व्यक्ति इस दूसरी राह की ओर ज़्यादा प्रवृत्त होता है क्योंकि यह उसे अपनी मानसिकता के ज़्यादा अनुकूल लगती है, उसकी सोच को सिद्ध करती सी लगती है। परंतु यह बहुत ही गंभीर नशा पैदा करने वाली होती है, यह उसकी आदत का हिस्सा बनने लग सकती हैं। उसकी सक्रियता और सीमित होने लगती है, मानसिक घटाघोप और हावी होने लगता है, वह और अंतर्मुखी होने लगता है और फिर इसके जस्टिफ़िकेशन की प्रक्रिया भी साथ-साथ शुरू होती है, जो अंततः उसे एक निष्क्रिय प्राणी में बदलने लगती है, उसकी मनुष्यता खोने लगती है।
जाहिर है, भावी राह पहले विकल्प को चुनने में ही निकल सकती है, भले ही वहां यंत्रवत सी बेमानी सक्रियता ही क्यूं ना लग रही हो, उसका मतलब कुछ भी निकलता सा ना लग रहा हो। जब वह कुछ करने की तरफ़ प्रवृत्त रहेगा, तो हो सकता है कुछ मानी भी निकलने शुरू हों. जो भी तक उसमे मानसिक परिदृष्य में शामिल ही ना रहे हों, हो सकता है इसी सक्रियता से कुछ ऐसे रास्ते सूझें जहां कुछ मानी सा महसूस होने लगे। मनुष्य अपनी सक्रियता से ही अपनी आभा बना और बेहतर कर सकता है, निष्क्रियता तो इन्हें खोने की राह ही प्रशस्त करती है।
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ये जो वस्तुस्थितियां हमारे पास हैं, ये हैं। इनके अतीत के कारण और उनकी व्याख्याएं हमारे पास हैं। परंतु अतीत को बदला नहीं जा सकता, यह आप जानते ही हैं। जाहिर है परिवर्तनों और बदलावों की संभावना अभी वर्तमान में ही है, और इसी वर्तमान की सक्रियता में ही हमारे बेहतर भविष्य की संभावनाएं शामिल होती हैं।
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एक बात तो हुई होगी, जब हम इस तरह से अपने दिमाग़ की वस्तुस्थिति को अभिव्यक्त करते हैं, और वह भी ख़ासकर लिखित रूप में, एक अनोखा सा सुकून मिलता है। दिमाग़ से एक बड़ा बोझ सा उतरता सा लगता है। आप अपनी इस कहानी या कहें संक्षिप्त सी आत्मकथा को लिखने में ही काफ़ी मज़ा सा लिए होंगे, समस्या की बात करते करते ऐसा लगा होगा कि जैसे आप किसी और की समस्या पर बात कर रहे हैं, उससे दूर सा हो रहे हैं।
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आप मानसिक उद्वेलन में है, चिताओं में है, अनिर्णय की स्थितियों में है। समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करना चाहिए? कैसे करना चाहिए? जाहिर है कोई रास्ता नहीं सूझ पा रहा है। इसलिए जाहिरा तौर पर कुछ नहीं कर रहे हैं। और जब आदमी वस्तुगत रूप से कुछ नहीं कर पा रहा होता है, तो आत्मगत यानि मानसिक प्रक्रियाओं में होता है, सोचता है।
