हे मानवश्रेष्ठों,
स्वदेशी और बहिष्कार का विकल्प
बहुत अच्छी योजना है। कितना आसान सा मामला है, और फिर भी लोग इसे समझते नहीं है, या समझना ही नहीं चाहते। बस एकबार यह शुरु हो जाए, तो कुछ ही वर्षों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां, साम्राज्यवादी शक्तियां अपना बोरिया-बिस्तर समेटेंगी, और निकल लेंगी। फिर हमारे पास सिर्फ़ देशी पूंजीपति रह जाएंगे, उन्हें हम अहिंसा और आत्मा की शुद्धि के ज़रिए, सत्याग्रह के ज़रिए अपना ताम-झाम छोड़ने को राजी कर लेंगे, बस फिर क्या है यही राजनैतिक सत्ता के साथ किया जाएगा। सभी बड़े उद्योगों और योजनाओं को बंद कर दिया जाएगा, गांवों में एक चमार, एक लुहार, एक सुनार, एक जुलाहा, एक कुम्हार, आदि-आदि नियुक्त कर दिया जाएगा, मुद्रा बंद कर दी जाएगी, वस्तुओं का विनिमय करके वे आपस में आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का निर्माण करेंगे, संस्कृत माध्यम वाले आश्रम खोले जाएंगे जहां प्राचीन भारतीय मनीषा के श्लोकों का उच्चारण और पाठन किया जाएगा, उन्हें जीवन जीने की कला सिखाई जाएगी, सभी विदेशी ज्ञान और विज्ञान से उन्हें बचा कर रखा जाएगा ताकि हमारी महान संस्कृति में कोई संकरीकरण ना हो। और एक दिन विश्व-गुरू के रूप में भारत की पुनर्स्थापना हो जाएगी। मामला ख़त्म। वाकई कितना आसान है।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
स्वदेशी और बहिष्कार का विकल्प
काश
कि चीज़ें हमारे मानने या लगने के हिसाब से हो रही होतीं, पर निश्चय ही ऐसा
नहीं है। दुनिया और समाज हमारे मानने-लगने से निरपेक्ष रूप से अपनी गति
चला जा रहा है। विचारों को, यानि मानने या लगने को, लागू कर पाने की
स्थितियां, इसकी ताकत प्राप्त हो जाने पर ही संभव हैं।
कहने का
मतलब यह है कि फिलहाल हमारे स्वदेशी का विकल्प चुनने का अवसर ही कहां है,
मतलब कि उसके मायने क्या हैं। हम चुन लें, मान लें पर देश के हुक्मरान और
उनकी आर्थिक नीतियां जो तय कर रहे हैं, हो तो वही रहा है। उन्होंने देश की
आत्मनिर्भरता का विकल्प छोड़ कर साम्राज्यवादी देशों और उनकी बहुराष्ट्रीय
कंपनियों के हवाले देश और उसके संसाधनों को कर ही रखा है।
यानि कि
यदि अब हमारा विकल्प चुनने का मतलब है कि हम इसके लिए आंदोलन चलाएंगे,
जनता को जागरुक बना कर अपने साथ लेंगे, और व्यवस्था में परिवर्तन कर अपने
मानने और जो ठीक है उसे लागू करेंगे। यानि स्वदेशी के इस विकल्प को हम
अपने आंदोलन का उद्देश्य घोषित कर उसके लिए तन-धन-मन से लग जाएंगे। जब इसे
अपने आंदोलनों के लिए एक उद्देश्य, एक विकल्प के रूप में ही रहना है, तो
क्यों ना फिर आमूलचूल परिवर्तन को ही, एक सही और बेहतर विकल्प को ही सीधे
क्यों ना लक्ष्य रखा जाए। और उसी हेतु जनचेतना का विकास कर आंदोलन खड़े किए
जाएं।
खैर, यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि किसी को भी कुछ तात्कालिक
या फौरी लक्ष्य अपने सामने रखने ही होंगे, पर वे यदि दूरगामी लक्ष्यों की
दिशा में ही हों तो बेहतर।
