शनिवार, 15 दिसंबर 2012

हिप्नोटिज़्म और होम्योपैथी

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



हिप्नोटिज़्म और होम्योपैथी

पहले जानना चाहता हूँ कि ये हिप्नोटिज्म क्या है और इसके लाभ क्या हैं? मुझे तो ये कुछ अजब और चमत्कारी किस्म का लगता है क्योंकि कोवूर सहित तर्कशील सोसाइटी हरियाणा और पंजाब के लोगों की किताबों में बहुत से मानसिक रोगों खासकर भूत आदि का वर्णन मिलता है जिन्हें वे हिप्नोटिज्म से ठीक करते हैं। ये कैसे सम्भव है? क्या इसका लाभ इतना है कि व्यक्ति अपने पर और  कुछ समस्याओं में दूसरों की सहायता कर सकता है? अगर हाँ तो कैसे? क्या इसे सीखना होता है और कैसे होगा ये? बार-बार पढ़ने से इसके बारे में सवाल करने की इच्छा हुई इसलिए पूछा।

हमें इसके बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। पर यह तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपना कर जाना ही जा सकता है कि प्राकृतिक नियमों से परे के चमत्कारों के दावे खोखले होते हैं। सम्मोहन ( हिप्नोटिज़्म ) की अवधारणा, जैसा कि चमत्कारी रूप में इसे प्रचारित किया जाता है, सभव नहीं है। हां, दिमाग़ की कार्यपद्धतियों की अपनी सीमाएं हैं और इसे जानकर दिमाग़ को बखूबी भ्रमित किया जा सकता है। इसी का फायदा उठाकर इससे हो सकता है कुछ सकारात्मक क्रियाएं भी संपन्न की जा सकती हैं। पर यह भ्रम ऐसा भी नहीं होता, जैसा कि समझा जाता है या बताया जाता है कि कोई व्यक्ति कुछ रहस्यमयी हरकतें करके किसी दूसरे की चेतना पर अपना संपूर्ण नियंत्रण स्थापित करले कि वह उसके निर्देशानुसार कार्य करने को मजबूर हो जाए।

सम्मोहन इसके शाब्दिक अर्थ में ही अधिक उचित जान पड़ता है। यानि कि किसी व्यक्ति को, दूसरे व्यक्ति के गुण, उसकी सुंदरता, उसका व्यक्तित्व, उसका ज्ञान इतना प्रभावित करले कि यह कहा जा सके कि उसने मुझे मोह लिया है, मोहित कर लिया है।

अविकसित, अपरिपक्व चेतनाओं को, किसी विशेष लक्ष्यों या सिद्धांतों के लिए, उसके विश्वासों से, उसकी आस्थाओं से, उसके अज्ञान का फ़ायदा उठाते हुए अनुकूलित कर लेना भी सम्मोहन की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसी तरह के सम्मोहित करने वाले प्रभावों और कार्यवाहियों से ही अंधराष्ट्रवादी, धार्मिक कट्टरता, आतंकवाद जैसी मानवविरोधी कार्यवाहियों के लिए किसी को उकसाया या तैयार किया जा सकता है। शायद यही सम्मोहन है।

किसी मानसिक अपरिपक्व और अस्थिर व्यक्ति को, मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग के जरिए जिस तरह से विकसित और स्थिर करने की कोशिश की जाती है, यह भी एक तरह का सम्मोहन ही है। अपने से अधिक जानकार से लगते, चमत्कारी से लगते व्यक्ति के सामने, या अपनी समस्याओं से मुक्ति की संभावनाओं के चमत्कारों के मद्देनज़र, अक्सर सापेक्षतः अपरिपक्व व्यक्तियों को मानसिक और यदि यह असर अधिक गहरा गया हो तो शारीरिक समर्पण करते हुए देखा जा सकता है। धार्मिक और योगी बाबाओं के यहां जुटती और मरती भीड़ में क्या यही सम्मोहन का मनोविज्ञान नहीं काम करता है।

आगे आप ख़ुद दिमाग़ लड़ाएं, इस पर और जानें।

एक जिज्ञासा है, लेकिन विषय से बाहर। होमियोपैथी को अवैज्ञानिक और झूठा कहा जाता है। इसका सत्य क्या है?…प्रतीक्षारत आपके दिशा-निर्देश के लिए।

फिलहाल के विषय से बाहर की जिज्ञासा को अभी छोड़ ही दिया जाए तो ठीक रहेगा। यह तो कहा ही जा सकता है कि चीज़ों को समझने के लिए उनकी ऐतिहासिकता को ध्यान में रखा जाना अत्यावश्यक होता है। यानि उनके कालखण्ड़ और उस काल की सामान्य अभिलाक्षणिकताओं के साथ ही उनका विश्लेषण और संश्लेषण किया जाना चाहिए।

