हे मानवश्रेष्ठों,
अतार्किक आधारों से तार्किक पुनर्रचना संभव नहीं
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
अतार्किक आधारों से तार्किक पुनर्रचना संभव नहीं
विकासवाद के आधार पर सोचें तो हम अपनी भाषा के लिए क्यों लड़ते हैं कि विदेशी भाषा हम नहीं थोपेंगे।....तो क्या हम पश्चिमी प्रभाव में मैकाले को सही ठहरा दें? अगर इन चीजों के लिए राष्ट्रवाद शब्द इस्तेमाल करता है तो बुरा क्या है?
मैकाले
की शिक्षापद्धति की एक प्रवृति अंग्रेजों के लिए क्लर्क पैदा करने के लिए
लक्षित थी। यह एक वास्तविकता है, किसी भी प्रभाव से देखें। मैकाले से
मुक्ति पाने, और शिक्षा-पद्धतियों को स्वतंत्रचेता वैज्ञानिक मस्तिष्क
पैदा करने की ओर लक्षित होना चाहिए। पर जैसा कि पहले था, सत्ता अपने आपको
बनाए रखने के लिए गुलाम मानसिकता और मस्तिष्क ही पैदा करते रहना चाहती है,
अभी भी वही है, आज की सामंती मानसिकता वाली पूंजीवादी सत्ताएं भी यही
चाहती हैं। स्वतंत्रचेता मस्तिष्क उनकी सत्ताओं को उखाड़ फैंकने के लिए
लामबंद हो सकते हैं। इसलिए वे उन्हीं उपविवेशवादी, साम्राज्यवादी
पद्धतियों को बनाए रखना चाहते हैं। समाज में आमूल-चूल परिवर्तन करना ही
नहीं चाहते।
इसका मतलब यह कि सत्ता-व्यवस्था में परिवर्तन लाए
बिना, एक ऐसी जनपक्षधर सत्ता के अस्तित्व में आए बिना इन राजनैतिक और
सामाजिक आमूल-चूल परिवर्तनों को वाकई में कर पाना संभव नहीं है। पूरी
व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन अपेक्षित है।
पश्चिमी प्रभाव का
मतलब, क्या साम्राज्यवादी मानसिकता में ही देखा जाना चाहिए। हमारे वर्तमान
का अधिकतर पश्चिमी वैज्ञानिक और वस्तुगत दृष्टिकोण की ही देन है। जरूरत
इसके उपनिवेशवादी तथा साम्राज्यवादी रवैये को बाहर निकालने की, गुलाम
मानसिकता पैदा करने वाली पद्धतियों से मुक्ति पाने की है। समग्र को ही
पश्चिमी प्रभाव कहकर नकारा नहीं जा सकता।
आप कल्पना कीजिए,
लोकतांत्रिक समानता स्वतंत्रता के मूल्यों को, तकनीकी-वैज्ञानिक विकास को,
रूढ़ियो और परंपराओं के विरोध को, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों आदि को निकाल
फैंकिए, हम हज़ारों साल पहले वाली सामंतवादी सामाजिक संरचना में पहुंच
जाएंगे, जहां धर्म-आधारित बर्बर राज्य अस्तित्व में थे, वर्ण-व्यवस्था
अपने चरम पर थी, छुआछूत और अस्पृश्यता का बोलबाला था, जीवनीय और चिकित्सीय
पद्धतियां अविकसित थीं, आदि-आदि।
गर्व
नहीं करने पग-पग पर लोगों में हीनता की भावना आ सकती है और इस तरह की
भावनाओं ने ही तो देश की आजादी में लाखों लोग झोंक कर शहीद हुए और महान
कहलाये।
यह कोई बेहतर तर्क नहीं है, हीनता की भावना को कम
करने या रोकने के लिए कोई भी समाज या व्यक्ति अपने लिए श्रेष्ठताबोध के
अवास्तविक आधार स्थापित करले। ऐसे अतार्किक. असत्य,और असहज श्रेष्ठताबोध
से हम किस तरह से समाज की एक तार्किक, सहज और वास्तविक पुनर्रचना कर सकते
हैं।
इसीलिए हमने कहा था कि इतिहास और परंपरा के वस्तुगत और
निरपेक्ष अध्ययन के पश्चात, वास्तविकताओं से दोचार होने के बावज़ूद हमारे