जब सोचता है, और यह साफ़ दिख रहा हो कि उसे अपनी आकांक्षाओं के विपरीत निर्णय लेने की वास्तविक परिस्थितियां मौजूद है, और उसे इन्हीं के अनुसार अनुकूलित होना होगा, यानि निर्णय क्या होना है, वस्तुगत रूप से क्या होना है, यह निश्चित सा होता है। तब उसकी सोच की दिशा और मानसिक दशा यही हो सकती है, कि वह कभी जुंझलाए, कभी अपने पर गुस्सा हो, कभी परिवेश पर हो, कभी अपनी स्थिति को विश्लेषित करे, कभी विद्रोह की सोचे, कभी अपनी स्थिति को जस्टीफ़ाई करे, कभी अपने को, होने वाले निश्चित निर्णय और कार्यवाहियों के लिए तैयार करे, आदि-आदि।
विद्रोह की भावना, अक्सर ऐसी ही परिस्थितियों में पैदा होती है और जब विद्रोह वस्तुगत रूप नहीं ले सकता हो, तो मनुष्य अपने आपको सामाजिक परिवेश के सामने शहीद की तरह पेश आने, सामाजिकता के लिए अपनी व्यक्तिगतता का बड़ा सा त्याग करने का सा मूल्यगत अहसास पाने के जरिए, वह अपने आत्म को, अपने अहम को संतुष्ट करने की भी कोशिश करता है। सामान्य लोग इसे ज़्यादा सामान्य तरीके से कर पा लेते हैं, विशेष लोग इसे विशेष तरीके से प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। आप यही सब सा कर रहे है।
आपने जो कुछ अध्ययन किया है, आपने जो सतही सी अंतर्दृष्टि पाई है, उसके जरिए आप अपनी इन परिस्थितियों से पैदा हुई वास्तविक भावानुभूतियों के यथासंभव विश्लेषण में लगे हैं, उनका उत्स ढूंढ़ रहे हैं। और यह सब भी इसलिए हो सकता है कि अभी आपको अपने व्यक्तित्व के नकारात्मक से लगते पहलुओ ( जिनके कि कारण आप निर्णय लेने और उस पर चलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं ) के कारणों का उत्स अपनी सामाजिक परिवेशीय स्थितियों में निकाल कर अपने आपको एक तसल्ली सी दे सकें, अपनी स्थिति और मानसिकता को जस्टीफ़ाई कर सकें, अपने अहम को इसकी जिम्मेदारियों से मुक्त कर सकें।
इसीलिए आप अपने द्वारा पढ़ी जा रही पुस्तक की ही भाषाई शब्दावली और पद्धति के अनुसार ही इन सबका उत्स, बचपन, अपराधबोध, इमोशनल सपोर्ट की कमी, आदि के हिसाब से ही देखने की कोशिश कर रहे हैं और इसका बहुत प्रभाव आप द्वारा प्रस्तुत अपने आत्मकथ्य में दिखाई देता है, जहां आप इन्हीं बिंदुओं के सापेक्ष अपने अतीत को खंगाल रहे हैं।
अपने आपको देखना, अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं को पहचानना, ताकि उनका समुचित संधान किया जा सके। उनके कारणो को समझना ताकि इस संधान में मदद हो सके, फिर इस संधान के साये में हम अपने आप में, अपनी सक्रियता में, अपनी परिस्थितियों में बदलाव कर सकें। ज़िंदगी से और बेहतर तरह से जूझ सकें, यह एक अलग बात है। और इन चीज़ों को उपरोक्त अस्थिर मानसिकता के जस्टिफ़िकेशन के लिए इस्तेमाल कर, अपनी अकर्मण्यता को बनाए रखना, यह अलग बात है। हालांकि शुरूआत इसी फ़ेज से होती है पर दोस्त हमे इसको ऊपर वाले फ़ेज तक ले आना है, वरना हम जैसे कि जैसे बने रहेंगे। किसी भी मानसिक प्रक्रिया का कोई खास मतलब नहीं, यदि वह ठोस वस्तुगत परिणाम देने में असमर्थ रहे।
