शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

नास्तिकता और वैज्ञानिकता

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



नास्तिकता और वैज्ञानिकता

वैज्ञानिक या चिकित्सक आदि भी क्यों नारियल फोड़ने जैसी बातें करते हैं, इस पर आपने ब्लॉग पर कहा था कि भविष्य में लिखेंगे। यह प्रश्न भी आता रहता है दिमाग में। या कुछ लोग नास्तिकता से आस्तिकता की ओर क्यों आ जाते हैं? और कलाम जैसा आदमी अपनी आत्मकथा में ईश्वर पर जमकर विश्वास करता दिखता है।

ब्लॉग पर जो लिखा था वह इस प्रकार था।

"सैद्धांतिक अवधारणाएं, इनसे अब तक अपरिचित मानवश्रेष्ठों के लिए थोड़ा दुरूह होती हैं, पर यही दुरूहता गंभीर दिलचस्पी रखने वाले मानवश्रेष्ठों के लिए इन्हें समझे जाने की जरूरत और इस हेतु सक्रिय प्रयासों का रास्ता भी प्रशस्त करती है। दुरूहताओं से सप्रयास जूझना, इनके संबंध में मानवश्रेष्ठों की समझ को अंदर से मथता है और प्राप्त संगतियां और निष्कर्ष उसकी समझ का हिस्सा बनते हैं, जिससे कि अंततः उसका व्यवहार निर्देशित होता है।

बिना इस प्रक्रिया के प्राप्त ज्ञान, - जो पहले से प्राप्त अनुकूलित प्रबोधन के साथ अंतर्क्रियाएं तथा अंतर्संबध नहीं पैदा कर पाता, इसका स्वाभाविक विकास नहीं कर पाता - आंतरिक मानसिक जगत के लिए सिर्फ़ सूचनाओं का जंजाल बनता है ( जिन्हें स्मृति कई बार, अक्सर भुला भी देती है ), वह समझ और व्यवहार का हिस्सा नहीं बन पाता, मनुष्य का अपना एक सार्विक वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा नहीं कर पाता।

आखिर यह अकारण नहीं होता कि न्यूटन जैसा महान वैज्ञानिक अपने जीवन के अंत समय में धार्मिकता की ओर उन्मुख हो जाता है, चोटी के वैज्ञानिक भाववादी मानसिकताओं में उलझे रहते हैं, रॉकेटों, चंद्रयानों को नारियल फोड़ कर अंतरिक्ष में भेजा जाता है, बड़े-बड़े डॉक्टर अलौकिक चमत्कारिकता में विश्वास करते पाये जाते हैं, और कई प्रबुद्ध और समझदार से लगते लोग अपने कार्यक्षेत्र में भी और इससे बाहर की चीज़ों के साथ भी अमूमन अपनी सामंती परंपराओं से प्राप्त मानसिकता औए समझ के साथ सोचते और व्यवहार करते नज़र आते हैं।"

दूसरे अनुच्छेद में कारणों का हवाला तो है, थोड़ा क्लिष्ट है पर स्पष्ट है।

ऊपर व्यक्त प्रक्रिया, जहां कि नई सूचनाओं और ज्ञान को, अपने पहले के अनुकूलित ज्ञान के साथ मथते हुए, उनकी तुलना, उनके अंतर्विरोधों से जूझते हुए, आंतरिक मंथन करते हुए आत्मसात् किया जाता है, जो उचित नहीं जान पड़ता उसे छोडते जाना, नये के हिसाब से अपनी चेतना को संपृक्त करते जाना होता है, के बिना व्यक्ति जब ऐसे ही व्यावसायिक जीवनीय लक्ष्यों के लिए वैज्ञानिक ज्ञान को सिर्फ़ अपना कैरियर बनाने के उद्देश्य से सतही तौर पर ग्रहण करता है तो उसके पास एक समुचित वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न नहीं हो पाता है, ज्ञान उसकी व्यावहारिकता में नहीं उतर पाता है। उसके जीवन में दोहरापन आ जाता है, चेतना में दो असंबंद्ध क्षेत्र बन जाते हैं जिनके बीच कोई अंतर्क्रिया नहीं हो पाती। वे जिस क्षेत्र में होते हैं, उसी के अनुरूप अपनी संबंद्ध चेतना से कार्य करते हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में वे वैज्ञानिक, तकनीकीविद्‍ हो सकते हैं, तार्किकता के साथ सोच और व्यवहार कर रहे होते हैं, दूसरी ओर जीवन के दूसरे पहलुओं में अपनी परिवेश से प्राप्त पुरानी विचार-पद्धति और आस्थाओं के ढांचे के साथ व्यवहार करते हैं।

इसका मतलब यह कह सकते हैं, अच्छे-अच्छे चिकित्सक, तकनीकीविद्‍ , वैज्ञानिक वास्तव में नास्तिक होते ही नहीं है। वे अपने व्यक्तिगत जीवन में आस्तिक ही होते हैं, आस्थावान। उनकी ये आस्तिक मान्यताएं बहुत गहरे में होती हैं। इसीलिए वे गाहे-बगाहे इसका प्रदर्शन करते ही रहते हैं, कर ही जाते हैं।