हमारे हाथ में इतना तो है ही कि हम.....बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पाद नहीं खरीदें। यानि निजी तौर पर बहिष्कार.....तो वे यहाँ करेंगे क्या? …यह बेहतर है कि हम किसी बड़े और बेहतर विकल्प के लिए लड़ें....तब तक स्वदेशी आन्दोलन बुरा नहीं लगता....यह जानते हुए कि यह लक्ष्य नहीं है, हमें इस दिशा में कुछ कदम तो चलना चाहिए.....हमारे स्वदेशी के विकल्प चुनने का अवसर है........हमारा थोड़ा परिश्रम या कष्ट एक दिन बहुराष्ट्रीय निगमों की तानाशाही को भगाने में सफल तो हो ही जाएंगे।....बहुराष्ट्रीय उत्पादों को खरीदना बन्द कर दें......लाखों की आमदनी कम हो जाती है।.....वैसे व्याख्याएँ कहती हैं कि स्वदेशी और देशी में अन्तर है। देशी मतलब भारतीय पूँजीपति और स्वदेशी मतलब निकटतम गरीब लोग या छोटे स्तर के उद्योग या दुकान की बनाई गई सामग्री खरीदना....जहाँ तक सम्भव है, वहाँ तक इसका पालन किया जा सकता है।
हमारे हाथ में इतना तो है ही कि हम.....बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पाद नहीं खरीदें। यानि निजी तौर पर बहिष्कार.....तो वे यहाँ करेंगे क्या? …यह बेहतर है कि हम किसी बड़े और बेहतर विकल्प के लिए लड़ें....तब तक स्वदेशी आन्दोलन बुरा नहीं लगता....यह जानते हुए कि यह लक्ष्य नहीं है, हमें इस दिशा में कुछ कदम तो चलना चाहिए.....हमारे स्वदेशी के विकल्प चुनने का अवसर है........हमारा थोड़ा परिश्रम या कष्ट एक दिन बहुराष्ट्रीय निगमों की तानाशाही को भगाने में सफल तो हो ही जाएंगे।....बहुराष्ट्रीय उत्पादों को खरीदना बन्द कर दें......लाखों की आमदनी कम हो जाती है।.....वैसे व्याख्याएँ कहती हैं कि स्वदेशी और देशी में अन्तर है। देशी मतलब भारतीय पूँजीपति और स्वदेशी मतलब निकटतम गरीब लोग या छोटे स्तर के उद्योग या दुकान की बनाई गई सामग्री खरीदना....जहाँ तक सम्भव है, वहाँ तक इसका पालन किया जा सकता है।
बहुत अच्छी योजना है। कितना आसान सा मामला है, और फिर भी लोग इसे समझते नहीं है, या समझना ही नहीं चाहते। बस एकबार यह शुरु हो जाए, तो कुछ ही वर्षों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां, साम्राज्यवादी शक्तियां अपना बोरिया-बिस्तर समेटेंगी, और निकल लेंगी। फिर हमारे पास सिर्फ़ देशी पूंजीपति रह जाएंगे, उन्हें हम अहिंसा और आत्मा की शुद्धि के ज़रिए, सत्याग्रह के ज़रिए अपना ताम-झाम छोड़ने को राजी कर लेंगे, बस फिर क्या है यही राजनैतिक सत्ता के साथ किया जाएगा। सभी बड़े उद्योगों और योजनाओं को बंद कर दिया जाएगा, गांवों में एक चमार, एक लुहार, एक सुनार, एक जुलाहा, एक कुम्हार, आदि-आदि नियुक्त कर दिया जाएगा, मुद्रा बंद कर दी जाएगी, वस्तुओं का विनिमय करके वे आपस में आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का निर्माण करेंगे, संस्कृत माध्यम वाले आश्रम खोले जाएंगे जहां प्राचीन भारतीय मनीषा के श्लोकों का उच्चारण और पाठन किया जाएगा, उन्हें जीवन जीने की कला सिखाई जाएगी, सभी विदेशी ज्ञान और विज्ञान से उन्हें बचा कर रखा जाएगा ताकि हमारी महान संस्कृति में कोई संकरीकरण ना हो। और एक दिन विश्व-गुरू के रूप में भारत की पुनर्स्थापना हो जाएगी। मामला ख़त्म। वाकई कितना आसान है।
थोड़ा सा
मज़ाक है, पर यह लगभग कुछ ऐसा ही है, हालांकि हम जानते हैं कि इनमें से कई
मामलों में आप अलग राय रखते हैं, पर ये अंतर्संबंधित तो है ही और अंततः एक
इसी तरह के काल्पनिक आदर्शवाद से जाकर जुड़ते हैं।
बहिष्कार,
अंग्रेजों के खिलाफ़ दबाब बनाने की राजनीति के तहत उठाया गया एक मामूली कदम
था, और एक ऐसे ही आदर्शवाद से प्रेरित भी। उस समय भी, गांधी जी के इतने