यह थोड़ा सा अधिक ही कठोर विश्लेषण है, पर वास्तविकता से रूबरू होना बेहद आवश्यक है। क्योंकि रास्ते इसी से निकलेंगे। मानसिक प्रक्रिया को एक झटका जरूरी है, उसका अनुकूलित तारतम्य तोड़ने के लिए।
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ज़िदगी, मानसिक प्रलापों से नहीं चला करती। ज़िंदगी ठोस चीज़ है, और उसको ठोस आर्थिक आधार चाहिए। यह पहली और सबसे आवश्यक जरूरत है। आपके पास कुछ नया करने को अभी समय और मानसिकता, दोनों नहीं है। फिलहाल जो आप कर सकते हैं जिसकी काबिलियत आपके पास है, उसको ही अपने जीवनयापन का आधार बनाईये। इसको गंभीरता से लीजिए। यह आवश्यकता है, इसलिए इसे अभी अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरी करने का जरिया ना समझिए। इसे शुरू कीजिए, जैसा कि आपने कहा भी है। धीरे-धीरे कदम जमाइए, आय का जरिया स्थापित कीजिए, अपना एक आधार स्थापित कीजिए फिर आने वाला समय नये आयाम ले कर आ सकता है। आपने काफ़ी समय नष्ट कर लिया है।
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जब इतनी ज़िंदगी पिताजी के बलबूते, उन पर निरभरता के साथ गुजार ली है ( और ऐसा ही हुआ करता है, यह शर्म की इतनी बात नहीं। जितना कि यह कि आप इसे छोटा बता कर, अपनी राह बनाना चाह रहे हैं और अभी आपकी जिसकी सामर्थ्य भी नहीं है और फलतः कुछ कर भी ना रहे हैं ) तो इसी आधार पर अपने आगे के कदम उठाईये, और फिर जैसा कि आपने खु़द समझा और कहा है कि बाद में आपके पास अवसर होंगे, जब आपके पैर किसी एक जगह तो टिके होंगे कि आप अपने आधारों को बढ़ा सकें।
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अभी वही चल रहा है, यह इसलिए नहीं, वह इसलिए नहीं, कुलमिलाकर कुछ भी नहीं। यह अच्छी स्थिति नहीं है। समाज ऐसे अकर्मण्यवादियों से धीरे-धीरे पीछा छुड़ा लेता है, जब तक जुंबिशों की आस बाकी रहती हैं, वह फिर भी लगा रहता है।
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काश इच्छाएं करना ही पर्याप्त होता, काश कल्पनाएं ही पेट भर दिया करतीं। क्षमा कीजिएगा, आपने अपने गुरू जी, कुछ सीखा ही नहीं, सिर्फ़ पूजा करने से, विचार और गुण प्राप्त नहीं हो जाते। काश सभी को ऐसे प्रेरणास्रोत मिले होते, आपको सभी कुछ सहज सुलभ हो रहा है, आपके पिताजी की कृपा से, इसलिए आपको इनका मूल्य मालूम नहीं।
दुनिया में सबसे आसान काम होता है, अपने माता-पिता को गालियां देना। सबसे सोफ़्ट टार्गेट हैं, सबसे निकट भी, और इसलिए भी कि वे झेल भी जाते हैं। अधिकतर मां-बाप अपने पास उपलब्ध संसाधनों, परिस्थितियों और जैसी भी समझ है, उसके साथ अपने बच्चों को, उनके हिसाब से बेहतर या कहें श्रेष्ठ देने की कोशिश करते है।
