हे मानवश्रेष्ठों,
कोरी भावुक राष्ट्रीयता
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
कोरी भावुक राष्ट्रीयता
एक जानकारी के तहत मैकाले ने कहा था कि पूरे भारत
और अरब की सारी किताबें यूरोपियन पुस्तकालय के एक शेल्फ़ इतनी भी काम की
नहीं है। अब बताइए कि यह बात क्या अपमान नहीं है।....ब्रूनो और गैलीलियो
को कहाँ जलाया या जान से मार दिया गया। यूरोप में या भारत में? यह कोई लफ़्फ़ाजी नहीं है, यह तो इतिहास ही बताता है। क्या अपने अतीत की खोज का काम बुरा है?
वही
प्रवृत्तियां जिन्होंने हमारे यहां वस्तुगत ज्ञान का भरसक रास्ता रोका,
बाहर भी, हर जगह हावी हैं। उनमें से कुछ लोग अपने श्रेष्ठताबोधों, दंभों
में हैं और हम भी इसके जवाब में अपने श्रेष्ठताबोधों, दंभों से उनका सामना
करना चाहते हैं। यानि कि जो प्रवृत्तियां हमें खु़द बुरी लग रही हैं, हम
भी वैसे ही हो जाना चाहते हैं। शायद बेहतर हो, आप स्वयं देखिए।
जो
धार्मिक-भाववादी प्रवृत्तियां यहां चार्वाकों और लोकायतिकों को नष्ट कर
रही थी, बौद्धों का अपने उत्स देश से ही समूल नाश कर रह थीं, वही
प्रवृत्तियां वहां भी ब्रूनों, गैलीलियों की राह का नाश करना चाहती थी। पर
यह तो तथ्य हैं ही, अंतत्वोगत्वा वहां वस्तुगत वैज्ञानिक प्रवृत्तियों ने
लड़ाई लड़ी और अपनी सीमाओं को लांघते हुए अपनी उपस्थिति भी दर्ज़ करवाई। वहां
की भौतिक परिस्थितियों ने जो जरूरत पैदा की उसकी वज़ह से इनकी राह थोड़ा
आसान हुई, और धीरे-धीरे जीवन के साधन जुटाने की मानवाकांक्षा निर्णायक
साबित हुई। धर्म को उन्हें राह देनी ही पड़ी।
अपने अतीत की खोज जरूरी है, पर यह प्रश्न अपनी जगह है कि, क्या यह खोज सिर्फ़ गौरवगान के आत्मपरक लक्ष्यों तक ही सीमित होनी चाहिए?
भाषाओं का इतिहास समझने की बात तो है ही। वैज्ञानिक भी स्वीकारने लगे हैं कि संस्कृत भाषा कम्प्यूटर
के लिए सर्वाधिक उचित है......यह समझ नहीं आता कि वह कौन से कारक थे जिसके
चलते भारत में नागरी लिपि या भाषा पैदा हुई और अब तक की समृद्धतम और
वैज्ञानिक लिपि क्यों है?.........अगर आप बता सकें तो कृपा कर के कुछ कहें
वरना भाषा विज्ञान का इतिहास आदि देखना पड़ेगा।
आप
जानते ही हैं कि कंप्यूटर की अपनी कोई भाषा नहीं होती। वह उर्जा की
उपलब्धता या अनुपलब्धता ( वोल्टेज नहीं हैं या हैं, यानि ० या १ ) के आधार
पर इसी भाषा में समझता और काम करता है। अब आप कंप्यूटर की इस भाषा को किसी
भी निर्गम ( output ) संकेतों, भाषाओं में कोडित कर लें जो आपको समझ में
आता हो। इसी तरह इसे उसकी भाषा में कोडित करके उसे देदें, वह अपना काम
अपनी ही भाषा में करेगा। तो अब यह कहने की क्या उपयोगिता होगी कि कौनसी
भाषा उसके लिए अधिक या कम उचित होगी, यह आप ही ज़्यादा बेहतर से समझ सकते
हैं।
हमारे पास ऐसी कोई आत्मपरकता नहीं थी कि हम इस श्रेष्ठताबोधी
सवाल पर कि ‘भारत में ही नागरी लिपि या भाषा पैदा हुई और अब तक की
समृद्धतम और वैज्ञानिक लिपि क्यों है?’ पर माथापच्ची करना चुनते, इसलिए
इसके बारे में हमारी सीमाएं हैं। आपको भाषावैज्ञानिक अध्ययनों से गुजरना
होगा। और यदि आपको वाकई इस सवाल से इसी नज़रिए के साथ जूझना हो तो
