हे मानवश्रेष्ठों,
काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
बहिष्कार और संघर्ष के अन्य विकल्प
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
बहिष्कार और संघर्ष के अन्य विकल्प
और जिस आजादी की बात आप कर रहे हैं, उसे हम कैसे सही ठहरा सकते हैं? वह सब तो शोषण के हथियार हैं।....हम
क्या करें? सब बेचा जा रहा है और बेचने वाले सत्ता के लोग हैं। तो हम कब
तक दुख कहते-सुनते रहें। इस समस्या का कोई स्थाई समाधान तो होना ही चाहिए।
शायद
आपने ‘आज़ादी’ शब्द के व्यंग्यात्मक इस्तेमाल पर ध्यान नहीं दिया कि आज़ादी
के साये तले किस-किस तरह की आज़ादियां दी हुई हैं और कौन इन सबका बेज़ा
इस्तेमाल कर रहे हैं। यह ठीक तो नहीं ही है, यही बात हम भी आप तक पहुंचाना
चाह रहे थे। चूंकि यदि यह है, जो कि है ही तो फिर हमारी बहिष्कार की
अवधारणा, व्यवहार में कितनी प्रभावी और प्रांसगिक रह जाती है, या रह
जाएगी? यह एक भावनात्मक मुद्दा बनने के लिए अभिशप्त होगी, जहां यह इसके
कहने या मानने वाले लोगों तक सीमित होगी या उनके लिए भी दिखावटी होगी, या
जितना संभव हो पाए उतने की अवसरवादिता तक।
यानि कि संघर्ष इस बात
के लिए होना चाहिए कि हे हमारे हुक्मरानों, यह नहीं चलेगा, आप हमारे देश
की, हमारी संप्रभुता को गिरवी रख रहे हैं, समूचे देश को टुकडों-टुकड़ो में
बेचे जा रहे हैं और यह बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, ऐसी नीतियां बनाइए ताकि
हमें दूसरे विकसित देशों पर, उनकी शर्तों पर निर्भर नहीं रहना पड़े या कम
से कम होना पड़े, ऐसी योजनाएं लाइए कि हमारे देश की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित
हो सके। आत्मनिर्भरता ही वास्तविक संप्रभुता की ओर पहला कदम होता है। अब
इस संघर्ष के साथ, और दवाब बनाने की एक तात्कालिक रणनीति के तहत बहिष्कार
बगैरा जैसे कदम भी उठाए जा सकते हैं। कई ओर भी, पर वह इस मुख्य मुद्दे के
अंतर्गत साथ देने वाले तात्कालिक उपाय होंगे जो कि इस मुख्य लड़ाई को तेज़
करने, आम करने, प्रभाव बढ़ाने की रणनीति के तहत होंगे तो शायद ये अधिक
प्रभावी हो पाएं।
अब विकल्प तो दो ही हैं। या तो हम ऐसे ही चलने दें या समतामूलक समाज के लिए अपने लक्ष्य के पूर्व कम से कम आर्थिक क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय चोरों से दूर रहें। आर्थिक मामलों में स्वदेशी का सिद्धान्त मुझे सही लगता है
ऐसा कीजिए तीन विकल्प रख लीजिए। एक - या तो ऐसे ही चलने दें, दूसरा - ऐसी सत्ता-व्यवस्था को उखाड़ फैंकें और वैकल्पिक इच्छित व्यवस्था को लागू कर दें, तीसरा - जब तक सत्ता उखाड़ कर ना फैंकी जा पा रही है, तब तक के लिए सत्ता को उखाड़ फैकने के मुख्य दूरगामी लक्ष्यों की तरफ़ बढ़ने के लिए, तात्कालिक रणनीतियों के तहत, फौरी लक्ष्यों जैसे कि नीतियों के खिलाफ़ संघर्ष, संप्रभुता के खिलाफ़ जाने वाली नीतियों पर, निजीकरण किए जाने और राज्यसत्ता की सार्वजनिक जिम्मेदारियों को सीमित या खत्म किए जाने की नीतियों पर, मुनाफ़ाखोरी, महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, भाषा के बारे में काम