अब ये परस्थितिगत अभिशप्तताएं है, जैसी भी हमारे पास है, ये है। पहले भी कहा था, अतीत और उसके प्रभावों को बदला नहीं जा सकता पर वर्तमान की जुंबिशों से प्रभावों को कम किया जा सकता है, आप अपना भविष्य जरूर बदल सकते हैं।
माता-पिता ने अपनी जैविक जिम्मेदारी निभाई, आप इसी का परिणाम हैं, वरना आप ही नहीं होते। जैसा बन पड़ा और आपकी बातें सुन कर लग रहा है काफ़ी बेहतर जीवन परिस्थितियां आपको उपलब्ध कराई हुई हैं। चलिए आपके हिसाब से वे नामुराद हैं यानि कि आप इतने समझदार और जिम्मेदार हो गये हैं कि अपने माता-पिता द्वारा प्रदत्त वस्तुस्थिति की आलोचना कर सकते है, क्या होना चाहिए यह समझ रखते हैं, कैसा होना चाहिये था यह जानते हैं।
तो फिर आप ही अपनी जिम्मेदारियां निभाईए। जब आप यह जानते हैं कि एक पिता को कैसा होना चाहिए तो आप यह भी जानते-समझते होंगे कि एक अच्छे बेटे को कैसा होना चाहिए। उसे अपने माता-पिता के साथ कैसे भाव रखने चाहिए, कैसा व्यवहार करना चाहिए, अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियां क्या होती हैं, उन्हें कैसे निभाया जाता है, उसकी जैविक और सामाजिक जिम्मेदारियां क्या है, बगैरा-बगैरा।
अपनी नाकामियों और अपनी अकर्मण्यता के लिए किसी और की तरफ़ उंगली उठाना सबसे आसान कार्य है, आप इसे शौक से करते रह सकते हैं आखिर अभी भी पिताजी की कृपा से बढ़िया ज़िंदगी चल ही रही है या फिर व्यवहारिक रास्ते निकालकर, कुछ करना शुरू कर सकते हैं और अपनी ज़िंदगी को आनंद से भर सकते हैं।
अभी आपका चिंतन, मूलतः इस दिशा में है कि वस्तुस्थिति का जिम्मेदारी किस पर थोपी जाए। वस्तुस्थिति के कारकों की समझ पैदा करना इसलिए आवश्यक होता है कि ताकि उसे बदलने की संभावनाएं तलाशी जा सकें। आपको जरूरत चिंतन को यह दिशा देने की है कि वस्तुस्थिति जैसी भी है उसमें से क्या राहें निकाली जाए और जैसा चाहते हैं, उन परिस्थितियों का निर्माण कैसे किया जाए।
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दो टूक निर्णय लीजिए, उनके हिसाब से चलिए पूरी ईमानदारी से। आगे का आगे देखा जाएगा, जैसे अभी राह निकाल रहे हैं वैसे ही बाद में भी कोई बेहतर उपलब्ध राह निकाल ली जाएंगी। वगरना जैसे अभी कुछ नहीं कर रहे हैं, कभी भी कुछ भी नहीं कर पाएंगे।
अनिर्णय की स्थिति बेहद खतरनाक होती है। लीजिए, कैसा भी निर्णय लीजिए। अगर आने वाले समय में निर्णय गलत भी ठहरता है, तो कोई बात नहीं उसे दुरस्त करेंगे, नये निर्णय करेंगे और हम देखेंगे के हमारे निर्णय बेहतर होते जा रहे हैं। असफ़लता के ड़र से, प्रयासों को, सक्रियता को बंद नहीं किया जा सकता। लड़ेंगे, जूझेंगे। ज़िंदगी से, जितना आता है, जैसी परिस्थितियां है उसी के साथ संघर्ष करेंगे। जीत की राह इन्हीं से निकलेगी।
आजकल मैं कोई काम नहीं कर रहा हूं सिवाय आराम के.....सब कुछ रुका पड़ा है....बिलकुल भी कुछ नहीं कर रहा हूं.....