व्यापक प्रभाव के बावज़ूद भी यह कितना कारगर था यह इतिहास में दर्ज़ है ही।
वास्तविकता यह है कि मनुष्य अपने लिए एक बेहतर जीवनयापन स्थिति और साधन
चुनना चाहता है, किसी आदर्श के प्रभाव में कुछ समय के लिए भले ही इसके उलट
चलने को व्यक्ति तैयार हो जाए, पर वस्तुगत स्थितियां उसे अपने चुनाव और
प्रयोग के सहज आवश्यकता तक ले जाती हैं।
मतलब कि, यदि उपभोग के
सामान के बेहतर विकल्प मौजूद होंगे तो व्यक्ति को चुनने और खरीदने की
आज़ादी है ही, वह उसे ही लेगा जो उसे मुफ़ीद ठहरेगा, कभी मितव्ययता के हिसाब
से कभी गुणवत्ता के हिसाब से। यानि कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यहां आने
की आज़ादी हो, सामान बेचने की आज़ादी हो, उपभोग के लिए प्रेरित करने की
आज़ादी हो, हमें भी औरों से बेहतर अपना स्टेण्डर्ड बनाने और दिखाने की
आज़ादी हो, और हम लोगों से अपील करके यह भी मान लें कि वे वाकई में बाहर का
सामान नहीं खरीदेंगे। यह तो वैसी ही बात हुई कि हम शराब के कारखानों और
दुकानों का ढेर लगाए जाएं, और लोगों की अंतरात्मा से अपील करें कि वे
आत्मशुद्धि करें, शराब पीना हानिकारक है अतएव ना खरीदें और नाही पियें।
अभी भी सभी तरह का सामान उपलब्ध होने के बावज़ूद लोग अपने कई हिसाबों से
देशी या स्वदेशी सामान खरीदते ही हैं, वरना यहां की कंपनियां ही बंद हो गई
होती। और बाहर का सामान भी खरीदा ही जा रहा है, वरना बाहर की कंपनियां
यहां आ ही क्यों रही होतीं।
मुख्य बात राजसत्ता की शक्तियों की है,
वे देश को बेचे डाल रहे हैं, साम्राज्यवादियों की शर्तों को स्वीकारते जा
रहे हैं। देश की आत्मनिर्भरता को बढ़ाने के उपायों को योजनाबद्ध करने की
बज़ाए, आत्मनिर्भरता को निरंतर कम करते जा रहे हैं। ना तो योजनाबद्ध
उत्पादन है, ना ही वितरण। कृषि की वज़ह से पैदा हुई आत्मनिर्भरता ने ही अभी
तक भारत को जितना भी बचा हुआ है, बचाया हुआ है। और इस बात को
साम्राज्यवादियां शक्तियां भी समझती है, इसलिए वे इस कृषि पर आत्मनिर्भरता
को ही विभिन्न शर्तों को थोप-थोप कर ख़त्म कर देना चाहते हैं। सेज, कृषि
भूमियों का अन्य वज़हों से अधिग्रहण, भूमाफ़ियाओं का शहर के आसपास के कृषि
इलाकों का ख़त्म किया जाना आदि-आदि इसी की कड़िया हैं, और सत्ता अपने और
अपने पूंजी-आकाओं का पेट भरने और लूटने में व्यस्त है। जनता की किसी को भी
फिक्र नहीं है, ना लोकतांत्रिक सत्ता को, ना कार्पोरेट्स को, सभी अपना
मुनाफ़ा और हिस्सा बटोरने में लगे हुए हैं।
यह बार-बार इसलिए कहा
जाता है कि बिना राजनैतिक आंदोलनों के, राजसत्ता के नियंत्रण और इस हेतु
इसे मजबूर कर देने के, बाकी सभी विकल्प, सिर्फ़ भ्रमों में अपने आपको उलझाए
रखना है, अपनी तात्कालिक कुछ करने की आकांक्षा को संतुष्टि देते रहना
मात्र है। जनता का वास्तविक जनतंत्र ( peoples democracy ) की अवधारणा
इसलिए ऐसे समय में काफ़ी महत्त्वपूर्ण हो गई है। क्या अभी हाल के कई
आंदोलनों को, उनकी तमाम सीमाओं के बावज़ूद, राजसत्ता को नियंत्रित करने या
मजबूर करने की कवायद के छोटे से शुरुआती कदमों के रूप में नहीं देखा जा
सकता। लोगों की ऐसी आकांक्षाओं का परावर्तन तो इसमें देखा ही जा सकता है।
"मुख्य बात राजसत्ता की शक्तियों की है, वे देश को बेचे डाल रहे हैं.........अपना मुनाफ़ा और हिस्सा बटोरने में लगे हुए हैं।" इसका समाधान क्या है? यह तो है बहुत निराशाजनक।