देखा जाए तो नास्तिकता भी कई प्रकार की होती है। एक तो ऐसी कि किसी नाराजगी या  किसी और कारणवश हुए मोहभंग के चलते नास्तिक से हो जाते हैं, ईश्वर के अस्तित्व को नकारने लगते हैं, चूंकि उनका कोई काम नहीं सधा है जिसकी कि उन्होंने उससे कामना की थी। ये नास्तिक जैसे ही कोई और बड़ा ड़र पैदा होता है, या उनका काम सध जाता है पुनः आस्तिकता के साये को समर्पित हो जाते हैं। जिसके कि वे अधिक अनुकूल हैं।

कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें संशयवादी, संदेहवादी कह सकते हैं। वे ईश्वर के अस्तित्व पर संशय या संदेह करने लगते हैं, अपनी तार्किकता के चलते। उनकी चेतना इस स्तर के तार्किक स्तर पर होती है कि ईश्वर और आस्थाओं की प्रचलित और सामान्य तर्कश्रृंखला को बेध पाती है और उससे परे जाती है। पर ऐसे नास्तिक भी जब किसी ऐसे घटाघोप से उलझते हैं जहां कि उनकी तर्कशक्ति कमजोर पड़ जाती है, जिसके जवाब उन्हें नहीं सूझते या नहीं मिलते, जहां के रहस्यों को सुलझाने की सामर्थ्य उनमें नहीं होती, तो वे भी अपना पाला बदल कर पुनः रहस्यमयी चमत्कारों, आस्थाओं और ईश्वर के आगे मत्था टेक देते हैं। जिसके कि वे अधिक अनुकूल रहे ही होते हैं।

कुछ ऐसे भी नास्तिक होते हैं, जो तार्किकता और मान्यताओं के स्तर पर तो नास्तिकता को अपना लेते हैं ( मुख्यतः केवल ईश्वर, अंधविश्वास और आस्थाओं के मामले में ) परंतु उनका दृष्टिकोण, समझ, विश्लेषण पद्धति प्रत्ययवादी या भाववादी ( idealistic ) बनी रहती है, जो कि आस्तिक दर्शन का मूलाधार होती है। ऐसे व्यक्ति भी दार्शनिक स्तर पर कहीं ना कही कुछ ऐसा कह या व्यवहार कर जाते हैं जिसे आस्तिकता से अधिक अलग करके नहीं देखा जा सकता।

दरअसल असली नास्तिकता भौतिकवादी ( materialistic ) दर्शन, द्वंदवादी विश्लेषण पद्धति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के ज़रिए ही उभर सकती है। फिर यह ईश्वर, अंधविश्वास और आस्थाओं के मामले भी द्वितीयक हो जाते है या अपना महत्त्व खो देते हैं। इन सबका मूलाधार ही ख़त्म हो जाता है, इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है तो इन पर अलग से विचार करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। समझने और समझाने के लिए ही इन पर विचार किया जाता है। इनकी समाज में यथार्थता के भौतिक कारणों और आधारों का विवेचन किया जाता है।

प्राचीन कथाओं और पौराणिक प्रसंगों में ज्ञान, बुद्धि, बल, गुण, अवगुण आदि सभी चीजों की अमूर्त कल्पना सम्भव ही नहीं थी, इसीलिए उन सबके लिए देवता की कल्पना कर ली गई? …जैसे सौंदर्य की देवी, बुद्धि की देवी, जल का देवता आदि?

यह भी है। मानव चेतना शुरुआत में हर काम की चीज़ में देवत्व का आरोपण करती थी, क्योंकि चीज़ें उसके उपयोग की तो थी, परंतु उनपर मनुष्य का नियंत्रण नहीं था। वह उनमें अलौकिक शक्तियों का वास समझता था और उनकी पूजा-अर्चना से उन्हें खुश करके अपने काम का बनाए रखने की आशा किया करता था।

शक्तियों का भौतिक आभास तो महसूस होता ही था परंतु उनके पीछे का मूर्त ज्ञान का अभाव मनुष्य को उनके पीछे देवताओं की, अलौकिक शक्तियों की अमूर्त कल्पनाओं का संसार रचने को प्रवृत्त किया करता था।

और हाँ, दर्शन विषयक किसी भी किताब भारतीय दर्शन का जिक्र नगण्य क्यों है?.........जबकि भारत में दर्शन की परम्परा समृद्ध रही है, ऐसा माना जाता है।.....किसी ग्रंथ के सिर्फ़ विदेशी लेखकों या अनुवादकों को साक्ष्य मान लिया गया है। क्या यह लेखक पर एक तरह से मोहग्रस्त होने का आरोप नहीं लगाता?..…यहाँ तक कि जो बातें भारत में या भारतीय ग्रंथों में लिखी हैं उनके लिए भी किसी यूरोपीय दार्शनिक को प्राथमिकता दी गई है। वैसे ये बातें अध्ययन में अधिक महत्वपूर्ण नहीं।