अभी कोई निष्कर्ष निकालने की अवस्था नहीं है। परंतु यह कहा जाना ही चाहिए कि जब अंतर्विरोध इतने हावी हो जाते हैं, कि कुछ राह नहीं सूझती, या यूं कहे, सूझी हुई राह या तय की गई सक्रियताएं भी जब बेमानी सी लगने लगती हैं, तो सिर्फ़ दो ही राह होती हैं : या तो व्यक्ति इन बेमानी सी क्रियाओं को यंत्रवत करता जाए या फिर कुछ ना करे। सामान्यतयः व्यक्ति इस दूसरी राह की ओर ज़्यादा प्रवृत्त होता है क्योंकि यह उसे अपनी मानसिकता के ज़्यादा अनुकूल लगती है, उसकी सोच को सिद्ध करती सी लगती है। परंतु यह बहुत ही गंभीर नशा पैदा करने वाली होती है, यह उसकी आदत का हिस्सा बनने लग सकती हैं। उसकी सक्रियता और सीमित होने लगती है, मानसिक घटाघोप और हावी होने लगता है, वह और अंतर्मुखी होने लगता है और फिर इसके जस्टिफ़िकेशन की प्रक्रिया भी साथ-साथ शुरू होती है, जो अंततः उसे एक निष्क्रिय प्राणी में बदलने लगती है, उसकी मनुष्यता खोने लगती है।
जाहिर है, भावी राह पहले विकल्प को चुनने में ही निकल सकती है, भले ही वहां यंत्रवत सी बेमानी सक्रियता ही क्यूं ना लग रही हो, उसका मतलब कुछ भी निकलता सा ना लग रहा हो। जब वह कुछ करने की तरफ़ प्रवृत्त रहेगा, तो हो सकता है कुछ मानी भी निकलने शुरू हों. जो भी तक उसमे मानसिक परिदृष्य में शामिल ही ना रहे हों, हो सकता है इसी सक्रियता से कुछ ऐसे रास्ते सूझें जहां कुछ मानी सा महसूस होने लगे। मनुष्य अपनी सक्रियता से ही अपनी आभा बना और बेहतर कर सकता है, निष्क्रियता तो इन्हें खोने की राह ही प्रशस्त करती है।
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ये जो वस्तुस्थितियां हमारे पास हैं, ये हैं। इनके अतीत के कारण और उनकी व्याख्याएं हमारे पास हैं। परंतु अतीत को बदला नहीं जा सकता, यह आप जानते ही हैं। जाहिर है परिवर्तनों और बदलावों की संभावना अभी वर्तमान में ही है, और इसी वर्तमान की सक्रियता में ही हमारे बेहतर भविष्य की संभावनाएं शामिल होती हैं।
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एक बात तो हुई होगी, जब हम इस तरह से अपने दिमाग़ की वस्तुस्थिति को अभिव्यक्त करते हैं, और वह भी ख़ासकर लिखित रूप में, एक अनोखा सा सुकून मिलता है। दिमाग़ से एक बड़ा बोझ सा उतरता सा लगता है। आप अपनी इस कहानी या कहें संक्षिप्त सी आत्मकथा को लिखने में ही काफ़ी मज़ा सा लिए होंगे, समस्या की बात करते करते ऐसा लगा होगा कि जैसे आप किसी और की समस्या पर बात कर रहे हैं, उससे दूर सा हो रहे हैं।
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आप मानसिक उद्वेलन में है, चिताओं में है, अनिर्णय की स्थितियों में है। समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करना चाहिए? कैसे करना चाहिए? जाहिर है कोई रास्ता नहीं सूझ पा रहा है। इसलिए जाहिरा तौर पर कुछ नहीं कर रहे हैं। और जब आदमी वस्तुगत रूप से कुछ नहीं कर पा रहा होता है, तो आत्मगत यानि मानसिक प्रक्रियाओं में होता है, सोचता है।