अब आप खु़द इसे समझने की कोशिश कर सकते हैं कि होम्योपैथी पद्धति का काल क्या था, उस वक़्त मनुष्य के ज्ञान और समझ की अवस्थाएं क्या थीं, विज्ञान के विकास का आलम क्या था। यानि कि किसी काल खण्ड़ की उपलब्धियों में उतनी ही वैज्ञानिकता हो सकती है जितना कि उस वक़्त के विज्ञान का स्तर था। लगता है यह इशारा काफ़ी है।

जहां तक उन उपलब्धियों से समस्याओं के निस्तारण की बात है, तो जिन सामान्य समस्याओं का बखूबी निस्तारण उनसे उस कालखण्ड़ में किया जा सकता था, यदि उस जैसी ही सामान्य समस्याएं आधुनिक कालखण्ड़ में भी हैं तो उनका निस्तारण अभी भी उन्हीं के ज़रिए भी किया ही जा सकता है। व्यावहारिक प्रभाव और संतुष्टि का स्तर उनकी आगे की उपयोगिता या प्रांसगिकता को तय कर ही देगा। कहने या मानने के लिए भले ही कुछ भी हो, परंतु वास्तविक दैनंदिनी जीवन-व्यवहार में तो निश्चित ही इसका असर दिखेगा।

होमियोपैथी या अन्य चिकित्सा विधियों में ऐसी दवाएँ क्यों हैं जो असहज लक्षणों को दूर करने में सहायक बताई जाती हैं। खासकर होमियोपैथी में ऐसी दवाएँ बताई जा रही हैं। उन्हें हम क्या समझें। जैसे वह भीड़ वाली असहजता के लिए भी वहाँ उपाय बताए जाते हैं। ऐसी दवाएँ कारगर नहीं होतीं? माजरा समझ नहीं आता। कुछ बताइए।

होमियोपैथी पर शायद हम पहले भी कुछ कह चुके हैं। ये पद्धतियां भी अपने तात्कालिक ज्ञान और सीमाओं के अंतर्गत मनुष्य की व्याधियों से पार पाने की कोशिश कर रही थीं, और अपनी तात्कालिकता में उन्होंने कई सामान्य चीज़ों के लिए कारगर समाधान प्रस्तुत भी किए। व्याधियां यदि वैसी ही हैं तो उसी तरह के समाधान ये अभी भी प्रस्तुत करेंगी ही, इसमें हर्ज़ क्या है। यदि नहीं कर पाती हैं तो मनुष्य वैकल्पिक रास्ते भी तलाशता ही है।

असहज लक्षणो के लिए, चूंकि ये वास्तविकताओं की सही पहचान करवा पाने में असक्षम होते हैं, अधिकतर मानसिक अपरिपक्वताओं से संबंधित होते हैं, रहस्यमयी से हो उठते हैं, अक्सर इनके मानसिक सलाहिक उपचारों से समाधान की कोशिशे की जानी चाहिए। कई चीज़ें समय के साथ, मानसिक परिपक्वताओं और समझ के साथ, परिस्थितियों से निपटारे के साथ स्वतः समाप्त हो जाती है, पर इस दौर के लिए मानसिकतः अपरिपक्व मनुष्य को एक मानसिक सहारे की जरूरत होती है। ऐसी ही परिस्थितियों में इस तरह की कई दवाएं कारगर साबित होती दिखती हैं, कारगर रहती हैं। जो शरीर में वास्तव में कुछ कर रही होती हैं वे भी, और अन्य कई तरह के टोटके भी, मसलन पूजापाठ, पत्थर-नगीने, धागे-तावीज़, झाड़-फूंक आदि भी, कारगर महसूस किए जाते हैं।

अब यदि कोई व्यक्ति कुछ परिस्थितियों में असहजता महसूस करता है, और उनके बीच सक्रियता की हिम्मत नहीं जुटा पाता, उनके बीच किसी रहस्यमयी कारणों की उपस्थिति महसूस करता है, तो ऐसे में उपरोक्त सभी उसे एक हिम्मत देते हैं, मानसिक आधार देते हैं, उसे यह आभास देते हैं कि उसने उनसे निपटने का एक उपाय कर लिया है इसलिए उनका भय समाप्त हो जाता है, और वह उन परिस्थितियों में अधिक सहजता के साथ सक्रिय होता है और अपने भयों और असहजता पर वास्तविक रूप से काबू पा लेता है, और इसका श्रेय वह उन्हीं टोटकों को दे दिया करता है।

सामान्यतः मनुष्य समझ में आती सामान्य व्याधियों के लिए उपलब्ध इंतज़ामों पर ही भरोसा करता है, पर जब कुछ असहज और असामान्य सा घटाघोप महसूस करता है तभी वह अपनी असहज समस्याओं के लिए इसी तरह के किसी असहज समाधानों की तरफ़ मुड़ता है और इनका प्रयोग करने में कुछ हर्ज़ नहीं समझता।