वैज्ञानिक अध्ययन को नहीं बल्कि किसी ऐसे ही नज़रिए वाले विद्वान का शोध
चुनना होगा जिसने भाषाई श्रेष्ठता के आधारों को ढूढ़ने के आधार पर काम किया
हो नाकि वस्तुगत वैज्ञानिक आधारों पर।
विज्ञान
पर या मानव के किसी खोज पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता लेकिन पेटेंट
जैसी व्यवस्था भी पश्चिम की है जिसके चलते लोगों का शोषण आज भी किया जाता
है। वैज्ञानिक आविष्कारों को भी पैसों से तौलने का काम भी पश्चिमी देन है।
विज्ञान
खोजें करता है, उनका उपयोग करना और उनमें उद्देश्य भरना मानवजाति का काम
है। और स्पष्ट कहें तो समाज के प्रभुत्व प्राप्त वर्गों का काम है। यानि
कि विज्ञान की सार्विकता को यदि कुछ समूह इस तरह नियंत्रित कर पाते हैं तो
यह उनकी पूंजीगत साम्राज्यवादी व्यवस्था की देन है। सारी ताकत का पूंजी
में सिमटा होना है। यानि कि मुख्य लड़ाई इसी पूंजीवादी साम्राजी व्यवस्था
से होनी चाहिए जो पूरी मानवजाति की थाति को अपने नियंत्रण में रख कर इसे
मनुष्य द्वारा मनुष्य का, और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण का
साधन बनाए हुए है। और यही प्रवृत्तियां हमारे यहां भी काम कर रही हैं,
उनसे भी। यानि इस साझा दुश्मन को पहचानना और उससे संघर्ष करना हमारा ध्येय
होना चाहिए। वह देश के बाहर हो या देश के अंदर। सिर्फ़ कोरी भावुक
राष्ट्रीयता देश के अंदर की इसी पूंजीवादी और साम्राजी प्रवृत्ति को नहीं
देख पाती, जो आजकल धार्मिक-भाववादी शक्तियों के साथ नाभिनालबद्ध हुई पड़ी
है और प्रभुत्व में है, निर्णायक बनी हुई है।
एक
बात और जानने की इच्छा है। यूरोप की संस्कृति पर कहा गया है कि वहाँ दास
जैसी अमानवीय प्रथा रही है।.............यूरोप में स्त्री को आत्माहीन
माना गया। हमारे यहाँ भी बहुत कुछ कहा गया। लेकिन मेरा सवाल है कि यूरोप
में ऐसी संस्कृति रही तो इसे क्या कहें?
अगर आप पूरी
मानवजाति के इतिहास को वस्तुगत रूप से समग्रता से देखने की कोशिश करेंगे
तभी आप यह समझ पाएंगे। लगभग समान रूप से ही, थोड़े से अंतरों के साथ सभी
जगह इसी तरह के विकास संस्तरों से मानवजाति गुजरी है। आज की नैतिकता और
मूल्यों के सापेक्ष जब हम इतिहास पर नज़र डालते हैं तो सभी संस्कृतियों में
ऐसी अवस्थाएं रही हैं।
यूरोप में अमानवीय दासप्रथा रही, तो हमारी
संस्कृति में शुद्रों, दलितों और महिलाओं के हालात भी मानवीय नहीं रहे
हैं। अभी भी हमारे यहां के सामाजिक जातीय संस्तरों के हालातों से आप
भली-भांति परिचित ही होंगे। जो बुरा है, सभी जगह बुरा है, उसे सभी जगह ही
बदल देना, त्याज्य देना चाहिए। जो अच्छा है, वह कहीं का भी है, उसे अपना
ही लेना चाहिए।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
1 टिप्पणियां:
इन सवाल जवाबों से ज्ञान वर्धन हुआ..सच यही है कि धर्म -जाति -वर्ग की सीमा से परे जो अच्छा हो उसे अपना लेना चाहिए.अगर ऐसा सब सोचें तो धरती को स्वर्ग बनते देर न लगेगी.परंतु बुरा ही अक्सर अधिक आकर्षित होता है और आसानी से अपना भी लिया जाता हैं .
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