जब सोचता है, और यह साफ़ दिख रहा हो कि उसे अपनी आकांक्षाओं के विपरीत निर्णय लेने की वास्तविक परिस्थितियां मौजूद है, और उसे इन्हीं के अनुसार अनुकूलित होना होगा, यानि निर्णय क्या होना है, वस्तुगत रूप से क्या होना है, यह निश्चित सा होता है। तब उसकी सोच की दिशा और मानसिक दशा यही हो सकती है, कि वह कभी जुंझलाए, कभी अपने पर गुस्सा हो, कभी परिवेश पर हो, कभी अपनी स्थिति को विश्लेषित करे, कभी विद्रोह की सोचे, कभी अपनी स्थिति को जस्टीफ़ाई करे, कभी अपने को, होने वाले निश्चित निर्णय और कार्यवाहियों के लिए तैयार करे, आदि-आदि।
विद्रोह की भावना, अक्सर ऐसी ही परिस्थितियों में पैदा होती है और जब विद्रोह वस्तुगत रूप नहीं ले सकता हो, तो मनुष्य अपने आपको सामाजिक परिवेश के सामने शहीद की तरह पेश आने, सामाजिकता के लिए अपनी व्यक्तिगतता का बड़ा सा त्याग करने का सा मूल्यगत अहसास पाने के जरिए, वह अपने आत्म को, अपने अहम को संतुष्ट करने की भी कोशिश करता है। सामान्य लोग इसे ज़्यादा सामान्य तरीके से कर पा लेते हैं, विशेष लोग इसे विशेष तरीके से प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। आप यही सब सा कर रहे है।
आपने जो कुछ अध्ययन किया है, आपने जो सतही सी अंतर्दृष्टि पाई है, उसके जरिए आप अपनी इन परिस्थितियों से पैदा हुई वास्तविक भावानुभूतियों के यथासंभव विश्लेषण में लगे हैं, उनका उत्स ढूंढ़ रहे हैं। और यह सब भी इसलिए हो सकता है कि अभी आपको अपने व्यक्तित्व के नकारात्मक से लगते पहलुओ ( जिनके कि कारण आप निर्णय लेने और उस पर चलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं ) के कारणों का उत्स अपनी सामाजिक परिवेशीय स्थितियों में निकाल कर अपने आपको एक तसल्ली सी दे सकें, अपनी स्थिति और मानसिकता को जस्टीफ़ाई कर सकें, अपने अहम को इसकी जिम्मेदारियों से मुक्त कर सकें।
इसीलिए आप अपने द्वारा पढ़ी जा रही पुस्तक की ही भाषाई शब्दावली और पद्धति के अनुसार ही इन सबका उत्स, बचपन, अपराधबोध, इमोशनल सपोर्ट की कमी, आदि के हिसाब से ही देखने की कोशिश कर रहे हैं और इसका बहुत प्रभाव आप द्वारा प्रस्तुत अपने आत्मकथ्य में दिखाई देता है, जहां आप इन्हीं बिंदुओं के सापेक्ष अपने अतीत को खंगाल रहे हैं।
अपने आपको देखना, अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं को पहचानना, ताकि उनका समुचित संधान किया जा सके। उनके कारणो को समझना ताकि इस संधान में मदद हो सके, फिर इस संधान के साये में हम अपने आप में, अपनी सक्रियता में, अपनी परिस्थितियों में बदलाव कर सकें। ज़िंदगी से और बेहतर तरह से जूझ सकें, यह एक अलग बात है। और इन चीज़ों को उपरोक्त अस्थिर मानसिकता के जस्टिफ़िकेशन के लिए इस्तेमाल कर, अपनी अकर्मण्यता को बनाए रखना, यह अलग बात है। हालांकि शुरूआत इसी फ़ेज से होती है पर दोस्त हमे इसको ऊपर वाले फ़ेज तक ले आना है, वरना हम जैसे कि जैसे बने रहेंगे। किसी भी मानसिक प्रक्रिया का कोई खास मतलब नहीं, यदि वह ठोस वस्तुगत परिणाम देने में असमर्थ रहे।