यही अधिक ठीक है कि ये बातें अध्ययन में अधिक महत्वपूर्ण नहीं। हमारे अस्पष्ट पूर्वाग्रह-मताग्रह, अध्ययन और निरपेक्ष विश्लेषण तथा आत्मसात्करण में व्यवधान पैदा करते हैं।

जिक्र होता भी है, हां नगण्य जैसा कह सकते हैं। अभी आप जिन पुस्तकों को पढ़ रहे हैं, खासकर बाहरी किताबों में, वे उस दृष्टिकोण की किताबें हैं जिसने नये दर्शन की रचना की है। अब इनके लेखक पुराने दर्शन का, उसकी प्रवृत्तियों का जिक्र करते समय अपनी बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए कहां का संदर्भ देना उचित समझते है यह उनका विवेक है। कई बार ऐसे संदर्भ चुने जाते हैं, जो संदर्भित बात के लिए अधिक सटीक हो, कई बार ऐसे जो किसी प्रवृति का यथोचित प्रतिनिधित्व करते हों, साथ ही यह बात भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि लेखक के पास किस तरह की सामग्री मौजूद है संदर्भ देने के लिए, यानि कि उसके पास की उपलब्धता। हर लेखक, अपने परिचित परिवेश से संदर्भ चुनता और बुनता है। यह बात, ‘जबकि भारत में दर्शन की परम्परा समृद्ध रही है, ऐसा माना जाता है’, भारतीय या आसपास के परिचित परिवेश के लिए मानने लायक हो सकती है, और यह ग़लत भी नहीं ही है। परंतु विश्व में सभी जगह ऐसी ही समृद्ध परंपराएं रही हैं, यह बात भी सही है। बात किसी विचार या प्रवृत्ति के तुलनात्मक अध्ययन और सामान्यीकृत विवेचन की है।

संदर्भों के लिए जहां तक विद्वानों के कार्य को साक्ष्य के रूप में लिए जाने की बात है, यह कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और द्वंदवादी विश्लेषण पद्धति के अंतर्गत किए जा रहे कार्य में, ऐसे ही नज़रिए से हो चुका पहले का लेखन ही संदर्भित किया जा सकता है। अब इस तरह का आधिकारिक लेखन जहां मिलेगा वहीं से बात शुरू करनी होगी, उसे ही आगे बढ़ाना होगा। भारत में भारतीय संस्कृति और परंपराओं पर निरपेक्ष आधिकारिक लेखन का अभाव पहले था ही, यह आलोचनात्मक दृष्टि पहली बार विदेशी विद्वानों ने ही डालनी शुरू की, जिसे बाद में भारतीय विद्वानों ने आगे बढ़ाया।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

3 टिप्पणियां:

प्रवीण ने कहा…

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असली नास्तिकता भौतिकवादी ( materialistic ) दर्शन, द्वंदवादी विश्लेषण पद्धति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के ज़रिए ही उभर सकती है। फिर यह ईश्वर, अंधविश्वास और आस्थाओं के मामले भी द्वितीयक हो जाते है या अपना महत्त्व खो देते हैं। इन सबका मूलाधार ही ख़त्म हो जाता है, इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है तो इन पर अलग से विचार करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। समझने और समझाने के लिए ही इन पर विचार किया जाता है। इनकी समाज में यथार्थता के भौतिक कारणों और आधारों का विवेचन किया जाता है।

गहरी बात, पर इस स्थिति तक भौतिकवादी ( materialistic ) दर्शन, द्वंदवादी विश्लेषण पद्धति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने/बरतने वाला कोई स्वयंमेव ही पहुंच जाता है या उसे प्रयास करने होते हैं यहाँ तक पहुंचने के लिये ?



...

Alpana Verma ने कहा…

इस विषय पर यह एक बेहद सुलझा हुआ लेख है .
इसमें मुझे कई प्रश्नों के भी उत्तर मिल गए जो मन में उठते रहते थे.

Unknown ने कहा…

आदरणीय प्रवीण जी,

भौतिकवादी दर्शन को आत्मसात करने की प्रक्रिया, वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने और वैज्ञानिक-तार्किक पद्धतियों का इस्तेमाल करना सीखने की प्रक्रिया से गुजरकर ही कोई इस स्थिति तक पहुंच सकता है। इनसे संबंधित सामग्री सामान्यतः उपलब्ध नहीं हो पाती, अतएव सामग्री तक पहुंचने के लिए भी प्रयास करने होते हैं, इनको ह्र्दयंगम करने, अपने अनुभवजगत का हिस्सा बनाने और व्यवहार में ढालने के लिए तो विशिष्ट प्रयत्न करने ही होंगे।

अगर कोई भी इस प्रक्रिया का अंग है तो उसे ऐसा लग सकता है कि जैसे स्वयंमेव ही पहुंचा जा रहा है, परंतु वहां भी, और सामान्यीकरण करें तो कहीं भी, प्रयास करने से ही पहुंचा जा सकता है। और जाहिरा तौर पर, अपने परिवेशगत पारंपरिक अनुकूलनों से आगे निकलना है तो यह प्रयास काफ़ी कठिन और कष्टकर भी होते हैं।

शुक्रिया।

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