पास ऐसी कई चीज़ें बचेंगी जो हमें एक वास्तविक गर्व का बोध देने वाली
होंगी। नहीं भी हो, तो ना हो, क्या श्रेष्ठ को ही एक सम्माननीय जीवन जीने
का अधिकार मिलेगा। हम श्रेष्ठता की उत्तरजीविता के प्राकृतिक सिद्धांतों
को अपनाएंगे या मानवसमाज के मानवीय मूल्यों के आधार पर हर किसी को सम्मान
से जीने के अवसर उपलब्ध कराना चाहते हैं।
हमारे श्रेष्ठ होने से य़ा
नहीं होने से, हमारी अस्मिता, हमारे सम्मानपूर्ण जीवन, हमारी समानता और
स्वतंत्रता के हमारे अधिकार कहीं कम या ज़्यादा नहीं हो सकते। हमारी ही
क्या, पूरे विश्व में भी किसी भी देश, समाज या समूह के भी नहीं हो सकते।
सभी मानवो को ये अधिकार हैं, और उन्हें पाना सभी का कर्तव्य। इसलिए इस
संघर्ष को जातीय, भाषिक, धार्मिक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय श्रेष्ठताबोधों की
सीमाओं से मुक्त होना ही होगा जो मानव-मानव में विरोध, अंतर्विरोध और
अलगाव पैदा करते हैं। राष्ट्रीय सीमाओं में जातीय, भाषिक, धार्मिक,
क्षेत्रीय आदि श्रेष्ठताबोधों से और अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं में राष्ट्रीय
श्रेष्ठताबोधों से निजात पानी होगी।
हमारी इसी राष्ट्रीय चेतना का
विकास, अंग्रेजों के उपनिवेश के विरोध और उससे मुक्ति पाने की प्रक्रियाओं
में हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे राष्ट्र को इन विरोधों से उठाकर एक
राष्ट्रीय चेतना के अंतर्गत लाना जरूरी था। इस राष्ट्रीय चेतना का भी
क्रमिक विकास हुआ था। वहां भी कई अलग-अलग धाराएं अस्तित्व में आई थीं,
अलग-अलग भी बची रही और उनका समन्वय भी हुआ। शुरुआत धार्मिक मुद्दों के
आसपास हुई तो अंततः धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय चेतना का भी निर्माण भी हुआ।
इसके
लिए कई तरह की अवास्तविक श्रेष्ठताबोधों की रचना भी की गई। इन-सबके
सह-अस्तित्व के साथ तात्कालीन परिस्थितियों में इनके अंतर्विरोध भी चलते
रहे। धार्मिक राष्ट्रीय चेतना के द्विध्रुवीय उभार के कारण ही देश का
विभाजन भी ऐतिहासिक सत्य बना। भाषाई राष्ट्रीय चेतना के अंतर्विरोध दक्षिण
में हिंदी-विरोधी आंदोलनों में देखने को मिले।
लाखों लोग शहीद हुए,
आज़ादी मिली। अवास्तविक आधारों पर मिली आज़ादी कितनी अवास्तविक थी, यह अब
काफ़ी लोगों को समझ में आ रहा है। तो हमें वास्तविक श्रेष्ठताबोधों और
मानवीय मूल्यों के आधारों वाली राष्ट्रीय चेतना की परंपरा को समझना चाहिए,
( क्रांतिकारी समूहों में विकसित हुई समझदारी को देखना चाहिए, जिनकी
परिणति भगतसिंह के यहां देखी जा सकती है ), उनकी परंपरा से जुडना चाहिए,
उसका और विकास करना चाहिए, और अधूरे लक्ष्यों यथा मानव द्वारा मानव के
शोषण और राष्ट्र द्वारा राष्ट्र के शोषण से मुक्ति के लक्ष्यों से अपने
आपको जोड़ना चाहिए।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
1 टिप्पणियां:
प्रस्तुत लेख ज्ञानवर्धक है और विमर्शन की अपार संभवना से लबालब है ...आपको बधाई
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