यह थोड़ा सा अधिक ही कठोर विश्लेषण है, पर वास्तविकता से रूबरू होना बेहद आवश्यक है। क्योंकि रास्ते इसी से निकलेंगे। मानसिक प्रक्रिया को एक झटका जरूरी है, उसका अनुकूलित तारतम्य तोड़ने के लिए।
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ज़िदगी, मानसिक प्रलापों से नहीं चला करती। ज़िंदगी ठोस चीज़ है, और उसको ठोस आर्थिक आधार चाहिए। यह पहली और सबसे आवश्यक जरूरत है। आपके पास कुछ नया करने को अभी समय और मानसिकता, दोनों नहीं है। फिलहाल जो आप कर सकते हैं जिसकी काबिलियत आपके पास है, उसको ही अपने जीवनयापन का आधार बनाईये। इसको गंभीरता से लीजिए। यह आवश्यकता है, इसलिए इसे अभी अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरी करने का जरिया ना समझिए। इसे शुरू कीजिए, जैसा कि आपने कहा भी है। धीरे-धीरे कदम जमाइए, आय का जरिया स्थापित कीजिए, अपना एक आधार स्थापित कीजिए फिर आने वाला समय नये आयाम ले कर आ सकता है। आपने काफ़ी समय नष्ट कर लिया है।
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जब इतनी ज़िंदगी पिताजी के बलबूते, उन पर निरभरता के साथ गुजार ली है ( और ऐसा ही हुआ करता है, यह शर्म की इतनी बात नहीं। जितना कि यह कि आप इसे छोटा बता कर, अपनी राह बनाना चाह रहे हैं और अभी आपकी जिसकी सामर्थ्य भी नहीं है और फलतः कुछ कर भी ना रहे हैं ) तो इसी आधार पर अपने आगे के कदम उठाईये, और फिर जैसा कि आपने खु़द समझा और कहा है कि बाद में आपके पास अवसर होंगे, जब आपके पैर किसी एक जगह तो टिके होंगे कि आप अपने आधारों को बढ़ा सकें।
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अभी वही चल रहा है, यह इसलिए नहीं, वह इसलिए नहीं, कुलमिलाकर कुछ भी नहीं। यह अच्छी स्थिति नहीं है। समाज ऐसे अकर्मण्यवादियों से धीरे-धीरे पीछा छुड़ा लेता है, जब तक जुंबिशों की आस बाकी रहती हैं, वह फिर भी लगा रहता है।
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काश इच्छाएं करना ही पर्याप्त होता, काश कल्पनाएं ही पेट भर दिया करतीं। क्षमा कीजिएगा, आपने अपने गुरू जी, कुछ सीखा ही नहीं, सिर्फ़ पूजा करने से, विचार और गुण प्राप्त नहीं हो जाते। काश सभी को ऐसे प्रेरणास्रोत मिले होते, आपको सभी कुछ सहज सुलभ हो रहा है, आपके पिताजी की कृपा से, इसलिए आपको इनका मूल्य मालूम नहीं।
दुनिया में सबसे आसान काम होता है, अपने माता-पिता को गालियां देना। सबसे सोफ़्ट टार्गेट हैं, सबसे निकट भी, और इसलिए भी कि वे झेल भी जाते हैं। अधिकतर मां-बाप अपने पास उपलब्ध संसाधनों, परिस्थितियों और जैसी भी समझ है, उसके साथ अपने बच्चों को, उनके हिसाब से बेहतर या कहें श्रेष्ठ देने की कोशिश करते है।
अब ये परस्थितिगत अभिशप्तताएं है, जैसी भी हमारे पास है, ये है। पहले भी कहा था, अतीत और उसके प्रभावों को बदला नहीं जा सकता पर वर्तमान की जुंबिशों से प्रभावों को कम किया जा सकता है, आप अपना भविष्य जरूर बदल सकते हैं।