में ली जा रही नीतियों के खिलाफ़, जनता की और भी कई स्थानीय या सार्विक तकलीफ़ों के खिलाफ़ छुटपुट संघर्ष छेड़े, उन्हें व्यापक बनाएं। जनचेतना को इन संघर्षों के दौरान बढ़ाएं, उसको अंतिम लक्ष्यों की चेतना से जोड़ें, और भावी लंबे और बड़े संघर्षों के लिए तैयारी करें। इस तीसरे विकल्प की रणनीतियों के तहत, आप द्वारा अभी तक कही गई सारी बातों को उनकी कमियों को दूर करके रखा जा सकता है। पर उनको मुख्य बना लेने पर, एक या दो बातों पर ही सिमट जाने पर इन संघर्षों या आंदोलनों का क्या हश्र हो सकता है यह इसी तरह के और भी कई आंदोलनों के अनुभवों में देखा जा सकता है।
अब विकल्प तो दो ही हैं। या तो हम ऐसे ही चलने दें या समतामूलक समाज के लिए अपने लक्ष्य के पूर्व कम से कम आर्थिक क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय चोरों से दूर रहें। आर्थिक मामलों में स्वदेशी का सिद्धान्त मुझे सही लगता है
ऐसा कीजिए तीन विकल्प रख लीजिए। एक - या तो ऐसे ही चलने दें, दूसरा - ऐसी सत्ता-व्यवस्था को उखाड़ फैंकें और वैकल्पिक इच्छित व्यवस्था को लागू कर दें, तीसरा - जब तक सत्ता उखाड़ कर ना फैंकी जा पा रही है, तब तक के लिए सत्ता को उखाड़ फैकने के मुख्य दूरगामी लक्ष्यों की तरफ़ बढ़ने के लिए, तात्कालिक रणनीतियों के तहत, फौरी लक्ष्यों जैसे कि नीतियों के खिलाफ़ संघर्ष, संप्रभुता के खिलाफ़ जाने वाली नीतियों पर, निजीकरण किए जाने और राज्यसत्ता की सार्वजनिक जिम्मेदारियों को सीमित या खत्म किए जाने की नीतियों पर, मुनाफ़ाखोरी, महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, भाषा के बारे में काम में ली जा रही नीतियों के खिलाफ़, जनता की और भी कई स्थानीय या सार्विक तकलीफ़ों के खिलाफ़ छुटपुट संघर्ष छेड़े, उन्हें व्यापक बनाएं। जनचेतना को इन संघर्षों के दौरान बढ़ाएं, उसको अंतिम लक्ष्यों की चेतना से जोड़ें, और भावी लंबे और बड़े संघर्षों के लिए तैयारी करें। इस तीसरे विकल्प की रणनीतियों के तहत, आप द्वारा अभी तक कही गई सारी बातों को उनकी कमियों को दूर करके रखा जा सकता है। पर उनको मुख्य बना लेने पर, एक या दो बातों पर ही सिमट जाने पर इन संघर्षों या आंदोलनों का क्या हश्र हो सकता है यह इसी तरह के और भी कई आंदोलनों के अनुभवों में देखा जा सकता है।
बहुराष्ट्रीय और साम्राज्यवादी कम्पनियों की बातों पर हमारी बहुत हद तक सहमति अब भी है स्वदेशी वालों से। शायद कुछ इस तरह कि हमारे गाँव में दो किस्म के चोर आते है, एक दूर के हैं और दूसरे अपने गाँव-पड़ोस के हैं तो हमें पहले दूर वालों से निपटना चाहिए। गाँव वालों का स्थान उनके बाद आता है। हम चोरों-चोरी के खिलाफ़ तो हैं ही।
आपका
मन अभी अपनी अनुकूलित अवधारणाओं में उलझे रहना अधिक सहज महसूस करता है। यह
कोई बुरा लक्षण भी नहीं है, ऐसी स्थिरता की मानसिकता के साथ, धारणाओं और
मान्यताओं को बदलने में थोड़ा अधिक श्रम तो होता है, पर नई प्राप्त स्थिति
के भी इसी तरह स्थिर रहने की संभावना भी यहीं अधिक होती है। शनैः शनैः
चीज़ें अपना आकार लेंगी। यह कहा जाता है, जो जल्दी गर्म होता है वह ठंड़ा भी