होमियोपैथी और अन्य प्राचीन पद्धतियां जो कि तात्कालिक सीमित रूप के विज्ञान आधारित ही है, ( जहां तथा जिन मामलों ये कई तरह के भाववादी प्रक्षेपणों और व्याख्याओं से जुडी हुई हैं, उन्हें छोड दिया जाए ) कई सामान्य मामलों में, और कई तरह के मानसिक असहजताओं के मामले में कारगर रहती ही हैं। खासकर उन लोगों के लिए तो यह एक वास्तविकता ही है जो इनमें मानसिक गहराइयों से विश्वास भी करते हैं। जो समझते हैं कि इसके पीछे की वास्तविकताएं क्या है, वे तो अपने आप ही अपनी मानसिक उलझनों से लड ही लेते हैं, उन्हें किसी तरह के काल्पनिक सहारे की क्या आवश्यकता हैं और इन पद्धतियों का प्रयोग कई तरह की सामान्य व्याधियों में कर भी लिया करते हैं।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

8 टिप्पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

होमियोपैथी प्राचीन पद्धति नहीं है। इस का आरंभ एक ऐलोपैथिक फिजीशियन हनीमैन ने किया था। उस ने कुनैन का अध्ययन करते हुए पाया था कि जो पदार्थ सेवन करने पर मानव शरीर में जो लक्षण पैदा करते हैं उन्ही लक्षणो वाले रोगों में उसी पदार्थ की अत्यल्प मात्रा चमत्कारिक रूप से रोग को ठीक करती है। यह अनेक पदार्थों के बारे में सच साबित हुआ। लेकिन पदार्थ कैसे काम करता है यह अभी तक प्रमाणित नहीं किया जा सका है। विशेष रूप से अतितनुकृत औषधियों के मामले में। 30 और उस से ऊपर वाली शक्ति से तनुकृत औषधियों में मूल पदार्थ का एक अणु होने की संभावना तक नहीं होती। लेकिन फिर भी वे जबर्दस्त असर दिखाती हैं।

Rashmi Swaroop ने कहा…

is topic ko lekar bahut se sawaal kulbulate rahe hai mind me.. is post se meri soch ko samarthan mila hai.. :)

प्रवीण ने कहा…

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मैं जो समझ पाया हूँ वह यह है कि आप यह कहना चाह रहे हैं होम्योपैथी उन्हीं के लिये काम करती है जो इसमें मानसिक गहराइयों से विश्वास भी करते हैं... पर कहीं न कहीं आप साफगोई से होम्योपैथी की अवैज्ञानिकता को स्वीकार नहीं कर रहे... 'समय' से यह अपेक्षा नहीं थी मेरी... हमारे मानव समुदाय में एक Cohort है Placebo Acceptors का और एक दूसरा Cohort है कुछ अजूबा, कुछ रहस्यमय, कुछ समझ से परे ढूंढने, होना मानने व उस पर विश्वास रखने वालों का... यही दोनों समूह होम्योपैथी को जिंदा रखे हैं...


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रजनीश के झा (Rajneesh K Jha) ने कहा…

बेहतर लेखन !!

Unknown ने कहा…

आदरणीय द्विवेदी जी,

आप सही कह रहे हैं कि आज जिस रूप में हम इसे जानते हैं, यह एक बहुत प्राचीन पद्धति नहीं है। प्रत्यक्ष रूप से यह यहां कहा भी नहीं गया है। परंतु यह भी है कि यह आधुनिक विज्ञान के शुरुआती दौर से ताल्लुक रखती है, पुरानी तो है ही। वैसे इस लक्षण-समरूपता पद्धति की परंपरा ईसापूर्व के समय तक जाती है, जैसा कि बताया जाता है, और अठाहरवीं शताब्दी के अंत में हनीमैन साहेब ने इसका नाम और सैद्धांतिकी को विकसित किया।

शुक्रिया।

Unknown ने कहा…

आदरणीय प्रवीण जी,

संवाद की अपनी सीमाएं होती हैं।
बाकी काफ़ी कुछ सही आप कह ही गये हैं।

शुक्रिया।

Alpana Verma ने कहा…

विषय सम्बन्धित जिज्ञासा के कुछ जवाब मिले ..ज्ञानवर्धक लेख.आभार

Unknown ने कहा…

होमियोपैथी चिकित्सा की नवीनतम पद्धति है जिसे एलोपैथी वालो ने धंधे के चलते दबा कर रखा है , हिप्नोटिज्म एक विध्या है जिसे फालतू जादू टोने से जोड़ कर रखा है . मै अपने प्रायोगिक अनुभव अपने हिंदी ब्लॉग के जरिये प्रस्तुत कर रहा हम जिसमे अनेक प्रश्नो के उत्तर बुद्धिजीवी वर्ग को मिल जायेंगे -
-रेणिक बाफना
मेरे ब्लॉग :-
१- मेरे विचार : renikbafna.blogspot.com
२- इन सर्च ऑफ़ ट्रुथ / सत्य की खोज में :renikjain.blogspot.com

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