माता-पिता ने अपनी जैविक जिम्मेदारी निभाई, आप इसी का परिणाम हैं, वरना आप ही नहीं होते। जैसा बन पड़ा और आपकी बातें सुन कर लग रहा है काफ़ी बेहतर जीवन परिस्थितियां आपको उपलब्ध कराई हुई हैं। चलिए आपके हिसाब से वे नामुराद हैं यानि कि आप इतने समझदार और जिम्मेदार हो गये हैं कि अपने माता-पिता द्वारा प्रदत्त वस्तुस्थिति की आलोचना कर सकते है, क्या होना चाहिए यह समझ रखते हैं, कैसा होना चाहिये था यह जानते हैं।
तो फिर आप ही अपनी जिम्मेदारियां निभाईए। जब आप यह जानते हैं कि एक पिता को कैसा होना चाहिए तो आप यह भी जानते-समझते होंगे कि एक अच्छे बेटे को कैसा होना चाहिए। उसे अपने माता-पिता के साथ कैसे भाव रखने चाहिए, कैसा व्यवहार करना चाहिए, अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियां क्या होती हैं, उन्हें कैसे निभाया जाता है, उसकी जैविक और सामाजिक जिम्मेदारियां क्या है, बगैरा-बगैरा।
अपनी नाकामियों और अपनी अकर्मण्यता के लिए किसी और की तरफ़ उंगली उठाना सबसे आसान कार्य है, आप इसे शौक से करते रह सकते हैं आखिर अभी भी पिताजी की कृपा से बढ़िया ज़िंदगी चल ही रही है या फिर व्यवहारिक रास्ते निकालकर, कुछ करना शुरू कर सकते हैं और अपनी ज़िंदगी को आनंद से भर सकते हैं।
अभी आपका चिंतन, मूलतः इस दिशा में है कि वस्तुस्थिति का जिम्मेदारी किस पर थोपी जाए। वस्तुस्थिति के कारकों की समझ पैदा करना इसलिए आवश्यक होता है कि ताकि उसे बदलने की संभावनाएं तलाशी जा सकें। आपको जरूरत चिंतन को यह दिशा देने की है कि वस्तुस्थिति जैसी भी है उसमें से क्या राहें निकाली जाए और जैसा चाहते हैं, उन परिस्थितियों का निर्माण कैसे किया जाए।
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दो टूक निर्णय लीजिए, उनके हिसाब से चलिए पूरी ईमानदारी से। आगे का आगे देखा जाएगा, जैसे अभी राह निकाल रहे हैं वैसे ही बाद में भी कोई बेहतर उपलब्ध राह निकाल ली जाएंगी। वगरना जैसे अभी कुछ नहीं कर रहे हैं, कभी भी कुछ भी नहीं कर पाएंगे।
अनिर्णय की स्थिति बेहद खतरनाक होती है। लीजिए, कैसा भी निर्णय लीजिए। अगर आने वाले समय में निर्णय गलत भी ठहरता है, तो कोई बात नहीं उसे दुरस्त करेंगे, नये निर्णय करेंगे और हम देखेंगे के हमारे निर्णय बेहतर होते जा रहे हैं। असफ़लता के ड़र से, प्रयासों को, सक्रियता को बंद नहीं किया जा सकता। लड़ेंगे, जूझेंगे। ज़िंदगी से, जितना आता है, जैसी परिस्थितियां है उसी के साथ संघर्ष करेंगे। जीत की राह इन्हीं से निकलेगी।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
4 टिप्पणियां:
असफ़लता के ड़र से, प्रयासों को, सक्रियता को बंद नहीं किया जा सकता। ...बहुत सशक्त विचार आभार..
दो टूक निर्णय लीजिए, उनके हिसाब से चलिए पूरी ईमानदारी से। आगे का आगे देखा जाएगा, जैसे अभी राह निकाल रहे हैं वैसे ही बाद में भी कोई बेहतर उपलब्ध राह निकाल ली जाएंगी...
बहुत अच्छी प्रेरणात्मक पोस्ट। आभार।
सही नसीहत.
प्रलाप मौखिक हो तो आस पास वालों का जीवन भी नहीं चल पाता.
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।