जल्दी ही होता है।
आपने यह गांव वाला उदाहरण अच्छा दिया है। ऐसा भी
किया जा सकता है, पर जोखिम यह होता है कि बाद में अपने गांववालों से
निपटना अक्सर मुश्किल हो जाता है। क्योंकि गांव के चोर भी, बाहर वालों से
इस लड़ाई में साथ होते हैं। चोर चोर ही होते हैं तो जाहिर है उनके पास समझ,
तकनीक, धन-साधन अधिक हो सकते हैं, उनके व्यक्तिगत गुण-अवगुण इस लड़ाई की
प्रक्रिया में लोकप्रिय हो सकते हैं, वे कई कारणों से गांववालों में अपना
और अपने मूल्यों का प्रभाव जमा सकते हैं। इसके अलावा क्योंकि वे भी चोर
हैं, और बाहर वाले भी चोर ही हैं, तो उनके मूल्यों और हितों में एक एकरसता
होती है जिसके कारण वे उनसे कोई आंतरिक समझौता कर सकते हैं, लड़ाई को भी
कमजोर कर सकते हैं, हो सकता है लड़ाई का रुख ही मोड़ दिया जा सकता है। चोरी
को छोडकर किन्हीं और ही कम महत्त्वपूर्ण सवालों में गांववालों को उलझाया
जा सकता है। हो सकता है वे गांव वालों के साथ, अपनी इस मुख्य लड़ाई को
छोडकर किसी मंदिर-मस्ज़िद, जाति, पक्की कचहरी, विकास आदि के नाम पर दूसरी
ही चीज़ों में उलझाकर रख दिये जाएं। और इन चीज़ों में बाहर के चोरों की
आर्थिक या तकनीक की मदद के लिए भी तर्क गढ़ लिये जाएं और उनका इस विकास में
अनिवार्य योगदान अपरिहार्य सा लगने लगे। हो सकता है इस लड़ाई की शुरुआत
करने वाले मूलगामी व्यक्तियों को धीरे-धीरे प्रलोभनों में लाकर उन्हें भी
अपने साथ ले आया जाए, और जो तैयार नहीं हों उन्हें आतंकवादी,
विकास-विरोधी, नक्सली बगैरा बता कर मुख्यधारा से अलग कर दिया जाए, उन्हें
नष्ट कर, मारकर, रास्ते से ही हटा दिया जाए।
आप शायद पहुंच रहे
होंगे कि हमारे इशारे किस तरफ़ जा रहे हैं। बाहरी चोरों यानि अंग्रेजों से
हमारे देश की लड़ाई कुछ ऐसी ही नहीं थी? और भी ऐसी ही कई लड़ाइयों और उनके
हश्रों के प्रत्यक्ष उदाहरण क्या हमारे सामने नहीं हैं?
तात्कालिक
तौर पर कोई भी रणनीति अपना ली जाए, यदि लड़ाई को बाहरी या आंतरिक के कम
महत्त्वपूर्ण मामले में ना उलझाकर यदि गांववाले अपनी लड़ाई को सिर्फ़ चोरी
और चोरों के खिलाफ़, ऐसी व्यवस्था के खिलाफ़ जो इनका होना संभव बनाए रखती
हैं, के खिलाफ़ केंद्रित रखते हैं तो अधिक बेहतर ना रहेगा? चोर या चोरी के
खिलाफ़, चाहे वे बाहरी हो या आंतरिक, एक साथ दोनों के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी जाना
अधिक बेहतर रहने की संभावना है।
आप इससे परिचित हैं, भगतसिंह के
विचार और व्यवहार जो आकार ले रहे थे, उन्हें याद करें। उन जैसे कई
क्रांतिकारियों की लड़ाई इन्हीं बाहरी चोरों के खिलाफ़ शुरू हुई थी, पर वे
धीरे-धीरे इस विचार तक आ पहुंचे थे कि हमारी लड़ाई सिर्फ़ अंग्रेजों के
खिलाफ़ नहीं है, यह तब तक जारी रहेगी जब तक कि एक मनुष्य द्वारा दूसरे
मनुष्य का, और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण की अवस्थाएं
पूर्णतया समाप्त नहीं कर ली जातीं। वे इस विचार तक आ पहुंचे थे कि अपनी
लड़ाई को इन्हीं मूलभूत चीज़ों के आधार पर लड़ना होगा, बाहरी और आंतरिक दोनों
मोर्चों पर एक साथ।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।