निराशाजनक तो है, किंतु उत्पादन प्रणालियों, अर्थव्यवस्थाओं और सामाजिक समस्याओं के कोई तात्कालिक समाधान नहीं हुआ करते। ये सभी निश्चित ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज होते हैं और इन्हीं ऐतिहासिक परिस्थितियों की विकास-प्रक्रिया में ही, इन व्यवस्थाओं के अंतर्विरोधों को हल करने की जरूरतें और उस हेतु संघर्ष भी परवान चढ़ा करते हैं।
"मुख्य बात राजसत्ता की शक्तियों की है, वे देश को बेचे डाल रहे हैं.........अपना मुनाफ़ा और हिस्सा बटोरने में लगे हुए हैं।" इसका समाधान क्या है? यह तो है बहुत निराशाजनक।
निराशाजनक तो है, किंतु उत्पादन प्रणालियों, अर्थव्यवस्थाओं और सामाजिक समस्याओं के कोई तात्कालिक समाधान नहीं हुआ करते। ये सभी निश्चित ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज होते हैं और इन्हीं ऐतिहासिक परिस्थितियों की विकास-प्रक्रिया में ही, इन व्यवस्थाओं के अंतर्विरोधों को हल करने की जरूरतें और उस हेतु संघर्ष भी परवान चढ़ा करते हैं।
एक व्यक्ति के
रूप में इन वस्तुगत परिस्थितियों और अंतर्विरोधों को समझना, और
वर्ग-संघर्षों की सही अभिव्यक्तियों में अपनी प्रगतिशील भूमिका को समुचित
रूप से तय करना और उनका यथासंभव निर्वाह करना ही एक वस्तुगत हस्तक्षेप हो
सकता है। इस बारे में और काफ़ी कुछ पहले भी कहा ही जा चुका है। इस हेतु आगे
की, और संगत समझ को आपका अध्ययन और विश्लेषण परवान चढ़ाएगा ही।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
3 टिप्पणियां:
दोनों कथनों से सहमत। राज्यसत्ता में बदलाव भी जरूरी है और बाहर से आ रहे व्यापार को आने देना भी जरूरी है।
हम अंदर से कमजोर है, तो आसन्न संकट को बाहर ही रोककर मजबूत नहीं बन सकते। अंदर से मजबूत होने के साथ ही बाहर से आने वाले को भी कड़ी टक्कर मिलेगी।
अपने ब्लॉग में मैं एक बार ऐसा इंगित कर चुका हूं कि आने दो वालमार्ट को... अगर हम खुद को सुधार पाए, ताकतवर बन पाए तो वह कुछ नहीं ले जा पाएगा...
स्वदेशी का कोई विकल्प कभी भी हो नहीं सकता !!
आदरणीय सिद्धार्थ जी,
आपने संवाद से अपने मनोनुकूल निष्कर्ष निकाल लिए हैं :-)। हमारा उद्देश्य साफ़ तौर पर, मात्र यह संप्रेषित करना नहीं है। इस तरह के निष्कर्ष यथास्थिति को बनाए रखने और अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक उपनिवेशीकरण की इस प्रक्रिया को स्वीकारने और उसे बढ़ने देने के लिए रास्ता साफ़ करने की बौद्धिक चतुराइयां भर लगते हैं।
सिर्फ़ राजसत्ता में दिखावटी बदलाव से कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है। बात पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तनों के संघर्षों की बड़ी वैकल्पिक प्रक्रिया की हो सकती है जो कि अंततः हमारी उन सद्इच्छाओं को मूर्त रूप दे सकती हैं, जहां आत्मनिर्भरता और संप्रभुता का वह ढांचा खड़ा किया जा सकता है जो कि साम्राजी आर्थिक उपनिवेशीकरण के सामने दृढ़ता से मुकाबला करते हुए अपने यहां समानता पर आधारित सामाजिक विकास के परचम लहरा सकता है।
इस संवाद में अगली बार कुछ और इशारे आएंगे जो इस मामले में स्थिति को और साफ़ कर सकते हैं।
आपकी सदाशयता, बौद्धिकता और जीवटता के तो हम कायल हैं ही।
शुक्रिया।
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।